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महावीर का अन्तस्तल
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पिताजी, मां की यह बात सुनते ही मेरी तो छाती फटसी गईं । मैं उनसे चिपटकर बड़ी देर तक रोई पर अपने आंसुओ से उनके मन की आग बुझान सकी । इसके बाद सात ही दिनमें मुझे उनके दर्शन मृत्युशय्या पर करना पड़े । जाने के कुछ ही पहिले उनने इतना ही कहा- 'जाती हूं बेटी, जाने के पहिले उन्हें देख न सको ।
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मैंने रोते रोते बहुत कहा- मेरे लिये कुछ दिन और रहो मां ! पिताजी भी किसी न किसी दिन आयेंगे. पर मेरी बात वे सुन न सकीं और चली गई। आप बहुत देर से लौटे पिताजी ! प्रियदर्शना भावावेग में थे, उसकी बातें सुनकर मेरे आसपास बैठे हुए इन्द्रभूति आदि के भी आंसू बहने लगे। बहने को तो मेरे आंसू भी अत्सुक थे, पर मैंने उन्हें वही कठोरता के साथ रोक रक्खा | सोचा यदि आज मेरे भी आंसू बहने लगेंगे तो जगत् के बहते हुए आलुओं को मैं कैसे रोक सकूंगा ।
इसलिये मैंने वात्सल्य और गम्भीरता का समन्वय करते हुए कहा- रो मत बेटी, तेरी मां ऐहिक कर्तव्य पूरा करके गई हैं । अब उसके बाद का स्वपरकल्याणमय जो कर्तव्य तुझे पूरा करना है, जिसके लिये तेरी मां ने तेरा निर्माण किया है, उसे पूरा करने की कोशिश करना !
प्रियदर्शना ने आंसू पोते हुए कहा उसके लिये जो आप आज्ञा देंगे वही करूंगी पिताजी ।
इतने में आई देवानंदा, उसका पति कपमदत्त भी उसके साथ था। देवानन्दा निर्निमेष दृष्टि से मुझे देखती रही, उसके हृदय से मातृस्नेह उमड़ पड़ा, स्तनों में दूध आगया। दूसरे लोगों की तरह वह वंदना करना तो भृलगई और उसके मुँह से सहसा निकल पहा- बेटा !
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