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८२. ]
महावीर का अन्तस्तल
देवी ने अपने आंसू पोंछ लिये । क्षणभर रुककर बोलींक्षमा कीजिये देव, मेरा कोमल हृदय थोड़े से ही ताप से पिघलकर आंसू बनने लगता है। मैं तो समझती हूँ नारी में यह कोमलता, जिसे दुर्बलता ही कहना चाहिये, सहज है । पर मैं नारी की इस सहज प्रकृति पर विजय पाने का पूरा प्रयत्न करूँगी । आपकी पत्नी के योग्य भले ही न बन सकूँ, पर उसके गौरव की रक्षा तो करना ही है।
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मैं- नारी के हृदय की कोमलता को मैं दुर्बलता नहीं कह सकता दोवे ! वह कोमलता ही तो धर्मों का, सभ्यताओं का मूल है । नारी का यह पिघलता हुआ हृदय जब अपनी असंख्यधाराओं स दसों दिशाओं को व्याप्त करलेता है तब वही तो 'सत्वेषु मैत्री' वन जाता है, वही तो भगवती अहिंसा की त्रिपथगा मूर्ति वनजाता है; और जब उसे कोई पुरुष पाजाता है तब देवता कहलाने लगता है । इसलिये उसे दोष समझकर उसपर विजय पाने की कोशिश न करो ! किन्तु उसे फैलाओ । इतना फैलाओ कि संसार का प्रत्येक प्राणी तुम्हें प्रियदर्शना सा मालूम होने लगे और मेरा निष्क्रमण असंख्य प्रियदर्शनाओं की सवा में लगा हुआ दिखाई देने लगे ।
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देवी ने एक गहरी सांस ली और कहा- ऐसा ही करूंगी देव, मैं आपका अनुसरण तो नहीं कर पाती पर थोड़ा बहुत अनुकरण करने का यत्न अवश्य करूंगी । अनुसरण अगर इस जन्म में न होसका तो अगले जन्म में अवश्य होगा ।
इतने में कुक्कुट का स्वर सुनाई दिया । मैने कहाउपाकाल आगया है देवि !
देवी उठीं, बोलीं- तो जाती हूँ, प्रियदर्शना जागं कर रोने नलगे । यह कहकर वे आंसू पोंछती हुई चली गई ।