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महावीर का अन्तस्तल
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मनुष्यों को ही इतना ऊंचा कार्यक्रम दिया जासकता है क्योंकि जनसाधारण तो बाहरी फलाफल का विचार करके ही किसी मार्ग को अपनाता है । इसलिये वह संयम का पालन भी बाहरी फलाफल के विचार से करेगा, पर जगत की आज ऐसी व्यवस्था नहीं हैं कि जो संयमी हो वे बाहरी दृष्टि से भी सफल हो और जो असंयमी हों वे असफल संयम और सफलता का बहुत कुछ सम्बन्ध है, और इसी जीवन में भी संयमी आदमी बहुत सुखी या सफल पाया जाता है फिर भी इस सम्बन्धनियम के अपवाद भी बहुत से दिखाई देते हैं। उन अपवादों को देखदेख कर अधिकांश आदमी संयम का पथ छोड़कर किसी भी तरह बाहरी सफलता का मार्ग पकड़ते हैं । इस प्रकार असंयम की भरमार से सारा संसार दुखी होता है। दीर्घ दृष्टि से विचार किया जाय तो सत्य और संयम से ही सुख का सम्बन्ध मालूम होगा, पर ऐसी दो दृष्टि सब में है कहां ?
इस उलझन को सुलझाने के लिये स्वर्ग नरक आदि का विवेचत करना आवश्यक है । लोकावधि ज्ञान से मैंने इनकी रूपरेखा बना ही ली है । इन सब बातों के बारे में मुझे लोगों के प्रत्येक प्रश्न का समाधान करना पड़ेगा, और मुझे सर्वज्ञ कहलाना पड़ेगा | इसके बिना लोगों का समाधान न होगा, वे विश्वास न करेंगे उनके जीवन में संयम त्याग उदारता आदि आ न सकेंगे या आकरके टिक न सकेंगे I
सर्वज्ञ को यह जरूरत है कि वह वर्तमान के साथ भूत भविष्य का स्पष्ट और पर्याप्त ज्ञान रखता हो । आज की बुराई भलाई किन कारणों का फल है और आज की बुराई भलाई का आगे क्या परिणाम होगा, इस प्रकार भूत भविष्य और वर्तमान का इतना ज्ञानी हो कि लोगों की जिज्ञासाओं को सन्तुष्ट कर सके इस प्रकार वह त्रिकालदर्शी हो । पुण्यपाप का फल बताने के