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महावीर का अन्तस्तल
मैं वहां से रवाना होगया पर इस घटना पर नाना दृष्टिकोणों से विचार करता रहा । जगत शक्ति अधिकार वैभव आदि के द्वारा ही महत्ता को देखता है वास्तविक महत्ता को वह नहीं पहिचान पाता । मनुष्य में यह एक तरह की पशुता हैं। विवेक पैदा करके ही इस पशुता की चिकित्सा की जासकती है ।
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पर इन सब बातों के पहिले मुझे अपनी ही चिकित्सा करना चाहिये । इसके लिये मैंने नियम बनाया कि मुझे योग्य अधिकारी की आज्ञा बिना न तो नाव का उपयोग करना चाहिये न गृहादिका | भविष्य में अपने तीर्थ की साधु संस्था के लिये भी मैं यह नियम बनाहूंगा ।
५१ - अवधिज्ञाना आनन्द
६ वुधी ६४४१ इ. सं.
वाणिजक ग्राम में आनन्द वास्तव में सद्गृहस्थ हैं । यह महर्द्धिक होने पर भी तपस्वी ज्ञानी और विनीत है। मुझे तीर्थ स्थापना के बाद ऐसे ऐसे उपासकों की आवश्यकता होगी। जब से मैं इस ग्राम में आया हूं तब से यह प्रतिदिन मेरे पास आया करता है, तत्वचची करता है, मेरी तपस्या और विचारों की प्रशंसा करता है और अनुरोध करता है कि मैं तर्थिस्थापना करूं । पर मैं अपनी त्यों को जानता हूं । बहुत कुछ दूर होगई हैं, एक दो वर्ष में और भी दूर हो जायेंगी तब में जिन बनकर तीर्थ स्थापना करूंगा । आनन्द मेरे इन विचारों से सहमत है | आनंद स्वयं भी विचारक विद्वान है ।
एक दिन आनन्द ने कहा- मुझे स्वर्ग और नरक का प्रत्यक्ष होता है भगवन !
मैंने पूछा- क्या तुम्हें सारे लोक का प्रत्यक्ष होता है ?