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महावीर का अन्तस्तल
सकूंगा जिससे अपने को जिन अर्हत् या बुद्ध कह सकूं। उस समय जो ज्ञान होगा वह विशुद्ध ज्ञान होगा, निर्लिप्त ज्ञान होगा, केवलज्ञान होगा ।
आज इस दुःस्वप्ने संयम और ज्ञान का सच्चा स्वरूप दिखा दिया है जो निकट भविष्य में पूर्ण होगा ।
५७ क्या लूटे ?
४ चिंगा ६४४१ इ. सं.
चैत्य से निकलकर मैं चालुकग्राम की तरफ चला । वालुकाम यथानाम तथागुण हे । असके चारों तरफ बहुत दूर तक बालु ही वालु है । यहां चाहे दिन हो चाहे रात, छिपने की कोई जगह नहीं है इसलिये चोर यहां नहीं रहते, डां हां रहत हैं जो यात्रियों के समान समूह बनाकर चलंत हैं और इक्के दुक्के राहगीर को मारपीटकर लूट लेते हैं ।
मैं जब बालु के मार्ग में से जा हा था तब दूर से इन डाकुओ ने मुझे देखा और दौड़ते हुए मेरे पास आये । पर मुझे देखकर बहुत निराश हुए। मेरे पास लूटने योग्य तो कुछ था ही नहीं, पर शरीर पर कोई चीर भी नहीं था जिसके भीतर किसी वस्तु के छिपाने का कोई सन्देह होसके और सन्देह के नाम पर मुझे तंग किया जासके । एक डांक बोला- अब इसे नंगे का क्या लट ?
दूसरे को मजाक सूझा। बोला-मामाजी, अपने इन भानेजों को कुछ न दोगे ? -
तीसरा बोला- अच्छा तो अपने बच्चों को गोद में ले लीजिये ।
यह कहकर वह मेरे कंधे से लटक गया। इसके बाद भी लटक गया। बाद में और डां भी चारों तरफ लटक
दूसरा