________________
वीर का अन्तस्तल
1
२६ - वस्त्र छूटा
३० सत्येशा ६४३३ इ. सं.
-
आज मैं दक्षिण चावाल से उत्तर चावाल की तरफ जा रहा था । सुवर्ण वालुका नदी के किनारे कटीली झाड़ियों के बीच में मार्ग चलने में बड़ा कठिनाई मालूम हुई । मैं बहुत सम्हल सम्हल कर चल रहा था कि एक गड्ढे के कारण लम्बा कदम भरना पड़ा । मैं तो आगे बढ़गया पर मेग वस्त्र कांटों की एक झाड़ी में बुरी तरह फैनकर रहगया । में कांटों में से वस्त्र निका लने के लिये लौटा पर वस्त्र कांटों में इतनी जगह फस गया था कि जल्दी न निकला बस्त्र निकालते निकालते मेरे मनमें विचार आया कि आखिर यह जंजाल क्यों ? मैं अपनी गति को अप्रतिहत रखना चाहता हूँ. वत्र अगर उसमें बाधा देता है तो वह भी जाय | यह विचार आते ही मैंने हाथ खींच लिया । वस्त्र वहीं रहने दिया । यद्यपि मैं मानता हूँ कि हर एक साधु को वस्त्र त्याग अनिवार्य नहीं है फिर भी मैंने वस्त्र न रखने का ही निश्चय कर लिया है ।
[ १११
२७ अहिंसा की परीक्षा
४ मम्भेशी ९४३३ इ. सं.
मैं श्वेताम्बी नगरी तरफ जारहा था कि एक जगह मार्ग: को दो भागों में विभक्त देखा। मैं निश्चय न कर सका कि इनमें से श्वेताम्बी का मार्ग कौन है ? पास में कुछ ग्वाल वालक खेल रहे थे | मैंने अनसे पूछा तो उनने कहा- दोनों ही मार्ग श्वेताम्बरी: की तरफ जाते है। पर बायें हाथ की पगडंडी से श्वेताम्बी : निकट है और दाहिने हाथ के मार्ग से काफी चक्कर है।
मैंने कहा पर बायें हाथ की पगडंडी अधिक चलती नहीं
-