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महावीर का अन्तस्तल
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: सोमिल-मुझे बहुत सन्तोप हुआ। मैं श्रमण तो नहीं
बन सकता पर आप मुझे अपना उपासक समझे । : मैंने कहा-जिसमें तुम्हें सुख हो वही करो।
९६-श्रमणोपासक परिव्राजक २१ जिन्नी ६५६२ इ. सं.
तीसवां वर्षावास मैंने वाणिज्यग्राम में ही किया । और भ्रमण करता हुआ काम्पिल्यपुर आया। यहां अम्मड परिव्राजक रहते हैं । सातसा परिव्राजक इनके शिष्य है । इन सरने मेरा धर्म स्वीकार कर लिया है फिर भी बाहर से ये परिव्राजक वेप में ही रहते हैं।
अम्मड की बहुत प्रतिष्ठा है, इन्हें. अनेक तरह की ऋद्धियाँ परात हैं।
श्रमणोपासक होजाने पर भी गौतम को उनके धर्म में कुछ सन्देह हुआ और अम्मड के बारे में गौतम ने पूछा।
मैंने कहा-अम्मड का भीतरी और बाहरी आचार बहुत शुद्ध है। उनन सम्यक्त्व भी पाया है और बारह व्रतों का पालन भी करते हैं। यही तो धर्म है। अगर वे परस्परागत वेप को नहीं छोड़ते तो इससे उनके पुण्यमय जीवन में कोई अन्तर नहीं आता। गौतम को मेरी बात ले सन्तोष हुआ।
९७ -गांगेय १२ बुधी ९४६३ इ. सं. इकतीसवां वर्षावास वैशाली में बिताया और काशी