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महावार का अन्तस्तल
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सुनने के बाद से उसमें कैसा हाहाकार मचा हुआ है !
यह कहते कहते उनके आंसुओं से मेरे पैर धुलने लगे। - मैंने कहा-माताजी के पास जाने का उलहना नहीं देरहा
९ देवि! वह तो तुम्हारा अधिकार था और उचित भी था । मैं __ तो सिर्फ अपने मन की अधूरी . वात का पूरा खुलासा कर देना चाहता हूँ।
यह कहते कहते मैंने देवी को अठाकर खडा किया। उनने अपना सिर मेरे वक्षःस्थल पर टिका दिया मेन अपने उत्तरीय से उनके आंसू पोंछे । क्षणभर शांत रहने के बाद मैंने कहा-मैं जो तीन दिन पहिले तुम से वात कहना चाहता था . चह नहीं कह पाया था। उस दिन चर्चा अकस्मात् ही कहीं से कहीं जा पहुंची।
देवी ने कहा-उस दिन सचमुच चर्चा वेढंगी होगई, मैंने ही अपनी सूर्खता से एक अटपटा प्रश्न पूछ लिया।
मैं-प्रश्न तो अटपटा नहीं था पर न जाने क्यों वात कहीं से कहीं जा पहुँची। खैर! अब कह देता हूँ। यद्यपि अब मैं माताजी को वचन दे चुका हूँ पर अगर न भी देता ता भी जब तक तुम्हें में अपने निष्क्रमण की उपयोगिता न समझा देता तव तक निष्क्रमण न करता । हां, यह होसकता है कि धीरे धीरे मेरी मनोवृत्ति और दिनचर्या ऐसी बदल जाय कि शायद तुम्हारे लिये मेरा जीवन उपयोगी न रहजाय ।
देवी कुछ देर सोचती रही, फिर बोली-आपका नित्यः दर्शन ही मुझे पर्याप्त है देव ! आपका हाथ मेरे सिर पर रहे, आपके वक्षःस्थल पर कभी कभी सिर टिका सफू इतनी भिक्षा की मैं भिक्षुणी हूँ। मैं जानती हूँ कि आप सिर्फ एक राजकुमार ही नहीं हैं, एक राजकुमारी के पति ही नहीं है, किन्तु लोकोत्तर