Book Title: Digambaratva Aur Digambar Muni
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Sarvoday Tirth
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियारकारला और दिगारूदार सुनि ( लेखक स्व. श्रीयुत् वाबू कामताप्रसाद जी जैन एम.आर.ए.एस. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बरत्व और विग-नर मुनि DIGAMBAAATVE AOUR DIGAMBAR MUNI पंचम संस्करण प्रतियाँ ३००० प्रकाशकश्री दिगम्बर जैन सर्वोदय तीर्थ, अमरकंटक, शहडोल (म.प्र.) अर्थ सौजन्यशीलचन्द्र जैन भीटावाले शहपुरा भिटोनी वीरेन्द्र (धीरू) खोवा वाले जवाहरगंज, जबलपुर अरविन्द जैन (चांवल वाले) जवाहरगंज, जबलपुर मुद्रकआनंद सिंघई, सिंघई आफसेट 869, सराफा जबलपुर फोन - 341006, 343239 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | विषय-सूची पृष्ठ २० ३३ ३७ ३९ ७१ ७३ १. दिगम्बरत्व (मनुष्य की आदर्श स्थिति) १३ २. धर्म और दिगम्बरत्व ३. दिगम्बरत्व के आदि प्रचारक ऋषभदेव ४. हिन्दू धर्म और दिगम्बरत्व ५. इस्लाम और दिगम्बरत्व ६. ईसाई मज़हब और दिगम्बर साधु ७. दिगम्बर जैन मुनि ८. दिगम्बर मनि के पर्यायवाची नाप ९. इतिहासातीत काल में दिगम्बर मुनि १०. भगवान महावीर और उनके समकालीन दिगम्बर मुनि ११. नन्द साम्राज्य में दिसम्बर मत १२. मौर्य सम्राट और दिगम्बर मुनि १३. सिकन्दर महान् एवं दिगम्बर मुनि १४. सुंग और आन्ध्र राज्यों में दिगम्बर मुनि ७६ १५, यवन छत्रप आदि राजागण तथा दिगम्बर मनि १६. सम्राट ऐल खारवेल आदि कलिंग नृप और दिगम्बर मुनियों का उत्कर्ष ७९ १७. गुप्त साम्राज्य में दिगम्बर मुनि । १८. हर्षवर्द्धन तथा ह्वेनसांग के समय में दिगम्बर मुनि १९. मध्यकालीन हिन्दू राज्य में दिगम्बर मुनि २०. भारतीय संस्कृत साहित्य में दिगम्बर मुनि २१. दक्षिण भारत में दिगम्बर जैन मुनि २२. तमिल साहित्य में दिगम्बर मुनि २३. भारतीय पुरातत्य और दिगम्बर मुनि २४. विदेशों में दिगम्बर मुनियों का विहार १४५ २५. मुसलमानी बादशाहत में दिगम्बर मुनि १४८ २६. ब्रिटिश शासनकाल में दिगम्बर मुनि १५८ २७. दिगम्बरत्व और आधुनिक विद्वान् १६५ २८, उपसंहार १७० अनुक्रमणिका १७५ ও ८२ .८६ १०३ १११ १२३ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृति के नेपथ्य से" अजित जैन भारतीय संस्कृति की अति प्राचीन दो धारायें हैं । वैदिक संस्कृति एवम् श्रमण संस्कृति । दोनों ही संस्कृतियों प्राचीनतम् व पौराणिक हैं। श्रमण संस्कृति दिगम्बरत्न एवं वीतराग मार्ग की परिचायक है। वीतरागी मुनिराजों का वर्णन वैदिक साहित्य में भी मिलता है । ऋग्वेद, मनुस्मृति आदि वैदिक ग्रंथों में दिगम्बर मुनिराजों का वर्णन वातरसना मुनि की संज्ञा से प्राप्त होता है । पौराणिक साहित्यविद् तो शिव को दिगम्बरत्व के ही प्रतीक निरूपित करते हैं । श्रमण संस्कृति जिसे दिगम्बर संस्कृति ही कहा जाता है, अहिंसा, अपरिग्रह, तप, त्याग व संयम की शिखर यात्रा की द्योतक है। भगवान ऋषभदेव ने असि मसि कृषि के मूल्यवान सिद्धांतों का प्रतिपादन कर व्यक्ति के अंतरग एवं बहिरंग दोनों ही तलों पर उन्नयन की शिक्षा प्रदान की थी । भारतीय संस्कृति का प्राचीन इतिहास उन विविध घटनाओं को प्रदर्शित करता है, जो विध्वंस, विनाश, युद्ध एक आक्रमण की घटनाओं से भरा है। इस विसंगति के बीच दिगम्बरत्व की अवधारणा ने अहिंसा, शांति, और समता जैसे शाश्वत् सिद्धांतों का प्रतिपादन किया तथा भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर तक चौबीस तीर्थकरों ने अपने जीवन को निर्ग्रन्थ निष्पहिता, निर्वस्त्रता से अभिभूत कर तपस्या के मार्ग में लगाया था एवं दिगम्बरत्व की अवधारणा, भारतीय सांस्कृतिक चेतना की धरोहर बन गई थी । विगत पच्चीस सौ वर्षो के लगभग पूर्व भगवान महावीर दिगम्बर परम्परा के अंतिम चौबीसवें तीर्थकर हुए है। महावीर के लगभग ढाई सौ बर्ष पूर्व भगवान पार्श्वनाथ तेईसवें तीर्थकर थे। उनके पूर्व जो बाईस तीर्थकर हुये हैं, उनका समय एक दीर्घ अंतराल का है अस्तु सामान्य जन भगवान महावीर से जैन धर्म का उद्भव मानते हैं, जो उनकी भूल है | इसी प्रकार भगवान बुद्ध के बौध्द धर्म को जैन धर्म कालीन था समझने की भी भूलें सामान्य एवम् सतही अध्ययन करने वालों से होती है । इस प्रश्न को प्रसंग से परे न जाते हुये दिगम्वरत्व और दिगम्बर मुनि परम्परा का प्रतिपादन विश्व जमीन धर्मों में कहाँ हुआ है, किन ऐतिहासिक राज घरानों में दिगम्बर मुनि को सम्मानित किया जाकर उनकी देशना को स्वीकाग गया है, इस पर ही विचार करना है । विश्व सभ्यता में जैन संस्कृति एवं इसके उपासक - साधक कुछ कारणों से इतर सभ्यता, संस्कृति और दर्शन के जगत में भित्र माने जाते हैं। जैसे, इसके साधक Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर अर्थात नग्न रहते हैं। इसके उपासक शाकाहारी एवं रात्रि भोजन के त्यागी होते हैं तथा इसके चिंतन व दर्शन में नर नारायण नहीं बनता है बल्कि आवागमन के चक्कर से मुक्त होकर मुक्त जीव हो जाता है । विश्व सभ्यताओं एवं धर्मो में बैसा चिंतन दर्शन नहीं पाया जाता है । I दिगम्बर मुनिराजों की परम्परा में एक लंबा अंतराल आया लेकिन नये सौ वर्षों के भीतर पुनः दिगम्बर मुनिराजों की प्रभावना ने आकार प्रकार पाना प्रारंभ किया है 1 आचार्य शांति सागर व आचार्य अंकलीकर अर्वाचीन सभ्यता में दिगम्बर मुनिराजों की श्रृंखला में अग्रणी हुये एवम् तेजी से दिगम्बरत्व की अवधारणा ने धर्म व साधना के जगत में प्रवेश करना प्रारंभ कर दिया। विश्व के अनेकों धर्म तथा राजघरानों से दिगम्बर मुनिराजों को स्वीकारने के तथ्य को समझना आज के इस परिवेश में अपरिहार्य हो गया है कि चिंतन की यह धारा एवम् संयम व साधना को दिगम्बरत्व जीवन शैली का प्राचीन इतिहास क्या है एवं आज के परिवेश में उस उपादेयता क्या है । मंगल ग्रह की ओर भागती ये सभ्यता तथा देश भर में तेजी से प्रभावना में साधना रत दिगम्बर साधुगणों का भारतीय सभ्यता में जुड़ना आकलन के योग्य है। आचार्य विद्यानंद व आचार्य विमलसागर जी महाराज सहित तरुण पीढ़ी के युवा तपस्वी आचार्य विद्यासागर जी महाराज जैसे लगभग ३००-४०० दिगम्बर मुनिराजों ने इस आण्विक सभ्यता व बौद्धिक उन्माद से ग्रस्त व्यवस्था के बीच अपनी वीतरागता, दिगम्बरत्व एवं अपरिग्रहिता व शांति, समता, सहिष्णुता सम भाव की अहिंसक शैली ने चुनौती प्रस्तुत कर दी है । यह कृति दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि उक्त परिप्रेक्ष्य में पठन, चिंतन, व मनन योग्य है । लेखक स्वर्गीय बाबू कामता प्रसाद जी ने इस कृति में जो परिश्रम एवं पुरुषार्थ किया गया है वह अतुलनीय है, एवं इसके पुर्न- प्रकाशन हेतु सर्वोदय तीर्थ समिति अमरकण्टक के पदाधिकारी गणों ने जो रुचि प्रदर्शित की है वह प्रशंसनीय है। मैं ज्ञान ध्यान व तप में निरत् मानव उत्क्रांति के महाचेता, आत्म अनुसंधान के वीतरागी यात्री आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के युगल चरणों में त्रय बार नमोऽस्तु करते हुये भारतीय संस्कृति के प्रागंण में वर्तमान में वीतरागमार्ग की साधना में रतू उन समस्त पुनिराजों व साधुगणों को नमन करता हूं जो मानव की अन्तरंग एवं बहिरंग उत्क्रांति हेतु आत्म कल्याण कैसाथ मानव कल्याण हेतु साधना रत हैं । और क्या कहूँ - क्या लिखूँ ? अजित जैन Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांस्कृतिक चेतना मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसका गौरव, स्वाभिमान, उसकी प्राचीन सभ्यता, संस्कृति, साहित्य, स्थापत्य, वास्तु, शिल्प कला में निहित है। कर्थ वैभव सम्पन्न शिल्प मनुष्य को प्रतिष्ठा से जुड़े हुए तथ्य हैं। प्राचीनता इतिहास को कच्ची साम्रगी है। इतिहास रूपी भवन का निर्माण प्राचीनता की नींव पर ही होता है। जो समाज/जाति अपनी प्राचीनता की रक्षा नहीं कर पाई, उसका नाम इतिहास के पृष्ठों में या तो मिलता ही नहीं और यदि मिलता है तो कपोल कल्पना के आधार पर विकृत इतिहास ही जन-मानस के सामने आता है, उस जाति का दार्शनिक, सैद्धान्तिक, तात्विक स्वरूप ही बदल जाता है। अतः पूर्वजों, संस्थापकों, स्थिति पालकों की समूची साधना व्यर्थता को प्राप्त हो जाती है तथा उस जाति को स्थिति विश्व में सदैव बौनी ही रहेगी। भले ही आर्थिक, औद्योगिक स्थिति विकासशील उन्नत हो । प्रत्येक समाज/जाति अपनी परम्पराओं/ संस्कृति को उच्च प्राचीन रहस्यपूर्ण सत्य के निकट आदर्श मोक्षमार्ग युक्त सिद्ध करने का प्रयास करती है तथा अन्य समाज/जाति को संस्कृति रोति अव्यावहारिक, अकल्याणकारी सिद्ध करने का प्रयास करती है और जब वह इस प्रयास में सफल नहीं होती तब वह जाति / समाज अन्य संस्कृति पर आक्रमण के तेवर अपनाती है। आकमण के प्रथम चरण में प्राचीनता को नष्ट करना तथा साहित्य को समाप्त करना होता है। दिगम्बर संस्कृति सर्वप्राचीन विकसित अहिंसा, अपरिग्रह, तप, त्याग को पूर्ण व्यावहारिक रूप देने वाली एवं तीर्थ, शिलालेख, शिल्प, वैभव तथा साहित्य सम्पत्र वीतराग भावना युक्त तत्वनिष्ठ, निश्छल, शाकाहारी, करुणामय संस्कृति है। इसी कारण यह ईर्ष्या आक्रमण की पात्र रही दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुझे Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। इस संस्कृति पर दो प्रकार के आक्रमण हुए हैं। प्रत्यक्ष आक्रमण व परोक्ष आक्रमण। प्रथम आक्रमण का स्वरूप विध्वंसकारी, हिंसक, अपमानजनक रहा है। यह आक्रमण विधर्मियों द्वारा हुआ है तथा द्वितीय आक्रमण का स्वरूप इतिहास तथा आगम में परिवर्तन करके रीति-रिवाज, तत्व, तथ्य में संदेह पैदा करना रहा है। यह आक्रमण योजनाबद्ध प्रेम मिश्रित छल, भाईचारे एवं एकता की आड़ में धन के बल पर महावीर के शिष्यों ने अपनी हठपूर्ण शिथिलता के समर्थन में किया है। . हमारी संस्कृति को जनमत का समर्थन प्राप्त है तथा यह संस्कृति आज भी विश्व को आश्चर्यचकित करने वाली प्राचीन धरोहर की धनी हैं। किन्तु आक्रमण से बची हुई साम्रगी हमारी असावधानी, उपेक्षा, अने काग्रता, फूट. मत-भेद, जाति-भेद, पंथ-भेद के कारण सुरक्षा की आशा छोड़ चुकी है तधा जिनालय के अवशेष खंडहर, अथवा हस्तलिखित जिनवाणी दीमक की ग्राम कहीं बीहड़ जंगल में पड़े जिनबिम्ब अपने उन लाड़लों का स्मरण कर रहें हैं जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर कभी उनकी रक्षा की थी। इनको सम्पूर्ण आशा भावी युवाओं पर टिकी हैं, जो अपने आपसी जाति, पंथगत भेद पिटा कर प्रेम, त्याग, समर्पणपूर्ण संगठन को भावना दिगम्बर समाज में जागृत करके शारीरिक, आर्थिक, बौद्धिक, राजनैतिक शक्ति को संचित करके 'दिगम्बराःसहोदराः सर्वे सूत्र वाक्य के आधार पर रक्षा कर सकते हैं। अतः दिगम्बर संस्कृति की मौलिकता प्रापाणिकता सिद्ध करने हेतु एवं ऐतिहासिक पुरातात्विकत, शौर्यता, सत्यता की वास्तविक जानकारी कराने हेतु यह पुस्तक वाचू कामता प्रसाद जी को अमूल्य निधी है। इसका पुनः प्रकाशन हो ऐसी भावना पाप पूज्य आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी को रही है। इस प्रकाशन में उनका आशीष वचन मौखिक रूप से प्राप्त है तथा प्रकाशक संगठन भी धन्यवाद का पात्र है। दिगम्परत्व और दिगम्ग मुनि Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . मेरे दो शब्द पिछली गर्मी के दिन थे। “जैन मित्र" पढ़ते हुये मैंने देखा कि श्री भा, दि. जैन शास्त्रार्थ संघ. अम्बाला दिगम्बर जैन मुनियों के सम्बन्ध में ऐतिहासिक वार्ता एकत्र करने के लिये प्रयत्नशील है। यह विप्नि पढ़कर मुझे बड़ा हर्ष हुआ। इनहास में मुझे प्रेम है। मैं तब इस विर्सन के फल को देखने की उत्कण्ठा में था कि एक गेज मुझं सघ के महामंत्री प्रिय राजेन्द्र कुमार जी शास्त्री का पत्र मिला। मंगे उत्कष्टा चिन्ता में पलट गई। पत्र में मांधानिशीघ्र दिम्बा मुनियों के इतिहास विषय को एक वृहत पुस्तक लिख देने की प्रेमा थी। उस प्रेरणा को यों ही टाल देने की हिम्मत भला कैसे होती? उस पर वह प्रेग्णा वस्तुतः माय की आवश्यकता और धर्म की पुकार थी। मुनि धर्म मोक्ष का द्वार है. दिगम्बग्वं उस धर्म की कुञ्जी है। नारामा लोग उस कुती को तोड़ने के लिये पार करने को उतारू हों, तो भत्ला एक धर्मवत्सल कैसे चुप रहे? बम, सामर्थ्य और शक्ति का ध्यान न करके बड़े मंकोच के साथ मैंने संघ का उक्त प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। उस स्वीकृति का ही फल प्रस्तुत प्रस्तक है। पुस्तक क्या है? कैसी है? इन प्रश्नों का उगर देना पेग काम नहीं है। मैन तो मात्र धर्म भाव में प्रेरित होकर 'सत्य' के प्रचार के लिये उसको लिख दिया है। हिन्दू-मुसलमान-ईसाई- यहूदी-पत्र ही प्रकार के लोग उसे पढ़ें और अपनी बुद्धि को तर्क तराजु पर तौलें और फिर देखें, दिगम्वरत्व मनुष्य समाज की भलाई के लिये कितनी जरूरी और उपयोगी चीज है। इस्य रीत की परख ही उन्हें इस पुस्तक की उपयोगिता बता देगी। हाँ, यह लिख देना में अनुदित नहीं समझता कि अखिल भारतीय दिगम्बर मुनि रक्षक कमेटी ने इस पुस्तक को अपने काम में सहायक पाया है। 'असम्बलो' में दिगम्बर मुनिगण के निर्बाध विहार विषयक बिल' को उपस्थित कराने के भाव में इस पुस्तक में अंग्रेजी में 'नोट्स' तैयार कराकर माननीय असेम्बलो मम्बरों में वितरण किये गये थे। विश्वास हैं, उपयुक्त वातावरण में कमेटी का उक्त दिगम्बात्व और दिगम्बर पनि Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयत्न सफल हो जायेगा और उस दशा में, मैं अपने श्रम को सफल हुआ सपझंगा। अन्त में, मैं अपने उन मित्रों का आभार स्वीकार करता हूँ जिन्होने मुझे इस पुस्तक को लिखने में किसी न किसी तरह उत्साहित किया है। संघ ने काफी साहित्य पेरे सामने उपस्थित कर दिया और पुस्तक को शीघ्र ही प्रकाशित होने दिया, इसके लिये मैं उपकृत हूँ। यह सब कुछ पाई राजेन्द्र कुमार जी के उत्साह का परिणाम है। इम्पीरियल लायब्रेरी, कलकत्ता आदि से मुझे जरूरी पुस्तकें पढ़ने को मिली है, इसलिये यहाँ उनको भी मैं भुला नहीं सकता हूँ। “चैतन्य" प्रेस के मैनजर भाई शान्तिचन्द्र ने आशा से अधिक शुद्ध और सुन्दर रूप में पुस्तक को छापा है। अतः उनका भी उल्लेख कर देना मैं आवश्यक समझता हूँ। उन सबका मैं आभारी हूँ। आशा है, पुस्तक अपने उद्देश्य को सिद्ध हुआ प्रकट करने में सफल होगी। इति शम् । विनीत अनीगंज (एटा) २५-२-१९३२ कामताप्रसाद जैन दिगम्बात्व और दिगम्बर मुनि Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेताक्षर-सूची नोट- प्रस्तुत पुस्तक को लिखने में जिन ग्रंथों से सहायता ली गई है, उनका उल्लेख निम्नलिखित संकेताक्षरों में यथास्थान कर दिया गया है। पाठकगण संकेताक्षर का भाव इससे जान लें। उक्त प्रकार सहायता लेने के लिये इन ग्रंथों के लेखकों के हम आभारी हैं : १. २. उत्तरपुराण भाषा कवि खुसालचन्द कृति (श्री दि, जैन मंदिर भंडार, अलीगंज ) | ३. हस्तलिखित ग्रन्थ आठकर्मनी १४८ प्रकृतिनो विचार-मुनि वैराग्यसागर कृत (श्री दि. जैन मंदिर, अलीगंज ) | पंचकल्याणक पूजा पाठ - पुनि श्रीभूषण कृत (श्री दि. जैन मंदिर, अलीगंज ) । ४. भक्तामर चरित - कवि विनोदीलाल कृत (श्री दि. जैन मंदिर, अलीगंज ) । भावत्रिभंगी - जैन मंदिर, अलीगंज (एटा) | ५. ६. मैनपुरी जैन गुटका - बड़ा पंचायती मंदिर, मैनपुरी में विराजमान । ७. यशोधर चरित - कवि पद्मनाभ कायस्थ विरचित (श्री दि. जैन मंदिर, मैनपुरी) | ८. श्री जिनसहस्त्रनाम - मुनि श्री धर्मचन्द्र कृत (श्री दि. जैन मंदिर, अलीगंज)। १. श्री पद्मपुराण भाषा - कवि खुसालचन्द कृत (श्री दि, जैन मंदिर, अलीगंज ) | १०. श्री यशोधर चरित - श्री सोमकीर्ति कृत। (श्री दि. जैन मंदिर, अलीगंज)। संस्कृत-हिन्दी-गुजराती आदि के मुद्रित ग्रंथ १. अष्ट- अष्टपाहुड, श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत (श्री अनन्तकीर्ति ग्रंथमाला, बम्बई) | ४. ३. २. आईन-इ-अकबरी फारसी) - नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ (१८९३) | आचा. - आचारांइग-- सूत्र, श्वेताम्बर आगमग्रंथ, श्वे. मुनि अमोलक ऋषि के हिन्दी अनुवाद सहित (हैदराबाद दक्षिण संस्करण) । आरोग्य. - आरोग्यदिग्दर्शन, ले. महात्मागांधी (बम्बई, १९७३) । दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि (7) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. ईशाद्य.-ईशाद्यप्टोत्तरशतोपनिषद Ed. W.L.Shastri-Paniskar (3rd.ed, Nirnaya-Sagar Press, 1925)। जैध.- जैन धर्म, प्रो. ग्लाजेनाप्प के जर्मन ग्रंथ का गुजराती अनुवाद, (भावनगर, १९८७ जैप्र.-जैन धर्म प्रकाश, ले.ब्र.शीतलप्रसाद जो (विजनौर, १९२७) । जैप्रयलेसं.- जैन प्रतिमा और यंत्र लेख सग्रह, ले.बाबू छोटेलाल कलकत्ता, १९२३)। ९. जैम.-जैन धर्म का महत्त्व, सं, श्री सूरजपल जी (बम्बई, १९११)। १०. जैशिसं० - जैन शिलालेख संग्रह, ले. प्रो. हीरालाल (मा. न.बम्बई।। ११, ठाणा.-ठाणांग-सूत्र, श्वेताम्बर आगम ग्रंथ; श्वे, मुनि अमोलक ऋषि कृत हिन्दी अनुवाद सहित (हैदराबाद संस्करण)। १२. द्रसं-द्रव्यसंग्रह, श्री नेमिचन्द्राचार्य कृत (S.B.J.Arrah 1917)। १३. दाटा.- बौद्धगंध, Ed Jr.R.L.Law (i.alivic i92511 १४. दाम-दानवीर माणिकचन्द, व्र.शीतलप्रसाद (सूरत)। १५. दिजैडा.- दिगम्बर जैन डायरेक्टरी ( श्री खेपराज कृष्णदास बम्बई, १९१४)। १६. दिमु. - दिगम्बर पुद्रा की सर्वमान्यता, के.भुजल शास्त्री (आरा, २४५६)। १७. दिमुनि. -दिगम्बर पुनि, ले.बा.कामताप्रसाद जैन (दिल्ली. १९३१ ई.)। १८. दीघ.- दीघनिकाय (बौद्ध ग्रंथ)-(Pali Texts Society Series) १९. देज.-देवगढ़ के जैन मंदिर, ले. श्री विश्वम्भरदास गाया २०. प्राजैलेसं.-प्राचीन जैन लेख संग्रह, लेख, बा.कामताप्रसाद जैन (वर्धा १९२६)। २१. पंत.-पंचतंत्र (इण्डियन प्रेस लि. प्रयाग)। २२. फाह्यान-फाह्यान का भारत भ्रमण (इण्डियन प्रेस लि. प्रयाग)। २३. बवि. -बनारसी विलास, कविवर बनारसीदास कृत (वम्बई, २४३२ वी.नि.सं.)। २४. बंप्राजैस्पा.-बम्बई प्रान्त के जैन स्मारक, ब्र. शीतलप्रसाद कृत { सूरत १९२५)। २५, बंबिओजैस्मा.-बगाल बिहार ओड़ीसस के जैन स्पारक, ब्र. शीतलप्रसाद जो कृत। २६. भद्र - भद्रबाहचरित, श्री उदयलाल जी, (बनारस, २४३७ वी.)। २७. भपा.- भगवान पाइरीनाथ. ले.बा. कामताप्रसाद जैन (सूरत, २४५०)। दिगम्वरत्व और गम्मर मुनि Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. भम० - भगवान महावीर, ले. बा. कामताप्रसाद जैन। (सूरत २४५५) । २९. भमबु० - भगवान महावीर और प. बुद्ध, ले.वा. कामताप्रसाद जैन (सूरत, २४५३} ३०. भमी० - भट्टारक मीमांसा (गुजराती) (सूरत, २४३८) | ३१. भाइ - भारतवर्ष का इतिहास, प्रो. ईश्वरीप्रसाद कृत (इण्डियन प्रेस) । ३२. भाप्रारा. - भारतवर्ष के प्राचीन राजवंग, सा. श्री विश्वेश्वरनाथ रेउ कृत भाग १ - ३ ( बम्बई, १९२० व १९२५)। ३३. मजेई - मराठी जैन लोंकाचे इतिहास, श्री अनन्ततनय कृत (बेलग १९१८ ई.)। ३४. मज्झिमनिकाय (बौद्ध ग्रंथी (Pali Texts Society Series) ३५. मप्राजैस्मा० - मध्यप्रांतीय जैन स्मारक, ब्र. शीतलप्रसाद जी कृत (सूरत) । ३६. मजैस्मा, मद्रास मैसूर प्रान्तीय जैन स्मारक, ब्र. शीतलप्रसाद जी कृत (मूग्न २४५४)। T ३७. मूला. - मूलाचार, श्री ब्रट्टकेरस्वामी कृत ३८. रक्षा०-रत्नकरण्ड श्रावकाचार, सं. श्री जुगलकिशोर मुख्तार (मा.ग्र., बम्बई, १९८२ ।। ३९. राइ० - राजपूताने का इतिहास, रा. ब. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा (संर १९८२)। ४०. लाटी. - लाटीसंहिता श्री पं. दरबारीलाल द्वारा संपादित (मा... १९८४) । ४१. विर. - विद्वरत्नमाला, श्री नाथूराम प्रेमी कृत (बम्बई १९१२ ई . । । ४२. विको० - विश्वकोष, सं. श्री नगेन्द्रनाथ बसु (कलकत्ता)। ४३. वृजैश- वृहत् जैन शब्दार्णव भा. १ ले श्री बा बिहारीलाल जी न ( बाराबंकी, १९२५ ई.)। ४४. वेजै० - वेद पुराणादि ग्रंथों में जैनधर्म का अस्तित्र श्री कुल (दिल्ली, १९३०) | ४५. सजै० - सनातन जैन धर्म. श्री चम्पतराय कृत । ४६. सागार - सागार धर्मामृत, सं. श्री लालाराम जी (सूरत, २४४२ ।। ४७. संप्राजैस्मा॰- संयुक्तप्रान्तीय जैन स्मारक, श्री ब्र. शीतलप्रसाद जी कुँ ।। प १९२३) ४८. सूस. - सूरीश्वर और सम्राट, ले. श्री कृष्णलाल (आगरा, १९८० ।। दिसम्बत्व और दिगम्बर मुल :'21 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९. श्रुता.-श्रुतावतार कथा, श्री इन्द्रनन्दि कृत (बम्बई, २४३४ वीर नि. सं. ५०. हुभा.-हुयेनसांग का भारतभ्रमण, श्री ठाकुरप्रसाद शर्मा (इण्डियन प्रेस, प्रयाग, १९२९ ई.)। पत्र-पत्रिकायें ५१. अ.- अनेकान्त-मासिक पत्र, संपादक श्री जुगलकिशोर मुख्तार (दिल्ली)। ५२. जैमि. -जैनमित्र, बम्बई प्रा.दि.जैन सपा का मुखपत्र (सूरत)। ५३. जैसासं.-जैन साहित्य संशोधक, त्रैमासिक पत्र, सं. श्री जिनविजय (पूना)। ५४. जैसिभा, -जैन सिद्धान्त भास्कर, सं. श्री पत्रराज जैन। ५५. जैहि. -जैन हितैषी, सं. 'श्री नाथूराम-श्री जुगलकिशोर जी (बम्बई)। ५६. दिजै. -दिगम्बर जैन, सं. श्री पूलचन्द किसनदास कापड़िया (सूरत)। ५७. पुरातत्व-गुजराती त्रैमासिक पत्र, सं. श्री जिनविजयजी (अहमदाबाद)। ५८. वीर-पा.दि. जैन परिषद का पुखपत्र, सं. बा. कापता प्रसाद जैन व पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल (बिजनौर)। अंग्रेजी भाषा के ग्रन्थ 59. ADJB = A Dictionary of Jain Bibliography by V.S. Tank.(Arrah, 1916), 60. AGT = AGuide to Taxilla'-by Sir Johu Marshati (Calculta, 1918). Al = 'Ancicat India' by J.WMC, Crindlc (1877 & 1901). AISJ ='An Indian Sect of the Jainas' by Prof. Buhler (Londkar, 1303), 63. AIT = 'Ancient Indian Tribes' by Dr. B.C.Law (Lahore, 19266), 4. AR = 'Asiatic Researches', ed. Sir Willium Jones., Vol. III (1799) & Vol, IX (18409). 65. ASM = 'A Study of the Mahavastu' by Dr.B.C. Law (Calcutta. 1930). 66. Bernier = 'Travels in the Mergul Empire' by Dr. Francis Bernier (Oxford, 1914). 67. RS = 'Buddhistic Studies' by Dr.R.C.Law (Calculla, 1931). 68. CHI = 'Cambridge ]listory of Indian wol. 1, ed. Prol. EJ.Rapson, 1922. (10) दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 79. 69. DJ ='Der Jainismus (German) by Prof. Dr. Helmutb Von Glasscnapp, Ph.D.Berlin, 1925. 70. EB = 'Encyclopaedia Britabica' 11th ed. Vol. XV). EHI = 'Early History of India' 4th, cd; by Sir Vincient Smith (Oxford, 1924), 72. Elliot = 'History of India as told by its Historians by Sir H.M. Elliot & Prof. John Dowson. Vol. 1 (1867) & III (Loodon, 1871). 73. HARI = 'History of Aryan Rule in India', by E.B.Havell. 74. HDW = 'Hindu Dramatic Works' by H,H, Wilson (Calcutta, 1901). 75. HG = 'Historical Cleanings' by Dr. B.C. Law (Calcutta, 1922). 76. HKL = 'History of Kanaresc Literature', by E. P. Ria (Calcutta, 1921). 1A = Indian Antiquary (Bombay). 78. THQ = 'Indian Historical Quarterly ed. Dr. N.N.Law (Calcutla), JBORS. = 'Journal of Bihar & Orissa Research society' cd, K.P. Jayaswal M.A.(Palna), 80. JG - Jaina Gazette', ed. Mr.C.S. Mallinath (Madrax). $1. JOAM = Jaina & other Antiquitics of Mathura' by Sir V. Smith. JRAS = 'Journal of th¢ Royal Asiatic Society (London). 83. JS = laina Sutras' cd. Prof. H.Jacobi (S.B.E., XLV). 84. KK = Key of Knowledge, by Mr. C.R.Jain (3rd cd. 1928). 85. LWB = 'Life & Work of Buddhaghosha' by Dr. B.C.Law (Calcutta). 86. NJ = 'Nudity of the Jaina Saints' by Mr. C.R.Jain (Delbi, 1931). #7. OI1 = Original Inhabitants of India' by G.Oppert (Madras, 1893). 88. Oxford = 'Oxford History of India' by Sir Vincent A Smith (Oxford. 1917). 89. PB = 'Psalms of Brethrça', ed. Mrs. Rhys Davids (London, 1913). 90. 'PS = 'Panchastikaya-sara (S.B.J., Arrah) ed. Prof. A.Chakraverty. 91. QUMS = Quarterly Journal of the Mythix sexcicly' (Bangalore). 92. QKM = 'Questions of King Milinda' by TW.Rhy Davids (S.BE, VOL XXXV) 93. Rishabh = 'Rishalhadco, thc Founder of Jainism' by Mr, C.R. Jain (Allahabad, 1929). 94. SAJ = 'Ancient India' by Prof. S.K. Aiyangar. M.A.(London 1911). दिगम्परत्व और दिगम्बर मुनि Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 95. 46. S.C. - 'Sumu Contributions of Seruth Indian ('utulre' by Prof. S.K. Aiyangar (1923), SPCIV = Survival of the Prchistoric Civilisation of the Indus Valley' by R.R.Ramprasad i handa B.A.(Cakula. 1924). - 'Siun... S U 1.:Jia. Juusisz is . M.S. Ramaswami Ayyanyar M.A. & B. Seshagiri Rau M.A.Madras. 22). 47. (12) दिगम्बात्व और दिगम्बर मुनि Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमः सिद्धेभ्यः दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि _[१] | दिगम्बरत्व (मनुष्य की आर्दश स्थिति) "मनुष्य मात्र को आदर्श स्थिति दिगम्बर ही है। आदर्श मनुष्य सर्वथा निर्दोष होता है-विकारशून्य होता है।" -महात्मा गाँधी "प्रकृति की पुकार पर जो लोग ध्यान नहीं देते, उन्हें तरह-तरह के रोग और दुःख घेर लेत है, परन्तु पवित्र प्राकृतिक जीवन बिताने वाले जंगल के प्राणी रोगमुक्त रहते हैं और मनुप्य के दुर्गुणों और पापाचारों से बचे रहते हैं।" -रिटर्न टु नेचर दिगम्बग्त्व प्रकृति का रूप है। वह प्रकृति का दिया हुआ मनुष्य का वेष है। आदम और हवा इसी रूप में रहे थे। दिशायें ही उनके अम्बर थे-वस्वविन्यास उनका यही प्रकृतिदत्त नग्नत्व था। वह प्रकृति के अंचल में मुख की नींद सोते और आनन्द रेलिया करते थे। इसलिये कहते हैं कि मनुष्य को आदर्श स्थिति दिगम्बर है। नग्न रहना ही उनके लिये श्रेष्ठ है। इसमें उसके लिये अशिष्टता और असभ्यता की कोई बात नहीं है, क्योंकि दिगम्बरत्व अथवा नग्नत्व स्वयं अशिष्ट अथवा असत्य वस्तु नहीं है। वह तो मनुष्य का प्राकृत रूप है। ईसाई मतानुसार आदम और हल्या नंगे रहते हुए कभी न लजाये और न वे विकार के चंगुल में फंसकर अपने सदाचार से हाथ धो बैठे। किन्तु जब उन्होनें बुराई-भलाई, पाप-पुण्य का वर्जित फल खा लिया तो वे अपनी प्राकृत दशा को खो बैठे और उनकी सरलता जाती रही। वे संसार के साधारण प्राणी हो गये। बच्चे को लीजिये. उसे कभी भी अपने नग्नत्व के कारण लज्जा का अनुभव नहीं होता और न उसके माता-पिता अथवा अन्य लोग ही उसकी नग्नता पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं। अशक्त रोगी की परिचर्या स्त्री या धाय दिगम्बराय और दिगम्बर मुनि Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करती है - वह रोगी अपने कपड़ों की सार-संभाल स्वयं नहीं कर पाता, किन्तु स्त्री या श्राय रोगी की सब सेवा करते हुए जरा भी अशिष्टता अथवा लज्जा का अनुभव नहीं करती। यह कुछ उदाहरण हैं जो इस बात को स्पष्ट करते हैं कि नग्नत्व वस्तुतः कोई बुरी चीज नहीं है। प्रकृति भला कभी किसी जमाने में बुरी हुई भी है ? तो फिर मनुष्य नंगेपन से क्यों झिझकता है? क्यों आज लोग नंगा रहना सामाजिक मर्यादा के लिये अशिष्ट और घातक समझते हैं? इन प्रश्नों का एक सीधा सा उत्तर है- “आज मनुष्य का नैतिक पतन चरम सीमा को पहुँच चुका है, वह पाप में इतना सना हुआ है कि उसे मनुष्य को आर्दश स्थिति दिगम्बरत्न पर घृणा आती है। अपनेपन को गंवाकर पाप के पर्दे में कपड़ों की आड़ लेना ही उसने श्रेष्ठ समझा है।” किन्तु वह भूलता है, पर्दा पाप की जड़ है - वह गंदगी का ढेर है। बस, जो जरा सी समझ या विवेक से काम लेना जानता है, वह गंदगी को नहीं अपना सकता और न ही अपनी आदर्श स्थिति दिगम्बरत्व से चिढ़ सकता है। वस्त्रों का परिधान मनुष्य के लिए लाभदायक नहीं है और न वह आवश्यक हो है। प्रकृति ने प्राणीमात्र के शरीर का गठन इस प्रकार किया है कि यदि वह प्राकृत वेश में रहे तो उसका स्वास्थ्य नीरोग और श्रेष्ठ हो तथा उसका सदाचार भी उत्कृष्ट रहे। जिन विद्वानों ने उन भील आदिकों को अध्ययन की दृष्टि से देखा है, जो नंगे रहते हैं, वे इसी परिणाम पर पहुँचे हैं कि उन प्राकृत वेष में रहने वाले 'जंगली' लोगों का स्वास्थ्य शहरों में बसने वाले सभ्यताभियान जनों अब होता है, और आचार-विचार में भी वे शहरवालों से बढ़े - चढ़े होते हैं। इस कारण वे एक वस्त्र परिधान की प्रधानता युक्त सभ्यता को उच्चकोटि पर पहुंचते स्वीकार नहीं करते।" उनका यह कथन है भी ठीक, क्योंकि प्रकृति की होड़ कृत्रिमता नहीं कर सकती। महात्मा गाँधी के निम्न शब्द भी इस विषय में दृष्टव्य हैं "वास्तव में देखा जाय तो कुदरत ने चर्म के रूप में मनुष्य को योग्य पोशाक पहनाई है। नग्न शरीर कुरूप दिखाई पड़ता है, ऐसा मानना हमारा भ्रम पात्र है। उत्तम - उत्तम सौन्दर्य के चित्र तो नग्न दशा में ही दिखाई पड़ते हैं। पोशाक से साधारण अंगों को ढककर हम मानों कुदरत के दोषों को दिखला रहे हैं। जैसे-जैसे हमारे पास ज्यादा पैसे होते जाते हैं, वैसे हो वैसे हम सजावट बढ़ाते जाते हैं। कोई किसी भांति और कोई किसी भाँति रूपवान बनना चाहते हैं और बन-ठन कर काँच १. "Taving given some study to the subject. I may say thal Rev. JF. Wilkinson's remarks upon the superior morality of the races that do not wear clothes is fully bure out by the testimony of the travellers... is true that wearing of clothes goes with a higher state of the arts and to that extent with civilisation: but it is on the other hand attended by a lower state of health and morality so that no clothed civilisation can expect to attain to a high rank. -"Daily News. London" of 18th April, 1913. 11 (14) दिगम्बरात्व और दिगम्बर मुनि १ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में मुंह देख प्रसन्न होते हैं कि 'वाह! मैं कैसा खुबसूरत हूँ! बहुत दिनों के ऐसे ही अभ्यास से अगर हमारी दृष्टि खराब न हो गई हो तो हम तुरन्त देख सकेंगे कि मनुष्य का उत्तम से उत्तम रूप उसकी नग्नावस्था में ही है और उसी में उसका भाग्य है।" इस प्रकार सौन्दर्य और स्वास्थ्य के लिए दिगम्बरत्व अथवा नग्नत्व एक मूल्यपयो वस्तु है, किन्तु उसका वास्तविक पूल्य तो मानव-समाज में सदाचार की सृष्टि करने में है। नग्नता और सदाचार का अविनाभावी सम्बन्ध है। सदाचार के बिना नग्नता कौड़ी पोल की नहीं है। नंगा मन और नंगा तन ही मनुष्य को आदर्श स्थिति है। इसके विपरीत गन्दा मन और नंगा तन तो निरी पशुता है। उसे कौन बुद्धिमान स्वीकार करेगा? लोगों का ख्याल है कि कपड़े-लत्ते पहनने से मनुष्य शिष्ट और सदाचारी रहता है। किन्त बात वास्तव में इसके बरअक्स (विपरीत) है। कपड़े-लत्ते के सहारे तो मनुष्य अपने पाप और विकार को छपा लेता है। दर्गणों और दराचार का आगार बना रहकर भी वह कपड़े की ओट में पाखण्ड रूप बना सकता है, किन्तु दिगम्बर वेष में यह असम्भव है। श्री शुक्राचार्य जी के कथानक से यह बिल्कुल स्पष्ट है-शुक्राचार्य युवा थे, पर दिगम्बर वेष में रहते थे। एक रोज वह वहाँ से जा निकले जहाँ तालाब में कई देव-कन्यायें नंगी होकर जल-क्रीड़ा कर रही थीं। उनके नंगे सन ने देव-रमणियों में कुछ भी क्षोध उत्पन्न न किया। वे जैसी की तैसी नहाती रहीं और शुक्राचार्य निकले अपनी धुन में चले गये। इस घटना के थोड़ी देर बाद शुक्राचार्य के पिता वहाँ आ निकले। उनको देखते ही देव-कन्यायें नहाना-धोना भूल गई। वे झटपट जल के बाहर निकली और उन्होंने अपने वस्त्र पहन लिये। एक नंगे युवा को देखकर तो उन्हें ग्लानि और लज्जा न आई किन्तु एक वृद्ध शिष्ट से दिखते 'सज्जन' को देखकर वे लजा गई।भला इसका क्या कारण? यही न कि नंगा युवा अपने मन में भी नंगा था। उसे विकार ने नहीं आ घेरा था। इसके विपरीत उसका वृद्ध और शिष्ट पिता विकार से रहित न था। वह अपने शिष्ट वेष (2) में इस विकार को छिपाये रखने में सफल था। किन्तु दिगम्बर युवा के लिए वैसा करना असंभव था। इसी कारण वह निर्विकारी और सदाचारी था। अतः कहना होगा कि सदाचार की मात्रा नंगे रहने में अधिक है। नंगापन दिगम्बरत्व का आभूषण है। विकार-भाव को जीते बिना ही कोई नंगा रहकर प्रशंसा नहीं पा सकता। विकारी होना दिगम्बरत्व के लिए कलंक है, न वह सखी हो सकता है और न उसे विवेक-नेत्र मिल सकता है। इसीलिये भगवत् कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं णग्गो पावह दुक्खं णग्गो संसारसागरे भपई। . णग्गो ण लाई बोहि. जिणभावणज्जिओ सदरं।। १. आरोग्य, पृ. ५७ २. भाव पाहुइ ६८ गाथा-अष्ट., पृ. २०९-२१०। दिगम्बरत्व और दिगम्बर पनि (17 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ- नंगा दुःख पाता है. वह संसार-मागर में भ्रमण करता है, उसे बोधि, वज्ञान द्रष्टि प्राप्त नहीं होती, क्योंकि नंगा होते हुए भी वह जिन-भावना से दूर है। इसका मतलब यही है कि जिन-भावना में युक्न नग्नता ही पूज्य है- उपयोगी है और जिन-भावना से मतलब रागद्वेपादि विकार भावों को जीत लेना है। इस प्रकार नगा रहमा उमी के लिए उपादेय है जो गगद्वेषादि विकार-भावों को जीतने में लग गया है - प्रकृति का होकर प्राकृत वेष में रह रहा है। संसार के पाप-पुण्य, बुगई-भलाई का जिये भान तक नहीं है, वही दिगम्बरन धारण करने का अधिकार्ग है और चूँकि सर्वमाधारण गृहस्थों के लिये इस पापोच्च स्थिति को प्राप्त कर लेना सुगप नहीं है, इसलिये भारतीय ऋपियों ने इसका विधान गृहत्यागी अरण्यवासी साधुओं के लिये किया है। दिगम्बर मुनि ही दिगम्बरत्व को धारण करने के अधिकारी हैं, यद्यपि यह बात जरूर है कि दिगम्बरत्व पनुष्य की आदर्श स्थिति होने के कारण मानव-समाज के पथ-प्रदर्शक श्री भगवान ऋपभदेव ने गृहस्थों के लिये भी पहिने के पर्व दिनों पे नंगे रहने की आवश्यकता का निर्देश किया था और भारतीय गृहस्थ उनके इस उपदेश का पालन एक बड़े जमाने तक करते थे। इस प्रकार उक्त वक्तव्य से यह स्पष्ट है कि दिगम्बरत्व मनुष्य की आदर्श स्थिति है-आरोग्य और सदाचार का वह घोपक ही नहीं जनक है। किन्तु आज का संसार इतना पाप ताप से झुलस गया है कि उस पर एकदम दिगम्बर वारि (जन्म) डाला नहीं जा सकता। जिन्हें विज्ञान-दृष्टि नरसीव हो जाती है. वही अभ्यास करक एक दिन निर्विकारी दिगम्बर पनि के वेप में विचरते हुए दिखाई पड़ते हैं। उनको देखकर लोगों के मस्तक स्वयं क जाते हैं। वे प्रज्ञा–पञ्ज और तपोधन लोक-कल्याण में निरत रहते हैं। श्री-पुरुष, बालक-वृद्ध, ऊंच-नान, पशु-पक्षी सब ही प्राणी उनके दिव्य रूप में सुख-शान्ति का अनुभव करते हैं। भला प्रकृति प्यारी क्यों न हो? दिगम्बरत्व साधु प्रकृति के अनुरूप है। उनका किसी से द्वेप नहीं, ने तो सबके हैं,और सब उनके हैं, वे सर्वप्रिय और सदाचार की पूर्ति होते हैं। __यदि कोई दिगम्बर होकर भी इस प्रकार जिन-भावना से युक्त नहीं है तो जैनाचार्य कहते हैं कि उनका नग्न वेष धारण करना निरर्थक है-पग्मोद्देश्य से वह भटका हुआ है। इस लोक और परलोक, दोनों ही उसके नष्ट हैं। बस, दिगम्बरत्व बहीं शोधनीय है, जहाँ परमोदेश्य दृष्टि से ओझल नहीं किया गया है। तब ही तो वह मनुष्य को आदर्श स्थिति है। १. सागार: अ. ७ श्लोक ७ व थमबु. पृ.२०५-२०५। २. निरट्ठिया नग्नरूई उ तस्म, जे उत्तमट्ठं विबजारसमेइ। इमे बिसे नत्थि परे बिलोए, दुहओ बिसे झिज्जइ तथ्य लोए । ४९ ।" -उत्तराध्ययन सूत्र व्या. २० in vain he adoptos. askedness, who errs alwul nhalters ofparatiount interest. ncider this world oor die next will he his. ile la alkurin luth rexxcc18 in the world -J.IIP. 100 दिगम्बरत्व और दिगम्बर पनि Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] __ धर्म और दिगम्बरत्व | णिच्चेलपाणिपत्नं उवाइद्वं परमजिणवरिंदेहि। एक्को वि मोक्खमगो सेसा य अमग्गया सव्वे ।।१०।। अर्थात-अचलक-नग्नरूप और हाथों को भोजनपात्र बनाने का उपदेदा जिरन्ट ने दिया है। यही एक मोक्ष-धर्म मार्ग है। इसक आंतरिक शेष सब अमार्ग हैं। मी धत्थु संहावी - धर्म वस्तु का स्वभाव और दिगम्बरच पनुष्य का निरूप है, उसका प्राकृत स्वभाव है। इस दृष्टि से मनग्य के लिये दिगम्बरन्य परमापादय धर्म है। धर्म और दिगम्बग्त्व यहां कुछ भद ही नहीं रहता। सन्चनच सदाचार के आधार पर टिका हुआ दिगरम्यरत्त्य धर्म के मिया और कुछ ही क्या मकता है? जीवात्मा अपने धर्म को गाय हये है। लौकिक दृष्टि से देणिये या आध्यात्मिक में, जीवात्मा भवभ्रपाग के चक्कर में पड़कर अपने स्वभाव में हाथ धोये बैठा है। लोक में वह नंगा आया है फिर १] समाज-मर्यादा के कृत्रिम भय के कारण वह अपने रूप (नग्नाच) को खुशी-खुशो छोड़ बैटता है। इसी तरह काम स्वभाव में मच्चिदानन्द रूप होते ये भी समार की माया-ममना में पड़कर उस स्वान् भवानन्द मे वंचित है। इसका मुख्य कारण जीवात्मा की राग-द्वेष जनित गिति है। गग-द्वेषमयों भावों से प्रेरित होका वह अपने पन, वचन और काय को क्रिया तद्वत करता है। इसका परिणाम यह होता है कि उस जीवात्मा में लोक भर्ग हुई पालक कर्म-वर्गणार्य आकार चिपट जाना है और उनका आवरण जाचात्मा के ज्ञान-दर्शन आदि गणों को प्रकट नहीं होने देता। जितने अंश आवरण कम या ज्यादा होते हैं उतने ही अशो में आत्मा के स्वाभाचिक गणों का कप या ज्यादा मकान प्रकट होता है। यदि जीवात्मा अपने स्वभाव को पाना चाहता है तो उसे इन सब ही कर्म सम्बन्धी आचरणों का नाट कर देना होगा, जिनका नष्ट कर देना असभव है। इस प्रकार जीवात्मा के धर्म-स्वभाव के घातक उनके पौदगनिक सम्बन्ध हैं। जीवात्मा को आत्म-म्बानञ्च प्राप्त करने के लिए इस पर- मम्बन्ध को विल्कन छोड़ देना होगा। पार्थिव मगर्ग से उमे अछ्न हो जाना होगा। लोक और आत्मा दान ही क्षेत्रो में वह एकमात्र अपने उद्देश्य-प्राप्ति के लिय मात उद्योगी रहा। बाहरी और भीतरी मन ही प्रपची में उसका कोई संगकार न होगा। परिग्रह नाममात्र को वहन रख संकगा। यथाजातरूप में रहकर वह अपने विभावपयी गगादि कपाय साओं को १. आष्ट., सूत्रपातुङ -१० दिगम्बरत्य और दिगम्बा मनि 171 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नष्ट करने पर तुल पड़ेगा। ज्ञान और ध्यान रूपी शस्त्र लेकर वह कर्म-सम्बन्धों को बिल्कुल नष्ट कर देगा और तब वह अपने स्वरूप को पा लेगा। किन्तु यदि वह सत्य मार्ग से जरा भी विचलित हुआ और बाल बराबर परिग्रह के मोह में जा पड़ा तो उसका कहीं ठिकाना नहीं। इसीलिये कहा गया है कि बालग्गकोडिमत्तं परिग्गगणं पण होड़ साहूणं । भुजेइ पाणिपत्ते दिण्णणं इक्कठाणम्मि ॥ १७॥ भावार्थ - बाल के अग्रभाग (नोंक) के बराबर भी परिग्रह का ग्रहण साधु के नहीं होता है। वह आहार के लिये भी कोई बर्तन नहीं रखता हाथ ही उसके भोजनपात्र हैं। और भोजन भी वह दूसरे का दिया हुआ, एक स्थान पर और एक बार ही ऐसा ग्रहण करता है जो प्रासुक है - स्वयं उसके लिये न बनाया गया हो। - अब भला कहिये, जब भोजन से भी कोई ममता न रखी गई दूसरे शब्दों में, जब शरीर से ही ममत्व हटा लिया गया तब अन्य परिग्रह दिगम्बर साधु कैसे रखेगा? उसे रखना भी नहीं चाहिये, क्योंकि उसे तो प्रकृतिरूप आत्म-स्वातंत्र्य प्राप्त करना हैं, जो संसार के पार्थिव पदार्थों से सर्वथा भिन्न है। इस अवस्था में वह वस्त्रों का परिधान भी कैसे रखेगा? वस्त्र तो उसके मुक्ति मार्ग में अर्गला बन जायेंगे। फिर वह कभी भी कर्म-बन्धन से मुक्त न हो पायेगा। इसीलिये तत्वत्ताओं ने साधुओं के लिये कहा है कि जहजारूवरिसी तिला गिहदि हत्तेसु । जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं ।। १८ ।। २ अर्थात् मुनि यथाजातरूप है- जैसा जन्मता बालक नग्नरूप होता है वैसा नग्नरूप दिगम्बर मुद्रा का धारक है - वह अपने हाथ में तिल - तुष मात्र भी कुछ ग्रहण नहीं करता। यदि कुछ भी ग्रहण कर ले तो वह निगोद में जाता है। - परिग्रहधारी के लिये आत्मोन्नति की पराकाष्ठा पा लेना असंभव है। एक लंगोटीवत् के परिग्रह के मोह से साधु किस प्रकार पतित हो सकता है, यह धर्मात्मा सज्जनों की जानी-सुनी बात है। प्रकृति तो कृत्रिमता की सर्वाहति चाहती है, तब ही वह प्रसन्न होकर अपने पूरे सौन्दर्य को विकसित करती है। चाहे पैगम्बर हो या तीर्थंकर ही क्यों न हो, यदि वह गृहस्थाश्रम में रह रहा है, समाज मर्यादा के आत्मत्रिमुख बन्धन में पड़ा हुआ है तो वह भी अपने आत्मा के प्रकृत रूप को नहीं पा सकता। इसका एक कारण है। वह यह कि धर्म एक विज्ञान है। उसके नियम प्रकृति के अनुरूप अटल और निश्चल हैं। उनसे कहीं किसी जमाने में भी किसी कारण से (18) १. अष्ट, सूत्रपाहुड - १७ २. वही - १८ दिगम्बराय और दिगम्बर मुनि Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रंचपात्र अन्तर नहीं पड़ सकता है। धर्म विज्ञान कहता है कि आत्मा स्वाधीन और सुखो तब ही हो सकता है जब वह पर-सम्बन्ध पुद्गल के संसर्ग से मुक्त हो जावे। अब इस नियम के होते हुये भी पार्थिव वस्त्र-परिधान को रखकर कोई यह चाहे कि मुझे आत्म-स्वातंत्र्य मिल जाये तो उसकी यह चाह आकाश कुसुम को पाने की आशा से बढ़कर न कही जायगी ? इसी कारण जैनाचार्य पहले ही सावधान करते हैं कि कवि सिज्झइ वत्थधारो जिणसासणे जई वि होई तित्थयरो। जग्गो विमोखमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे।। २३॥ भावार्थ- जिन-शासन में कहा गया है कि वस्त्रधारी मनुष्य मुक्ति नहीं पा सकता है, जो तीर्थकर होते तो वह भी गृहस्थ दशा में मुक्ति को नहीं पाते हैं-मुनि दीक्षा लेकर जब दिगम्बर वेष धारण करते हैं तब ही मोक्ष पाते हैं। अतः नानतत्व ही मोक्षमार्ग है-बाकी सब लिंग उन्मार्ग हैं। धर्म के इस वैज्ञानिक नियम के कायल संसार के प्रायः सब ही प्रमुख प्रवर्तक रहे हैं. जैसा कि आगे के पृष्ठों में व्यक्त किया गया है और उनका इस नियम-दिगम्बरत्व-को मान्यता देना ठीक भी है, क्योंकि दिगम्बरत्व के बिना धर्म का मूल्य कुछ भी शेष नहीं रहता-वह धर्म स्वभाव रह ही नहीं पाता है। इस प्रकार धर्म और दिगम्बरत्व का सम्बन्ध स्पष्ट है। १. अष्ट,, सूत्रपाहुद्ध-२३ दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बरत्व के आदि प्रचारक ऋषभदेव भवनाम्भोजपातण्डं धर्मामुलपयोधरम । योगिकल्पतरूं नौमि देवदेवं उपभध्वजम। -ज्ञानार्णव दिगम्बरत्व प्रकृति का एक रूप है। इस कारण उसका आदि और अन्त कहा ही नहीं जा सकता। वह नो एक मनातन नियम है। किन्तु उस पर भी इस परिच्छेद के शीर्षक में श्री ऋपभदेव जी को दिगम्बरत्व का आदि प्रचारक निखा है। इसका एक कारण है। विबंको भाजन के निकट दिगम्बरत्व केवल नग्नता मात्र का द्योतक नही है, पूर्व परिच्छंदों को पढ़ने से यह बात म्पाट हो गई है। वह रागादि विभाव भाव को जीतने वाला यथाजातरूप है और नग्नता के इस रूप का संस्कार कभी न कभी किसी महापुमा द्वारा जरूर हुआ होगा। जैन शास्त्र कहते हैं कि इम कल्पकान में धर्म के आदि प्रचारक श्री ऋषपदव जी ने ही दिगबरत्व का सबसे पहले उपदेश दिया था। यह यादव अन्तिम मन नाभिराय के सत्र थे और वह एक अत्यन्त प्राचीन काल पे हुये थे. जिसका पता लगा लेना मगम नहीं हैं। हिन्दू शास्त्रों में जैनों के इन पहले तीर्थकर को ही वि का आठवा अवतार माना गया है और वहां भी इन्हें दिगम्बत्व का आदि प्रचारक बताया गया है। जैनाचार्य उन्हें योगिकल्पतरू कहकर स्मरण करते है। हिन्दुओं के श्रीमद्भागवत में इन्हीं ऋषभदेव का वर्णन है और उसमें उन्हें परमहंस दिसम्बर धर्म का प्रतिपादक लिखा है, यथा _ 'एवमन शास्यात्मजान म्बयमशिा-टानपि लोकान्सामनार्थ महानुभावः पग्ममहद भगवानपभी दव उपशमशीलानामपन्तकांच्या महामनी गां भतिजानबैगग्यलक्षण पारमहंस्यधर्ममुपशिक्ष्यमाणः स्वतनयशत ज्याप्टं परमभागवत भगवजनापरायणं भरत वाणीपालनायाभिषिच्य म्बयं भवन एवोवरित शरीरमात्र- परिग्रह उन्भत इव गमनपरिधानः प्रवीणकका आत्मन्यागपिता हवनी या ब्रह्मावर्तात् प्रत्रवाज ।।२५।।' - भागवतस्कध ५. अ.. अर्थात-"इस भाँति महायशस्वी और मवके मुहद् ऋषभ भगवान ने यद्यपि उनके पुत्र मब ति से चतुर थे. परन्तु मनुष्यों को उपदंदा देने हेतु, प्रशांत और कर्मबन्धन से रहित महानियों को भोक, ज्ञान और वैराग्य के दिखाने वाले परमहंस आश्रम की शिक्षा देने हेतु, अपने सौ पुत्रों में ज्येष्ट परम भागवत, हरिभक्तों के सेवक भरत को पृथ्वीमान्नन हत, राज्याभिषेक का तत्काल ही संसार को (20) दिगम्वरत्व और दिगम्बर मुनि Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोड़ दिया और आत्मा में होमाग्नि का आरोप कर केश खोल उन्मत की भांति नान हो, केवल शरीर को संग ले, ब्रह्मावर्त से संन्यास धारण कर चल निकले।" । इस उद्धरण के मोटे टाइप के अक्षरों से ऋषभदेव का परमहंस दिगम्बर धर्म शिक्षक होना स्पष्ट है। तथा इसी ग्रंथ के स्कंध २, अध्याय ७, पृष्ठ ७६ में इन्हें दिगम्बर और जैन मत को चलाने वाला उसके टीकाकार ने लिखा है। पूल श्लोक में उनके दिगम्बरत्व को ऋषियों द्वारा वंदनीय बताया है - नाभेरसा वृषभ आससु देव सूनुयोवेव चारसमदग्जड़योगचर्याम् । यत् पारमहंस्यमृषयः पदमामनंति स्वस्थ: प्रशांतकरणः परिमक्तसंगः ।।१०।। उधर हिन्दुओं के प्रसिद्ध योगशास्त्र "हठयोगप्रदीपिका" में सबसे पहले मंगलाचरण के तौर पर आदिनाथ ऋषभदेव की स्तुति की गई और वह इस प्रकार श्री आदिनाथाय नमोऽस्तु तस्मै, येनोपदिष्टा हठयोगविद्या। मिसालो मोसमराजयोग मारोढुमिच्छोरधिरोहिणीव ॥१।। अर्थात-"श्री आदिनाथ को नमस्कार हो, जिन्होंने उस हठयोग विद्या का सर्वप्रथम उपदेश दिया जो कि बहुत ऊँचे राजयोग पर आरोहण करने के लिये नसैनी के समान है।" ___ हठयोग का श्रेष्ठतम रूप दिगम्बर है। परमहंस मार्ग हो तो उत्कृष्ट योगमार्ग है। इसी से 'नारद परिव्राजकोपनिषद में योगी परमहंसाख्यः साक्षान्मोक्षकसाधनम् इस वाक्य द्वारा परमहंस योग को साक्षात् मोक्ष का एकमात्र साधन बतलाया है। सचमुच “अजैन शस्त्रों में जहाँ कहीं श्री ऋषभदेव आदिनाथ का वर्णन आया है, उनको परमहंस मार्ग का प्रवतेक बतलाया गया है। किन्तु मध्यकाली। साम्प्रदायिक विद्वेप के कारण अजैन विद्वानों को जैन धर्म से ऐसी चिढ़ हो गई कि उन्होंने अपने धर्म शास्त्रों में जैनों के महत्त्वसूचक वाक्यों का या तो लोप कर दिया अथवा उनका अर्थ ही बदल दिया। उदाहरण के रूप में उपर्युक्त १. जितेन्द्रमत दर्पण, प्रथम माग, पृ. १० । २.अनेकान्त, वर्ष १, पृ. ५३८ । ३. अनेकान्त, वर्ष १, पृ. ५३९ । ४.श्री टोडरमलजी द्वारा उल्लिखित हिन्दू शास्त्रों के अवतरणों का पता आजकल के छपे हुये ग्रंथों में नहीं चलता, किन्तु उन्हीं ग्रंथों की प्राचीन प्रतियों में उनका पता चलता है, यह बात पं. मक्खनलाल जी जैन अपने 'वेदपुराणादि ग्रंथों में जैन धर्म का अस्तित्व' नामक ट्रैक्ट (पृ. ४१-५०) में प्रकट करते हैं। प्रो. शरच्चन्द्र घोषाल एम. ए. काव्यतीर्थ आदि ने भी हिन्दू 'पष्यपुराण के विषय में यही बात प्रकट की थी। देखोJ.G.XIV,90)। दिगम्बराय और दिगम्बर मुनि (21) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'हठयोग प्रदीपिका के श्लोक में वर्णित आदिनाथ को उसके टीकाकार शिव महादेव जी) बताते हैं, किन्तु वास्तव में इसका अर्थ ऋषभदेव हो होना चाहिये, क्योंकि . प्राचीन 'अमरकोषादि किसी भी कोष ग्रंथ में महादेव का नाम 'आदिनाथ' नहीं मिलता। इसके अतिरिक्त यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि श्री ऋषभदेव के हो सम्बन्ध में यह वर्णन जैन और अजैन शास्त्रों में मिलता है, किसी अन्य प्राचीन मत प्रर्वतक के सम्बन्ध में नहीं- कि वह स्वयं दिगम्बर रहे थे और उन्होंने दिगम्बर धर्म का उपदेश दिया था। उस पर 'परमहंसोपनिषद्' के निम्न वाक्य इस बात को स्पष्ट कर देते हैं कि परमहंस के स्थापक कोई जैनाचार्य थे "तदेतद्विज्ञाय ब्राह्मणः पात्रं कमण्डलुं कटिसूत्रं कौपीनं च तत्सर्वमप्सु विसृज्याथ जातरूपधरश्चरेदात्मानमन्विच्छेत्। यथाजातरूपधरो निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहस्तत्वब्रह्ममार्गे सम्यक संपत्रः शुद्धमानसः प्राणसंधारणार्थ यथोक्तकाले पंचगृहेषु करपात्रेणायाचिताहारमाहरन् लाभालाभे सपो भूत्वा निर्ममः शुक्लध्यानपरायणोऽध्यात्मनिष्ठः शुभाशुभकर्मनिर्मूलनपरः परमहंसः पूर्णानन्दैकबोधस्तद्ब्रह्म हमस्मीति ब्रह्मप्रणवमनुस्परन-भ्रपरकोटकन्यायेन शरीरत्रयमुत्सृज्य देहत्यागं करोति स कृतकृत्यो भवतीत्युपनिषद्। अर्थात-"ऐसा जानकर ब्राह्मण (ब्रह्मज्ञानी) पात्र, कमण्डलु, कटिसूत्र और लंगोटी इन सब चीजों को पानी में विसर्जन कर जन्म-समय के वेष को धारण कर अर्थात् बिल्कुल नग्न होकर विचरण करे और आत्मान्वेषण करे। जो यथाजातरूपधारी (नग्न-दिगम्बर), निर्द्वन्द्व, निष्परिग्रह, तत्वब्रह्ममार्ग में भली प्रकार सम्पन्न, शुद्ध हृदय, प्राणधारण के निमित्त यथोक्त समय पर अधिक से अधिक पाँच घरों में विहार कर करपात्र में अयाचित भोजन लेने वाला तथा लाभालाभ में सपचित्त होकर निर्मपत्व रहने वाला, शुक्लध्यान परायण, अध्यात्मनिष्ठ, शुभाशुभ कर्मों के निमूलन करने में तत्पर, परमहंस योगी, पूर्णानन्द का अद्वितीय अनुभव करने वाला यह ब्रह्म मैं हूं, ऐसे ब्रह्म प्रणव का स्मरण करता हुआ भ्रमरकोटक न्याय से (क्रीड़ा भ्रमरी का ध्यान करता हुआ स्वयं भ्रमर बन जाता है, इस नीति से) तीनों शरीरों को छोड़कर देहत्याग करता है, वह कृतकृत्य होता है, ऐसा उपनिषदों में कहा गया १. अनेकान्त, वर्ष १ पृ. ५३९-५४० । (22) दिगम्बराय और दिगम्बर मुनि Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - इस अवतरण का प्रायः सारा ही वर्णन दिगम्बर जैन मुनियों की चर्या के अनुसार है, किन्तु इसमें विशेष ध्यान देने योग्य विशेषण शुक्लध्यानपरायणः है, जो जैन धर्म की एक खास चीज है। "जैन के सिवाय और किसी भी योग-ग्रन्थ में शुक्लध्यान का प्रतिपादन नहीं मिलता। पतंजलि ऋषि ने भी शुक्लध्यान आदि भेद नहीं बतलाये | इसलिए योग ग्रन्थों में आदि-योगाचार्य के रूप में जिन आदिनाथ का उल्लेख मिलता है वे जैनियों के आदि तीर्थंकर श्री आदिनाथ से भिन्न और कोई नहीं जान पड़ते। १ ३ अथर्ववेद के 'जाबालोपनिषद्' ( सूत्र ६) में परमहंस संन्यासी का एक विशेषण "निर्ग्रथ" भी दिया है और यह हर कोई जानता है कि इस नाम से जैनी ही प्राचीनकाल से प्रसिद्ध हैं। बौद्धों के प्राचीन शास्त्र इस बात का खुला समर्थन करते हैं। जैन धर्म के ही मान्य शब्द को उपनिषद्कार ने ग्रहण और प्रयुक्त करके यह अच्छी तरह दर्शा दिया हैं कि दिगम्बर साधुमार्ग का मूल स्तोत्र जैनधर्म है और उधर हिन्दू पुराण इस बात को स्पष्ट करते ही है कि ऋषभदेव, जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर ने ही परमहंस दिगम्बर धर्म का उपदेश दिया था। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि श्री ऋषभवेद-उपनिषद् ग्रंथों के रचे जाने के बहुत पहले हो चुके थे। वेदों में स्वयं उनका और १६ वें अवतार वामन का उल्लेख मिलता है। अतः निस्संदेह भगवान् ऋषभदेव ही वह महापुरुष हैं जिन्होंने इस युग के प्रारम्भ में स्वयं दिगम्बर वेष धारण करके' सर्वज्ञता प्राप्त की थी और सर्वज्ञ होकर दिगम्बर धर्म का उपदेश दिया था। वही दिगम्बरत्व के आदि प्रचारक हैं। ४ १. अनेकान्त, वर्ष १, पृ. ५४१ । २. "यथाजातरूपश्वरी निर्ग्रन्थो निष्परिग्रहः" इत्यादि - दिमु., पृ. ८ ३. जैकोबी प्रभृति विद्वानों ने इस बात को सिद्ध कर दिया है। (Js.PLI Intro.) ४. भपा की प्रस्तावना तथा 'सर्जे' देखो। ५. "विष्णुपुराण" में भी श्री ऋषभदेव को दिगम्बर लिखा है। |h Rishabha Deva....naked, went the way of the great road. (महाध्वानम् ) -Wilso's Vishnu Purana Vol llg [Book II. Ch.I.] PR 103-104]. ६. श्रीमद्भागवत में ऋषभदेव को 'स्वयं भगवान् और कैवल्यपति' बताया है। दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि (विको..भा. ३. पू. ४४४) । (23) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ . meramaniane RSSRKS .. .. . SINE . .. ... . | हिन्दू धर्म और दिगम्बरत्व । “संयासः घधिो भवति कुटिचक-बहुदक-हस-परमहंस-जूरियातीत अवधूतश्चेति।" -संन्यासोपनिषद् १३ भगवान ऋषभदेव जब दिगम्बर होकर वन में जा रमे, तो उनकी देखादेखी और भी बहुत से लोग नंगे होकर इधर-उधर घूमने लगे। दिगम्बरत्व के मूल तत्व को वे समझ न सके और अपने मनमाने ढंग से उदरपूर्ति करते हुये व साधु होने का दावा करने लगे। जैन शास्त्र कहते हैं कि इन्हीं संन्यासियों द्वारा सांख्य आदि जेनेतर सम्प्रदायों की सृष्टि हुई थी और तीसरे परिच्छेद में स्वयं हिन्दू शास्त्रों के आधार से यह प्रकट किया जा चुका है कि श्री ऋषभदेव द्वारा ही सर्वप्रथम दिगम्बरत्व रूप धर्म का प्रतिपादन हुआ था। इस अवस्था में हिन्दू ग्रंथों में भी दिगम्बरत्व का सम्माननीय वर्णन मिलना आवश्यक है। यह बात जरूर है कि हिन्दू धर्म के वेद और प्राचीन तथा वृहत् उपनिषदों में साधु के दिगम्बरत्व का वर्णन प्रायः नहीं मिलता। किन्तु उनके छोटे-मोटे उपनिषदों एवं अन्य ग्रंथों में उसका खास ढंग से प्रतिपादन किया गया मिलता है। भिक्षक उपनिषा र सात्यानीट हपनिद सासारः अनिषद, परमहंस-परित्राजक उपनिषद् आदि में यद्यपि संन्यासियों के चार भेद-(१) कुटिचक, (२) बहुदक, (३) हंस, (४) परमहंस - बताये गये है, परन्तु संन्यासोपनिषद् में उनको छः प्रकार का बताया गया है अर्थात् उपयुक्त चार प्रकार के संन्यासियों के अतिरिक्त (१) तरियातीत और (२) अवधूत प्रकार के संन्यासी और गिनाये हैं। इन छहों में पहले तीन प्रकार के संन्यासी त्रिदण्ड धारण करने के कारण त्रिदण्डी कहलाते हैं और शिखा या जटा तथा वस्त्र कौपीन आदि धारण करते हैं। परमहंस परिव्राजक, शिक्षा और १, आदिपुराण, पर्व १८, श्लो. ६२ (Rishabh.p.112) २. “अथ भिक्षुणां मोक्षार्थीनां कुटीचक-बहुदक-हंस-परमहंसाश्चेति चत्वारः।" ३. कुटिचको-बहुदकः-हंस-परमहंस-इत्येति परिव्राजकाः चतुर्विधा भवन्ति । ४. स संन्यासः षड्विधो भवति-कुटीचक-बहुदक-हंस-परमहंस . तुरीयातीतावधूताश्चेति। ५. कुटीचकः शिखायज्ञोपवीती दण्डकमण्डलुधरः कौपीनशाटोकन्थाघरः पितृमात गुर्वाराधनपरः पिठरखनित्रशिक्यादिपात्रसाधनपरः एकनान्नादनपरः श्वेतोर्ध्वपुण्डू धारीत्रिदण्डः। बहूदकः शिखादिकन्याधरस्त्रिपुण्डूधारी कुटीचकवत्सर्वसमो मधुकरवृत्याष्टकवलाशी।हंसो जटाधारी त्रिपुण्ड्रोर्ध्वपुण्डधारी असंक्लुप्तमाधूकरानाशी कौपीनखण्डतुण्डधारी। दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि (24) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यज्ञोपवीत जैसे द्विजचिह्न धारण नहीं करता और वह एक दण्ड ग्रहण करता तथा एक वस्त्र धारण है अथवा अपनी देह में भस्म रमा लेता है।' ___ हाँ तूरियातीत परिव्राजक बिल्कुल दिगम्बर होता है और वह संन्यास के नियमों का पालन करता है।' अन्तिम अवधूत पूर्ण दिगम्बर और निर्द्वन्द्व है- वह संन्यास नियमों को भी परवाह नहीं करता । तूरियातीत अवस्था में पहुंचकर परमहंस परिव्राजक को दिगम्बर ही रहना पड़ता है किन्तु उसे दिगम्बर जैन मुनि की तरह केशलुच नहीं करना होता-वह अपना सिर मुंडाता (मुण्ड) है ओर वधूत पद तो तूरियातीत की मरण अवस्था है। इस कारण इन दोनों भेदों का समावेश परमहंस भेद में ही गर्भित किन्हीं उपनिषदों में मान लिया गया है। इस प्रकार उपनिषदों के इस वर्णन से यह स्पष्ट है कि एक सपय हिन्दू धर्म में भी दिगम्बरत्व को विशेष आदर मिला था और वह साक्षात् मोक्ष का कारण माना गया था। उस पर कापालिक संप्रदाय में तो वह खूब ही प्रचलित रहा, किन्तु वहाँ वह अपनी धार्मिक पवित्रता खो बैठा, क्योंकि वहाँ वह भोग की वस्तु रहा। अस्तु, यहाँ पर उपनिषदादि वैदिक साहित्य में जो भी उल्लेख दिगम्बर साधु के सम्बन्ध में मिलते हैं, उनको उपस्थित कर देना उचित है। देखिये "जाबालोपनिषद्" में लिखा हैं "तत्र परमहंसानामसंवर्तकारुणिश्वेतकेतुदुर्वास ऋभुनिंदाघजड़भरतदत्तात्रेयरैवतकप्रभृतयोऽत्यक्तालिंगा अव्यक्ताचारा अनुन्मत्ता उन्मत्तवदाचरन्तस्त्रिदण्डं कमण्डलु शिक्यं पात्रं जलपवित्रं शिखां यज्ञोपवीतं च इत्येत्सर्व भूः स्वाहेत्यप्सु परित्यज्यात्मानमन्दिच्छेद् यथाजातरूपधरो निग्रंथो निष्परिग्रहस्तत्तद्ब्रह्ममार्गे सम्यक्संपन्नः इत्यादि। इसमें संवर्तक, आरुणि, श्वेतकेतु आदि को यथाजातरूपधर निग्रंथ लिखा है अर्थात् इन्होंने दिगम्बर जैन मुनियों के सामान आचरण किया था। ‘परमहंसोपनिषद् में निम्न प्रकार उल्लेख है १, परमहंसः शिखायज्ञोपवीतरहितः पञ्चगृहेषु करपात्री एककोपीनधारी शाटोमेकामेकं वैणवं दण्डमेकशाटीधरो व भस्मोद्धलनपरः। २. सर्वत्यागी तुरीयातीतो गोमुखवृत्यो फलाहारी अन्नाहारी चेद्गृहत्रये देहमात्रावशिष्टो दिगम्बरः कुणपवच्छरीरवृत्तिकः। ३. अवधूतस्त्वनियमः पतिताभिशस्तवर्जनपूर्वकं सर्व वर्णेष्वजगरवृत्याहारपरः स्वरूपानुसंधानपरः। ४. सर्व विस्मृत्य तुरीयातीतावधूतवेषेणाद्वैतनिष्ठापरः प्रणवात्मकत्वेन देहत्याग करोति यःसो वधूतः। ५. ईशा., पृ. १३१। दिगम्बराय और दिगम्बर मुनि (25) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “इदपन्तरं ज्ञात्वा स परमहंस आकाशाम्बरो न नमस्कारो न स्वाहाकारो न निन्दा न स्तुतियादृच्छिको भवेत्स भिक्षुः।' सचमुच दिगम्बर (परमहंस) भिक्षु को अपनी प्रशंसा-निन्दा अथवा आदर-अनादर से सरोकार हो क्या? आगे “नारदपरिव्राजकोपनियत्” में भी देखिये यथाविधिश्चेज्जातरूपधरो भूत्वा....जातरूपधरश्चरेदात्मानपन्विच्छेद्यथाजातरूपधरो निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहस्तत्वब्रह्ममार्गे सम्यक सम्पन्नः ८६-तृतीयोपदेशः। "तुरीयः परमो हंसः साक्षान्नारायणो यतिः। एकरात्रं वसेत् ग्रामे नगरे पञ्चरात्रकम् ।।१४।। वर्माभ्योऽन्यत्र वर्षासु मासांश्च चतुरो वसेत् । ....मुनिः कौपीनवासाः स्यान्नग्नो वा ध्यानतत्परः ।३२। .....जातरूपधरो भूत्वा....दिगम्बरः चतुर्थोपदेशः।" इन उल्लेखों में भी परिवाजक को नग्न होने का तथा वर्षा ऋतु में एक स्थान में रहने का विधान है। "पनि कोपीनवासा" आदि वाक्य में छहों प्रकार के सारे ही परिव्राजकों का पुनि 'शब्द' से ग्रहण कर लिया गया है इसलिये उनके सम्बन्ध में वर्णन कर दिया कि चाहे जिस प्रकार का मुनि अर्थात् प्रथम अवस्था का अथवा आगे की अवस्थाओं का। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि पुनि वस्त्र भी पहिन सकता है और नग्न भी रह सकता है, जिससे कि नग्नता पर आपत्ति की जा सके। यह पहले ही परिव्राजकों के षड्भेदों में दिखाया जा चुका है कि उत्कृष्ट प्रकार के परिव्राजक नग्न ही रहते हैं और वह श्रेष्ठत्तम फल को भी पाते हैं, जैसे कि कहा है आतो जीवतिचेत्क्रपसंन्यासः कर्त्तव्यः।......आतुरकुटीचकयो लोकभुवोको। बहूदकस्य स्वर्गलोकः। ___ हंसस्य तपोलोकः। परमहंसस्य सत्यलोकः। तुरीयातीतावधूतयोः स्वस्मन्येव कैवल्यं स्वरूपानुसंधानेन भ्रपर-कीटन्यायवत् ।' अर्थात- आतुर यानि संसारी मनुष्य का अन्तिम परिणाम (निष्ठा) भूलोक है, कुटीचक संन्यासी का भुवलोक, स्वर्गलोक हंस संन्यासी का अन्तिम परिणाम है. परमहंस के लिये वहीं सत्यलोक है और कैवल्य तूरीयातीत और अवधूत का परिणाम अब यदि इन संन्यासियों में वस्त्र-परिधान और दिगम्बरत्व का तात्विक भेद न होता तो उनके परिणाम में इतना गहरा अन्तर नहीं हो सकता। दिगम्बर मुनि ही वास्तविक योगी है और वही कैवल्य-पद का अधिकारी है। इसीलिये उसे 'साक्षात् १. ईशाध.,पू. १५० २. ईशाद्य., पृ. २६७-२६८ ३. ईशाद्य., पृ. २६८-२६९ ४. ईशाध., पृ. ४१५ । संन्यासोपनिषत् ५९ । (26) दिगम्वरत्व और दिगम्बर मुनि Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार है नारायण' कहा गया है। 'नारद परिव्राजकोपनिषद्' में आगे और भी उल्लेख निम्न "ब्रह्मचर्येण संन्यस्य संन्यासाज्जातरूपधरो वैराग्यसंन्यासी।" "तुरीयातीतो गोमुखः फलाहारी। अन्नाहारी चेद् गृहत्रये देहमात्रावशिष्टो दिगम्बरः कुणपवच्छरीरवृत्तिकः। अवधूतस्त्वनियमोऽभिशप्तपतितवर्जनपूर्वक सर्ववर्णेष्वजगरवृत्याहारपरः स्वरूपानुसंधानपरः ....... परमहंसादित्रयाणां न कटिसत्रं न कौपीनं न वस्त्रं न कपण्डलर्न दण्डः सार्ववर्णकभेक्षाटनपरत्वं जातरूपधरत्वं विधिः...। सर्व परित्यज्य तत्प्रसक्तं पनोदण्डं करपात्रं दिगम्बर दृष्टवा परिव्रजेभिक्षुः ।।१।। ....अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्वा चरति यो मुनिः। न तस्य सर्वभूतेभ्यो भयमुत्पद्यते क्वचित्।।१६।।.......... आशानिवृत्तो भूत्वा आशाम्बरधरो पूत्वा सर्वदा मनोवाक्कायकर्मभिः सर्वसंसारमुत्सृज्य प्रपञ्वाचा मुखः भागनुसन्धानेन भाकीट दायेमतो मलीन्यूनिषद ।। पञ्चमोपदेशः।" दिगम्बरं परमहंसस्य एककौपीनं वा तुरीयातीतावधूतयोथाजातरूपधरत्वं हंसपरमहंसयोरजिनं न त्वन्येषाम् ....सप्तमोपदेशः। वैराग्य संन्यासी का भेद एक अन्य प्रकार से किया गया है। इस प्रकार से परिव्राजक संन्यासियों के चार भेद किये गए हैं- (१) वैराग्य संन्यासी, (२) ज्ञान संन्यासी, (३) ज्ञान वैराग्य संन्यासी और (४) कर्म संन्यासी। इनमें से ज्ञान वैराग्य संन्यासी को भी नग्न होना पड़ता है।' "भिक्षुकोपनिषद् में भी लिखा है अथ जातरूपधरा निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहाः शुक्लध्यानपरायणा आत्मनिष्ठाः प्राणसंधारणार्थ यथोक्तकाले भैक्षमाचरन्तः शून्यागारदेवगृहणकूटवल्मीकवृक्षमूलकुलाल-शालाग्निहोत्र-शालानदीपुलिनगिरिकन्दर-कुहर-कोटर-निर्झरस्थण्डिले तत्र ब्रह्ममार्गे सम्यक्संपन्नाः शुद्धमानसाः परमहंसाचरणेन संन्यासेन देहत्यागं कुर्वन्ति ते परमहंसा नामेत्युपनिषत्।' 'तुरीयातीतोपनिषद्' में उल्लेख इस प्रकार है "संन्यस्य दिगम्बरो भूत्वा विवर्णजीर्णवल्कलाजिनपरिग्रहमपि संत्यज्य तदू पपन्त्रवदाचरन्क्षौराभ्यंगस्नानोर्ध्वपुण्डादिकं विहाय लौकिकवैदिकमप्युपसंहृत्य १. ईशाय., पृ. २७१। २. ईशाध.,पृ. २७२। ३. क्रमेण सर्वमभ्यस्य सर्वमनुभूय ज्ञानवैराग्याभ्यां स्वरूपानुसंधानेन देहमात्राविशिष्टः संन्यस्य जातरूपधरो भवति स ज्ञानवैराग्यसंन्यासी। - नारदपरिव्राजकोपनिषद् १ ।।५।। तथा संन्यासोपनिषद्। ४. ईशाध., पृ. ३६८। दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि (27) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वत्र पुण्यापुण्यवर्जितो ज्ञानाज्ञानमपि विहाय शीतोष्णसुखदुःखमानावमानं निर्जित्य निन्दानिन्दा गर्वमत्सरदम्भदर्पद्वेषकामक्रोधलोभमोह वासनात्रयपूर्वकं हर्षार्पासूयात्मसंरक्षणादिकं दग्ध्वा ... इत्यादि । 'संन्यासोपनिषद' में और भी उल्लेख इस प्रकार हैवैराग्य- संन्यासी, ज्ञान- संन्यासी, ज्ञान- - वैराग्य-संन्यासी, वहति कर्मसंन्यासीति चतुर्विध्यमुपागतः । दृष्टानुभूतिकविषयवैतृष्ण्यमेत्य प्राक्पुण्यकर्मविशेषात्संन्यस्तः स वैराग्यसंन्यासी । (.....) क्रमेण सर्वमभ्यस्य सर्वमनुभूय ज्ञानवैराग्याभ्यां स्वरूपानुसंधानेन देहमात्रावशिष्टः संन्यस्य जातरूपधरो भवति स ज्ञानवैराग्यसंन्यासी । १ 'परमहंसपरिव्राजकोपनिषद् में भी दिगम्बर मुनियों का उल्लेख है “ शिखामुत्क्रम्य यज्ञोपवीतं छित्वा वस्त्रमपि भूमौ वाप्सु वा विसृज्य ॐ भूः स्वहा ॐ भुवः स्वाहाः स्वाह ॐ सुत्रः स्वाहेत्या तेन जातरूपधरो भूत्वा स्वं रूप ध्यायन्पुनः पृथक, प्रणनव्याहृतिपूर्वकं मनसा वचसापि संन्यस्तं मया....। यदाबुद्धिर्भवत्तदा कुटीचको वा बहूदको वा हंसो 설 परमहंसो वा तत्रन्यन्त्रपूर्वकं कटिसूत्रं कौपीनं दण्डं कमण्डलूं सर्वमप्सु विसृज्याथ जातरूपधरश्चरेत् । 'याज्ञवल्क्योपनिषद्' में दिगम्बर साधु का उल्लेख करक उसे परमेश्वर होता बताया हैं, जैसे कि जैनों की मान्यता है यथा जातरूपधरा निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहास्तत्त्वब्रह्ममार्गे सम्यक संपत्राः शुद्धमानसाः प्राणसंधारणार्थं यथोक्तकाले विमुक्तो भैक्षमाचरन्नुदरपात्रेण लाभालाभौ समो भूत्वा करपात्रेण मा कमण्डलूदकयो भैक्षमाचरन्नुदरमात्रसंग्रहः । .... आशाम्बरो न नमस्कारो न दारपुत्राभिलाषी लक्ष्यालक्ष्यनिर्वर्तकः परिव्राट् परमेश्वरो भवति । ४ (28) 'दत्तात्रेयोपनिषद्' में भी है दत्तात्रेय हरे कृष्ण उन्मत्तानन्द दायक। दिगम्बर मुने बालपिशाच ज्ञानसागर।" १. ईशाद्य, पृ. ४१० । २. ईशाद्य, पृ. ४१२३ ३. ईशाद्य., पू. ४१८ - ४१९ । ४. ईशाद्य, पृ. ५२४ । ५. ईशाद्य, पृ. ५४२ ॥ दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भिक्षुकोपनिषद्' आदि में संवर्तक, आरुणी, श्वेतकेतु, जड़भरत नात्रेय, शुक, वामदेव, हारीतिको आदि को दिगम्बर साधु बताया है। “याज्ञवल्क्योपनिषद्” में इनके अतिरिक्त दुर्वासा ऋभु निदाघ को भी तूरियातीत परमहंस बताया है।' इस प्रकार उपनिषदों के अनुसार दिगम्बर साधुओं का होना सिद्ध है। में ही किन्तु यह बात नहीं है कि मात्र काव हो, बल्कि वेदों में भी साधु की नग्नता का साधारण सा उल्लेख मिलता है। देखिये 'यजुर्वेद' अ. १९, मंत्र १४ 'में' "आतिथ्यरूपं मासरम् महावीरस्य नग्नहुः । रूपयुपसदामेतस्त्रिस्त्रो रात्री सुरासुता ।। अर्थ - (आतिथ्यरूपं ) अतिथि के भाव (मास) महीनों तक रहने वाले (महावीरस्य) पराक्रमशील व्यक्ति के (नग्नहुः ) नयनरूप की उपासना करो जिससे (एतत्) ये (तिस्रो) तीनों (रात्रीः ) मिथ्या ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूपी (सुर) मद्य (असुता) नष्ट होती है। इस मन्त्र का देवता अतिथि है। इसलिये यह मन्त्र अतिथियों के सम्बन्ध में ही लग सकता है, क्योंकि वैदिक देवता का मतलब वाच्य है, जैसा कि निरुक्तकार कर भाव है -- "याते नोच्यते सा देवताः ।" इसके अतिरिक्त 'अथर्ववेद' के पन्द्रहवें अध्याय में जिन व्रात्य और महाव्रात्य का उल्लेख है, उनमें महाव्रात्य दिगम्बर साधु के अनुरूप है। किन्तु यह व्रात्य एक वेदवाह्यसंप्रदाय था, जो बहुत कुछ निग्रंथ संप्रदाय से मिलता-जुलता था। बल्कि यूं कहना चाहिये कि वह जैन मुनि और जैन तीर्थंकर का ही द्योतक है। इस अवस्था में यह मान्यता और भी पुष्ट होती है कि जैन तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा दिगम्बरत्व का प्रतिपादन सर्वप्रथम हुआ था और जब उसका प्राबल्य बढ़ गया और लोगों को समझ पड़ गया कि परमोच्च पद पाने के लिए दिगम्बरत्व आवश्यक है तो उन्होंने उसे अपने शास्त्रों में भी स्थान दे दिया। यही कारण है कि वेद में भी इसका उल्लेख सामान्य रूप से मिल जाता है। अब हिन्दू पुराणादि ग्रंथों में जो दिगम्बर साधुओं का वर्णन मिलता है, वह भी देख लेना उचित है। श्री भागवत पुराण में ऋषभ अवतार के सम्बंध में कहा गया हैवर्हिषी तस्मिन्नेव विष्णुभगवान् परमर्षिभिः प्रसादतो नाभेः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मरुदेव्यां धर्मान् दर्शयतु कामो वातरशनानां श्रमणानां ऋषीणामूर्धा मन्थिना शुक्लया तनु वाक्ततार। १. 1T, 111.259-260 २. मालूम होता है कि इस मंत्र द्वारा बेदकार ने जैन तीर्थंकर महावीर के आदर्श को ग्रहण किया है। दूसरे धर्मों के आदर्श को इस तरह ग्रहण करने के उल्लेख मिलते हैं। JHQ, ]]], 472–485 | ३. १. देखी भपा प्रस्तावना, पृ. ३२-४९ । " दिगम्बरस्य और दिगम्बर मुनि (29) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ - "हे राजन् ! परीक्षित वा यज्ञ में परम ऋषियों करके प्रसन्न हो नाभि के प्रिय करने की इच्छा से वाके अन्तःपुर में मरुदेवी में धर्म दिखायवे की कामना करके दिगम्बर रहिवेवारे तपस्वी ज्ञानी नैष्ठिक ब्रह्मचारी ऊर्ध्वरेता ऋषियों को उपदेश देन को शुक्लवर्ण की देह धार श्री ऋषभदेव नाम का (विष्णु ने) अवतार लिया। ** "लिंग पुराण" (अ. ४७, पृ. ६८) में भी नग्न साधु का उल्लेख है - "सर्वात्मनात्मनिस्थाप्य परमात्मानमीश्वरं । नग्नो जटो निराहारो चोरीध्वांतगतो हि सः ।। २५॥ "स्कंधपुराण- प्रभासखंड ( अ. १६, पृ. २२१) शिव को दिगम्बर लिखा है रे - “वामनोपि ततश्चक्रे तत्र तीर्थावगाहनम् । यादृग्रूपः शिवो दिष्टः सूर्यबिम्बे दिगम्बरः । ९४ ।। श्री भर्तृहरि जी 'वैराग्यशतकों कहते हैं अर्थ - "हे शम्भो ! मैं अकेला, इच्छारहित, शांत, पाणिपात्र और दिगम्बर होकर कर्मों का नाश कन्त्र कर सकूंगा।" वह और भी कहते हैं" - अशीमहि वयं भिक्षामाशावासो वसीमहि । शयीमहि महीपृष्ठे कुर्वीहि किमीश्वरैः ||१०|| अर्थ- अब हम भिक्षा ही करके भोजन करेंगे, दिशा के ही वस्त्र धारण करेंगे अर्थात् नग्न रहेंगे और भूमि पर ही शयन करेंगे। फिर भला धनवानों से हमें क्या मतलब ? 'एकाकी निःस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः । कदा शम्भो भविष्यामि कर्मनिर्मलूनक्षपः ॥५८॥ सातवीं शताब्दी में जब चीनी यात्री ह्वेनसांग बनारस पहुंचा तो उसने वहाँ हिन्दूओं के बहुत से नंगे साधु देखे। वह लिखता है कि "महेश्वर भक्त साधु बालों को बांधकर जटा बनाते है तथा वस्त्र परित्याग करके दिगम्बर रहते हैं और शरीर में भस्म का लेप करते हैं। ये बड़े तपस्वी हैं। इन्हीं को परमहंस परिव्राजक कहना ठीक है। किन्तु ह्वेनसांग से बहुत पहिले ईस्वी पूर्व तीसरी शताब्दी में जब सिकन्दर महानू ने भारत पर आक्रमण किया था, तब भी नंगे हिन्दू साधु यहाँ मौजूद थे। अरस्तु का भतीजा स्पिडो कल्लिस्थेनस (Pseudo Kallisthenes ) सिकन्दर महान् के साथ यहाँ आया था और वह बताता है कि “ब्राह्मणों का श्रमणों की (30) १. . त्रे. पू. ३ । २. वेजै. पृ. ९ । ३. . वे पृ. ३४ । ४. बं. पृ. ४६ । वेर्ज. पृ. ४७ । ५. ६. हुआ. पू. ३२० । दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि : Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरह कोई संघ नहीं है। उनके साधु प्रकृति की अवस्था में (State of nature) नग्न नदी किनारे रहते हैं और नंगे ही घूपते हैं। (Go about naked) उनके पास न चौपाहे हैं, न हल है, न लोहा-लंगड़ है, न घर है, न आग है, न रोटी है, न सुरा है - गर्ज यह कि उनके पास अप और आनन्द का कोई सामान नहीं है। इन साधुओं को स्त्रियां गंगा की दूसरी ओर रहती हैं, जिनके पास जुलाई और अगस्त में वे जाते हैं। वैसे जंगल में रहकर वे वनफल खाते हैं।" सन् ८५१ में अरब देश से सुलेमान सौदागर भारत आया था। उसने यहाँ एक ऐसे नंगे हिन्दू योगी को देखा था जो सोलह वर्ष तक एक आसन से स्थित था। बादशाह औरंगजेब के जमाने में फ्रांस से आये हए डा. बर्नियर ने भी हिन्दओं के रमहंस (गे मुन्टा न कोयला :) |ह इनों 'जोगी' कहता है और इनके विषय में लिखता है I allude particulary to the people called "Jaugis" a name which significs "united to God" Numbers are seen, day and night, scalcd or laying on ashes entirely naked, Frequently under the large trees near találs or tanks of Waler or in the galleries round the 'Deuras' or idol icmples. Some have hair hanging down lo the call of llic lcg, twisted and entangled into Knots, like the cost of our shaggy dogs. I have seen scveral who hold one and some who hold hoth arms, perpetually lifted up alovc the hcad, the nails of their hands hcing twisted and longer than half my little finger, with which i measured them. Their arms are as small and thin as the arms of persons who die in a decline, becausc in se forced and unnatural a position they receive nol sulficicnt nourishment nor can they be lowered so as to supply the mouth with food, the muscles having become contracted and the articulation dry and stiff. Novices wait upon these fanatics and pay them the utmost respect, as persons endowed with cxtraordinary sanctity. No 'sury' in the infernal regions can be conceived more horrible than the Tavgise' with their naked and black skin, long, hair spindle arms, tong twisted nails and fixed in the posture which I have mentioned". 1,Al.,p.181. 2. Elliot., 1, P-4. 3. Bernier, P.316. दिगम्यरत्य और दिगम्बर मुनि (31) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव यही है कि बहुत से ऐसे जोगी थे जो तालाब अथवा मंदिरों में नंगे रात-दिन रहते थे। उनके बाल लम्बे-लम्बे थे। उनमें से कोई अपनी बाहें ऊपर उठाये रहते थे। नाखून उनके मुड़कर दूभर हो गये थे जो मेरी छोटी अंगुली के आधे के बराबर थे। सूखकर वे लकड़ी हो गये थे। उन्हें खिलाना भी मुश्किल था। क्योंकि उनकी नसें तन गयीं थीं। भक्तजन इन नागों की सेवा करते हैं और इनकी बड़ी विनय करते हैं। वे इन जोगियों से पवित्र किसी दूसरे को नहीं समझते और इनके क्रोध से भी बेढब इरते हैं। इन जोगियों की नंगी और काली चमड़ी है,लम्बे बाल हैं, सखी आई हैं, लम्बे पड़े हुए नारसन और है एकहपर ही उस आसन में जमे रहते हैं, जिसका पैन उल्लेख किया है। यह हठयोग की पराकाष्ठा है। परमहंस होकर वह यह न करते तो करते भी क्या? सन् १६२३ ई.पें पिटर डेल्ला बॉल्ला नामक यात्री आया था। उसने अहपदावाद में साबरमती नदी के किनारे और शिवालो में अनेक नागा साधु देखे थे, जिनको लोग बड़ी विनय करते थे। आज भी प्रयाग में कुम्भ के मेले के अवसर पर हजारों नागा संन्यासी वहाँ देखने को मिलते हैं। वे कतार बांधकर शरह-आम नंगे निकलते हैं। इस प्रकार हिन्दु शास्त्रों और यात्रियों की साक्षियों से हिन्दु धर्म में दिगम्बरत्व का महत्व स्पष्ट हो जाता है। दिगम्बर साधु हिन्दुओं के लिये भी पूज्य पुरुष हैं। १. पुरातत्व, वर्ष २,अंक ४, पृ. ४४० । (32) (32] दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस्लाम और दिगम्बरत्व । BANGH "I am no apostle of new doctrines". suid Muhanımad." neither know 1 what will be done with me or you". Koran, XLVI पैगम्बर हजरत महम्मद ने खुद फरमाया है कि "मैं किन्हीं नये सिद्धान्तों का उपदेशक नहीं हूँ और मुझे यह नहीं मालूम कि मेरे या तुम्हारे साथ क्या होगा ?" सत्य का उपासक और कह ही क्या सकता है ? उसे तो सत्य को गुमराह भाइयों तक पहुंचाना पड़ता है। मुहम्मद साहब को अरब के असभ्य लोगों में सत्य का प्रकाश फैलाना था। वह लोग ऐसे पात्र न थे कि एकदम ऊँचे दर्जे का सिद्धान्त उनको सिखाया जाता। उस पर भी हजरत मुहम्मद ने उनको स्पष्ट शिक्षा दी कि 'The love of the world is the root of all evil.' The world is as a prison and as a famine to Muslims; and when they Icave it you may say they leave faminc and a prison (Sayings of Mohammad) अर्थात्- “संसार का प्रेम ही सारे पाप की जड़ है। संसार मुसलमान के लिए एक कैदखाना और कहत के समान है और जब वे इसको छोड़ देते हैं तब तुम कह सकते हो कि उन्होंने कहत और कैदखाने को छोड़ दिया।" त्याग और वैराग्य का इससे बढ़िया उपदेश और हो भी क्या सकता है ? हजरत मुहम्मद ने स्वयं उसके अनुसार अपना जीवन बनाने का यथासंभव प्रयत्न किया था। उस पर भी उनके कम से कप वस्त्रों का परिधान और हाथ की अंगूठी उनकी नमाज में बाधक हुई थी। किन्तु यह उनके लिये इस्लाम के उस जन्मकाल में संभव नहीं था कि वह खुद नग्न होकर त्याग और वैराग्य-तर्के दुनिया का श्रेप्टतम उदाहरण उपस्थित करते। यह कार्य उनके बाद हुये इस्लाम के सूफी तत्ववेत्ताओं के भाग में आया। उन्होंने 'तर्क अथवा त्याग धर्म का उपदेश स्पष्ट शब्दों में यू दिया "To abandon the world, its comforts and Press, all thigs now and to come, -conformally with thic Hadees of the Prophıı. अर्थात्- “दुनिया का सम्बन्ध त्याग देना-तर्क कर देना-उसको आशाइशों और पोशाक-सब ही चीजों को अव की और आगे की-पैगम्बर साहब की हदीस के मुताबिका" - - - १. K.K., p. 738. २. Religious Attitude & Lifc in islam, p. 298 & K.K. 793. दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस उपदेश के अनुसार इस्लाम में त्याग और वैराग्य को विशेष स्थान मिला। उसमें ऐसे दरवेश हये जो दिगम्बरत्व के हिमायती थे और तर्किस्तान में 'अब्दलाAbdal), नापक दरवेश मादरजात नंगे रहकर अपनी साधना में ली रहते बताये गये है। इस्लाम के महान सूफी तत्वेत्ता और सुप्रसिद्ध 'मनस्वी' नामक ग्रन्थ के रचयिता श्री जलालुद्दीन रुमी दिगम्बरत्व का खला उपदेश निम्न प्रकार देते हैं१. “गुफ्त मस्त ऐ महतब बगुजार रख-अज बिरहना के तवां बुरदन गाव!" (जिल्द २ सफा २६२) २. “जापा पोशांरा नजर पागाज रास्त-जामै अरियाँ रा तजल्लो जेवर अस्त।" (जिल्द २ सफा ३८२) ३. “याज अरियानान बयकसू बाज रव-या यूँ ईशां फारिंग व बेजामा शव!" ४. "वरनमी तानी कि कुल अरियाँ शबी-जामा कम कुन ता रह औरत रवी!" (जिल्द २ सफा ३८३) इनका उर्दू में अनुवाद 'इल्हामे मन्जूम' नामक पुस्तक में इस प्रकार दिया हुआ १. पस्त बोला, महतब, कर काम जा, होगा क्या नंगे से तू अहदे वर आ। २. है नजर धोबी पै जामै-पोश की है, ताल्ली जेवर अरियां तनी !! ३. या विरहनों से हो यकसू वाकई, या हो उनकी तरह बेजापै अखी! ४, मुतलकन अरियाँ जो हो सकता नहीं, कपड़े कम यह है कि औसत के करी!! भाव स्पष्ट है कोई तार्किक मस्त नंगे दरवेश से आ उलझा। उसने सीधे से कह दिया कि जा अपना काम कर, तू नंगे के सामने टिक नहीं सकता। वस्त्रधारी को हमेशा धोबी की फिकर लगी रहती है, किन्तु नंगे तन की शोभा देवी प्रकाश है। बस, या तो तू नंगे दरवेशों से कोई सरोकार न रख अथवा उनकी तरह आजाद और नंगा हो जा! और अगर त एकदम दूसरे कपड़े नहीं उतार सकता तो कम से कम कपड़े पहन और मध्यमार्ग को ग्रहण कर। क्या अच्छा उपदेश है। एक दिगम्बर जैन साधु भी तो यही उपदेश देता है। इससे दिगम्वरत्व का इस्लाम से सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है। १. "The higher saints of Islam, called Adals generally went about perfectly naked; as described by Miss Lucy M.Garnet in her exoellent account of the lives of Muslim Dervishes. entitled "Mysticism & Magic in Turkey."N.J., p. 10 २. जिल्द और पृष्ठ के नम्बर "मस्नवी के उर्दू अनुवाद "इल्हामे मन्जूम के हैं। (34) दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस्लाम के इस उपदेश के अनुरूप सैकड़ों मुसलमान फकीरों ने दिगम्बर वेष को गतकाल में धारण किया था। उनमें अबुलकासिम गिलानी और सरपद शहीद उल्लेखनीय हैं। सरपद बादशाह औरंगजेब के सपय में दिल्ली से होकर गुजरा है और उसके हजारो नंगे शिष्य भारत भर में बिखरे पड़े थे। वह पूल में कज़हान (अरमेनिया) का रहने वाला एक ईसाई व्यापारी था। विज्ञान और विद्या का भी वह विद्वान था। अरबी अच्छी खासी जनता था और व्यापार के निमित्त भारत में आया था। ठट्टा (सिंध) में एक हिन्दू लड़के के इश्क में पड़कर मजूनं बन गया।' तदोपरांत इस्लाम के सूफी दरवेशों की संगति में पड़कर मुसलमान हो गया। मस्त नंगा बह शहरों और गलियों में फिरता था। वह अध्यात्मवाद का प्रचारक था। घूमता-धामता वह दिल्ली जा डरा। शाहजहाँ का वह अन्त सपय था। दाराशिकोह, शाहजहाँ बादशाह का बड़ा लड़का, उसका पक्त हो गया। सरमद आनन्द से अपने मत का प्रचार दिल्ली में करता रहा। उस समय फ्रांस से आये हुए डा. बर्नियर ने खुद अपनी आँखों से उसे नंगा दिल्ली की गलियों में घूमते देखा था। किन्तु जब शाहजहाँ और दारा को मारकर औरंगजेब बादशाह हुआ तो सरमद की आजादी में भी अडंगा पड़ गया। एक मुल्ला ने उसकी नग्नता के अपराध में उसे फांसी पर चढ़ाने की सलाह औरंगजेब को दी, किन्तु औरंगजेब ने नग्नता को इस दण्ड की वस्तु न सपझा और सरपद से कपड़े पहनने की दरख्वास्त की। इएने उत्तर में सम्पद ने कहा “ऑकस कि तुरा कुलाह सुल्तानी दाद, पारा हम ओ अस्वाब परेशानी दाद, पोशानीद लबास हरकरा ऐबे दीद, बे ऐबा रा लबास अर्यानी दाद।" यानि "जिसने तुमको बादशाही ताज दिया, उसी ने हमको पेरशानी का सामान दिया। जिस किसी में कोई ऐब पाया, उसको लिबास पहनाया और जिनमें ऐन न पाये उनको नंगेपन का लिवास दिया।" १. K.K, p,739 and NJ.. pp. 8-9 २.J.G.,XX PP. 158-159 3. Bernier remarks : 'l was for a long time visgusled with a celebrated Fukire named Sarmen. Who paraded the streets of Delhi as naked as when he came into the world clc.' (Berniers Travels in the Mogul Empire. p. 317), 8. Emperor told the Ulema that Merc nudity cannot be a rcason of cxccution - J.G. XX, p. 158 दिगम्बराच और दिगम्बर मुनि Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | : बादशाह इस रुबाई को सुनकर चुप हो गया, लेकिन सरमद उसके क्रोध से बच न पाया। अब के सरमद फिर अपराधी बनाकर लाया गया। अपराध सिर्फ यह था कि वह 'कलमा' आधा पढ़ता है जिसके पाने होते है कि 'कोई खुदा नहीं हैं। इस अपराध का दण्ड उसे फांसी मिला और वह वेदान्त की बातें करता हुआ शहीद हो गया । उसको फांसी दिये जाने में एक कारण यह भी था कि वह दारा का दोस्त था । ' सरमद की तरह न जाने कितने नंगे मुसलमान दरवेश हो गुजरे हैं। बादशाह ने उसे मात्र नंगे रहने के कारण सजा न दो, यह इस बात का द्योतक है कि वह नग्नता को बुरी चीज नहीं समझता था और सचमुच उस समय भारत में हजारों नंगे फकीर थे। ये दरवेश अपने नंगे तन में भारी-भारी जंजीर लपेट कर बड़े लम्बे-लम्बे तीर्थाटन किया करते थे। सारांशतः इस्लाम मजहब में दिगम्बरत्व साधु पद का चिह्न रहा है और उसको अमली शक्ल भी हजारों मुसलमानों ने दो है और चूँकि हजरत मुहम्मद किसी नये सिद्धान्त के प्रचार का दावा नहीं करते, इसलिये कहना होगा कि ऋषभाचल से प्रकट हुई दिगम्बरत्व - गंगा की एक धारा को इस्लाम के सूफी दरवेशों ने भी अपना लिया था। १. जैम., पृ. ४। 3.GG, Vol. XX p. 159. "There is no Ciod" said Sarmad omitting but, Allah and Muhammad is His apostle." 3. "Among the vast number and endless variety of Fakires or Dervishes.....some carried a club like to Flercules, others had a dry & rough tiger-skin thrown over their shoulders....Several of these Fakires take long pilgrimages, not only naked, but laden with heavy iron chain such as are put about the legs of clephants."- Bernicr. p.317 दिगम्बरत्व और दिगम्बर पुनि (36) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६, ईसाई मज़हब और दिगम्बर साधु “And he stripped his clothes also, and prophesied before Samuel in like manner, and lay down naked all that day and all that night. Wherefore they said, is Saul also among the Prophets?" "Samuel XIX, 24 "At the same time spoke the Lord, by Isaiah the son of Amoz, saying, 'Go and loose the sackcloth from off the loins, and put off thy shoe from thy foot. And he did so, walking naked and bare foot. " -Isaiah XX, 2 ईसाई मज़हब में भी दिगम्बर का महत्व भुलाया नहीं गया है, बल्कि बड़े मार्के के शब्दों में उसका वहाँ प्रतिपादन हुआ मिलता है। इसका एक कारण हैं। जिस महानुभाव द्वारा ईसाई धर्म का प्रतिपादन हुआ था वह जैन श्रमणों के निकट शिक्षा पा चुका था।' उसने जैन धर्म की शिक्षा को ही अलंकृत भाषा में पाश्चात्य देशों में प्रचलित कर दिया। इस अवस्था में ईसाई मजहब दिगम्बरत्व के सिद्धान्त से खाली नहीं रह सकता और सचमुच बाईबिल में स्पष्ट कहा गया है कि " और उसने अपने वस्त्र उतार डाले और सैपुयल के समक्ष ऐसी ही घोषणा की और उस सारे दिन तथा सारी रात वह नंगा रहा। इस पर उन्होंने कहा, क्या साल भी पैगम्बरों में से है ?" - सैमुयल १९/२४ उसी समय प्रभु ने अयोज के पुत्र ईसाईया से कहा- जा और अपने वस्त्र उतार डाल और अपने पैरों से जूते निकाल डाल, ..... और उसने यही किया नंगा और नंगे पैरों वह विचरने लगा। - ईसाय्या २०/२ इन उद्धरणों से यह सिद्ध है कि बाईबिल भी मुमुक्षु को दिगम्बर मुनि हो जाने का उपदेश देती है और कितने ही ईसाई साधु दिगम्बर वेष में रह भी चुके हैं। ईसाईयों के इन नंगे साधुओं में एक सेन्टमेरी (St. Marry of Egypt.) नामक साध्वी भी थी। यह मिश्र देश की सुन्दर स्त्री थी, किन्तु इसने भी कपड़े छोड़कर नग्न-वेष में ही सर्वत्र विहार किया था। १. विको. भा. ३, पृ. १२८ । 1 २. The History of European Morals, ch. 4 & N.J., p.6. दिगम्बरत्व और दिसम्बर मुनि (37) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहूदी (Jews) लोगों की प्रसिद्ध पुस्तक “ The Ascension of Isaiah” (p.32) में लिखा है "(Those) who belive in the ascension into heaven withdrew settled on the mountain... -They were all prophets (Saints) and they had nothing with them and were naked." I' अर्थात् वह जो मुक्ति की प्राप्ति में श्रद्धा रखते थे एकान्त में पर्वत पर जा जमे । - वे सब सन्त थे और उनके पास कुछ नहीं था और वे नंगे थे । अपसल पीटर ने नंगे रहने की आवश्यकता और विशेषता को निम्न शब्दों में बड़े अच्छे ढंग पर "Clementine Homilies" में दर्शा दिया है "For we, who have chosen the future things, in so far as we possess more goods than these, whether they he clothings, or ....any other thing possess sins, because we ought not to have anything....To all of us possessions are sins.....The deprivation of these, in whatever way it may take place is the removal of sins. अर्थात- क्योंकि हम जिन्होंने भविष्य की चीजों को चुन लिया है, यहाँ तक कि हम उनसे ज्यादा सामान रखते हैं, चाहे वे फिर कपड़े-लत्ते हों या दूसरी कोई चीज़, पाप को रखें हुये है, क्योंकि हमें कुछ भी अपने पास नहीं रखना चाहिये। हम सबके लिये परिग्रह पाप है। जैसे भी हो वैसे इनका त्याग करना पापों को हटाना है। दिगम्बरत्व की आवश्यकता पाप से मुक्ति पाने के लिये आवश्यक ही है। ईसाई ग्रंथकार ने इसके महत्व को खूब दर्शा दिया है। यही वजह है कि ईसाई मज़हब के मानने वाले भी सैकड़ो दिगम्बर साधु हो गुजरे है। (238) ९. N.J., p.6. R. Ante Nicene Christian Library, XVII, 240 & N.J., p.7. दिगम्बरत्व और दिगम्बर पुनि Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७] दिगम्बर जैन मुनि "जधजादरुवजाद उप्पाडिद केसमंसगं सुद्ध। रहिंदं हिसादीदो अप्पडिकम्मं हदि लिग।।५।। मुच्छारंभविजुत्तं जुक्तं उवजोग जोग सुद्धीहि। लिंग ण परावेक्खं अपुणपत्र कारणं जोण्हं।।६।।" -प्रवचनसार दिगम्बर जैन मुनि के लिये जैन शास्त्रों में लिखा गया है कि उनका लिंग अथवा वेश यथाजातरूप नग्न हैं- सिर और दादी के उन्हें नहीं रखने होते। वे इन स्थानों के बालों को हाथ से उखाड़ कर फेंक देते है-यह उनको केशलञ्चन क्रिया है। इसके अतिरिक्त दिगम्बर जैन पुनि का वेश शुद्ध, हिंसादिरहित. श्रृंगाररहित, पमता-आरम्भ रहित, उपयोग ओर योग की बुद्धि सहित र व्यास रहि। मोक्ष का कारण होता है। सारांश रूप में दिगम्बर जैन मुनि का वेष यह है, किन्तु यह इतना दुर्द्धर और गहन है कि संसार-प्रपंच में फंसे हुए मनुष्य के लिये यह सम्भव नहीं है कि वह एकदम इस वेश को धारण कर ले, तो फिर क्या वेश अव्यवहार्य है? जैन शास्त्र कहते है, 'कदापि नहीं।" और यह है भी ठीक क्योंकि उनमें दिगम्बरत्व को धारण करने के लिये मनुष्य को पहले से ही एक वैज्ञानिक ढंग पर तैयार करके योग्य बना लिया जाता है और दिगम्बर पद में भी उसे अपने पूल उद्देश्य की सिद्धि के लिये एक वैज्ञानिक ढंग पर ही जीवन व्यतीत करना होता है। जैनेतर शास्त्रों में यद्यपि दिगम्बर देश का प्रतिपादन हुआ मिलता है. किन्तु उनमें जैनधर्म जैसे वैज्ञानिक नियम-प्रवाह की कपी है और यही कारण है कि परमहंस वानप्रस्थ भी उनमें सपत्नीक मिल जाते है। जैन धर्म के दिगम्बर साधुओं के लिये ऐसी बातें बिल्कुल असंभव है। अच्छा तो, दिगम्बर वेष धारण करने के पहले जैन धर्म समक्ष के लिए किन नियमों का पालन करना आवश्यक बतलाया है? जैन शास्त्रों में सचमुच इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है कि एक गृहस्थ एकदम छलांग मारकर दिगम्वरत्व के उन्नत १. यूनानी लेखकों ने उनका उल्लेख किया है। देखोA.I.1.181. दिगम्यस्थ और दिगम्बर मुनि (30) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शैल पर नहीं पहुंच सकता। उसको वहाँ तक पहुंचने के लिए कदम-ब-कदम आगे बढ़ना होगा। इसी क्रम के अनुरूप जैन शास्त्रों में एक गृहस्थ के लिए ग्यारह दर्जे नियत किये गये हैं। पहले दर्जे में पहुँचने पर कहीं गृहस्थ एक श्रावक कहलाने के योग्य होता है। यह दर्जे गृहस्थ की आत्मोन्नति के सूचक हैं और इनमें पहले दर्जे से दूसरे में आत्मोन्नत्ति की विशेषता रहती है। इनका विशद वर्णन जैन ग्रंथों में जैसे 'रत्नकरण्डश्रावकाचार में खूब मिलता है। यहाँ इतना बता देना ही काफी है कि इन दों से गुजर जाने पर ही एक श्रावक दिगम्बर पनि होने के योग्य होता है। दिगम्बर मुनि होने के लिये यह उनकी 'ट्रेनिंग' है और सचमुच प्रोषधोपवासव्रत प्रतिमा से उसे नंगे रहने का अभ्यास करना प्रारंभ कर देना होता है। मात्र पर्व-अष्टमी और चतुर्दशी के दिनों में वह अनारंभी हो, घर बाहर का काम-काज झेड़कर, व्रत-उपवास करता तथा दिगम्बर होकर ध्यान में लीन होता हैं।' प्यारहवीं प्रतिमा में पहुंचकर वह पात्र लंगोटी का परिग्रह अपने पास रहने देता है और गृहत्यागी वह इसके पहले हो जाता है।' ग्यारहवीं प्रतिमा का धारी वह 'ऐलक या क्षुल्लक आदरपूर्वक विधि सहित प्रासुक भोजन, यदि गृहस्थ के यहाँ मिलता है ग्रहण कर लेता है। भोजनपात्र का रखना भी उसकी खुशी पर अवलिम्बित है। बस, यह श्रावक- पद की चरम सीमा है। 'मुण्डकोपनिषद्' के 'मुण्डक श्रावक इसके समतुल्य होते हैं किन्तु वहाँ वह साधु का श्रेष्ठ रूप है।' इसके विपरीत जैन धर्म में उसके आगे मनि पद और है। मुनि पद में पहुंचने के लिये ऐलक- श्रावक को लाजमी तौर पर दिगम्बर-वेष धारण करना होता है और मुनि धर्म का पालन करने के लिये मूल और उत्तर गणों का पालन करना होता है। पुनियों के मूल गुण जैन शास्त्रों में इस प्रकार बताए गए हैं 'पंचय महत्वमा समिदीओ पच जिणवरोद्दिट्ठा। पंचेविंदियरोहा छम्पि य आवासया लोचो ।।२।। अच्चेल कमण्हाणं खिदिसयणपदंतधस्सण चेका ठिदिभोयणेभत्तं मूल गुणा अट्ठबीसा दु ।।३।। पूलाचार।। अर्थात्- "पाँच महाव्रत (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्माचर्य और अपरिग्रह), जिनबर कर उपदेशी हुई पाँच समितियाँ (ईर्या समिति, भाषासमिति. एषणा समिति, आदाननिक्षेपण समिति, मूत्रविष्ठादिक का शुद्ध भूमि में क्षेपण अर्थात् प्रतिष्ठापना समिति), पाँच इन्द्रियों का निरोध (चक्षु, कान, नाक, जीभ, स्पर्शन)-इन पाँच इन्द्रियों के विषयों का निरोध करना), छह आवश्यक (सापायिक, चतुर्विशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग), लोच, आचेलक्य, १. भमवु., पृ. २०५ तथा बौद्धो के 'अंगुचर निकाय में भी इसका उल्लेख है। २. वीर, वर्ष ८. पृ. २५१-२५५) (40) दिगम्परत्व और दिगम्बर मुनि Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्नान, पृथ्वीशयन, अंदतघर्षण, स्थिति भोजन, एक भक्त- ये जैन साधुओं के अट्ठाइस मूल गुण हैं।" ____ संक्षेप में दिगम्बर मुनि के इन अट्ठाइस पूल गुणों का विवेचनात्मक वर्णन यह (१) अहिंसा महाव्रत- पूर्णतः मन-वचन-कायपूर्वक अहिंसा धर्म का पालन करना। (२) सत्य महाव्रत- पूर्णतः रसायका पाल | (३)अस्तेय महाव्रत-अस्तेय धर्म का पालन करना। (४) ब्रह्मचर्य महाव्रत- ब्रह्मचर्य धर्म का पालन करना। (५) अपरिग्रह महाव्रत-अपरिग्रह धर्म का पालन करना। (६) ईर्या समिति- प्रयोजनवश निजींच मार्ग से चार हाथ जमीन देखकर चलना। (७)भाषा समिति- पैशून्य, व्यर्थ हास्य, कटोर वचन, परनिंदा, स्वप्रशंसा, स्त्री कथा, भोजन कथा, राज कथा, चोर कथा इत्यादि वार्ता छोड़कर मात्र स्वपरकल्याणक वचन बोलना। (८)एपण समिति- उग्दमादि छियालीस दोषों से रहित्, कृतिकारित नौ विकल्पों से रहित, भोजन में रागद्वेषरहित- समभाव से- बिना निमंत्रण स्वीकार करे, भिक्षा-वेला पर दातार द्वारा पड़गाहने पर इत्यादि रूप भोजन करना। (९)आदाननिक्षेपण समिति- ज्ञानोपकरणादि-पुस्तकादि का यत्नपूर्वक देखभाल कर उठाना-धरना। (१०)प्रतिष्ठापना समिति एकान्त, हरित व त्रसकायरहित, गुप्त, दूर, बिल-रहित, चौड़े, लोकनिन्दा व विरोध रहित स्थान में मल-मूत्र क्षेपण करना। (११)चक्षुनिरोध व्रत- सुन्दर व असुन्दर दर्शनीय वस्तुओं में राग-द्वेषादि तथा आसक्ति का त्याग। (१२)कर्णेन्द्रिय निरोध व्रत- सात स्वर रूप जीवशब्द (गान) और वीणा आदि से उत्पत्र अजीव शब्द रागादि के निमित्त कारण है, अतः इनका न सुनना। (१३)नाणेन्द्रिय निरोध व्रत- सुगन्धि और दुर्गन्ध में राग-द्वेष नहीं करना। (१४)रसनेन्द्रिय निरोध व्रत- जिह्वालम्पटता के त्याग सहित और आकांक्षा रहित परिणामपूर्वक दातार के यहाँ पिले भोजन को ग्रहण करना। (१५) स्पर्शनेन्द्रिय निरोध व्रत- कठोर. नरम आदि आठ प्रकार का दुःख अथवा सुख रूप स्पर्श में हर्ष- विपाद न रखना। दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि (41) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) सामायिक - जीवन - परण, संयोग-वियोग, मित्र-शत्रु, सुख-दुःख, भूख-प्यास आदि बाधाओं में राग-द्वेष रहित समभाव रखना, (१७) चतुर्विंशति - स्तव - ऋषभादि, चौबीस तीर्थंकरों की मन-वचनकाय की शुद्धतापूर्वक स्तुति करना। (१८) वन्दना- अरहंतदेव, निर्ग्रन्थ गुरु और जिन शास्त्र को मन-वचन-काय की शुद्धि सहित बिना मस्तक नमा नमस्कार करना | (१९) प्रतिक्रमण - द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव रूप किये गये दोष को शोधना और अपने आप प्रकट करना । (२०) प्रत्याख्यान - नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव- इन छहों में शुभ मन, वचन, काय से आगामी काल के लिये अयोग्य का त्याग करना। (२१) कायोत्सर्ग - निश्चित क्रियारूप एक नियत काल के लिये जिन गुणों की भावना सहित देह में ममत्व को छोड़कर स्थिति होना । (२२) केशलोंच- दो, तीन या चार महीने बाद प्रतिक्रमण व उपवास सहित दिन में अपने हाथ से मस्तक, दाढ़ी, मूंछ के बालों का उखाड़ना । (२३) अचेलक - वस्त्र, चर्म, टाट, तृण आदि से शरीर को नहीं ढ़कना और आभूषणों से भूषित न होना । (२४) अस्नान - स्नान उबटन अञ्जन- लेपन आदि का त्याग। (२५) क्षितिशयन - जीव बाधा रहित गुप्त प्रदेश में इण्डे अथवा धनुष के समान एक करवट से सोना । (२६) अदन्तधावन - अंगुली, नख, दातून, तृण आदि से दन्त-- मल को शुद्ध नहीं करना । (२७) स्थिति भोजन- अपने हाथों को भोजनपात्र बनाकर भोत आदि के आश्रय रहित चार अंगुली के अन्तर से समपाद खड़े रहकर तीन भूमियों की शुद्धता से आहार ग्रहण करना। (२८) एक भक्त - सूर्य के उदय और अस्त काल को तीन घड़ी समय छोड़कर एक बार भोजन करना। इस प्रकार एक मुमुक्षु दिगम्बर मुनि के श्रेष्ठपद को तब ही प्राप्त कर सकता है जब वह उपर्युक्त अट्ठाइस मूल गुणों का पालन करने लगे। इनके अतिरिक्त जैन मुनि के लिए और भी उत्तर गुणों का पालन करना आवश्यक है, किन्तु ये अट्ठाइस मूल गुण हो ऐसे व्यवस्थित नियम हैं कि मुमुक्षु को निर्विकारी और योगी बना दें। यही कारण है कि आज तक दिगम्बर जैन मुनि अपने पुरातन वेष में देखने को नसीब (42) दिगम्बर और दिगम्बर मुनि Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो रहे हैं। यदि यह वैज्ञानिक नियम प्रवाह जैन धर्म में न होता तो अन्य मतान्तरों के नग्न साधुओं के सदृश आज दिगम्बर जैन साधुओं के भी दर्शन होना दुर्लभ हो जाते। दिगम्बर साधु- नंगे जैन साधु के लिये 'दिगम्बर साधु' पद का प्रयोग करना ही हम उचित समझते हैं- ये उपयुक्त प्रारम्भिक गुणों को देखते हुये, जिनके बिना वह मुनि ही नहीं हो सकता, दिगम्बर पुनि के जीवन के कठिन श्रम, इन्द्रिय निग्रह, संयम, धर्म भाव, परोपकार वृत्ति, निशंक रूप इत्यादि का सहज ही पता लग जाता है। इस दशा में यदि वे नगदहा हो तो आर्य कन्या ! दिगम्बर मुनियों के सम्बन्ध में यह जान लेना भी जरूरी है कि उनके (१) आचार्य, (२) उपाध्याय और (३) साधु रूप तीन भेदों के अनुसार कर्तव्य में भी भेद है। आचार्य साधु के गुणों के अतिरिक्त सर्वकाल सम्बन्धी आधार को जानकर स्वयं तद्वत् आचरण करे तथा दूसरों से करावे, जैन धर्म का उपदेश देकर मुमुक्षुओं का संग्रह करें और उनको सार-संभार रखे। उपाध्याय का कार्य साधु कर्म के साथ-साथ जैन शास्त्रों का पठन-पाठन करना है। जो मात्र उपर्युक्त गुणों को पालता हुआ ज्ञान-ध्यान में लीन रहता है, वह साधु है। इस प्रकार दिगम्बर मुनियों को अपने कर्त्तव्य के अनुसार जीवनयापन करना पड़ता है। आचार्य महाराज जी का जीवन संघ के उद्योत में ही लगा रहता है, इस कारण कोई-कोई आचार्य विशेष ज्ञान-ध्यान करने की नियत से अपने स्थान पर किसी योग्य शिष्य को नियुक्त करके स्वयं साधु-पद में आ जाते हैं। मुनि-दशा हो साक्षात् मोक्ष का कारण है। दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] Powww ३.3vSvac. .. .. 25 . र . .. ०४. | दिगम्बर मुनि के पर्यायवाची नाम दिगम्बर मुनि के लिये जैनशास्त्रों में अनेक शब्द व्यवहत ये मिलते हैं, तथानि चैनेलर साहित्य में एक ही अधिक कामों से उल्लिखित हुये हैं। संक्षेप में उनका साधारण सा उल्लेख कर देना उचित है, जिससे किसी प्रकार की शंका को स्थान न रहे। साधारणतः दिगम्बर मुनि के लिये व्यवहत शब्द निम्न प्रकार देखने को मिलते हैं अकच्छ, अकिञ्चन, अचेलक (अचेलव्रती). अतिथि, अनगारी. अपरिग्रही. अहीक, आर्य, ऋषि, गणी, गुरु, जिनलिंगी, तपस्वी, दिगम्बर, दिग्वास, नान, निश्चेल. निग्रंथ, निरागार, पाणिपात्र, भिक्षक, पहाव्रती, पाहण, मुनि, यति, योगी, वातवसन, विवसन, संयमी (संयत), स्थविर, साधु, सन्यस्थ, श्रमण, क्षपणका संक्षेप में इनका विवरण इस प्रकार है१.अकच्छ'- लंगोटी रहित जैन मुनि। । २.अकिञ्चन-जिनके पास किंचित् मात्र (जरा भी)परिग्रह न हो बह जैन मुनि। 3.अचेलक या अचेलवती- चेल अर्थात वस्त्र रहित साध। इस शब्द का व्यवहार जैन और जेनेतर साहित्य में हुआ मिलता है। मूलचार में कहा है “अच्चेलक लोचो वासट्ठसरीरदा य पडिलिहणं। एसो ह लिंगकप्पो चद् विधो होदिणादव्वो।। ९०८।।" अर्थ-'आचेलक्य अर्थात् कपड़े आदि सब परिग्रह का त्याग, केशलोंच, शरीर संस्कार का अभाव, पोर पोछो-यह चार प्रकार लिंगभेद जानना।' श्वेताम्बर जैन ग्रंथ “आचारांगसूत्र" में भी अचेलक शब्द प्रयुक्त हुआ मिलता "जे अचेले परि चुसिए तस्सणं भिक्खुस्सणो एवभनद" "अचेलए ततो चाई, तं वोसज्ज वत्थमणगारे।" उनके 'ठाणांगसूत्र में हैं "पंचहि ठाणेहि सपणे निग्गथे अचेलए सचेलयाहि निग्गंथीहिं सद्धिं सेवसयाणे नाइक्कपई।" १. वृजेश., पृ. ४। २. hidi ३, पृष्ठ ३२६। ४. आचा.,पृ. १५१। ५. अध्याय १, उद्देश्य १, सूत्र ४.। (44) दिगम्बरत्य और दिगम्बर मुनि Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात्-"और भी पाँच कारण से वस्त्र रहित साधु वस्त्र सहित साध्वी साथ रहकर जिनाज्ञा का उल्लंघन करते हैं। बौद्ध शास्त्रों में भी जैन मुनियों का उल्लेख 'अचेलक रूप में हुआ मिलता है। जैसे "पाटिकयुत्त अवेलो"- अचेलक पाटिक पुत्र, यह जैन साधु थे। चीनी त्रिपिटक में भी जैन साधु "अचेलक' नाम से उल्लिखित हुए हैं।' बौद्ध टीकाकार बुद्धघोष 'अचेलक से भाव नग्न केलेते हैं।" ४.अतिथि- ज्ञानादि सिद्धर्थ तनुस्थित्यर्थान्नाय यः स्वयम्, यत्नेनातति मेह वा न तिथिर्यस्य सोऽतिथिः। -सामार धर्मामृत, अ.५, श्लो. ४२ जिनके उपवास, व्रत आदि करने को गृहस्थ श्रावक के समान अष्टमी आदि कोई खास तिथि (तारीख) नियत न हो, जब चाहे करें। ५.अनगार-आगाररहित, गृहत्यागी दिगम्बर मुनि। इस शब्द का प्रयोग अणयारमहरिसीणं-मूलाचार, अनगार भावनाधिकार, श्लो. २ में, अनगार महर्षिणां इसकी श्लोक की संस्कृत छाया और न विद्यतेऽगारं गृहं स्त्रयादिकं येषांतेऽनगार” इसी श्लोक की संस्कृत टीका में मिलता है। श्वेताम्बरीय आचारांग सूत्र में हैं "तं वोसज्ज वत्थ-मणगारे। ६.अपरिग्रही- तिलत्षपात्र परिग्रह रहित दिगम्बर मुनि। ७.अह्नीक- लज्जाहीन, नंगे मुनि। इस शब्द का प्रयोग अजैन ग्रंथकारों ने दिगम्बर मुनियों के लिए घृणा प्रकट करते हुए किया है, जैसे बौद्धों के 'दाठावंश में है - __ 'इमे अहिरिका सब्बे सद्धादिगुणवज्जिता। श्रद्धा सटाच दुपञ्चा सम्ममोक्ख विबन्धका।।८८।।' बौद्ध नैयायिक कमलशील ने भी जैनों का 'अह्रीक' नाम से उल्लेख किया है (अह्नीकादयश्चोदयन्ति, स्याद्वाद परीक्षा प्र. 'तत्वसंग्रह', पृ. ४८६)। वाचस्पति अभिधानकोष में भी 'अह्रीक' को दिगम्बर मुनि कहा गया है-"अह्रीक क्षपणके तस्य दिगम्बरत्वेन लज्जाहीनत्वात् तधात्वम्।" 'हेतुबिन्दुतर्कटीका' में भी जैन मुनि के धर्म का उल्लेख 'क्षपणक' और 'अह्रीक' नाम से हुआ है तथा श्वेताम्बराचार्य श्री वादिदेवसरि ने भी अपने 'स्याद्वाद-रत्नाकर' ग्रंथ में दिगम्बर जैनों का उल्लेख अह्रीक नाम से किया है। (स्याद्वादरत्नाकर, पृ. २३०) १, ठाणा., पृ५६१। २. भमयु., पृ १०, २५५। ३. "वीर", वर्ष ४, ५. ३५३। ४, अचेलकोऽतिनिच्चेलो नग्गो।'IO.III. p.245 । ५.बृजेश॰, पृ.४। ६. आचा, पृ. २१०। ७. दाठा., पृ१४। ८. पुरातत्व वर्ष ५, अंक ४, पृ. २६६,२६७। दिगम्बरत्य और दिगम्बर मुनि Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८.आर्य- दिगम्बर मुनि। दिगम्बराचार्य शिवार्य अपने दिगम्बर गुरुओं का उल्लेख इसी नाम से करते हैं "अज्ज जिणणंदिगणि, सव्वगत्तगणि अज्जमित्तणंदीण। अवगपिय पादमूले सम्मसुत्तं च अत्थं च।। पुव्यायरिय णिवद्धा उपजीविता इमा ससत्तीए। आराधण सिवज्जेण पाणिदल भोजिणा रइदा।" यह सब आर्य (साधु) पाणिपात्रभोजी दिगम्बर थे। ९.ऋषि- दिगम्बर साधु का एक भेद है (यह शब्द विशेषतया ऋद्धिधारी साधु के लिए व्यवहत होता है) श्री कुन्दकुन्दाचार्य इसका स्वरूप इस प्रकार निर्दिष्ट करते हैं -- 'णय, राय, दोस, मोहो, कोहो, लोहो, य जस्स आयत्ता। पंच महव्वयधारा आयदणं महरिसी भणियं ।।६। अर्थात- मद, राग, दोष, पोह, क्रोध, लोभ, माया आदि से रहित जो पंचमहाव्रतधारी हैं, वह पहाऋषि हैं। १०.गणी-मुनियों के गण में रहने के कारण दिगम्बर मुनि इस नाम से प्रसिद्ध होते हैं। 'मूलाचार मे इसका उल्लेख निम्न प्रकार हुआ है "विस्समिदो तदिवसं मोमंसिता णिवेदयदि गणिणो।" ११.गुरु- शिष्यगण-पुनि श्रावकादि के लिये धर्मगुरु होने के कारण दिगम्बर मुनि इस नाम से भी अभिहित है। उल्लेख यू पिलता है "एव आपुच्छिता सगवर गुरुणा विसज्जिओ संतो।" १२.जिनलिंगी- "जनेन्द्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट नग्न वेष का पालन करने के कारण दिगम्बर मुनि इस नाप से भी प्रसिद्ध हैं। १३.तपस्वी-विशेषतर तप में लीन होने के कारण दिगम्बर मनि तपस्वी कहलाते हैं। 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में इसकी व्याख्या निम्न प्रकार की गई है "विषयाशाबशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः।। ज्ञान-ध्यान-तपोरक्तस्तस्वी स प्रशस्यते।।१०।। १४.दिगम्बर- दिशायें उनके वस्त्र हैं इसलिये जैन मुनि दिगम्बर हैं। मुनि कनकामर अपने को जैन मुनि हुआ दिगम्बर शब्द से ही प्रकट करते हैं १. जैहि, , पा. १२, पृ. ३६० । २. अष्ट., पृ. ११४॥ ३.मूला.,पृ. ७५ | ४. मूला, पृ.६७। ५.वृजेश.. पृ. ४॥ ६.र.पा., पृ.८। दिगम्बरप औ दिगम्बर मुनि Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "बइरायहं हुबई दियंवरेण। सुप्रसिद्ध णाप कणयापरण।। हिन्दू पुराणादि ग्रन्थों में भी जैन मुनि इस नाम से उल्लिखित हुए हैं।' १५.दिम्वास- यह भी नं. १४ के भाव में प्रयुक्त हुआ जैनेतर साहित्य में मिलता है। 'विष्णु पुराण' में (५ । १०) में हैं-दिग्याससापयं धर्मः। १६. नग्न-यथाजातरूप जैन मुनि होते है, इसलिये वह नग्न कहे गए हैं। श्री कुदकन्दाचार्य जी ने इस काम का उल्लेख किया है "भावेण होइ णगो, वाहिरलिंगेण किं च णग्गेण।" वराहमिहिर कहते हैं-"नग्नान जिनानां विदुः। १७. निश्चेल- वस्त्र रहित होने के कारण यह नाम है। उल्लेख इस प्रकार हैं "णिच्चेल पाणिपत्तं उवइहें परम जिणवरिंदेहि।"५ १८. निग्रंथ- ग्रंथ अर्थात् अन्तर-बाहर सर्वथा परिग्रह रहित होने के कारण दिगम्बर पनि इस नाम से बहुत प्राचीन काल से प्रसिद्ध हैं। "धर्मपरीक्षा में निग्रंथ साधु को बाह्याभ्यन्तर ग्रन्थ (परिग्रह) रहित नग्न ही लिखा है त्यक्तबाह्यान्तरपॅथो निःकषायो जितेन्द्रियः। परीपहसहः साधुर्जातरूपधरो मतः ।।१८।७६।।' “मूलाचार" में भी अचेलक मूल गुण की व्याख्या करते हुये साधु को निग्रंथ भी कहा गया है "वत्थाजिणवक्केण य अहवा पत्तादिणा असंवरण। णिभूसण णिग्गंथं अच्चैलक्कं जगदि पूज्ज।।३०।।" ___'भद्रबाहु चरित्र' के निम्न श्लोक भी निर्थ शब्द का भाव दिगम्बर प्रकट करते 'निग्रंथ-मार्गमत्सृज्य सग्रन्थत्वेन ये जड़ाः। व्याचक्षन्ते शिवं नृणां तद्वचो न घटापटेत ।। ९५।।' अर्थ-"जो पूर्ख लोग निग्रंथ पार्ग के बिना परिग्रह के सदभाव में भी मनुष्यों को मोक्ष का प्राप्त होना बताते हैं। उनका कहना प्रमाणभूत नहीं हो सकता।" १. वीर, वर्ष ४, पृ. २०१। २. विष्णु पुराण में है 'दिगम्बरो मुण्डो बर्हपत्रधरः' (५-२), पद्यपुराण (भूतिखण्ड, अध्याय ६६), प्रबोधचन्द्रोदयनाटक, अंक ३ (दिगम्बर सिद्धान्तः, पंचतन्त्रः "एकाकी गृहसंत्यक्त पाणिपात्रो दिगम्बरः।" -पंचतन्त्र ३. अष्ट., पृ. २००। ४. बराहमिहिर, १९ ।६२ । ५. अष्ट. पृ.६३। ६. मूला. पृ. १३। ७, भद्र., ७८ व८६। दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि (47) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अहो निग्रंथता शून्यं किपिदं नौतनं पतम्। न मेऽत्र युज्यते गन्तु पात्रदण्डादिपण्डितम्।। १४५।।" । अर्थ-"अहो। निग्रंथतारहित यह दण्ड पात्रादि सहित नवीन मत कौन है? इनके पास पेरा जाना योग्य नहीं है।" 'भगवन्मदाग्नहादग्न्या गृहणीतापर-पूजिताम्। निग्रंथपदवी पूतां हित्वा संग मुदाखिलम।।१४९।। अर्थ- भगवन! मेरे आग्रह से आप सब परिग्रह छोड़करपहले ग्रहण की हुई देवताओं से पूजनीय तथा पवित्र निग्रंथ अवस्था ग्रहण कीजिये।" 'संग' शब्द का अर्थ अगले श्लोक में जंगवर मावि म... विमा है। उ मल कपष्ट है कि निग्रंथ अवस्था वस्त्रादिरहित दिगम्बर है। किन्तु दुर्भाग्य से जैन-समाज में कुछ ऐसे लोग हो गए हैं जिन्होंने शिथिलाचार के पोषण के लिए वस्त्रादि परिग्रहयुक्त अवस्था को भी निग्रंथ मार्ग घोषित कर दिया है। आज उनका संप्रदाय 'श्वेताम्बस्जैन नाम से प्रसिद्ध है। यद्यपि उनके परातन ग्रंथ दिगम्बर वेष को प्राचीन और श्रेष्ठ मानते हैं, किन्तु अपने को प्राचीन संप्रदाय प्रकट करने के लिये यह वस्त्रादि युक्त भी निग्रंथ मार्ग प्रतिपादित करते हैं। यह मान्यता पुष्ट नहीं है। इसलिये संक्षेप में इस पर यहाँ विचार कर लेना समुचित है। श्वेताम्बर ग्रंथ इस बात को प्रकट करते हैं कि दिगम्बर (नग्न) धर्म को भगवान ऋषभदेव ने पालन किया था-वह स्वयं दिगम्बर रहे थे और दिगम्वर वेष इतर वेषों से श्रेष्ठ हैं, तथापि भगवान् महावीर ने निथ श्रमण और दिगम्बरत्व का प्रतिपादन किया था और आगमी तीर्थकर भी उसका प्रतिपादन करेंगे, यह भी श्वेताम्बर शास्त्र प्रकट करते है। अतः स्वयं उनके अनुसार भी वस्त्रादियुक्त वेष श्रेष्ठ और मूल निग्रंथ धर्म नहीं हो सकता। ___ "श्वेताम्बराचार्य श्री आत्माराम जी ने भी अपने “तत्वनिर्णयप्रासाद" में निग्रंथ' शब्द की व्याख्या दिगम्बर भावपोषक रूप में दो है, यथा १. कल्पसूत्र-1.S.PL.I.,P.2851 २. आचारांग सूत्र में कहा है Those are called naked, who in this world never returning to a worldy stale), (follow) my rcligion according to the commandment. This highest doctrine has here been declared for mun"-J.S.1,P.56. "आउरण बज्जियाणं विशुद्धजिणकप्पियाणन्तु ।” । अर्थ-"वस्त्रादि आवरणयुक्त साधु से रहित जिनकल्पि साधु विशुद्ध है। संवत् . ५.३४ में मुद्रित प्रवचनसारोद्धार, भाग ३, पृ. १३ ॥ ३. "सजहानामए अजोमए समणाण निग्गंधाणं नागभावे मुण्ड भावे अण्हाणए अदन्तवणे अच्छत्तए अणुवाहणए भूमिसेज्जा फलग-सज्जा कट्ठसेज्जा केसलोए बंधचेरबासे दिगम्बरव और दिगम्मर मुनि Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कंथा कौपीनोत्तरा संगादीनाम् त्यागिनों यथा जातरूपधरा निर्ग्रथा निष्परिग्रहाः । " जैनेतर साहित्य और शिलालेखीय साक्षी भी उक्त व्याख्या की पुष्टि करती है। वैदिक साहित्य में 'निर्ग्रथ' शब्द का व्यवहार 'दिगम्बर साधु के रूप में ही हुआ मिलता है। टीकाकार उत्पल कहते हैं? - " निर्ग्रथों नग्नः क्षपणकः ।” इसी तरह सायणाचार्य भी निर्ग्रथ शब्द को दिगम्बर मुनि का द्योतक प्रकट करते हैं? - त्यागिना, निर्ग्रथा "कथा निष्परिग्रहाः । इति संवर्तश्रुतिः । हिन्दूपद्यपराण' में दिगम्बर जैन मुनि के मुख से कहलाया गया है"अर्हतो देवता यत्र, निर्ग्रथो गुरुरुच्यते । " कौपोनोत्तरा संगादिनाम् यथाजातरूपधरा अब यदि निग्रंथ के मात्र वस्त्रधारी साधु के होते तो दिगम्बर मुनि उसे अपने धर्म का गुरु न बताते। इससे स्पष्ट है कि यहाँ भी निर्ग्रथ शब्द दिगम्बर मुनि के रूप में व्यवहृत हुआ है। “ब्रह्माण्डपुराण" के उपोद्धात ३, अ. १४, पृ. १०४ में है “नग्नादयो न पश्येयुः श्राद्धकर्म - व्यवस्थितम् ||३४|| " अर्थात- "जब श्राद्धकर्म में लगे तब नग्नादिकों को न देखे।" और आगे इससे पृष्ठ पर ३९ वें श्लोक में लिखा है कि नग्नादिक कौन हैं? "वृद्ध श्रावक निर्ग्रथाः इत्यादि" । ३ वृद्ध श्रावक शब्द क्षुल्लक - ऐलक का द्योतक है तथा निर्ग्रथ शब्द दिगम्बर मुनि का द्योतक है अर्थात् जैन धर्म के किसी भी गृहत्यागी साधु को श्राद्धकर्म के समय लावलद्ध वित्तीओ जात्र पण्णत्ताओ एवामेव महा परमेवि अरहा समणाणं णिग्गंथाणं नागभावे जाव सद्भावल वित्तीओ जाव पत्रदेहित्ति ।" अर्थात् भगवान महावीर कहते हैं कि श्रमण निर्ग्रथ को नग्नभाव, मुण्डभाव, अस्नान, छत्र नहीं करना, पगरखी नहीं पहनना, भूमिशैया, केशलोंच, ब्रह्मचर्य पालन, अन्य के ग्रह में भिक्षार्थ जाना, आहार की वृत्ति जैसे मैने कहीं वैसे महापद्य अरहंत भी कहेंगे। ठाणा, पृ. ८१३ । 'नगिणापिडोलगाहमा | मुण्डकण्डु विणण ।। ७२ ।। 'अहाइ भगवं एवं से दंते दविए वोसकाएत्रिवच्चे-माहणोति व 'भित्तित्रा, मिरगंथेत्ति वा पडिभार भेते।' १. LH.O.III, 245. २. तत्वनिर्णयप्रसाद, प्र. ५२३ त्र दि. जै. १०-१-४८. ३. के जै. दिगम्बात्व और दिगम्बर मुनि पृ. १४ । - सयांग समणेति वा, - सूयडांग, २५८ (49) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं देखना चाहिये, क्योंकि संभव है कि वह उपदेश देकर उसकी निस्सारता प्रकट कर दें। अतः वैदिक साहित्य के उल्लेखों से भी निर्ग्रथ शब्द नग्न साधु के लिये प्रयुक्त हुआ सिद्ध होता है। बौद्ध साहित्य भी इस ही बात का पोषण करता है। उसमें 'निर्ग्रथ' शब्द साधु रूप में सर्वत्र नग्न मुनि के भाव में प्रयुक्त हुआ मिलता है। भगवान् महावीर को बौद्ध साहित्य में उनके कुल अपेक्षा निर्ग्रथ नातपुत्त कहा है और श्वेताम्बर जैन साहित्य से भी यह प्रकट है कि निर्ग्रथ महावीर दिगम्बर रहे थे। बौद्ध शास्त्र भी उन्हें निग्रंथ और अचेलक प्रकट करते हैं। इससे स्पष्ट है कि बौद्धों ने 'निर्ग्रथ' और 'अचेलक' शब्दों को एक ही भाव (Sense) में प्रयुक्त किया है अर्थात् नग्न साधु के रूप में, तथापि बौद्ध साहित्य के निम्न उद्धरण भी इस ही बात के द्योतक हैं'दीघनिकाय ग्रंथ ( १ | ७८-७९ में लिखा है कि “Pasendi, King of Kosal saluted Niganthas." अर्थात्- कौशल का राजा पसनदी (प्रसेनजित) निर्ग्रथो (नग्न जैन मुनियों) को नमस्कार करता था। बौद्धों के 'महार' नामक ग्रंथ में लिखा है कि “एक बड़ी संख्या में निधगण वैशाली में सड़क - सड़क और चौराहे चौराहे पर शोर मचाते दौड़ रहे थे। इस उल्लेख से दिगम्बर मुनियों का उस समय निर्बाध रूप में राज मार्गो से चलने का समर्थन होता है। वे अष्टमी और चतुर्दशी को इकट्ठे होकर धर्मोपदेश भी दिया करते MA 'विशाखा' में भी निर्ग्रर्थ साधु को नग्न प्रकट किया गया है। " 'दीर्घनिकाय' के 'पासादिक सुत्तन्त' में है कि “जब निगन्द्र नातपुत्त का निर्वाण हो गया तो निर्ग्रथ मुनि आपस में झगड़ने लगे। उनके इस झगड़े को देखकर श्वेत वस्त्रधारी गृही श्रावक बड़े दुःखी हुये। अब यदि निर्ग्रथ साधु भी श्वेत वस्त्र पहनते होते तो श्रावकों के लिये एक विशेषण रूप में न लिखे जात। अतः इससे भी 'निर्ग्रथ साधु' का नग्न होना प्रकट है। (50) १. मज्झिमनिकाय १ ९२ अंगुत्तरनिकाय १ । २२० ॥ २. जातक भा. २, पृ. १८२ भएबु. २४५ ॥ ३. Indian Historical Quarterly Vol. 1. p. 153. ४. महावग्ग २ ।१ ।१ और भ महावीर और म बुद्ध ५२८० ॥ ५. म. पू. २५२ । ६. "तस्म कालकिरियाय भित्रा निगण्ठ हधिक जाना, भण्डन जाता कलह जाता वधो एवं खोमजेनिगण्ठे नाथ पुत्तियेसु वर्तति से पि निगन्स नाथपुत्तस्स साबका गिही ओदातवसना...दु रक्खाते इत्यादि । [[PTS. III. 117 118) भमतु २१४ । दिसम्बर और दिगम्बर सुनि Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'दाठावंसो में अहिरिका शब्द के साथ-साथ निगण्ठ शब्द का प्रयोग जैन साधु के लिये हु-सा मिलता है और हमारा हिरिक शब्द नाक द्योतक है। इसलिये बौद्ध साहित्यानुसार भी निग्रंथ साधु को नग्न मानना ठीक है। शिलालेखीय साक्षी भी इसी बात को पुष्ट करती है। कदम्बवंशी महाराज श्री विजयशिवमृगेश वर्मा ने अपने एक ताम्रपत्र में अहंत भगवान और श्वेताम्बर महाश्रमण संघ तथा निग्रंथ अर्थात् दिगम्बर महाश्रमण संघ के उपभोग के लिये कालवंग नामक ग्राम को भेंट में देने का उल्लेख किया है। यह ताम्रपत्र ई. पांचवी शताब्दी का है। इससे स्पष्ट है कि तब के श्वेताम्बर भी अपने को निग्रंथ न कहकर दिगम्बर संघ को ही निथ संघ मानते थे। यदि यह बात न होती तो वह अपने को 'श्वेतपट और दिगम्बर को 'निग्रंथ न लिखाने देते। कदम्ब ताम्रपत्र के अतिरिक्त विक्रम सं. ११६१ का ग्वालियर से मिला एक शिलालेख भी इसी बात का समर्थन करता है। उसमें दिगम्बर जैन यशोदेव को 'निर्ग्रथनाथ' अर्थात् दिगम्बर मुनियों के नाथ श्री जिनेन्द्र का अनुयायी लिखा है। अतः इससे भी स्पष्ट है कि 'निर्गथ' शब्द दिगम्बर मुनि का घोतक है।' चीनी यात्री ह्वेनसांग के वर्णन से भी यही प्रकट होता है कि निग्रंथ' का भाव नग्न अर्थात् दिगम्बर मुनि हैं The Li-hi (Niyanth's) distinguish themselves lyy leaving thưir bodies naked and pulling out their hair" (St. Julien, Vienna, p.224). अतः इन सब प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि 'निग्रंथ' शब्द का ठीक भाव दिगम्बर (नग्न) मुनि का है। १९. निरागार- आगार-घर आदि परिग्रह रहित दिगम्बर मुनि। 'परिगहरहिओ निरायारो'। १. 'इसमें अहिरिका सब्वे सद्धादिगुण वज्जिता। यद्धा साठाच दुप्पज्जासागमोक्ख विबन्धका |1८८।। इति सो चिन्तयित्वान गृहसीवो नराधिपो। पवाजेसि सकारट्ठा निगण्ठे ते अपेसके।।८९ ।। -दाठावंसो, पृ. १४ २. कदम्बा श्री विजयशिवगेशं वर्मा कालवगं ग्राम विघा विभज्य दत्तवान अत्रपूर्वमर्हच्छाला परमपुष्कलस्थान निवासिभ्यः पगवर्दहन्महाजिनेन्द्र देवताभ्य एकोभागः द्वितीयोहत्प्रोक्तसद्धर्मकरण परस्य श्वेतपट महाश्रमणसंघोपभोगाय तृतीयो निग्रंथमहाश्रमणसंघोपभोगायेति...। -जैहि.. भा. १४,पृ. २२२ । 3. The (iwalior inscrips of Vik. 1161 (1104 A.D.). "11 was composed by a Jaina Yasodeva, who was an adherent of the digambara or nude sect (Nigranihanalha)."-Catalogue of Archacalogical Exhibits in the U.P.P. Muscum, Lucknow, Pt.I (1915), p. 44, दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि (5) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. पाणिपात्र- करपात्र ही जिनका भोजनपात्र है, वह दिगम्बरमुनि। "णिच्चेल पाणिपतं' उबइठं परम जिणवरिंदेहि।' २१. भिक्षक-भिक्षावृत्ति का धारक होने के कारण दिगम्बर पुनि इस नाम से प्रसिद्ध होता है। इसका उल्लेख 'मूलाचार' में मिलता है "मणवचकायपउत्ती भिक्खू सावज्जकजसंजुत्ता। खि णिवारयंतो तिहि दु गुत्तो हवदि एसो।।३३१।। २२. महाव्रती'-पंच महाव्रतों को पालन करने के कारण दिगम्बर मुनि इस नाम से प्रगट हैं। २३. माहण ममत्व त्यागी होने के कारण माहण नाम से दिगम्बर मुनि अभिहित होता है। २४. मुनि- दिगम्बर साधु श्री कुन्दकुन्दाचार्य इस का उल्लेख यू करते हैं - "पंच पहब्वयजुत्ता पंचिंटिय संजमा गिरावेक्खा। सज्झायझाणजुत्ता मणिवर वसहा जिइच्छति।।' २५, यति-दिगम्बर पनि कुन्दकन्द स्वामी कहते हैं "सुद्धं संजमचरणं जइधम्म णिक्कलं वोच्छे" २६. योगी-योगनिरत होने के कारण दिगम्बर साध का यह नाम है। यथा "जं जाणियूण जोई जो अत्थो जोइ ऊण अणवरया अव्वाबाहमणतं अयोवयं लहइ णिव्याणं।।" २७. वातवसन-वायुरूपी वस्त्रधारी अर्थात् दिगम्बर मुनि। "श्रमण दिगम्बराः श्रमण वातवसनाः" -इतिनिघण्टुः २८. विवसन- वस्त्र रहित मुनि। वेदान्तसूत्र को टीका में दिगम्बर जैन मुनि 'विवसन' और 'विसिच्' कहे गए हैं। २१. संयमी(संयत्)- यमनियमों का पालक सो दिगम्बर मुनि। उल्लेख यूं है पंचमहव्वय जत्तो तिहि गतिहिं जो स संजदो होइ।" ३०. स्थविर दीर्घ तपस्वी रूप दिगम्बर मनि। 'मलाचार' में उल्लेख इस प्रकार : स्थविर- दीर्घ "तत्थ ण कप्पइ वासोजत्थ इमे णत्थि पंच आधारय। १, वृजेश, पृ. ४। २. अष्ट. पृ.१४२। ३. अष्ट.,पृ.९९) ४. अष्ट.,पृ. २९०। ५. अष्ट,,पृ. २९०। . ६. वेदान्तसूत्र २-२-३३ - शंकरभाष्य-वीर, वर्ष २, पृ. ३१७। ७. अष्ट,, पृ.७१। ८. मूला., पृ.७१। (52) दिगम्बत्व और दिगम्बर मुनि Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आइरियउवज्झाया पवत्त थेरा गणधरा या।" ३१. साधु-आत्मसाधना में लीन दिगम्बर मुनि। इनको भी कुछ परिग्रह न रखने का विधान है - ३२. संन्यस्त २- संन्यास ग्रहण किये हुए होने के कारण दिगम्बर मुनि इस नाम से भी प्रख्यात हैं। ३३. श्रमण-अर्थात् सपरसी 'पाव सहित दिगम्बर साधु। उल्लेख यूं है ५ तव सावा (कदम अपमान 'समणोमेति य पढम विदियं सब्बत्थ संजदो पेत्ति।" ३४. क्षपणक-नग्न साधु। दिगम्बराचार्य योगीन्द्र देव ने यह शब्द दिगम्बर साधु के लिए प्रयुक्त किया है "तरुणउ बूढउ रूपडउ सूरउ पंडिङ दिव्यु। खवणउ वंदउ सेवडसूढ़ मण्णइ सव्व।।८३।। श्वेताम्बर जैन ग्रंथो में भी दिगम्बरपनियों के लिये यह शब्द व्यवहत हुआ है। "खोमाणराजकुलजोऽपिसमद्र सरि । गच्छं शशास किल दपत्रण प्रमाण (?)। जित्वा तदां क्षपणकान्स्ववशं वितेने नागेंद्रदे (?) भुजगनाथनमस्य तीर्थ।" श्री मुनिसुन्दर सुरि ने अपनी गुर्वावली में इस श्लोक के भाव में 'क्षपणकान्' को जगह 'दिगवसनान पद का प्रयोग करके इसे दिगम्बर मुनि के लिये प्रयुक्त हुआ स्पाष्ट कर दिया है। श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र ने अपने कोष में 'नग्न' का पर्यायवाची शब्द 'क्षपणकभी दिया है। यही बात श्रीधरसेन के कोष से भी प्रकट है। अजैन शास्त्रों में भी 'क्षपणक' शब्द दिगम्बर जैन साधुओं के लिए व्यवहत हुआ मिलता है। 'उत्पल कहताहै ? - "निधो नग्नः क्षपणकः।" "अद्वैतब्रह्मसिद्ध' (पृ.१६९) से भी यही प्रकट है १. अष्ट पृ.६७| २. वृजेश. पृ.४। ३. अष्ट,पृ. ३७। ४. भूला., पृ. ४५। ५. 'परमात्म प्रकाश-रश्रा. पृ. १४० ६. रश्रा,,पृ.१३९। ७. रा., पृ. १४०। ८, नग्नो विवाससि मागधे च क्षपणके।' ९. 'नग्नस्त्रिषु विवस्त्रे सयात्पुसि क्षपणवन्दिनोः ।' दिगम्बराय और दिगम्बर मुनि Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "क्षपणका जैनमार्गसिद्धान्तप्रवर्तका इति केचित्।" "प्रबोधचंद्रोदय नाटक" (अंक ३) में भी यही निर्दिष्ट किया गया है "क्षपणकवेशो दिगम्बरसिद्धान्तः।" "पंचतंत्र-अपरीक्षितकारकतंत्र “दशकुमार चरित्र " था मुद्राराक्षस-नाटक"" में भी "क्षपणक" शब्द दिगम्बर मुनि के लिए व्यवहृत हुआ मिलता है। मोनियर विलियम्स के संस्कृत कोष' में भी इसका अर्थ यही लिाता है। __इस प्रकार उपर्युक्त नापों से दिगम्बर जैन मुनि प्रसिद्ध हुये मिलते हैं। अतएव इनमें से किसी भी शब्द का प्रयोग दिगम्बर पुनि का द्योतक ही समझना चाहिये। १. HO.111,245, 13 JG.,XIVAS. २.J.G.,XIV48. ३. (क्षपणक विहार गत्वा)-"एकाकीगृहसंत्यतः पाणिपात्रो दिगम्बरः।' ४. द्वितीय उच्छवास, वीर, वर्ष २, पृ. ३१७ । ५. मुद्राराक्षस. अंक ४-वीर, त्रर्प ५, पृ. ४३० 6." kaspnaka is a rcligious mendicant, specially a Jain mendicant who wears no gurnicnt." - Monics William's, Sanskrit Dictionary, p.326, (54) दिगम्बरत्य और दिगम्बर पनि Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९] | इतिहासातीत काल में दिगम्बर मुनि । An “आतिथ्यरूपं मासरं महावीरस्य नाम: रूपमुपसदा पेतत्तिस्रो रात्रीः सुरासुता।" -यजुवेंद, अ.१९.पंत्र १४ भारतवर्ष का ठीक-ठीक इतिहास ईस्त्री पूर्व आठवीं शताब्दी तक माना जाता है। इसके पहले की कोई भी बात विश्वसनीय नहीं मानी जाती, यद्यपि भारतीय विद्वान अपनी-अपनी धार्मिक-वार्ता इस काल से भी बहत प्राचीन पानते और उसे विश्वम्मनोय स्वीकार करते हैं। उनकी यह वार्ता 'इतिहासातीत काल' की वार्ता सपझनी चाहिये। दिगम्बर मुनियों के विषय में भी यही बात है। भगवान ऋपभदेव द्वारा एक अज्ञात अतीत में दिगम्बर मुद्रा का प्रचार हुआ और तब से वह ईस्वी पूर्व आठवीं शताब्दी तक ही बल्कि आज तक शिः धलित हैं। विलम्ब पुद्रा के इस इतिहास की एक सामान्य रूपरेखा यहाँ प्रस्तुत करना अभीष्ट है। इतिहासातीत काल में प्राचीन जैन शास्त्र अनेक जैन-सम्राट और जैन तीर्थंकरों का होना प्रकट करते है और उनके द्वारा दिगम्बर मुद्रा का प्रचार भारत में ही नहीं बल्कि दूर-दूर देशों तक हो गया था। दिगम्बर जैन आम्नाय के प्रथमान योग सम्बन्धी शास्त्र इस कथा-वार्ता से भरे हुवे हैं, उनको हम यहाँ दुहराना नहीं चाहते, प्रत्युत जनता शास्त्रों के प्रपागों को उपस्थित करके हम यह सिद्ध करना चाहते हैं कि दिगम्बर मुनि प्राचीन काल से होते आये हैं और उनका विहार सर्वत्र निर्वाध रूप से होता रहा है। भारतीय साहित्य में वेद प्राचीन ग्रंथ पाने गये हैं। अतः सबसे पहिले उन्हीं के आधार से उक्त व्याख्या को पुष्ट करना श्रेष्ठ है। किन्तु इस सम्बन्ध में यह बात ध्यान दने योग्य है कि वेदी क ठीक-ठीक अर्थ आज नहीं मिलते और भारतीय धर्मों के पारस्परिक विरोध के कारण बहुत से ऐसे उल्लेख उनमें से निकाल दिये गये अथवा अर्थ बदलका रखे गए हैं जिनमे वेद-बाह्य सम्प्रदायों का समर्थन होता था। इसी के साथ यह बात भी है कि वेदों के वास्तविक अर्थ आज ही नहीं मुद्दतों पहले लुप्त हो चुके थे और यही कारण है कि एक ही वेद के अनेक विभिन्न भाष्य मिलते हैं। अतः वेदों के मूल वाक्यों के अनुसार उक्त व्याख्या की पुष्टि करना यहाँ अभीष्ट हैं। १. ई. पूर्व. ७ वीं शताब्दि का वैदिक विद्वान कौत्स्य वेदों की अनर्थक बतलाता है। (अनर्थका हि मंत्राः। यास्क, निरूक्त १५-१) यास्क इसका समर्थन करता है। (निरुक्त १६ । २ देखो'Asur India', p.1,9 दिगम्बरत्य और दिगम्बर पनि (55) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'यजुर्वेद (अ. १९, मंत्र १४ ) में, जो इस परिच्छेद के आरंभ में दिया हुआ है, अन्तिम तीर्थंकर महावीर का स्मरण नग्न विशेषण के साथ किया गया है। 'महावीर' और 'नग्न' शब्द जो उक्त मन्त्र में प्रयुक्त हुये है उनके अर्थ कोष ग्रंथो में अंतिम जैन तीर्थंकर और दिगम्बर ही मिलते हैं। इसलिये इस मंत्र का सम्बन्ध भगवान् महावीर से मानना ठीक है। वैसे बौद्ध साहित्यादि से स्पष्ट है कि महावीर स्वामी नग्न साधु थे। इस अवस्था में उक्त मंत्र में 'महावीर' शब्द 'नग्न' त्रिशेषण सहित प्रयुक्त हुआ, जो इस बात का द्योतक है कि उसके रचयिता को तीर्थंकर महावीर का उल्लेख करना इष्ट है। इस मंत्र में जो शेष विशेषण है वह भी जैन तीर्थंकर के सर्वथा योग्य हैं और इस मंत्र का फल भी जैन शास्त्रानुकूल है । अतः यह मंत्र भगवान् महावीर को दिगम्बर पुनि प्रकट करता है। किन्तु भगवान महावीर तो ऐतिहासिक महापुरुष मान लिये गये हैं, इसलिये उनसे पहले के वैदिक उल्लेख प्रस्तुत करना उचित है। सौभाग्य से हमें ऋक्संहिता (१० | १३६ - २ ) में ऐसा उल्लेख निम्न शब्दों में मिल जाता है“मुनयो वातवसनाः । " भला यह वातवसन - दिगम्बर मुनि कौन थे ? हिन्दु पुराण ग्रंथ बताते हैं कि वे दिगम्बर जैन मुनि थे। जैसे कि हम पहले देख चुके है और भी देखिये, श्रीमद्भागवत् में जैन तीर्थंकर ऋषभदेव ने जिन ऋषियों को दिगम्बरत्व का उपदेश दिया था, वे 'बातरशनानां श्रमण' कह गये हैं। ओ. अल्बट वैबर भी उक्त वाक्य को दिगम्बर जैन मुनियों के लिये प्रयुक्त हुआ व्यक्त करते हैं। * 1 इसके अतिरिक्त अथर्ववेद (अ. १५) में जिन 'व्रात्य' पुरुषों का उल्लेख है, वे दिगम्बर जैन ही हैं, क्योंकि व्रात्य 'वैदिक संस्कारहीन' बताये गये हैं और उनकी क्रियायें दिगम्बर जैनों के समान है। वे वेद विरोधी थे। झल्ल मल्ल, लिच्छवि, ज्ञातृ, करण, खस और द्राविड़ एक बार क्षत्री की सन्तान बताये गये हैं और ये सब प्रायः जैन धर्म भूकृधे । ज्ञातृवंश में तो स्वयं भगवान महावीर का जन्म हुआ था, तथापि, मध्यकाल में भी जैनी 'व्रती' (Verteis) नाम से प्रसिद्ध रह चुके हैं, जो 'व्रात्य' से मिलता-जुलता शब्द है।' अच्छा तो इन जैन धर्म भूकृव्रात्यों में दिगम्बर जैन मुनि का होना लाजमी है। " 'अर्थवेद' भी इस बात को प्रकट करता है। उसमें ब्रात्य के दो भेद १. बेंजे, पृ. ५५-६० ॥ २. वेजे, पृ. ३ । ३. I.A., Vol. XXX, p.280. ४. अपरकोष २ । ८ व मनु. १० | २०. सायणाचार्य भी यही कहते हैं- "व्रात्यो नाम उपनयनादि संस्कारहीनः पुरुषः । सोऽर्थाद् यज्ञादिवेदविहिताः क्रियाः कर्तुं नाधिकारी । इत्यादि" - अथर्ववेद संहिता पृ. २९३ (56) ५. मनु., १० । २२ । ६. स. पू. ३९८ ३९९ । ७. 'व्रात्य जैनी है, इसके लिये "भगवान् पार्श्वनाथ" की प्रस्तावना देखिए । दिगम्बरea और दिगम्बर मुनि Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'हीन ब्रात्य' और 'जयेष्ठ व्रात्य किये हैं। इनमें ज्येष्ठ व्रात्य दिगम्बर मुनि का द्योतक है, क्योंकि उसे 'स्मनिचमेद्र' कहा गया है. जिमका भाव होता है 'अपेतप्रजननाः।' यह शब्द'अहोक' शब्द के अनुरूप है ओर इसमे ज्येष्ठ व्रात्य का दिगम्बरत्व स्पष्ट है। इस प्रकार वेदों से भी दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व सिद्ध है। अब देखिये उपनिषद् भी वेदो का समर्थन करते है। 'जाबालोपनिषद्' निग्रंथ शब्द का उल्लेख करके दिगम्बर साधु का अस्तित्व उपनिषद् काल में सिद्ध करता है "यथाजातरूपधरो निग्रंथो निष्परिग्रहः शुक्लध्यानपरायणः।" ................ (सूत्र ६) निग्रंथ साधु यथाजातरूपधारी तथा शुक्ल ध्यान परायण होता है। सिवाय निग्रंथ (जैन) मार्ग के अन्यत्र कहीं भी शुक्ल ध्यान का वर्णन नहीं मिलता, यह पहले भी लिखा जा चका है। 'मैत्रेयोपनिषद' में 'दिगम्बर' शब्द का प्रयोग भी इसी बात का द्योतक है। * 'पुण्डकोपनिषद्' की रचना भृगु अंगरिंस नामक एक भ्रष्ट दिगम्बर जैन मुनि द्वारा हुई थी और उसमें अनेक जैन मान्यतायें तथा पारिभाषिक शब्द मिलते हैं। 'निग्रंथ' शब्द. जो खास जैनों का पारिभाषिक शब्द है, इसमें व्यवह्वत हुआ है और उसका विश्लेषण केशलोंच (शिरोव्रतं विधिवास्तु चीर्ण) दिया है तथा 'अरिष्टनेपि' का स्मरण भी किया है, जो जैनियों के बाईसवें तीर्थकर है। इससे भी उस काल में दिगम्बर मुनियों का होना प्रपाणित है। अब 'रामायण काल' में दिगम्बरमुनियों के अस्तित्व को देखिये। 'रामायणके 'बालकाण्ड' (सर्ग १४, श्लोक , २२) में राजा दशरथ श्रमणों को आहार देते बताये गये है (“तापसा भुञ्जते चापि श्रमण भुञ्जते तथा") और 'श्रमण' शब्द का अर्थ 'भूषणटीका' १, भपा., प्रस्तावना, पृ.४४-४५। २. जैन ग्रन्थकार प्रातः स्मरणीय स्व. पं.टोडरमल जी ने आज से लगभग दो-ढाई सौ वर्ष पहले (१) निम्न वेद मंत्रों का उल्लेख अपने ग्रंथ 'मोक्षमार्ग प्रकाश में किया है और ये भी दिगम्बर मुनियो के द्योतक हैं वेद में आया है- "ॐ त्रैलोक्य प्रतिष्ठितान चतुर्विंशति तीर्थकान ऋपमाधा वर्द्धमानान्तान् सिद्धान् शरणं प्रपद्य। ऊँ पवित्रं नग्नमुपविप्रसामहे एषां नग्ना जातिर्येषां वीरा इत्यादि। यजुर्वेद में है-ऊँनमो अर्हतो ऋषधो ऊ ऋषभपवित्रं पुरुहूतमध्वदं यज्ञेषु नग्नं परममाह सस्तुतं वर शत्रु जंयतं पशुरिद्रमार्तिरिति स्वाहा।” ऊं नम्न सुधीर दिग्वाससे ब्रह्मागर्व सनातनं उपैमि वीर पुरुषमहतमादित्य वर्णा तमसः पुरस्तात् स्वाहा।" (पृ. २०२) ३. "देशकालविमुक्ततोऽस्मि दिगम्बर सुखोस्म्यहम्" -दिमु.१.१० ४. वीर, वर्ष ८, प. २५३। ५. स्वस्ति नस्ताक्ष्यों अरिष्टनेमिः।' -ईशाध, पृ. १४ दिगम्यरत्व और दिगम्बर मुनि Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ t में दिगम्बर मुनि किया गया है, जो ठीक है, क्योंकि दिगम्बर पुनि का एक नाम 'भ्रमण' भी है, तथापि जैन शास्त्र राजा दशरथ और रामचन्द्र जी आदि का जैन भक्त प्रगट करते हैं। योगवाशिष्ट' में रामचन्द्र जी 'जिन भगवान्' के समान होने की इच्छ प्रकट करके अपनी जैनभक्ति प्रकट करते हैं। अतः रामायण के उक्त उल्लेख से उस काल में दिगम्बर मुनियों का होना स्पष्ट है। ३ "महाभारत" मैं भी 'नग्न क्षपणक' के रूप में दिगम्बर मुनियों का उल्लेख मिलता है, जिससे प्रमाणित है कि "महाभारत काल" में भी दिगम्बर जैन मुनि मौजूद थे। जैन शास्त्रानुसार उस समय स्वयं तीर्थंकर अरष्टनेमि विद्यमान थे। हिन्दू पुराण ग्रंथ भी इस विषय में वेदादिग्रंथों का समर्थन करते हैं। प्रथम जैन तीर्थकर ऋषभदेवजी को श्रीमद्भागवत और विष्णुपुराण दिगम्बर मुनि प्रगट करते है, यह हम देख चुके। अब 'विष्णुपुराण' में और भी उल्लेख है वह देखिये।" वहाँ मैत्रेय पाराशर ऋषि से पूछते है कि 'नग्न' किसको कहते हैं? उत्तर में पाराशर कहते हैं कि " जो वेद को न माने वह नग्न है" अर्थात् वेद विरोधी नंगे साधु 'नग्न' हैं। इस संबंध में देव और असुर संग्राम की कथा कहकर किस प्रकार विष्णु के द्वारा जैन धर्म को उत्पत्ति हुई, यह वह कहते हैं। इसमें भी जैन मुनि का स्वरूप 'दिगम्बर' लिखा है" ततो दिगम्बरो मुंडो कर्हिपत्र धरो द्विज । " देवासुर युद्ध की घटना इतिहासातीत काल की है। अतः इस उल्लेख से भी उस प्राचीन काल में दिगम्बर मुनि का अस्तित्व प्रमाणित होता है तथा वह निर्बाध विहार करते थे, यह भी इससे स्पष्ट है क्योंकि इसमें कहा गया है कि वह दिगम्बर मुनि नर्मदा तट पर स्थित असुरों के पास पहुंचा और उन्हें निज धर्म में दीक्षित कर लिया। 'पद्यपुराण' प्रथम सृष्टि, खण्ड १३ (पृ. ३३) पर जैन धर्म की उत्पत्ति के संबंध में एक ऐसी ही कथा है, जिसमें विष्णु द्वारा मायामोह रूप दिगम्बर मुनि द्वारा जैन धर्म का निकास हुआ बताया गया है (58) वृहस्पति साहाय्यार्थ विष्णुना मायामोह समुत्पादवम् दिगम्बरेण मायामोहने दैत्यान् प्रति जैनधर्मोपदेशः दानवानां मायामोह मोहितानां गुरुणा दिगंबर जैनधर्म दीक्षा दानम्। १. "श्रमण दिगम्बराः श्रमणा वातवसनाः । " २. पद्यपुराण देखो। ३. योग वासिष्ट, अ. १५ श्लो. ८१ ४. आदिपर्व अ. ३, श्लो. २६-२७ । ५. विष्णुपुराण तृतीयश, अ. १७-१८ बेजैं. पू. २५ व पुरातत्व ४ । १८० ॥ " ६. पुरातत्व ४ । १७९ । וי दिम्बा और दिगम्बर मुनि Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माया की उसमें “यो बिपि भी उक्त दोनों बातों की पुष्टि होती है। इसी 'पद्मपुराण' में (भूमि खंड, अ. लिखा है कि एक दिगम्बर मुनि ने उस मुनि का स्वरूप यूं लिखा है ए लिखा है। इससे “नम्न रूपो महाकायः सितमुण्डो महाप्रभः । मार्ज्जनीं शिखिपत्राणां कक्षायाँ स हि धारयन् । । गृहीत्वा पानपात्रश्च नारिकेलपनीकरे । पठमानो मरच्छास्त्रं वेदशास्त्रविदूषकम् ।। महाराजस्तत्रोपापात्त्वरान्वितः। सभायाँ तस्य वेणस्य प्रविवेश सपापवान् । । यत्रवेणी वह नग्न साधु महाराज वैण की राजसभा में पहुंच गया और धर्मोपदेश देने लगा। इससे प्रकट है कि दिगम्बर मुनि राजसभा में भी बेरोक-टोक पहुंचते थे। वेण ब्रह्मा से छठी पीढ़ी में थे। इसलिये यह एक अतीव प्राचीनकाल में हुये प्रमाणित होते हैं। 'वायुपुराण' में भी निर्ग्रथ श्रमणों का उल्लेख है कि श्राद्ध में इनको न देखना ६६) २ में राजा वेण की कथा है। उसमें राजा को जैन धर्म में दीक्षित किया था। चाहिये। 'स्कंध पुराण' (प्रभासखण्ड के वस्त्रापथ क्षेत्र माहात्म्य, अ. १६ पृ. २२१) में जैन तीर्थकर नेमिनाथ को दिगम्बर शिव के अनुरूप मानकर जाप करने का विधान है - "कापनोपि ततश्चक्रे तंत्र तीर्थावगाहनम् यादृग्रूप शिवोदृष्टः सूर्यविम्बे दिगम्बर ||२४|| पद्मासनस्थितः सौम्यस्तथातं तत्र संस्मरन् । प्रतिष्ठाप्य महापूर्ति पूजयामासवासरम् ।। ९५ ।। मनोभीष्ठार्थ - सिद्धार्थे ततः सिद्धमवाप्तमान्। नेमिनाथ शिवेत्येवं नामचक्रे शवामनः ।।९६।।" बेजे.. १. पृ. १५ । २. R. C. Duti. Hindu Shastras. Pt Vill. pp. 213-22 & J,G.XIV. 89. ३. उसने बताया कि मेरे मत में ४. J.G., XIV, 162. ५. पुरातत्व, पृ.४, पृ. १८१ । ६. वेजे., पू. ३४१ "अर्हतो देवता यत्र निर्ग्रथो गुरुरुच्यते । दया वै परमो धर्मस्तत्र मोक्षः प्रदृश्यते । " यह सुनकर वेण जैनी हो गया। (एवं वेणस्य वै राज्ञः सृष्टिरेस्व महात्मनः । धर्माचार परित्यज्य कथं पापे मतिर्भवेत् ।। ) जैन सम्राट् खारवेल के शिलालेख से भी राजा वेण का जैनी होना प्रमाणित है। (जर्नल ऑफ दी बिहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी, भा. १३, पृ. २२४)। दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि (59) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार हिन्दू पुराण ग्रंथ भी इतिहासातीत काल में दिगम्बर जैन मुनियों का होना प्रपाणित करते हैं। बौद्ध शास्त्रों में भी ऐसे उल्लेख मिलते हैं जो भगवान महावीर के पहले दिगम्बर मुनियों का होना सिद्ध करते हैं। बौद्ध साहित्य में अंतिम तीर्थकर निग्रंथ महावीर के अतिरिक्त श्री सपाश्र्व' अनन्तजिन' और पुष्पदन्त के भी नामोल्लेख मिलते हैं। यद्यपि उनके सम्बन्ध में यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि वे जैन तीर्थकर और नग्न थे, किन्तु जब जैन साहित्य में उस नाम के दिगम्बर वेषधारी तीर्थकर महापुनीश मिलते हैं, तब उन्हें जैन और नग्न पानना अनुचित नहीं है। वैसे बौद्ध साहित्य भगवान पार्श्वनाथ के तीर्थवर्ती मुनियों का नग्न प्रकट करता है अतः इस स्त्रोत से भी प्राचीन काल में दिगम्बर मुनियों का होना सिद्ध है। इस अवस्था में जैन शास्त्रों का यह कथन विश्वसनीय ठहरता है कि भगवान् ऋषभनाथ के समय से बराबर दिगम्बर जैन मुनि होते आ रहे हैं और उनके द्वारा जनता का महत कल्याण हुआ है। जैन तीर्थकर सब हो राजपुत्र थे आर बड़े-बड़े राज्यों को त्यागकर दिगम्बर मुनि हुये थे। भारत के प्रथम सम्राट् भरत, जिनके नाम से यह देश भारतवर्ष कहलाता है, दिगम्बर मुनि हुये थे। उनके भाई श्री बाहुबलि जी अपनी तपस्या के लिए प्रसिद्ध हैं। तपस्वी रूप में उनकी पहान् पूर्ति आज भी श्रवणबेलगोल में दर्शनीय वस्तु है। उनको उस महाकाय नम्नमूर्ति के दर्शन करके स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध भारतीय तथा विदेशी अपने को सौभाग्यशाली समझते हैं। रामचन्द्र जी. सुग्रीव, युधिष्ठर आदि अनेक दिगम्बर मुनि इस काल में हुये है, जिनके भव्य चरित्रों से जैन शास्त्र भरे हुये हैं। गतकाल में भारत में दिगम्बरत्व अपनी अपूर्व छठा दर्शा चुका है। १. महाबग्ग(१ । २२-२३ SEB. p. 144) में लिखा है कि बुद्ध राजगृह में जब पहले-पहले धर्म प्रचार को आए तो लाठी वन में "सुप्पतित्थ्य के मंदिर में ठहरे। इसके बाद इस मंदिर में ठहरने का उल्लेख नहीं मिलता। इसका कारण यही है कि इस जैन मंदिर के प्रबन्धको ने जब यह जान लिया कि महात्मा बुस अब जैन मुनि नहीं रहे तो उन्होंने उनका आदर करना रोक दिया। विशेष के लिये देखो भमबु, पृ. ५०-५१ । २. उपक आजीवक अनन्तजिनको अपना गुरु बताता है। आजीविकों ने जैन धर्म से बहुत कुछ लिया था। अतः यह अनन्तजिन तीर्थकर ही होना चाहिए। आरिय-परियेषण-सुत [HOIL, 247. ____३. 'महावस्तु में पुष्पदंत को एक बुद्ध और ३२ लक्षणयुक्त महापुरुष बताया गया है। -ASM. p. 30. ४. महावग्ग (७०-३) में है कि बौद्ध भिक्षुओं ने नंगे और भोजन पात्रहीन मनुष्यों को दीक्षित कर लिया, जिस पर लोग कहने लगे कि बौद्ध भी "तिथियों की तरह करने लगे। तिस्थिय महात्मा बुद्ध और भगवान् महावीर से प्राचीन साधु और खासकर दिगम्बर जैन साधु थे। इसलिये इन्हें पार्श्वनाथ के तीर्थ का मुनि मानना ठीक है। भमबु., पृ. २३६-२३७ व जैसिभ ११२-३।२४-२६, तथा IA., August 1930, दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] भगवान् महावीर और उनके समकालीन दिगम्बर मुनि 'निगण्ठो' आवुसो नाथपुतो सव्वज्ञु सव्वदस्साची अपरिसेसं ज्ञाण दस्सनं परिजानातिः । ' - मुज्झिमनिकाय 'निगण्डो नातुपुत्तो संघी चेव गणी च गणाचार्यो च ज्ञातो यसस्सी तित्थकरो साधु सम्मतो बहुजनस्स रत्तस्सू चिर पव्वजितो अद्धगतो वयो अनुप्पत्ता।' -दीघनिकायः भगवान् महावीर वर्द्धमान ज्ञातृवंशी क्षत्रियों के प्रमुख राजा सिद्धार्थ और प्रियकारिणी त्रिशला के सुपुत्र थे। रानी त्रिशला वज्जियन राष्ट्रसंघ के प्रमुख लिच्छवि- अग्रणी राजा चेटक की सुपुत्री थी। लिच्छवि क्षत्रियों का आवास समृद्धिशाली नगरी वैशाली में था। ज्ञातृक क्षत्रियों की बसती भी उसी के निकट थी । कुण्डग्राम और कोल्लगसन्निवेश उनके प्रसिद्ध नगर थे। भगवान् महावीर वर्द्धमान का जन्म कुण्डग्राम में हुआ था और वह अपने ज्ञातृवंश के कारण "ज्ञातृपुत्र" के नाम से भी प्रसिद्ध थे। बौद्ध ग्रंथों में उनका उल्लेख इसी नाम से मिलता है और वहाँ उन्हें भगवान् गौतम बुद्ध का समकालीन बताया गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो भगवान् महावीर आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले इस धरातल को पवित्र करते थे और वह क्षत्री राजपुत्र थे।' भरी जवानी में ही महावीर जी ने राज-पाट का मोह त्याग कर दिगम्बर मुनि का वेश धारण किया था और तीस वर्ष तक कठिन तपस्या करके वह सर्वज्ञ और सर्वदर्शी तीर्थंकर हो गये थे। 'झिमनिकाय' नामक बौद्ध ग्रन्थ में उन्हें सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और अशेष ज्ञान तथा दर्शन का ज्ञाता लिखा है। तीर्थंकर महावीर ने सर्वज्ञ होकर देश-विदेश में भ्रमण किया था और उनके धर्म प्रचार से लोगों का आत्म-कल्याण हुआ था। उनका बिहार संघ सहित होता था और उनको विनय हर कोई करता था। बौद्ध ग्रंथ 'दीर्घनिकाय' में लिखा है कि “निर्ग्रथ ज्ञातृपुत्र (महावीर) संघ के नेता हैं, गणाचार्य हैं, दर्शन विशेष के प्रणेता हैं, विशेष विख्यात हैं, तीर्थंकर हैं, वह १. विशेष के लिये हमारा "भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध" नामक ग्रंथ देखो। २. मञ्झिमनिकाय (P.T.S.) भा. १, पृ. ९२-९३ ॥ दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि (61) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यों द्वारा पूज्य हैं, अनुभवशील हैं, बहुत काल से साधु अवस्था का पालन करते हैं और अधिक वय प्राप्त हैं। १ जैन शास्त्र 'हरिवंशपुराण' में लिखा है कि "भगवान् महावीर ने मध्य के (काशी, कौशल, कौशल्य, कुसंध्य, अश्वष्ट, त्रिगतपञ्चाल, भद्रकार, पाटच्चार, मौक, मत्स्यं, कनीय, सूरसेन एवं वृकार्थक), समुद्रतट के (कलिंग, कुरुजांगल, कैकेय, आत्रेय, कांबोज, बाल्हीक, यवनश्रुति, सिंधु, गांधार, सौवीर, सूर, भीरु, दशेरुक, वाडवान, भारद्वाज और काथतोय) और उत्तर दिशा के (तार्ण, कार्ण, प्रच्छाल आदि) देशों में बिहार कर उन्हें धर्म की और ऋजु किया था। " भगवान् महावीर का धर्म अहिंसा प्रधान तो था ही, किन्तु उन्होंने साधुओं के लिये दिगम्बरत्व का भी उपदेश दिया था। उन्होंने स्पष्ट घोषित किया था कि जैन धर्म में दिगम्बर साधु ही निर्वाण प्राप्त कर सकता है। बिना दिगम्बर वेष धारण किये निर्वाण प्राप्त कर लेना असंभव है और उनके इस वैज्ञानिक उपदेश का आदर आबाल-वृद्ध - वनिता ने किया था । विदेह में जिस समय भगवान् महावीर पहुँचे तो उनका वहाँ के लोगों ने विशेष आदर किया । वैशाली में उनके शिष्यों की संख्या अधिक थी। स्वयं राजा चेटक उनका शिष्य था। अंग देश में जब भगवान् पहुंचे तो वहाँ के राजा कुणिक आजातशत्रु के साथ सारी प्रजा भगवान् की पूजा करने के लिये उमड़ पड़ी। राजा कुणिक कौशाम्बी तक महावीर स्वामी को पहुंचाने गये। कौशाम्बी नरेश ऐसे प्रतिबुद्ध हुये कि वह दिगम्बर मुनि हो गये। मगध देश में भी भगवान् महावीर का खूब बिहार हुआ था और उनका अधिक समय राजगृह में व्यतीत हुआ था। सम्राट् श्रेणिक विम्बसार भगवान् के अनन्य भक्त थे और उन्होंने धर्मप्रभावना के अनेक कार्य किये थे। श्रेणिक के अभयकुमार, वारिषेण आदि कई पुत्र दिगम्बर मुनि हो गये थे। दक्षिण भारत में जब भगवान् का विहार हुआ तो हेमाँग देश के राजा जीवंधर दिगम्बर मुनि हो गये थे। इस प्रकार भगवान् का जहाँ-जहाँ बिहार हुआ वहाँ-वहाँ दिगम्बर धर्म का प्रचार हो गया। शतानीक, उदयन आदि राजा, अभय, नंदिषेण आदि राजकुमार शालिभद्र, धन्यकुमार, प्रीतंकर आदि धनकुबेर इन्द्रभूति गौतम आदि ब्राह्मण विद्वान, विद्युच्चर आदि सदृश पतितात्मायें - अरे न जाने कौन-कौन भगवान् महावीर की शरण में आकर मुनि हो गये। ४ (62) १. दीघनिकाय (P.T.S.) भा. १, पृ. ४८-४९ ॥ २. हरिवंश पुराण (कलकता), पृ. १८ । ३. भमवु. ५४-८० व ठाणा, पृ. ८९३ | ४. भमवु, पृष्ठ ९५-९६ । दिगम्बरत्व और दिगम्बर पुनि Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सचमुच अनेक धर्म-पिपासु भगवान के निकट आकर धर्माप्त पान करते थे। यहाँ तक कि स्वयं महात्मा गौतमबुद्ध और उनके संघ पर भगवान् के उपदेश का प्रभाव पड़ा था। बौद्ध भिक्षुओं ने भी नग्नता धारण करने का आग्रह महात्मा बुद्ध से किया था।' इस पर यद्यपि महात्मा बुद्ध ने नान वेष को बुरा नहीं बतलाया, किन्तु उससे कुछ ज्यादा शिष्य पाने का लाभ न देखकर उसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। किन्तु तो भी एक सपय नेपाल के तांत्रिक बौद्धों में नग्न साधुओं का अस्तित्व हो गया था।' सच बात तो यह है कि नग्न वेष को साधु पद के भूषण रूप में सब ही को स्वीकार करना पड़ता है। उसका विरोध करना प्रकृति को कोसना है। उस पर महात्मा बुद्ध के जमाने में तो उसका विशेष प्रचार था। अभी भगवान महावीर ने धर्मोपदेश देना प्रारम्भ नहीं किया था कि प्राचीन जैन और आजीविक आदि साधु नंगे धूमकर उसका प्रचार कर रहे थे। देखिये बौद्ध ग्रंथो के आधार से इस विषय में डॉ. स्टीवेन्सन लिखते हैं एक तीर्थक नग्न हो गया) लांग उसके लिय बहुत से वस्त्र लाये, किन्तु उनको उसने स्वीकार नहीं किया। उसने यहीं सोचा कि 'यदि में वस्त्र स्वीकार करता हूँ तो संसार में मेरी अधिक प्रतिष्ठा नहीं होगी। वह कहने लगा कि लज्जा रक्षक के लिए ही वस्त्रधारण किया जाता है और लज्जा ही पाप का कारण है, हम अर्हत् हैं, इसलिए विषय वासना से अलिप्त होने के कारण हमें लज्जा को कुछ भी परवाह नहीं।' इसका यह कथन सनकर बड़ी प्रसन्नता से वहां इसके पाँच सौ शिष्य बन गए बल्कि जम्बूद्वीप में इसी को लोग सच्चा बुद्ध कहने लगे।" यह उल्लेख संभवतः मक्खलि गोशाल अथवा पूर्ण काश्यप के सम्बन्ध में हैं। ये दोनों साधु भगवान् पाश्र्वनाथ की शिष्य परम्परा के मनि थे।' पक्खलि गोशाल भगवान महावीर से रुष्ट होकर अलग धर्म प्रचार करने लगा था और वह “आजीविका सम्प्रदाय का नेता बन गया था। इस सम्प्रदाय का निकास प्राचीन जैन धर्म से हुआ था और इसके साधु भी नग्न रहते थे। पूरण-काश्यप गोशल का साथी और वह भी दिगम्बर रहा था। सचमुच दिगम्बर जैन धर्म पहले से ही चला आ रहा था, जिसका प्रधान इन लोगों पर पड़ा था। उस पर भगवान महावीर के अवतीर्ण होते ही दिगम्बरत्व का महत्व और भी बढ़ गया। यहाँ तक कि दूसरे सम्प्रदायों के लोग भी नग्न वेष धारण करने को लालायित हो गये, जैसा कि ऊपर प्रकट किया गया है। बौद्धशास्त्रों में निग्रंथ (दिगम्बर) महामुनि महावीर के बिहार का उल्लेख भी किया मिलता है। 'मझिम निकाय' के 'अपय राजकुमार सुतं से प्रगट है कि वे १. भमवृ., पृ. १०२-११०। २.महाबाग८-२८-१) में है कि "एक बौद्ध भिक्षु ने महात्मा बुद्ध के पास न हो आकर कहा कि भावान ने संयमी पुरुष को बहुत प्रशंसा की है, जिसने पापों को धो डाला है और कयायों को जीत लिया है तथा जो दयालु, विनयी और साहसी है।हे भगवान! यह नानता कई प्रकार से संयम और संतोष दिगम्बरव और दिगम्बर मुनि Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजगृह में एक समय रहे थे। 'उपालीसुत' से भगवान महावीर का नालन्द् में विहार करना स्पष्ट है। उस समय उनके साथ एक बड़ी संख्या में निर्गुण साधु थे।" को उत्पम करने में कारणभूत है- इससे पाप मिटना, कषाय दयते. दया पाव बढ़ता तथा विनय और उत्साह आता है। प्रभा। यह अच्छा से, यदि आप मी मान रहने की आज्ञा दे। एक अषण के लिये यह अयोग्य है। इसलिये इसका पालन नहीं करना चाहिये। हे मूर्ख। नित्थियों की तरह तभी नग्न कैसे होगा? हे मूर्ख, इससे नये लोग पी दीक्षित न होंगे।" . ३. नेपाल मे गूड और तांत्रिक नाम की एक बौद्ध धर्म की शाखा है। मि. हासन ने लिखा है कि इस शाखा में नान यति रहा करते है। -जैसि भा., १॥२-३, पृ. २५. ४. जेम्स एल्वी, प्रो. जैकोबी सथा डा. मुलहर इन ही बात का समर्थन करते है कि दिगम्बरत्व महात्मा बुद्ध के पहले से प्रचलित था और आजीविक आदि तीर्थको पर जैन धर्म का प्रभाव पड़ा था, पथा "in James d' Alwis paper (Ind. Antj. VII) on the Six Tinhakas the Digambaras appear to have been regarded as an old order of ascetics and all of these heretical leachers betray the influence of Jainism in their doctrines. -IA.IX, 161 Pror. Jacobi remarks: "The preceding four Tirthaks (Makkhali Goshal etc.) appear ail to have adopled some or other doctrines or practices, which makes part of the Jaina system, probably from the Jains themselves.... 11 appean from the preceding remarks thai Jaina ideas and practices must have been current at the time of Mahavira and independently of him. This combined with other arguments, leads us to the existence long hefore Mahavira, -IA..IX. 162..... Prof. T.W. Rhys Davids noles in the "Vinaya Texts that the sect now called Jaink are divided into two classes. Digambara & Smelambara: The later of which it naked. They are known to he the successors of the school called Niganthae in the Pali Pilakas -SBEXI141 Dr. Buhler writes, "From Buddhist accounts in their canonical works as well as in other books, it may be seen that this rival (Malavita) was a dangerous and indiucntiat one and that cven in Buddha s time his teaching had spread, considerably.... Also they say in their description of other rivals of Buddha 1hal these in under lo gain esiccın. copied the Nirganthas and went unclothed, so that they were looked upon by the people as Ningrantha holy ones, because they happened 10 lost their clothes. -AISJ,P.36 ५. जैसिधा,१ ।२-३ २४ The people houghi clothes in an abundance for him, but hc (kaskapa) refused them as he thought that if he put them on, he would not be caled with the same respect Kassapa said, Clothes are for the covering of shame and I be shame is the effect of sin. I am an Arahat, As I år free from evil dosjes, I know no shutne. etc.-BS. pp. 74-75 ६. अपव.,.१७-२१॥ ७. वीर, वर्ष ३, पृ. ३१२वभम. १७-२१| ८. आजीविको ति नान-समणको। पपञ्च-सूदनी । २०२, 10,III, 24 ९. पझिम, (P.T.S.) मा. १, पृ. ३९२ व भमनु., पृ. १९९। १०. मज्झिम.११३७१N'The M.N. tells us that once Nigamha Nashaputta was ar Valanda with a big retinuc of the Miganthas -AIT.P. 147 (64) दिगम्बरत्व औ दिगम्बर मुनि Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २ ४ सामगामसुत से यह प्रकट है कि भगवान ने पावा से मोक्ष प्राप्त की थी। दीघनिकाय का “पासादिक सुत्त" भी इसी बात का समर्थन करता है। "संयुक्तनिकाय” से भगवान महावीर का संघसहित “मच्छिकाखण्ड" में विहार करना स्पष्ट है। ब्रह्मजालसुत्त में राजगृह के राजा अजातशत्रु को भगवान महावीर स्वामी के दर्शन के लिये लिखा गया है। "विनयपिटक" के महावग्ग ग्रंथ से भगवान महावीर का वैशाली में धर्म प्रचार करना प्रमाणित है। एक "जातक" में भगवान महावीर को “अचेलक नातपुत्त" कहा गया है। “महावस्तु" से प्रकट है कि अवन्ती के राजपुरोहित का पुत्र नालक बनारस आया था। वहाँ उसने निर्ग्रथ नातपुत्त (महावीर को) धर्मप्रचार करते पाया । ५ ६ ७ दीघनिकाय से स्पष्ट है कि कौशल के राजा पसेनदी ने निग्रंथ नातपुत (महावीर) को नमस्कार किया था। उसकी रानी मल्लिका ने निर्ग्रथों के उपयोग के लिये एक भवन बनवाया था।' सारांशतः बौद्ध शास्त्र श्री भगवान महावीर के दिगन्तव्यापी और सफल बिहार की साक्षी देते हैं! भगवान के बिहार और धर्म प्रचार से जैन धर्म का विशेष उद्योत हुआ था। जैन शास्त्र कहते हैं कि उनके संघ में चौदह हजार दिगम्बर मुनि थे। जिनमें ९९०० सधारण मुनि ३०० अंगपूर्वधारी मुनि, १३०० अवधिज्ञानधारी पुनि ९०० ऋद्धिविक्रिया युक्त, ५०० चार ज्ञान के धारी, ७०० केवलज्ञानी और ९०० अनुत्तरवादी थे। महावीर संघ के ये दिगम्बर मुनि दस गणों में विभक्त थे। और ग्यारह गणधर उनकी देख रेख करते थे । " इन गणधरों का संक्षिप्त वर्णन निम्न प्रकार है - (१) इन्द्रभूति गौतम, ( २ ) वायुभूति, (३) अग्निभूति, ये तीनों गणधर मगध देश के गौर्बर ग्राम के निवासी वसुभूति (शांडिल्य ) ब्राह्मण को स्त्री पृथ्वी स्थिण्डिला) और केसरी के गर्भ से जन्मे थे। गृहस्थाश्रम त्यागने के बाद ये क्रम से गौतम, गार्ग्य और भार्गव नाम से प्रसिद्ध हुए थे। जैन होने के पहले ये तीनों वेद धर्मपरायण ब्राह्मण विद्वान थे। भगवान महावीर के निकट इन तीनों ने अपने कई सौ " १. मजिम. ११९३ - भमवु. २०२ । २. दोघ. III ११७- ११८ - भमवु पृ. २१४ । ३. संयुक्त ४ । २८७ भमवु, पृ. 2161 ४. भमबु पृ. २२२ । ५. महावग्गा ६ । ३१-११- भमबु. पृ. २३१ - २३६ । ६. जातक २ । १८२ । ७. ASM.,p.159 ८. दोघ १ । ७८-७९ - [HQ.1, 153 ९. LWB,p.109. १०. भ्रम. ११७ । दिगम्बरत्व और दिगम्बर पुनि (65) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! शिष्यों सहित जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण की थी और ये दिगम्बर मुनि होकर मुनियों के नेता हुए थे। देश देशान्तर में विहार करके इन्होंने खूब धर्मप्रभावना की थी। ' चौथे गणधर व्यक्त कोल्लंग सन्निवेश निवासी धनमित्र ब्राह्मण की वारुणी' नामक पत्नी की कोख से जन्मे थे। दिगम्बर पुनि होकर यह भी गणनायक हुये थे। पाँचवें सुधर्म नामक गणधर भी कोल्लग सन्निवेश के निवासी धम्पिल ब्राह्मण के सुपुत्र थे। इनकी माता का नाम भूद्दिला था। भगवान महावीर के उपरान्त इनके द्वारा जैन धर्म का विशेष प्रचार हुआ था। ३ छटे माण्डिक नामक गणधर मौर्व्याख्य देश निवारी धनदेव ब्राह्मण की विजया देवी स्त्री के गर्भ से जन्मे थे। दिगम्बर मुनि होकर यह वीर संघ में सम्मिलित हो गये थे और देश-विदेश में धर्मप्रचार किया था। सातवें गणधर मौर्यपुत्र भी पौर्याख्य देश के निवासी मौर्यक ब्राह्मण के पुत्र थे। इन्होंने भी भगवान महावीर के निकट दिगम्बरीय दीक्षा ग्रहण करके सर्वत्र धर्म प्रचार किया था। आठवें मर अकम्पन थे, जो मिथिलापुरी निवासी देव नामक ब्राह्मण की जयन्ती नामक स्त्री के उदर से जन्मे थे। इन्होंने भी खूब धर्मप्रचार किया था। नवें धवल नामक गणधर कोशलापुरी के वसुविप्र के सुपुत्र थे। इनकी माँ का नाम नन्दा था। इन्होंने भी दिगम्बर मुनि हो सर्वत्र विहार किया था। दसवें गणधर मैत्रेय थे। वह वस्सदेशस्थ तुगिंकाख्य नगरी के निवासी दत्त ब्राह्मण की स्त्री करुणा के गर्भ से जन्मे थे। इन्होंने भी अपने गण के साधुओं सहित धर्म प्रचार किया था। ग्यारहवें गणधर प्रभास राजगृह निवासी बल नामक ब्राह्मण की पत्नी भद्रा की कुक्षि से जन्मे थे और दिगम्बर मुनि तथा गणनायक होकर सर्वत्र धर्म का उद्योत करते हुए विचरे थे। ४ इन गणधरों की अध्यक्षता में रहे उपर्युक्त चौदह हजार दिगम्बर पुनियों ने तत्कालीन भारत का महान उपकार किया था। विद्या, धर्मज्ञान और सदाचार उनके सउद्योग से भारत में खूब फैले थे। जैन और बौद्ध शास्त्र यही प्रकट करते हैं "The Buddhist and Jaina texts tall us that the intinerant teachers of the time wandered about in the country, engaging themselves wherever They stoppd in serious discussion, on matters relating to religion, philosophy ethics morals and polity." 八章 (66) १. बृजेश, पृ. ६० - ६१ ॥ २. बृजेश पृ. ८ ३. बृजेश. पू. ८ । ४. बृजेश पृ. ८ । दिगम्बात्य और दिगम्बर मुनि Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ- बौद्ध और जैन शास्त्रों से ज्ञात होता है कि तत्कालीन धर्म गुरु देश में सर्वत्र विचारते थे। और जहाँ वे ठहरते थे वहां धर्म, सिद्धान्त, आचार, नीति और राष्ट्रवार्ता विषयक गम्भीर चर्चा करते थे। सचमुच उनके द्वारा जनता का महान हित हुआ था। बौद्ध शास्त्रों में भी भगवान महावीर के संघ के किन्हीं दिगम्बर मुनियों का वर्णन मिलता है। यद्यपि जैन शास्त्रों में उनका पता लगा लेना सुगप नहीं है। जो हो, उनसे स्पष्ट है कि भगवान महावीर और उनके दिगम्बर शिष्य देश में निर्बाध विचरते और लोक कल्याण करते थे। सम्राट श्रेणिक बिम्बसार के पुत्र राजकुमार अभय दिगम्बर मुनि हो गये थे, यह बात बौद्धशास्त्र भी प्रकट करते हैं।' उन राजकुमार ने ईरान देश के वासियों में भी धर्मप्रचार किया था। फलतः उस देश का राजकुमार आईक निग्रंथ साधु हो गया था। बौद्ध शास्त्र वैशाली के दिगम्बर पनियों में सणखत्त, कलारपत्थुक और पार्टिकपुत्र का नामोल्लेख करते हैं। सुणवत्त एक लिच्छवि राजपुत्र था और वह बौद्ध धर्म को छोड़कर निर्गंध मत का अनुयायी हुआ था। वैशाली के सान्त्रकट एक कन्डरमसुक नामक दिगम्बर मुनि के आवास का भी उल्लेख बौद्ध शास्त्रों में मिलता हैं। उन्होंने यावत् जीवन नग्न रहने और नियमित परिधि में विहार करने की प्रतिज्ञा ली थी।" श्रावस्ती के कुल पुत्र (Councillor's son) अर्जुन भी दिगम्बर पुनि होकर सर्वत्र विचरे थे। यह दिगम्बर मुनि और उनके साथ जैन साध्वियाँ भी सर्वत्र धर्मोपदेशश देकर मुमुक्षुओं को जैन धर्म में दीक्षित करते थे। इस उद्देश्य को लेकर वे नगरों के चौराहों पर जाकर धर्मोपदेश देते और वादभेरी बजाते थे। बौद्ध शास्त्र कहते हैं कि “उस समय तीर्थंक साधु प्रत्येक पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णमासी को एकत्र होते थे और धर्मोपदेश करते थे। लोग उसे सुनकर प्रसत्र होते और उनके अनुयायी बन जाते १. E.B.,P.30 व भमबु., पृ. २६६ । २. ADIB,I, p.92. ३. धमन्बु., पृ. २५५। ४. "अचेलो कन्डरमसुको वेसालियम् पटिवसति लाभग्ग-प्पतोच एवं पसाग, प्पत्तोच वज्जिगा में। तस्स सत्तवत्त-पदानि समत्तानि समादिन्नानि होन्ति-'याक्जीवम् अचेलको अस्स्म, नटत्थम् परिदहेय्यम यावजीवम् ब्रह्मचारी अस्म न मेथनुम पटिसेवेय्यम्.., इत्यादि।" - दीघनिकाय (PTS.) भा, ३, पृ. ५-१० व भमन्त्रु., पृ. २१३ ५. P.B.. P.83 व भमबु., पृ. २६७। ६. बौद्धों के थेर-थेरी गाथाओं से यह प्रकट है। भमवु.,पृ. २५६-२६८ । ७. महाबग्ग २ । । । १ व भमवु., पृ. २४० । दिगम्बात्व और दिगम्बर मुनि Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन साधुओं को जहाँ भी अवसर मिलता था वहाँ अपने धर्म को श्रेष्ठता को प्रमाणित करके अवशेष धर्मों को गौण प्रकट करते थे। भगवान महावीर और महात्मा गौतम बुद्ध दोनों ने ही अहिंसा धर्म का . उपदेश दिया था, किन्तु भगवान महावीर की अहिंसा में मन, वचन, काय पूर्वक जीवहत्या से विलग रहने का विधान था-भोजन या मौज शौक के लिये भी उसमें जीवों का प्राण व्यपरोपण नहीं किया जा सकता था। इसके विपरीत महात्मा बुद्ध की अहिंसा में बौद्ध भिक्षुओं को मांस और मत्स्य भोजन ग्रहण करने को खुली आज्ञा थी ।एक बार नहीं अनेक बार स्मयं महात्मा बुद्ध ने माँस-पाक्षण किया था। ऐसे ही अवसरों पर दिगम्बर मुनि, बौद्ध भिक्षुओं को आड़े हाथों लेते थे। एक परतवा जब भगवान महावीर ने बुद्ध के इस हिंसक कर्म का निषेध किया, तो बुद्ध ने कहा 'भिक्षओ, यह पहला मौका नहीं है, बल्कि नातपत्त (महावीर) इससे पहले भी कई परतबा खास पेरे लिये पके हुए माँस को मेरे भक्षण करने पर आक्षेप कर चके हैं।"र एक दूसरी बार जब वैशाली में महात्मा बद्ध ने सेनापति सिंह के घर पर माँसाहार किया तो बौद्ध शास्त्र कहता है कि 'निग्रंथ एक बड़ी संख्या में वैशाली में सड़क-सड़क, चौराहे-चौराहे पर यह शोर मचाते कहते फिरे कि आज सेनापति सिंह ने एक बैल का वध किया है और उसका आहार श्रमण गौतम के लिये बनाया है। श्रपाम गौतम जानबूझकर कि यह बैल मेंरे आहार के निमित्त पारा गया है पशु का पॉस खाता है, इसलिए वही उस पशु के मारने के लिए बधक है। इन उल्लेखों से उस समय दिगम्बर मुनियों का निर्बाध रूप में जनता के मध्य विचरने और धोपदेश देने का स्पष्टीकरण होता है। बौद्ध गृहस्थों ने कई परतवा दिगम्बर पुनियों को अपने घर के अन्तःपुर में बलाकर परीक्षा की थी। सारांशतः दिगम्बर मुनि उस समय हाट-बाजार, घर-पहल, रंक-राव सब ठौर सब ही करें धर्मोपदेश देते हुए विहार करते थे। अब आगे के पृष्ठों में भगवान महावीर के उपरान्त दिगम्बर मुनियों के अस्तित्व और विहार का विवेचन कर देना उचित है। १. ममबु., पृ. १७०। २.Cowellatakss 11, 182-भमवु.,पृ. २४६ । 3. "At the time a great number of the Nigathas running through Vaisali, from roud to road, cross-way to crass-way, with outstretched arous cicd.' Today siha, the General has killcd a great ox and has made a mical for the Sarnana Gotama, the Sarmana Golama knowingly cals this meat of an animal killed for this very purpose, & has that become virually the author of that dict".- Vinaya Texts,SBE., VOL.XVII, p. 116& HG., p.85. ४H.G., PP,88-95 भमवु. ए, पृ. २४१-२५६ । दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि (68) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११] नन्द साम्राज्य में दिगम्बर मुनि "King Nanda had taken away 'image' known as "The Jaina of Kalinga...Carrying away idols of worship as a mark of trophy and also showing respect to the particular idol is known in later history. The datum (1) proves that Nanda was a Jaina and (2) thal Fainism was introduced in Orissa very early...." -K.P.Jayaswal1 शिशुनाग वंश में कुणिक अजातशत्रु के उपरान्त कोई पराक्रमी राजा नहीं हुआ और मगध साम्राज्य की बागडोर नन्द वंश के राजाओं के हाथ में आ गई। इस वंश में 'वर्द्धन'( Increaser) उपाधिधारी राजा नन्द विशेष प्रख्यात और प्रतापी था। उसने दक्षिण - पूर्व और पश्चिमीय समुद्रतटवर्ती देश जीत लिये थे तथा उत्तर में हिमालय प्रदेश और कश्मीर एवं अवन्ति और कलिंग देश को भी उसने अपने आधीन कर लिया था। कलिंग - विजय में वह वहां से 'कलिंगजिन' नामक एक प्राचीन मूर्ति ले आया था और उसे विनय के साथ उसने अपनी राजधानी पाटलीपुत्र में स्थापित किया था। उसके इस कार्य से नन्दवर्द्धन का जैन धर्मावलम्बी होना स्पष्ट है। 'मुद्राराक्षश नाटक' और जैन साहित्य से इस वंश के राजाओं का जैनी होना सिद्ध हैं। उनके मंत्री भी जैन थे। अन्तिम नन्द का मन्त्री राक्षस नामक नीति निपुण पुरुष था । मुद्राराक्षस नाटक में उससे जीवसिद्धि नामक क्षपणक अर्थात् दिगम्बर जैन मुनि के प्रति विनय प्रकट करते दर्शाया गया है तथा यह जीवसिद्धि सारे देश में - हाट-बाजार और अन्तःपुर-मत्र ही ठौर बेरोक-टोक विहार करता था. यह बात भी उक्त नाटक से स्पष्ट है। ऐसा होना है भी स्वाभाविक, क्योंकि जब नन्द वंश के राजा जैनी थे तो उनके साम्राज्य में दिगम्बर जैन मुनि की प्रतिष्ठा होना लाज़मी था। जनश्रुति से यह भी एक्ट है कि अन्तिम नन्द राजा ने 'पञ्चपहाड़ी' नामक पाँच स्तूप १. JBORS, VOL..X1V.p.245. २. Ibid, Vol. 78-79, Chanakya says "There is a fellow of my studies, deep The Brahman Indusarman, him 1 sent, When just [ vowed the death of Nanda, hithere; And here repairing as a Buddha 1/4 (ki.kd 1/2} mindicant." * Having the marks of a Kasapanaka....the Individual is a Jaina ..Raksasa repose in him implict confidence.-UIDW., p. 10. दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि (69) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटना में बनवाये थे। पञ्चपहाड़ी (राजगृह) जैनों का प्रसिद्ध तीर्थ है। नन्द ने उसी के अनुरूप पाँच स्तूप पटना में बनावाये प्रतीत होते है। यह कार्य भी उनकी मुनि-भक्ति का परिचायक है।. ' जैन कथा ग्रन्थों से विदित है कि एक नन्द राजा स्वयं दिगम्बर जैन मुनि हो गये थे तथा उनके मंत्री शकटाल भी जैनी थे। शकटाल के पुत्र स्थूलभद्र भी दिगम्बर मुनि हो गये थे। सारांश यह कि नन्द- साम्राज्य के प्रसिद्ध पुरुषों ने स्वयं दिगम्बर मुनि, होकर तत्कालीन भारत का कल्याण किया था और नन्द राजा जैनों के सरंक्षक शिशुनाग वंश के अन्त और नन्द राज्य के आरम्भ काल में जम्बू स्वामी अतिम केवली सर्वज्ञ ने नग्न वेष में सारे भारत का भ्रमण किया था। कहते हैं कि बंगाल के कोटिकपुर नामक स्थान पर उन्होंने सर्वज्ञता प्राप्त की थी। उनका बिहार बंगाल के प्रसिद्ध नगर पुं ड्रबर्द्धन, ताम्रलिप्त आदि में हुआ था। एक बार वह मथुरा भी पहुँचे थे। अन्त में जब वह राजगृह विपुलाचल से मुक्त हो गये, तो मथुरा में उनकी स्मृति में एक स्तूप बनाया गया था। मथुरा जैनों का प्राचीन केन्द्र था। वहाँ भगवान् पार्श्वनाथ जी के समय का एक स्तूप मौजूद था। इसके अतिरिक्त नन्दकाल में वहाँ पाँच सौ एक स्तूप और बनाये . . "Sir G. Grierson informs me that the Nandas were reputed to be bitter enemies of the Brahmans...the Nandas were Jainsa and therefore hatefuls to the Brahamans.. The supposition that the last Nanda was cither a Jaina or Buddhist is strengthened by the face that one from of the local tradition attributed to him the erection of the Panch Pahari at Patna, a group of ancient stupas, which be either Jaina of Buddhist." –E][l,p,44 M उनका जैन होना ठीक है, क्योंकि नन्दवर्द्धन के जैन होने में संदेह नहीं है और "मुद्राराक्षस" नन्दमंत्री आदि को जैन प्रकट करता है। २. हरिषेण कथा कोष तथा आराधना कथा कोष देखो। ३. सातवीं गुजराती साहित्य परिषद रिपोर्ट (पृष्ठ ४१ ) तथा “भद्रबाहु चरित्र" (पृष्ठ ४१) में स्थूलभद्रादि को दिगम्बर मुनि लिखा है । (रामल्यस्थल भद्राख्य स्थूलाचार्यादियोगिनः ।} ४. "Nanda were Jains". CHI, Vol.I., p. 164. The nine kings of the Nanda dynasty of Magadha were patrons of the Order (Sangha of Mahavira). " -HARI, p.59 ५. "In Ketikapur Jambu attained emancipation ( Omniscience) - वीर, वर्ष ३ पृ. ३७ ६. अनेकान्त, वर्ष १, पृ. १४१ । "मगधदिमहादेश (70) मधुरादिपुरीरस्तथा । कुर्वन् धर्मोपदेश स केवलज्ञानलोचनः | | ११८ || १२ || वर्षाष्टादशपर्यन्तं स्थितस्तत्र जिनधिपः ततो जगाम निर्वाणं केवली विपुलाचलात् ||१|| - जम्बूस्वामी चरित् ७. JOAM,13. दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुर्ति Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गये थे, क्योंकि वहाँ से इतने ही दिगम्बर मुनियों ने समाधिमरण किया था ये सब. मुनिश्री जम्बूस्वामी के शिष्य थे। जिस समय जम्बूस्वामी दिगम्बर मुनि हुये तो उस समय विद्युच्चर नामक एक नामी डाकू भी अपने पाँच सौ साथियों सहित दिगम्बर पुनि हो गया था। एक बार यह मुनि संघ देश-विदेश में विहार करता हुआ शाम को मथुरा पहुंचा। वहाँ महाउद्यान में वह ठहर गया। तदोपरान्त रात को उन मुनियों पर वहाँ महाउपसर्ग हुआ और उसके परिणामस्वरुप पुनियों ने साम्य भाव से प्राण त्याग दिये। इस महत्त्वपूर्ण घटना की स्मृति में ही वहाँ पाँच सौ एक स्तूप बना दिये गये थे । ' इस प्रकार न जाने कितने मुनि पुंगव उस समय भारत में विहार करके लोगो का हितसाधन करते थे, उनका पता लगा लेना कठिन है। नन्द- साम्राज्य में उनको पूरा-पूरा संरक्षण प्राप्त था। [१२] मौर्य सम्राट और दिगम्बर मुनि “भद्रबाहुवचः श्रुत्वा चन्द्रगुप्तो नरेश्वरः । अस्यैवयोगिनं पार्श्वे दधौ जैनेश्वरं तपः || ३८ ।। चन्द्रगुप्तमुनिः शीघ्रं प्रथमो दशपूर्विकाम। सर्वसंघाधिपोजातो विशाखाचार्यसंज्ञकः ।। ३९ ।। अनेन सह संघोपि समस्तो गुरुवाक्यतः । दक्षिणापथदेशस्थ पुत्राट विषयं ययौ ।।४०।। " - हरिषेण कथाकोष 'पउउधरेसु' चरियों चिणदिक्खं धरदि चन्द्रगुप्तो में । - त्रिलोक प्रज्ञप्ति 3 नन्द राजाओं के पश्चात् मगध का राजछत्र चन्द्रगुप्त नाम के एक क्षत्रिय राजपुत्र के हाथ लगा था। उसने अपने भुजविक्रम से प्रायः सारे भारत पर अधिकार कर १. अनेकान्त, वर्ष १, पृ. १३९ - १४१ । 'अथ विद्युच्चरो नाम्ना पर्यटन्निह सन्मुनिः । एकादशांगविद्यासामधीतो विदधत्तपः । अथान्यधुः सनिःसंगो मुनि पंचशतैर्वृतिः ॥ मथुरायां महोद्यान- प्रदेशेष्वगमन्मुदा । तदागच्छस वैलक्ष्यं भानुरस्ताचलं श्रितः । । इत्यादि । । " २. जैहि, भा १४, पृ. २१७ । ३. जैहि. ए., भा. ३, पृ. ५३१ । दिगम्बरत्व और दिसम्बर मु (71) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिया था और “पौर्य", नामक राजवंश की स्थापना की थी। जैन शास्त्र इस राजा को दिगम्बर मुनि श्रमणपति श्रुतकेवली भद्रबाहु का शिष्य प्रकट करते है।' यूनानी राजपूत मेगस्थनीज भी चन्द्रगुप्त को श्रमणभक्त प्रकट करता है। सम्राट चन्द्रगप्त ने अपने वृहत् साम्राज्य में दिगम्बर पुनियों के बिहार और धर्म प्रचार करने की सुविधा की थी। श्रमेणपत्ति भद्रबाहु के संघ को वह राजा बहुत विनय करता था। भद्रबाहु जी बंगाल देश के कोटिकपुर नायक नगर के निवासी थे। एक बार वहाँ श्रुतकेवली गोवर्द्धन स्वामी अन्य दिगम्बर मुनियों सहित आ निकले, भद्रबाहु उन्हीं के निकट दीक्षित होकर दिगम्बर मुनि हो गये। गोवर्द्धन स्वामी ने संघ सहित गिरनारजी की यात्रा का उद्योग किया था। इस उल्लेख से स्पष्ट है कि उनके समय में दिगम्बर मुनियों को विहार करने की स्विधा प्राप्त थी। भद्रबाह जी ने भी संघ सहित देश-देशान्तर में विहार किया था और वह उज्जैनी पहुंचे थे। वहीं से उन्होंने दक्षिण देश की ओर संघ सहित विहार किया था, क्योंकि उन्हें मालूम हो गया था कि उत्तरापथ में एक द्वादशवर्षीय विकराल दुष्काल पड़ने को है जिसमें पुनिचर्या का पालन दुष्कर होगा। सम्राट चन्द्रगुप्त ने भी इसी समय अपने पुत्र को राज्य देकर भद्रबाह स्वामी के निकट जिनदीक्षा धारण की थी और वह अन्य दिगम्बर पनियों के साथ दक्षिण भारत को चले गये थे। श्रवणबेलगोल का कटवप्र नामक पर्वत उन्हीं के कारण “चन्द्रगिरि" नाम से प्रसिद्ध हो गया है, क्योकि उस पर्वत पर चन्द्रगुप्त ने तपश्चरण किया था और वहीं उनका समाधि परण हुआ था।' १. 'चन्द्रावदात्सतिश्चन्द्रवन्मोदकर्तृणाम्। चन्द्रगुप्तिनृपस्तल्चककच्यारुगुणोदयः ||७||२।। ज्ञानविज्ञानपारीोजिमपूजापुरंदरः । चतुर्द्धा दान दक्षो यः प्रताप्रजित भास्करः ।।८।। पद. "समासाद्य स सूरीशं (भद्राबाह) परीत्य प्रश्रयान्वितः। समभ्यर्च्य गुरोः पादावगंधसदकादिकैः ।।२६।।" -भट्र. 2. "That Chandragupt was a member of the Jaina community is laken by their writers as a matter of course. and treared as a known fast. which needed neither argument nor demonstration. The documentary evidence to this effort is of comparatively early date, and apparenily alived frum all suspicion... 'The testimuny of Megasthense would likewise seem toimply thai Chandragupta sutimitled to the devotional catching of the Srananas as opposed to the duinnes of the bahnanas. (Siralo. XV.p.60) JRA Vol. IX.pp.175-176. ३. "तमालपत्रवत्तस्य देशोभूतपौण्डूवर्द्धनः ।"-"तत्र कोट्टपुरं रम्यं घोतते नराकखण्डवत।" 'भद्रबाहुरितिख्याति प्राप्तवान्बन्धुवर्गतः।" इत्यादि -भद्र., पृ.१०-२३ ४. “चिकीर्ष नैमितीर्थेशयात्रां रैवतकाचले ।" -भद्र.,पृ.१३ ५. भद्र,,पृ. २७-५१। ६. Jaina tradition avers that Chandragupta Maurya was aJains, and thal, whena gtreal twelve year's renting ocrurccd, he abdicated accompanied Dhadrababy, the last of the Suinis called Srutakvalins to the South, lived as an ascetic at Sravanabelgole in Mysore and ultimalely commiled Suicide by Starvation at thal place, where his name is still hellin rencobrance. In the second cdition of this book I rejccicd that tradition und dismissed the tale ak imaxinary histroy. But on reconsideration of the whole evidence and the objections urged against the credibility of the story. I am now dispused to belive that the tradition probably is true in its main outline and thal Chandragupla really abdicated and becanre a Jaina ascetic," Sir Vincient Snith. FIII, p., St. दिगम्बास्य और दिगम्बर मुनि (72) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिन्दसार ने जैनियों के लिये क्या किया? यह ज्ञात नहीं है, किन्तु जब उसका पिता जैन था, तो उस पर जैन प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी है। उस पर उसका पुत्र आशोक अपने प्रारम्भिक जीवन में जैन धर्मपरायण रहा था, बल्कि अन्त समय तक उसने जैन सिद्वान्दों का प्रचार किया, यह अमिट दिया जा सका है। इस दिशा में बिन्दुसार का जैन धर्म प्रेमी होना उचित है। अशोक ने अपने एक स्तम्भ में स्पष्टतः निथ साधुओं की रक्षा का आदेश निकाला था।' सम्राट् सम्प्रति पूर्णतः जैन धर्मपरायण थे। उन्होंने जैन मुनियों के विहार और धर्म प्रचार की व्यवस्था न केवल भारत में ही की, बल्कि विदेशों में भी उनका विहार कराकर जैन धर्म का प्रचार करा दिया। उस समय में दशपूर्व के धारक विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय आदि दिगम्बर जैनाचार्यों के संरक्षण में रहा जैन संघ खूब फला-फुला था। जिस साम्राज्य के अधिष्ठाता ही स्वयं जब दिगम्बर मुनि होकर धर्म प्रचार करने के लिये तुल गये तो भला कहिये जैन धर्म को विशेष उन्नति और दिगम्बर मुनियों को बाहुल्यता उस राज्य में क्यों न होती। मौर्यों का नाम जैन साहित्य में इसीलिए स्वर्णाक्षरों में अंकित | [१३] सिकन्दर महान् एवं दिगम्बर मुनि ... Onesikritos says that he himself was sent to converse with these sages. For Alexander heard that these men (Sramans) went about reaked, १. Narsinhachar's Sravanahelayolap-25-40. विको., भाग ७, ए. १५६-१५७ तथा जैशिसं. भूमिका, पृ. ५४-७० 3. "We niay conclude that Bindusara folkwed the faith (Jainism) of this of his father (Chandragupta) and that, in the same bclicf. whatever it may prove to have been, his childhood's lessons were first learnt by Ashoka. -F.Thomas, JRAS., IX., 181 ३. हमारा "सम्राट अशोक और जैन धर्म" नामक ट्रैक्ट देखो। ४. स्तम्भ लेख नं. ७ "That sounder of the Mauraya dynasty, Chandragupta, as well as bis Brahnsin Minister, Chanadya. were also inclined towards Mahavira's darines and cver Ashoka is said to have been luid towards Buddhism by a previous study of Jain tcaching." -E.B..Havell, IIARI.D.59. ५. कुणालसूनुस्त्रिखण्डभरताधिपः परमार्हतो अनार्यदेशेष्वपि प्रवर्तित श्रमणविहारः सम्प्रति महाराजोंसौंभवत् -पाटलीपुत्र कल्पग्रन्थ, EHI.,pp. A12-203. दिगम्बात्व और दिगम्बर मुनि (73) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ inused themselves to hardships and were held in highest honour; that when invited they did not go to other 70 person. -Mc Crindle, Ancient India, P. जिस समय अन्तिम नन्दराजा भारत में राज्य कर रहे थे और चन्द्रगुप्त मौर्य अपने साम्राज्य की नींव डालने में लगे हुये थे, उस समय भारत के पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त पर यूनान का प्रतापी वीर सिकन्दर अपना सिक्का जमा रहा था। जब वह तक्षशिला पहुंचा तो वहाँ उसने दिगम्बर मुनियों की बहुत प्रंशसा सुनी। उसने चाहा कि वे साधुगण उसके सम्मुख लाये जायें, किन्तु ऐसा होना असंभव था, क्योंकि दिगम्बर मुनि किसी का शासन नहीं मानते और न किसी का निमंत्रण स्वीकार करते हैं। उस पर सिकन्दर ने अपने एक दूत को, जिसका नाम अन्शकृतस (Oneskritos) था, उनके पास भेजा। उसने देखा, तक्षशिला के पास उद्यान में बहुत से नंगे मुनि तपस्या कर रहे है। उनमें से एक कल्याण नामक मुनि से उसको बातचीत होती रही थी। मुनि कल्याण ने अशकृतस से कहा था कि यदि तुम हमारे तप का रहस्य समझना चाहते हो तो हमारी तरह दिगम्बर मुनि हो जाओ। 'अंशकृतस के लिये ऐसा करना असंभव था। आखिर उसने सिकन्दर से इन ज्ञान और चर्या की प्रशंसनीय बातें कहीं। सिकन्दर उनसे बहुत प्रभावित हुआ और उसने चाहा कि इन ज्ञान-ध्यान तपोरक्त का प्रकाश मेरे देश में भी पहुंचे। उसकी इस शुभ कामना को मुनि कल्याण ने पूरा किया था। जब सिकन्दर ससैन्य यूनान को लौटा तो मुनि कल्याण उसके साथ हो लिये थे, किन्तु ईरान में ही उनका देहावसान हो गया थ|| अपना अन्त समय जानकर उन्होंने जैन व्रत सल्लेखना का पालन किया था। नंगे रहना, भूमि शोधकर चलना, हरितकाय का विराधन न करना, किसी का निमंत्रण स्वीकार न करना इत्यादि जिन नियमों का पालन मुनि कल्याण और उनके साथी पुनिगण करते थे उनसे उनका दिगम्बर जैन मुनि होना सिद्ध है। आधुनिक विद्वान भी यही प्रकट करते है। * २ १. Al..p.69."(Alexander) despatched Onesikritos to them (gymnosophists), who relates that he found at the distance of 20 stadia from the city (of Taxilla) 15 men standing in different postures, sitting or lying down naked, who did not move from these positions till the evening, when they return to the city. The most difficult thing to cadure was the heat of the sun. etc. "Calanus bidding him (Onesi:) to strip himself, if he desired to hear of his doctrine. -Plutarch, A.I., p.71. any २. बीर, वर्ष ७, पृ. १७६ व ३४१ । ३. Encyclopadia Britannica ( 11th ed.) Vol. XV.p. 128.....the term Digambara is referred to in the well-known Greeck phrase. Gymnosophists, used already by Megasthenes, which applics very aptly to the Nirgranthas (Digambara Jainas). (74) दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ मुनि कल्याण ज्योतिषशास्त्र में निष्णात थे। उन्होंने बहुत सो भविष्यवाणियाँ की थी और सिकन्दर की मृत्यु को भी उन्होंने पहिले से ही घोषित कर दिया था। इन भारतीय सन्तों की शिक्षा का प्रभाव यूनानियों पर विशेष पड़ा था, यहाँ तक कि तत्कालीन डायजिनेस (Diogenes) नामक यूनानी तत्त्ववेत्ता ने दिगम्बर वेष धारण किया था और यूनानियों ने नंगी मूर्तियाँ भी बनवाई थी। यूनानी लेखकों ने इन दिगम्बर मुनियों के विषय में खूब लिखा है। वे बताते हैं कि यह साधु नंगे रहते थे। सर्दी-गर्मी की परीषह सहन करते थे। जनता में इनको विशेष मान्यता थी। हाट-बाजार में जाकर यह धर्मोपदेश देते थे। बड़े-बड़े शिष्ट घरों के अंतःपुरों में भी ये जाते थे। राजागण उनकी विनय करते और सम्पति लेते थे। ज्योतिष के अनुसार ये लोगों को भविष्य का फलाफल भी बताते थे। भोजन का निमन्त्रण ये स्वीकार नहीं करते थे। विधिपूर्वक नगर में कोई सभ्य उन्हें भोजन दान देता सी उसे ग्रहण कर लेते थे यी मेखकों के इस वर्णन से उस समय के दिगम्बर जैन मुनियों का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। उनके द्वारा भारत का नाप विदेशों में भी चमका था। भला उन जेसे मुनीश्वरों को पाकर कोन न अपने को धन्य मानेगा। $. *A calendar (rayment discovered at Milci & belonging to the 2m. century B.C. gives several weather forecasts on the authority of Indian Calamus. -QIMS..XVIII.297 २. NJ.. Intro..p.2 ३. Pliny.xxx.v.9-1RAS, Vol. IX.p.232. ४. Aristoboulas says. Their (Gymnosophists) spare lime is spens in the market-place in respect their wing public councillors, they receive great homagc. ctc. Ciccro (l'use Dispule V., 27) - "What Foreign land is mure vasi & wild than India? Yet in that nation ist es whu are reckoned sages spend their life time naked & endure the snows of Caucasus & the naye of winter without grieving & when they have comanitied their body to the flames, not a gran escape them when they are burning (iemens Alexandrinus Those lndians. who are talled Semnoi (श्रवण) Ep naked all their lives. These practise Truth. make predictions about futurity and worship a king of Pyniid. bencaih which they think the bones of some divinity lic buried (Stupas). -AI.,p.183 "St. Jerome- Indian Gymnosophists The king on coming to them worships them & the peace of his cominions depends according to his jualgemene on their prayers -A.I..p.184. Even wealthy house is open to them to the apartments of the women. On entering they share the repast." -A.I.p.71. "When they repair lo the city they disperse themselves to the market place. If they happen to meet any who carries ligs or bunches of grapes they takic whai he bostoms wilhuul giving anything in return. दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि (75) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . . . . . .. .: .. सुंग और आन्ध्र राज्यों में दिगम्बर मुनि . . .. . [१४] . MARAvi "The Andhra or Satvahana rule is characterised by almost the same social features as the farther south; but in point of religion they scem to have heen grcal patrons of the Jainas & Buddhists." -S.K. Aiyangar's Ancient India, p. 34 अन्तिम मौर्य सम्राट वृहद्रथ का उसके सेनापति पुष्यमित्र सुंग ने वध कर दिया था। इस प्रकार मौर्य साम्राज्य का अन्त करके पुष्यमित्र ने 'सुंग राजवंश' की स्थापना की थी। नन्द और मौर्य साम्राज्य में जहाँ जैन और बौद्ध धर्म उन्नति को प्राप्त हुये थे. वहाँ सुंग वंश के राजत्व काल में ब्राह्मण धर्प उन्नत अवस्था को प्राप्त हुआ था किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि ब्राह्मणेत्तर जैन आदि धमों पर इस समय कोई संकट आया हो। हम देखते हैं कि स्वयं पुष्यमित्र के राजप्रासाद के सन्निकट नन्दराज द्वारा लाई गई, कलिंग जिन की मूर्ति सुरक्षित रही थी। इस अवस्था में यह नहीं कहा जा सकता है कि इस समय दिगम्बर जैन धर्म को विकट बाधा सहनी पड़ी थी। उस पर संग राजागण अधिक समय तक शासनाधिकारी भी न रहे। भारत के पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त और पंजाब की ओर तो यवन राजाओं ने अधिकार जमाना प्रारम्भ कर दिया और मगध तथा मध्य भारत पर जैन सम्राट खारवेल तथा आन्ध्र राजाओं के आक्रमण होने लगे। खारवेल को पागध विजय में आन्ध्रवंशी राजाओं ने उनका साथ दिया था। मगध पर आन्ध्र राजाओं का अधिकार हो गया। इन राजाओं के उद्योग से जैन धर्म फिर एक बार चमक उठा। आन्ध्रवंशी राजाओं में हाल, पुलुमायि आदि जैन धर्म प्रेमी कहे गये हैं। इन्होंने दिगम्बर जैन मुनियों को विहार और धर्म प्रचार करने की सुविधा प्रदान की प्रतीत होती है। उज्जैनी के प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य भी इसी वंश से सम्बन्धित बताये जाते है। वह शैव थे, परन्तु उपरान्त एक दिगम्बर जैनाचार्य के उपदेश से जैन हो गये थे। 8. In the decadance that suflowed the death of Ashoka, the Andhras keem to have had their own share and they may possibly have helped Kharvela or Kalinga, whoun lic invaded Magadba in the Middle of the 2nd century B.C. when the kanvar were overthrown TheAndhras extend their power northwards &occupy Magadha. SAI.pp.15-16 २.J3ORS.I.T-1IR.&CIE.I.p.532. 3. Allahalrad L'niversity Studios, Pt. 11.pp. 113–147. (76) दिगम्बरव और दिगम्बा पनि Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस्वी पर्व प्रथम शताब्दि में एक भारतीय राजा का संबध रोम के बादशाह ऑगस्टस से था। उन्होंने उस बादशाह के लिये भेंट भेजी थी। जो लोग उस भेंट को ले गये थे, उनके साथ भृगुकन्छ (भडौंच) से एक श्रमणाचार्य(दिगम्बर जैनाचार्य) भी साथ हो लिये थे। वह यूनान पहुंचे थे और वहाँ उनका सम्मान हुआ था। आखिर सल्तखा, प्रतको पाला कर उन्हनि अन्त(Athens) में प्राण विसर्जन किये थे। वहाँ उनको एक निषधिका बनायी गई थी। अब भला कहिये, जब उस समय दिगम्बर मनि विदेशों तक में जाकर धर्म प्रचार करने में समर्थ थे, तो वे भारत में क्यों न विहार और धर्म प्रचार करने सफल होते। जैन साहित्य बताता है कि गंगदेव सुधर्म, नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन आदि दिगम्बर जैनाचार्यों के नेतृत्व में तत्कालीन जैन धर्म सजीव हो रहा था। ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दि में भारत में अपोलो और दपस नामक दो यूनानी तत्त्वेता आये थे। उनका तत्कालीन दिगम्बर मुनियों के साथ शास्त्रार्थ हुआ था। सारांशतः उस समय भी दिगम्बर मुनि इतने पहत्त्वशील थे कि वे विदेशियों का भी श्यान आकृष्ट करने को समर्थ थे। ::: : | यवन क्षत्रप आदि राजागण तथा [१५] दिगम्बर मुनि म "About the second century B.C. when the Greeks had occupied a fair portion of western india, Jainism appcars to have made its way amongst them and the founder of the sect appears also to have been beld in hign estcorn by the Indo- Greeks, as is apparent fronm an account given in the milinda Panho." -H.G.p.78. १. In the sune year (25BC) went an Indian embassy with gifts tu Augustus, imma King talled Purus by some and Pandian by other...'They were accompanied by the man who bumi hinisclf at Athens. 11c with a smile leapt upon thc pyte naked...On his tomb was Thix inscription, Zernmanu - chegns, to the custom ol his couniry, lics here termshochegas SCC116 1o be the Greek rendering of Sramanachina or Jaina Guru and the self-immolation a varicty of Sallekhna." -IIIQ. Vol. II, p. 293 २. Aprilonius of Tyana travelled with Damus. om about 4D.C. he carve to explore the wonders of India....llc was a Phythororian philosopher & mellarchas al l'exilla and disputed with Indian Ciynnaosophists. (Niryani has)" -OIMS,XVIII.pp.305-306 दिगम्बरत्व और दिगम्बर पुन (170 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौर्यों के उपरान्त भारत के पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत, पंजाब, मालवा आदि प्रदेशों पर यूनानी आदि विदेशियों का अधिकार हो गया था। इन विदेशी लोगों में भी जैन मुनियों ने अपने धर्म का प्रचार कर दिया था और उनमें से कई बादशाह जैन धर्म में दीक्षित हो गये थे। भारतीय यवनों (Greek) में मनेन्द्र (Menander) नामक राजा प्रसिद्ध था। उसकी राजधानी पंजाब प्रान्त का प्रसिद्ध नगर साकल स्यालकोट था। बौद्ध ग्रंथ "पिलिनदपण्ह' से विदित है कि उस नगर में प्रत्येक वर्ष के गुरु पहुंचकर धर्मोपदेश देते थे। मालूम होता है कि दिगम्बर जैन मुनियों को वहाँ विशेष आदर प्राप्त था, क्योंकि 'पिलिनदपण्ह' में कहा गया है कि पांच सौ यूनानियों ने राजा मनेन्द्र से भगवान् महावीर के 'निग्रंथ' धर्म द्वारा मनस्तुष्टि करने का आग्रह किया था और मनेन्द्र ने उनका यह आग्रह स्वीकार किया था।' अन्ततः वह जैन धर्म में दीक्षित हो गया था और उसके राज्य में अहिंसा धर्म की प्रधानता हो गई थी। यवनों (Indo Greek) को हराकर शकों ने फिर उत्तर-पश्चिम भारत पर अधिकार जमाया था। उन्होंने 'छत्रप' प्रान्तीय शासक नियक्त करके शासन किया था। इनमें राजा अग्रेस(Azes I) के समय में तक्षशिला में जैन धर्म उन्नति पर था। उस समय के बने हुबे जैन ऋपियों के स्मारक रूप स्तूप आज भी तक्षशिला में भग्नावशेष है।' शक राजा कनिष्क, हुविष्क और वासुदेव के राजकाल में भी जैन धर्म उन्नत दशा में रहा था। मथुरा उस समय प्रधान जैन केन्द्र था। अनेक निाथ साधु वहाँ विचरते थे। उन नग्न साधुओं की पूजा राजपुत्र और राजकन्यायें तथा साधारण जन-समुदाय किया करते थे।' छत्रप नहपान भी जैन धर्म प्रेमी प्रतीत होता है। उसका राज्य गुजरात से मालवा तक विस्तृत था। जैन साहित्य में उनका उल्लेख नरवाहन और नहवाण रुप में हुआ मिलता है। नहपान ही संभवतः भूतबलि नामक दिगम्बर जैनाचार्य हुये थे, जिन्होंने "पटूखण्डागम शास्त्र" की रचना की थी। . "They resound with cries of welcome to the teachers of every crecd and the city is the resort of the leading men of cach of the dilfering Sects." -QKM,p3 २. QKM.p.8 ३. वीर, वर्ष २.५.४४६-४४९ । ४. ACT., PP.75-80, ५. "Andher locality in which the Jainas seem to have been formly established from thc middle of the ?ud Century B.C. onwards was Mathura in the old kingdon of Curasens." - CHI.I p.167 & see JOAM. (78 दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्रप नहपान के अतिरिक्त छत्रप रुद्रदमन का पुत्र रुद्रसिंह का भी जैन धर्म भुक्त होना संभव है। जूनागढ़ की 'अपरकोट' को गुफाओं में इसका एक लेख है, जिसका सम्बन्ध जैन धर्म से होना अनुमान किया जाता है। ये गुफायें जैन मुनियों के उपयोग में आती थीं। इन उल्लेखों से यह स्पष्ट है कि उपयुक्त विदेशी लोगों में धर्म प्रचार करने के लिये दिगम्बर मुनि पहुंचे थे और उन्होंने उन लोगों के निकट सम्मान पाया था। [१६] - सम्राट ऐल खारवेल आदि । कलिंग नृप और दिगम्बर - मुनियों का उत्कर्ष "नन्दराज-नीतानि कालिंग-जिनम्संनिवेसं... गहरतनान पडिहारेहि अङ्गमागध वसवु नयाति।" (१२ वी पंक्ति) - "सुकति-समण-सुविहितानु च सतादिसानु जनितम् तपसि-इसिनं संघियनं अरहत निमीदिया समीपे पभरे बरकारू-समथनपतिहि अनेकयोजनाहिताहि प सि ओ सिलाहि सिंहपथ-गनि सिधुडाय निसयानि...घण्टा (अ) क (तो) चतरे वेडूरियगभे थंभे पतिठापयति"। (१५-१६ पंक्ति) -हाथी गुफा शिलालेख कलिंग देश में पहले तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के एक पुत्र ने पहले-पहले राज्य किया था। जब सर्वज्ञ होकर तीर्थंकर ऋषभ ने आर्यखण्ड में विहार किया तो वह कलिंग भी पहुंचे थे। उनके धर्मोपदेश से प्रभावित होकर तत्कालीन कलिंगराज अपने पत्र को राज्य देकर पुनि हो गये थे। बस कलिंग में दिगम्बर मुनियों का सद्भाव उस प्राचीन काल से है। १. IA.XX.163.6. २. हरिवंशपुराण श्लो. ३-७, ११, श्लो. १४-७१ । दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा दशरथ अथवा यशधर के पुत्र पाँच सौ साथियों सहित दिगम्बर मुनि होकर कलिंग देश से ही मुक्त हुये थे तथा वह पवित्र कोटिशिला भी उसी कलिंग देश में हैं, जिसको श्री राम-लक्ष्मण ने उठाकर अपना बाहवल प्रकट किया था और जिस पर से एक करोड दिगम्बर मनि निर्वाण को प्राप्त हये थे। सारांशतः एक अतीव प्राचीन काल से कलिंग देश दिगम्बर मुनियों के पवित्र चरण-कमलों से अलंकृत हो चुका है। __इक्ष्वाकुवंश के कौशलदेशीय क्षत्रिय राजाओं के उपरान्त कलिंग में हरिवंशो क्षत्रियों ने राज्य किया था। भगवान महावीर ने सर्वज्ञ होकर जब कलिंग मे आकर धर्मोपदेश दिया तो उस समय कलिंग के जितशुत्र नामक राजा दिगम्बर मुनि हो गये और भी अनेक दिगम्बर मुनि हुये थे। तदोपरान्त दक्षिण कौशलवर्ती चेदिराज के वंश के एक महापुरुष ने कलिंग पर अधिकार जमा लिया था। ईस्वी पर्व द्वितीय शताब्दि में इस देश में ऐल. खारवेल नामक राजा अपने भुजविक्रम, प्रताप और धर्म-कार्य के लिये प्रसिद्ध था। यह जैन धर्म का दृढ़ उपासक था। उसने सारे भारत को दिग्विजय की थी। वह मगध के सुगवंशी राजा को हराकर 'कलिग जिन' नामक अर्हत-मूर्ति को वापिस कलिंग ले आया था। दिगम्बर मनियों को वह भक्ति और विनय करता था। उन्होंने उनके लिये बहुत से कार्य किये थे। कुमारी पर्वत पर अर्हत् भगवान की निषधा के निकट उन्होंने एक उन्नत जिन प्रासाद बनवाया था तथा पचहत्तर लाख मुद्राओं को व्यय करके उस पर वैडूर्यरत्नजडित स्तम्भ खड़े करवाये थे। उनकी रानी ने भी जैन मंदिर तथा मुनियों के लिये गुफायें बनवाई थी, जो अब तक मौजूद हैं और भी न जानें उन्होनें दिगम्बर मुनियों के लिये क्या-क्या नहीं किया था। उस समय पथरा, उज्जैनी और गिरिनर जैन ऋषियों के केन्द्र स्थान थे। खारवेल ने जैन ऋषियों का एक पहासम्मेलन एकत्र किया था। पथुरा, उज्जैनी, गिरिनार, काञ्चीपुर आदि स्थानों से दिगम्बर मुनि उस सम्मेलन में भाग लेने के लिये कुमारी पर्वत पर पहुंचे थे। बड़ा भारी धर्म महोत्सव किया गया था। बुद्धिलिंग, देव, धर्मसेन, नक्षत्र आदि दिगम्बर जैनाचार्य उस महासम्मेलन में - P - - - - - - - १. "जसधर राहस्स सुवा पंचसयाभूब कलिंग देसम्म || कोटिसिल कोडि मुणि णिव्वाण गया णमो तेसि ।।१८।। -णिवाण-कांड गाहा २, हरिवंशपुराण (कलकत्ता संस्करण), पृ. ६२३ ३. JBORS, Vol.III, pp.434-484. ४. बेबिओं जैस्मा., पृ. ९१ ५. JHQ. Vol. IV.p.522. ६. "सुतदिसार्नु भनितम् तपसि-इसिन संघियन अरहत निसीदिया समीपे चोयथि सतिकंतुरिय उपादयति।।" -JBORS, XIll. 236-237. दिगम्मरत्व और दिगम्बर मुनि Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मिलित हुये थे। इन ऋषि पुंगदो ने मिलकर जिनवाणी का उद्धार किया था तथा सम्राट खारवल के सहयोग से वे जैन धर्म के प्रचार करने में सफल मनोरथ हुये थे। यही कारण है कि उस समय प्रायः सारे भारत में जैन धर्प फैला हुआ था। यहाँ तक कि विदेशियों में भी उसका प्रचार हो गया था, जैसे कि पूर्व परिच्छेद में लिखा जा चुका है। अतएव यह स्पष्ट है कि ऐल. खारवेल के राजकाल में दिगम्बर मुनियों का महान् उत्कर्ष हुआ था। ऐल. खारवेल के बाद उनके पुत्र कुदेपश्री खर पहामेघवाहन कलिंग के राजा हये थे। का भी जैन धपानुयायी थे। उनके बाद भी एक दीर्ध समय तक कलिंग में जैन धर्म राष्ट्र धर्म रहा था। बौद्धग्रंथ 'दाठवंसो से ज्ञात है कि कलिंग के राजाओं में महात्मा बुद्ध के समय से जैन धर्म का प्रचार था। गौतम बुद्ध के स्वर्गवासी होने के बाद बौद्धभिक्षु खेम ने कलिंग के राजा ब्रह्मदत्त को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया था। ब्रह्मदत्त का पुत्र काशीराज और पौत्र सुनन्द भी बौद्ध रहे थे। किन्तु तदोपरान्त फिर जैन धर्म का प्रचार कलिंग में हो गया। यह समय संभवतः खारवेल आदि का होगा। कालान्तर में कलिंग का गुहशिव नामक प्रतापी राजा निग्रंथ साधुओं का भक्त कहा गया है। उसके बाद बौद्ध मंत्री ने उसे जैन धर्म विमुख बना लिया था। निग्रंथ साधु उसकी राधानी छोड़कर पाटलिपुत्र चले गये थे। सम्राद पाण्ड् वहाँ पर शासनाधिकारी था। निग्रंथ साधुओं ने उससे गुहगिव को धृष्टता की बात कही थी। यह घटना लगभग ईसवी तीसरी या चौथी शताब्दि को कही जा सकती है और इससे प्रकट है कि उस सपय तक दिगम्बर मुनियों की प्रधानता कलिंग अंग-बंग और पगध में विद्यमान थी। दिगम्बर पनियों को राजाश्रय मिला हुआ था। १. अनेकान्त, वर्ष १, पृ. २२८ । २. JIORS. III.p.505. ३. दन्त धातु ततो खेमो अतना गजितं अदा। दन्तपूरे कलिंगस्स ब्रह्मदत्तस्स राजिनरे।।५७ ।। २।। देसयित्थान सो धम्म भेत्वा सब्ब कुदिदिटयो।। राजानं तं पसादेसि अगाम्हिरतनतगे।।५८।। अनुजातो ततो तस्स काशिराज रहयो सुतो। रज्ज लद्धा अमच्चाने सोकसल्लमपानुदि।।६६।। सुनन्दी नाम राजिन्दो आनन्दजननो मतं । तस्स जो ततो आसि बुद्धसासननामको ।।६९।। -दाठा., पृ. ११-१२ ४. गुहसीत्र व्हेयाराजा दुरतिक्कमसासनो। तप्ती रज्जसिरि पत्वा अनुगहि महाजन् । ।७२।। २।। सपरस्थानभिज्जेमो लाभासक्करलोलपे।। मायाविनो अविज्जन्ये निगण्थे समुपहि।।७३ ।। तस्सा मच्चला सो राजा सुत्वा धम्मसुभासितं । दुल्लद्धिमलमुञ्झित्वा पसोदि रसनत्तये।।८६ ।। दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारी पर्वत पर के शिलालेखों से यह भी प्रकट है कि कलिंग में जैन धर्म दसवीं शताब्दि तक उन्नतावस्था पर था। उस सपय वहाँ पर दिगम्बर जैन मुनियों के विविध संघ विद्यमान थे, जिनमें आचार्य यशन्दि, आचार्य कुलचन्द्र तथा आचार्य शुभचन्द्र मुख्य साधु थे।' इस प्रकार कलिंग में दिगम्बर जैन धर्म का बाहुल्य एक अतीव प्राचीन काल से रहा है और वहाँ पर आज भी सराक लोग एक बड़ी संख्या में हैं, जो प्राचीन श्रावक हैं।' उनका अस्तित्त्व इस बात का प्रमाण है कलिंग में जैनत्व की प्रधानता आधुनिक समय तक विद्यमान रही थी। SONN .. . .. .. | [१७] गुप्त साम्राज्य में दिगम्बर मुनि । : The capital of inc Cupla emperors becanic the ccnirc of Brahmanical culture; but the masses followed the religions traditions of their forclathers, and Buddhist Jain monasteries continued to be public schools and universities for the greater part of India." -E,B.Havell, HARI,, p. 156 इति सो चिन्तयित्वान गुहसीवो नराधिपो। पवाजेसी सकारह निगण्ठे ते असेसके।।८९।। ततो निगण्ठा सव्वेपि धतसित्तानला यथा। कोग्गिजलिता गच्छं पुरं पाटलिपुतकं! |९० ।। तत्थ राजा महातेजो जम्बुदीपस्स हस्सरो। पण्डु नामोतदा आसि अनन्त बलवाहनो।।११।। कोधन्धोल्य निगण्ठा ते सल्वे पेसुज्जकास्का। उपसंकम्मराजानं इदं वचनमबत्रु ।।१२।। इत्यादि "दाठा.,पृ. १३-१४ १. बंबिओ जैस्मा,,पृ. ९४-९६ । २. बंदिओ जैस्मा.,पृ. १०१-१०४। दिगम्बरत्य और दिगम्बर पनि Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपि गुप्त वंश के राज्यकाल में ब्राह्मण धर्म की उन्नति हुई थी, किन्तु जन-साधारण में अब भी जैन और बौद्ध धर्मों का ही प्रचार था। दिगम्बर जैन मुनिगण ग्राम-ग्राम विचर कर जनता का कल्याण कर रहे थे और दिगम्बर उपाध्याय जैन-विद्यापीठों के द्वारा ज्ञान-दान करते थे। गुप्त काल में मथुरा, उज्जैन, श्रावस्ती राजगृह आदि स्थान जैन धर्म के केन्द्र थे। इन स्थानों पर दिगम्बर जैन साधओं के संघ विद्यमान थे। गुप्त सम्राट अब्राह्मण साधूओं से द्वेष नहीं रखते थे', तथापि उनका वाद ब्राह्मण विद्वानों के साथ कराकर सुनना उन्हें पसंद था। श्री सिद्धसेनादिवाकर के उद्गारों से पता चलता है कि "उस समय सरलवाद पद्धति और आकर्षक शान्ति वृत्ति का लोगों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता था। निग्रंथ अकेले-दुकेले ही ऐसे स्थलों पर जा पहुँचते थे और ब्रह्मणादि प्रतिवादी विस्तृत शिष्य-समूह और जन-समुदाय सहित राजसी ठाट-बाट के साथ पेश-आते थे, तो भी जो निर्गथो को मिलता था वह उन प्रतिवादियों को अप्राप्य था। बंगाल में पहाड़पुर नामक स्थान दिगम्बर जैन संघ का केन्द्र था। वहां के दिगम्बर मुनि प्रसिद्ध थे। गुप्त वंश में चन्द्रगुप्त द्वितीय प्रतापी राजा था। उसने 'विक्रमादित्य' की उपाधि धरण की थी। विद्वानों का कथन है कि उसी की राज-सभा में निम्नलिग्नित विद्वान थे 'धन्वन्तरिः क्षपणको मरसिंहशंकवतालभट्टघट खपरकालिदासाः। ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां। रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्या।' इन विद्वानों में "क्षपणक' नाम का विद्वान एक दिगम्बर पनि था। आधुनिक विद्वान उन्हें सिद्धसेन नामक दिगम्बर जैनाचार्य प्रकट करते हैं। जैन शास्त्र भी उनका समर्थन करते हैं। उनसे प्रकट है कि श्री सिद्धसेन ने 'महाकाली के मन्दिर में चमत्कार दिखाकर चन्द्रगुप्त को जैन धर्म में दीक्षित कर लिया था। १. भाइ., पृ.९१। २. जेहि,, भा. १४, पृ. १५६ । ३. IHO, VII.441. ४. रश्रा,,पृ. १३३ ५. रा. चरित्र, पृ. १३३-१४१। ६. वीर, वर्ष १, पृ. ४७१ ।। दिगम्बात्व और दिगम्बर मुनि Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mi उपर्युक्त विद्वानों में से अमरसिंह', वराहमिहिर' आदि ने अपनी रचनाओं मे . जैनों का उल्लेख किया है, उससे भी प्रकट है कि उस समय जैन धर्म काफी उन्नत रुप में था। वराहमिहिर ने जैनों के उपास्य देवता की मूर्ति नग्न बनती लिखी है, जिससे स्पष्ट है कि उस समय उज्जैनी में दिगम्बर धर्म महत्वपूर्ण था। जैन साहित्य से प्रकट है कि उज्जैनी के निकट भद्दलपुर (वीसनगर) में उस समय टिंगवर नियों का मंध मौजूद था, जिसके आचार्यों की कालानुसार नामवली निम्न प्रकार हैं१. श्री मुनि वज्रनन्दी सन् ३०७ में आचार्य हुये श्री मुनि कुमार नन्दी सन् ३२९ में आचार्य हुये श्री मुनि लोकचन्द्र प्रथम सन् ३६० में आचार्य हुये श्री पुनि प्रभाचन्द्र प्रथम सन् ३९६ में आचार्य हुये श्री मुनि नेमिचन्द्र प्रथम सन् ४२१ में आचार्य हुये 'श्री मुनि भानुनन्दि सन् ४३० में आचार्य हुये श्री मुनि जयनन्दि ४५१ में आचार्य हुये श्री मुनि वसुनन्दि ४६८ में आचार्य हुये श्री मुनि वीरनन्दि ४७४ में आचार्य हुये श्री पुनि रत्ननन्दि ५०४ में आचार्य हुये श्री मुनि माणिक्यनन्दि ५२८ में आचार्य हुये श्री मुनि मेघचन्द्र ५४४ में आचार्य हुये १३. श्री मुनि शान्ति कीर्ति प्रथय - ५६० में आचार्य हुये १४. श्री मुनि मेरुकीर्ति प्रथम - ५८५ में आचार्य हये इनके बाद जो दिगम्बर जैनाचार्य हुये, उन्होने भद्दलपुर (मालवा) से हटाकर जैन संघ का केन्द्र उज्जैन पे बना दिया। इससे भी स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के निकट जैन धर्म को आश्रय मिला था। उसी समय चीनी यात्री फाह्यान भारत में आया था। उसने पथुरा के उपरान्त पध्यप्रदेश में ९६ पाखण्डों का प्रचार लिखा है। वह कहता है कि “वे सब लोक और परलोक मानते हैं। उनके साधु-संघ हैं। वे भिक्षा करते हैं, केवल भिक्षापात्र नहीं रखते। सब नाना रुप से धर्मानुष्ठान करते हैं।" दिगम्बर मुनियों के पास भिक्षापात्र नहीं होता-खे पाणिपात्र भोजी और उनके संघ होते हैं तथा वे मुख्यतः अहिंसा धर्म का उपदेश देते हैं। फाह्यान भी कहता है कि "सारे AN १. अमरकोष देखो। २. 'नानान् जिनानां विदुः ।- वराहमिहिर संहिता ३. पट्टवाली जैहि.. भाग ६, अंक ७-८, पृ. २९-३० व [A,XX, 351-352 ४. IA,XX,352. (841 दिगम्बरस्य और दिगम्बर मुनि Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देश में सिवाय चाण्डाल के कोई अधिवासी न जीवहिंसा करता है, न मद्य पीता है और न लहसुन खाता है।.... न कहीं सूनागार और मद्य की दुकानें है। . उसके इस कथन से भी जैन मान्यता का समर्थन होता है कि भद्दलपुर, उज्जैनी आदि मध्यप्रदेशवर्ती नगरों में दिगम्बर जैन मुनियों के संघ मौजद थे और उनके द्वारा अहिंसा धर्म की उन्नति होती थी। फाह्यान संकाश्य, श्रावस्ती, राजगृह आदि नगरों में भी निग्रंथ साधुओं का अस्तित्त्व प्रगट करता है। संकाश्य उस समय जैन तीर्थ माना जाता था। संभवतः यहू भगवान् विमलनाथ तीर्थंकर का केवल्यज्ञान का स्थान है। दो-तीन वर्ष हुये, वहीं निकट से एक नग्न जैन मूर्ति निकली थी और वह गुप्त काल की अनुमान की गई है। इस तीर्थ के सम्बन्ध में निग्रंथों और बौद्ध भिक्षुओं में वाद हुआ वह लिखता श्रावस्ती में भी बौद्धों ने निर्ग्रथों से विवाद किया वह बताता है। श्रावस्ती में उस समय सुहृदध्वज वंश के जैन राजा राज्य करते थे। 'कुहाऊं (गोरखपुर) से जो स्कन्दगुप्त के राजकाल का जैन लेख मिला है उससे स्पष्ट हैं कि इस ओर अवश्य हो दिगम्बर जैन धर्म उन्नतावस्था पर था। साँची से एक जैन लेख विक्रम सं. ४६८ भाद्रपद चतुर्थी का मिला है। उसमें लिखा है कि उन्दान के पुत्र आपरकार देव ने ईश्वरवासक गाँव और २५ दीनारों का दान किया। यह दान काकनावोट के जैन बिहार में पाँच जैन भिक्षुओं के भोजन के लिये और रत्नगृह में दीपक जलाने के लिये दिया गया था। उक्त आमस्कारक देव चन्द्रगुप्त के यहाँ किसी सैनिक पद पर नियुक्त था । " यह भी जैनोत्कर्ष का द्योतक है। राजगृह पर भी फाह्यान निग्रंथों का उल्लेख करता है । वहाँ की सुभद्र गुफा में तीसरी या चौथी शताब्दि का एक लेख मिला है जिससे प्रकट है कि पुनि संघ ने पुनि वैरदेव को आचार्य पद पर नियुक्त किया था। राजगृह में गुप्त काल की अनेक दिगम्बर मूर्तियाँ भी हैं। १० १. फाह्यान, पृ. ३१ २. IBQ, Vol. V.p.142. ३. फाह्यान, पृ. ३५-३६॥ ४. फाह्यान, पृ. ४०-४५ ५. संत्रास्मा, पृ. ६५ । ६. भागास, भा. २, पृ. २८९ । १७. भाप्रारा. भा. २, पृ. २६३ । 4. Here also the Nigantha made a pit with fire in it and poisoned the food of which the invited Buddha to patake (The Nirgranthas were ascetics who went naked" Fa-llian. Beal.pp.110–113 यह उल्लेख साम्प्रदायिक द्वेष का द्योतक है। ९. बंबिओ जैसमा, पृ. १६ । १०. "Report on the Ancient Jain Remains on the hills of Rajgir" submitted to he Patna Court by R. B. Ramprasad Chanda B.A.Ch. IV..p.30 (Jain images of the Gupta & Pala period at Rajgir). दिसम्बर और दिसम्बर मुनि (85) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारांशतः गुप्तकाल में दिगम्बर पुनियों का बाहुल्य था और वे सारे देश में । घूम-घूम कर धर्मोद्योत कर रहे थे। - हर्षवर्द्धन तथा ह्वेनसांग के म समय में दिगम्बर मुनि । "बौद्धों और जैनियों की भी संख्या बहुत अधिक थी।...बहुत से प्रान्तीय राजा भी इनके अनुयायी थे। इनके धार्मिक सिद्धान्त और रीतिरिवाज भी तत्कालीन समाज पर पर्याप्त प्रभाव डाले हुये थे। इनके अतिरिक्त तत्कालीन समाज में साधुओं, तपस्वियों, भिक्षुओं और यतियों का एक बड़ा भारी समुदाय था, जो उस समय के समाज में विशेष महत्त्व रखता था।....(हिन्दुओं में) बहुत से साधु अपने निश्चित स्थानों पर बैठे हुये ध्यान-समाधि करते थे, जिनके पास भक्त लोग उपदेश आदि सुनने आया करते थे। बहुत से साधु शहरों व गाँवों में घूम-घूमकर लोगों को उपदेश व शिक्षा दिया करते थे। यही हाल बौद्ध भिक्षुओं और जैन साधुओं का भी था।....साधारणतः लोगों के जीवन को नैतिक एवं धार्मिक बनाने में इन साधुओं, यतियों और भिक्षुओं का बड़ा भारी भाग था।"१ -कृष्णचन्द्र विद्यालंकार गुप्त साम्राज्य के नष्ट होने पर उत्तर- भारत का शासन योग्य हाथों में न रहा। परिणाम यह हुआ कि शीघ्र ही हूण जाति के लोगों ने भारत पर आक्रमण करके उस पर अधिकार जमा लिया। उनका राज्य सभी धर्मों के लिये थोड़ा-बहुत हानिकारक हुआ, किन्तु यशोवर्मन राजा ने संगठन करके उन्हें परास्त कर दिया। इसके बाद हर्षवर्धन नापक सम्राट एक ऐसे राजा मिलते हैं जिन्होंने सारे उत्तर- भारत में प्रायः अपना अधिकार जमा लिया था और दक्षिण-भारत को हथियाने को भी जिन्होंने कोशिश की थी। इनके राजकाल में प्रजा ने संतोष की सांस ली थी और वह धर्म-कर्म की बातों की ओर ध्यान देने लगी थी। गप्तकाल से ही ब्राह्मण धर्म का पनरुत्थान होने लगा था और इस समय भी उसकी बाहुल्यता थी, किन्तु जैन और बौद्ध धर्म भी प्रतिभाशाली थे। धार्मिक जागृति का वह उन्नत काल था। गप्तकाल से जैन, बौद्ध और ब्राह्मण विद्वानों में वाद और १. हर्षकालीन भारत-"त्यागभूमि', वर्ष २, खण्ड १, पृ. ३०१। (86) दिगम्वरत्व और दिगम्बर मुनि Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रार्थ होना प्रारम्भ हो गये थे। हाई के काल में ऊो वह बरस कि समाज में विद्वान ही सर्वश्रेष्ठ पुरुष गिना जाने लगा।' इन विद्वानों में दिगम्बर मुनियों का भी सपात्र था। सम्राट हर्ष के राजकवि बाप्य ने अपने ग्रंथों में उनका उल्लेख किया है। वह लिखता है कि “राजा जब गहन जंगल मे जा पहुंचा तो वहाँ उसने अनेक तरह के तपस्वी देखे। उनमें नान (दिगम्बर) आर्हत (जैन) साधु भी थे। हर्ष ने अपने महासम्मेलन में उन्हें शास्त्रार्थ के लिये बुलाया था और वह एक बड़ी संख्या में उपस्थित हुये थे। इससे प्रकट होता है कि उस समय हर्ष की राजधानी के आस-पास भी जैन धर्म का प्राबल्य था, वैसे तो वह सारे भारत में फैला हुआ था। उज्जैन का दिगम्बर जैन संघ अब भी प्रसिद्ध था और उसमें तत्कालीन निम्न दिगम्बर जैनाचार्य मौजूद थे १. श्री दिगम्बर जैनाचार्य महाकीर्ति, सन् ६२९ को आचार्य हुये २. श्री दिगम्बर जैनाचार्य विष्णुनन्दि सन् ६४७ को आचार्य हुये ३. श्री दिगम्बर जैनाचार्य श्रीभूषण सन् ६६९ को आचार्य हुये ४. श्री दिगम्बर जैनाचार्य श्रीचन्द्र सन् ६७८ को आचार्य हुये ५. श्री दिगम्बर जैनाचार्य श्रीनन्दि सन् ६९२ को आचार्य हुये ६. श्री दिगम्बर जैनाचार्य देशभूषण सन् ७०८ को आचार्य हुये सम्राट हर्ष के सपय में (७ बी श.) चौन देश से ह्वेनसांग नामक यात्री भारत आया था। उसने भारत और भारत के बाहर दिगम्बर जैन मुनियों का अस्तित्त्व बतलाया है। वह उन्हें निर्गंध और नंगे साधु लिखता है तथा उनकी केशलुञ्चन क्रिया का भी उल्लेख करता है। वह पेशावर की ओर से भारत में घुसा था और वहीं सिंहपुर में उसने नंगे जैन मुनियों को पाया था। इसके उपरान्त पंजाब और मथुरा, स्थानेश्वर, ब्रह्मपुर, आहिक्षेत्र, कपिथ, कन्नौज, अयोध्या, प्रयाग, कौशांबी, बनारस, श्रावस्ती इत्यादि मध्यप्रदेशवतों नगरों में यद्यपि उसने दिगम्बर मुनियों का पृथक उल्लेख नहीं किया है, परन्तु एक साथ सब प्रकार के साधुओं का उल्लेख करके उसने उनके अस्तित्व को इन नगरों में प्रकट कर दिया है। मथुरा के सम्बन्ध में वह लिखता है १. भाइ,,पृ. १०३-१०४। २. दिमु., पृ. २१ । ३. Hari., P.270. ४. जैहि., ए. भा. ६, अंक ७-८, पृ. ३० व .A.,'xx-352 ५. "Hisun Tsang found thern (Jains) spread through the whole of India and even beyond its boundarics,-"AISJ.P.45 विशेष के लिये हेनसांग का भारत भ्रमण (इण्डियन प्रेस लि.) देखो। 6. "The Li-hi (Nirgranthas) distinguish themselves by leaving their bodics nalcd & puling oul their hair, Their skin is all cracked thcir scet are hard & chapped like colting trees." -(S1. Julien, Vicnna.p.224) ७. हुमा., पृ. १४३। दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि (87) Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि "पाँच देव मन्दिर भी है, जिनमें सब प्रकार के साघु उपासना करते हैं। " स्थानेश्वर के विषय में उसने लिखा है कि "कई सौ देव मन्दिर बने हैं, जिनमें नाना जाति के अगणित भित्र धर्मावलम्बी उपासना करते हैं। ” ऐसे ही उल्लेख अन्य नगरों के सम्बन्ध में उसने किये हैं। राजगृह के वर्णन में ह्वेनसांग ने लिखा है कि “विपुल पहाड़ी की चोटी पर एक स्तूप उस स्थान में हैं, जहाँ प्राचीन काल में तथागत भगवान् ने धर्म को पुनरावृत्ति की थी। आजकल बहुत से निर्ग्रथ लोग (जो नंगे रहते है, इस स्थान पर आते हैं और रात-दिन अविराम तपस्या किया करते हैं तथा सवेरे से सांझ तक इस ( स्तूप) की प्रदक्षिणा करके बड़ी भक्ति से पूजा करते हैं। " " पुण्ड्रवर्द्धन (बंगाल) में वह लिखता है कि "कई सौ देवमन्दिर भी हैं जिनमें अनेक संप्रदाय के विरुद्ध धर्मावलम्बी उपासना करते हैं। अधिक संख्या निग्रंथ लोगों (दिगम्बर मुनियों) की है । "४ समतट (पूर्वी बंगाल) में भी उसने अनेक दिगम्बर साधु पाये थे। वह लिखता है, “दिगम्बर साधु, जिनको निर्ग्रथ कहते हैं, बहुत बड़ी संख्या में पाये जाते हैं। "" ताम्रलिप्ति में वह विरोधी और बौद्ध दोनों का निवास बतलाता है। कर्णसुवर्ण के सम्बन्ध में भी यही बात कहता है । ६ ७ कलिंग में इस समय दिगम्बर जैन धर्म प्रधान पद ग्रहण किये हुए था। ह्वेनसांग कहता है कि वहाँ 'सबसे अधिक संख्या निर्ग्रथ लोगों की है। इस समय कलिंग में सेनवंश के राजा राज्य कर रहे थे, जिनका जैन धर्म से सम्बन्ध होना बहुत कुछ संभव है। दक्षिण कौशल में वह विधर्मी और बौद्ध दोनों को बताता है। आन्ध्र में भी विरोधियों का अस्तित्त्व वह प्रकट करता है। ' ९ १० चोल देश में बहुत से निग्रंथ लोग बताता है। - द्रविड़ के सम्बन्ध में वह कहता है कि "कोई अस्सी देव मन्दिर और असंख्य विरोधी है, जिनको निर्ग्रथ कहते हैं। ११ (88) १. हुभा, पृ. १८१ । २. हुआ, पृ. १८६ | ३. हुमा, पृ. ४७४-४७५ । ४. हुभा, पृ. ५२६ । ५. हुआ, पृ. ५३३१ ६. हुभा. पृ. ५३५-५३७१ ७. भा. पृ. ५४५ ॥ ८. वीर, वर्ष ४, पृ. ३२८-३३२ । ९. हुआ. पृ. ५४६-५५७॥ १०. हथमा, पृ. ५७० ॥ ११. हूभा, पृ. ५७२ दिगम्बर और दिगम्बर मुनि Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालकट (मलय देशों में वह बताता है कि "कई मौ टेल पंदिर और असंख्य विरोधी है, जिनर्म अधिकतर निग्रंथ लोग है। इस प्रकार ह्वेनसांग के भ्रमण-वृतान्त से उस समय प्रायः सारे भारतवर्ष में दिगम्बर जैन मुनि निर्बाध बिहार और धर्म प्रचार करते हुय मिलते हैं। ...: /am ::::800 :' | [१९] मध्यकालीन हिन्दू राज्य में दिगम्बर मुनि । "श्री धाराधिप-भोजराज-मुकुट-प्रोताश्मरश्मिच्छटाच्छाया-कुंकम-पंक-लिप्त-चरणाम्भोजात-लक्ष्मीधवः। न्यायाजाकरमण्डने दिनमणिश्शब्दाज-रोदोमणिस्थेयात्पण्डित-पुण्डरीक तरणि श्रीमान्प्रभाचन्द्रमाः।।" -चन्द्रागिरि शिलालेख राजपूत और दिगम्बर मुनि हर्ष के उपरान्त उत्तर भारत में कोई एक सम्राट न रहा, बल्कि अनेक छोटे-छोटे राज्यों में यह देश विभक्त हो गया। इन राज्यों में अधिकांश राजपूतों के अधिकार में थे और इनमें दिगम्बर पनि निर्बाध विचर कर जनकल्याण करते थे। राजपूतों में अधिकांश जैसे चौहान, पड़िहार आदि एक समय जैन धर्म के पक्त थे और उनके कुलदेवता चक्रेश्वरी, अम्बा आदि शासन देवियाँ थी। उत्तर-भारत में कन्नौज को राजपूत-काल में भी प्रधानता प्राप्त रही हैं। वहाँ का राजाभोज परिहार (८४०-९० ई.) सारे उत्तर भारत का शासनाधिकारी था। जैनाचार्य खप्पसूरि ने उसके दरबार में आदर प्राप्त किया था। श्रावस्ती, पथुरा, असाईखेड़ा, देवागढ़, वारानगर, उज्जैन आदि स्थान उस समय भी जैन केन्द्र बने हुये थे। ग्यारहवीं शताब्दी तक श्रावस्ती में जैन धर्म राष्ट्र धर्म रहा था। वहाँ का अन्तिम राजा सुहृद्ध्वज था। उसके संरक्षण में दिगम्बर मुनियों का लोककल्याण में निरत रहना स्वाभाविक है। १. हुमा. पृ. ५७४ २. वीर, वर्ष, ३ पृ. ४७२ - एक प्राचीन जैन गुटका में यह बात लिखी हुई है। ३. भाइ. पृ. १०८ व दिजे. वर्ष २३, पृ.८४ । ४. संप्रास्मा पृ.६५ दिगम्बत्व और दिगम्बर मुनि Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनारस के राजा भीमसेन जैनधर्मानुयायी थे और वह अन्त मे पिहिताश्रव नामक जैनमुनि हुये थे।' मथुरा के रणकेतु नापक राजा जैन धर्म का भक्त था। वह अपने भाई गुणवर्मा सहित नित्य जिनपूजा किया करता था। आखिर गुणवर्मा को राज्य देकर वह जैन पुनि हो गया था। सूरीपूर (जिला आगरा) का राजा जितशत्रु भी जैनी था। वह बड़े-बड़े विद्वानों का आदर करता था। अन्त में वह जैन मुनि हो गया था और शान्तिकोर्ति के नाप से प्रसिद्ध हुआ था। मालवा के परमारवंशी राजाओं में पुञ्ज और भोज अपनी विद्यारसिकता के लिये प्रसिद्ध है। उनको राजधानी धार नगरी विद्या केन्द्र थी। मुज के दरबार में धनपाल, प्यगुप्त, धनञ्जय, हलायुद्ध आदि अनेक विद्वान थे। पञ्जनरेश से दिगम्बर जैनाचार्य पहासेन ने विशेष सम्मान पाया था। मुञ्ज के उत्तराधिकारी सिंधु राज के एक सापन्त के अनुरोध पर उन्होंने 'प्रद्युम्न चरित' काव्य की रचना की थी। कवि धनपाल का छोटा भाई जैनाचार्य के उपदेश से जैन हो गया था, किन्तु धनपाल को जैनों से चिढ थी। आखिर उनके दिल पर भी सत्य जैन धर्म का सिक्का जम गया और वह भी जैनी हो गये थे। दिगम्बर जैनाचार्य श्री शुभचन्द्र जी राजा मुञ्ज के समकालीन थे। उन्होनें राज का पोह तयागकर दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण की थी।" राजा पुञ्ज के समय में ही प्रसिद्ध दिगम्बरचार्य श्री अमितगति जी हुये थे। वह माथुर संघ के आचार्य माधवसेन के शिष्य थे। 'आचार्यवर्य अमितगति बड़े भारी विद्वान् और कवि थे। इनको असाधारण विद्वता का परिचय पाने को इनके ग्रथों का १. जैप्र., पृ. २४२। २. पूर्व.। ३. पूर्व., पृ. २४१ । ४. भप्रारा. पा. १, पृ. १००। ५. मप्राजैस्मा., भूमिका, पृ. २०। ६. भभारा., भा. १, पृ. १०३-१०४। ७. मजेड.. पृ.५४-५५ । (90) दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनन करना चाहिये। रचना सरल और सुखसाध्य होने पर भी बड़ी गंभीर और मधुर है। संस्कृत भाषा पर इनका अच्छा अधिकार था । ' 'नीतिवाक्यामृत' आदि ग्रंथों के रचयिता दिगम्बराचार्य श्री सोमदेव सूरि श्री अमितगति आचार्य के समकालीन थे। उस समय इन दिगम्बराचार्यों द्वारा दिगम्बर धर्म की खूब प्रभावना हो रही थी। २ राजाभोज और दिगम्बर मुनि भुज के समान राजाभोज के दरबार में भी जैनों को विशेष सम्मान प्राप्त था। भोज स्वयं शैव था, परन्तु 'वह जैनों और हिन्दुओं के शास्त्रार्थ का बड़ा अनुरागी था।' श्री प्रभाचन्द्राचार्य का उसने बड़ा आदर किया था। दिगम्बर जैनाचार्य श्री शांतिसेन ने भोज की सभा में सैकड़ों विद्वानों से वाद करके उन्हें परास्त किया था।' एक कवि कालिदास राजाभोज के दरबार में भी थे। कहते हैं कि उनकी स्पर्द्धा दिगम्बराचार्य श्री मानतुंग जी से थी। उन्हीं के उकसाने पर राजा भोग में मानतुंगाचार्य को अड़तालीस कोठों के भीतर बन्द कर दिया था, किन्तु श्री भक्तामर स्तोत्र' की रचना करते हुये वह आचार्य अपने योगबल से बन्धनमुक्त हो गए थे। इस घटना से प्रभावित होकर कहते हैं, राजाभोज जैन धर्म में दीक्षित हो गये थे, किन्तु इस घटना का समर्थन किसी अन्य श्रोत से नहीं होता। श्री ब्रह्मदेव के अनुसार 'द्रव्यसंग्रह' के कर्ता श्री नेमिचन्द्राचार्य भी राजाभोज के दरबार में थे।' श्री नयनन्दी नामक दिगम्बर जैनाचार्य ने अपना "सुदर्शन चरित्र" राजाभोज के राजकाल में समाप्त किया था। उज्जैनी का दिगम्बर संघ भोज ने अपनी राजधानी उज्जैनी में उपस्थित की थी। उस समय भी उज्जैनी अपने "दिगम्बर जैन संघ के लिए प्रसिद्ध थी। उस समय तक संघ में निम्न आचार्य हुए थे ७ अनन्तकीर्ति धर्मनन्दि ९. विको. भा. २, पृ. ६४ । 7 २. विर, पृ. ११५ । सन् ७०८ई. सन् ७२८ई. ३. भाभारा, भाग १, पृ. ११८-१२१ । ४. भक्तामर कथा, जैत्र, पृ. २३९ । ५. सं. पृ. ९ वृत्ति । ६. मत्राजैस्मा, भूमिका, पू. २० । ७. जैहि. भा. ६, अंक ७-८ पृ. ३०-३१ दिगम्बरस्या और दिगम्बर मुनि (91) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन् ८२१ ई. विद्यानन्दि सन् ७५१ ई. रामचन्द्र सन् ७८३ ई. रामकीर्ति सन् ७९० ई. अभयचन्द्र नरचन्द्र सन् ८४० ई. मनचन्द्र स. ८५९ ई. हरिनन्दि सन् ८ ८२ ई. हरिचन्द्र सन् ८९१ ई. महीचन्द्र सन् ९१७ ई. माषचन्द्र सन् १३३ ई. लक्ष्मीचन्द्र सन् ९६६ ई. गुणकीर्ति सन् ९७० ई. गुणचंद्र सन् ९९१ ई. लोकचन्द्र सन् १००९ई. श्रुतकीर्ति सन् १०२२ ई. पावचन्द्र सन् १०३७ ई. महीचन्द्र सन् १०५८ ई. आपके संघ में दिगम्बर मुनियों की संख्या अधिक थी और आपके धर्मोपदेश के द्वारा धर्म प्रभावना विशेष हुई थी। इनकी उपाधियाँ त्रिविध विधेश्वरवैयाकरणभास्कर-महामंडलाचार्यतर्कवागीश्वर थो। इनके विहार द्वारा खूब प्रभावना हुई। बाद के परमार राजाओं के समय में दिगम्बर मुनि ____ मालवा के परमार राजाओं में विन्ध्यवर्मा का नाम भी उल्लेखनीय है। इस राजा के राजकाल में प्रसिद्ध जैन कवि आशाधर ने ग्रंथ रचना की थी और उस समय कई दिगम्बर मुनि भी राजसम्पान पाये हुये थे। इनमें मुनि उदयसेन और मुनि मदनकीर्ति उल्लेखनीय है। मुनि मदनकीर्ति ही विन्ध्यवर्मा के पुत्र अजूनदव के राजगुरु पदनोपाध्याय अनुमान किये गये हैं। इन्हें और मुनि विशलकोर्ति, मुनि विनयचन्द्र १. ईडर से प्राप्त पावली में लिखा है कि "इन्होंने दस वर्ष विहार किया था और यह स्थिर व्रती थे।"-दिजे., वर्ष १४, अंक १०, पृ. १७-२४ २. दिजे,, वर्ष १४, अंक १०, पृ. १७-२४। (92) दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि को कविवर आशाधर ने जैन सिद्धान्त और साहित्य ज्ञान में निपुण बनाया था। नालछा उस समय जैन धर्म का केन्द्र था।' श्वेताम्बर ग्रन्थ “चतुर्विशति प्रबन्ध में लिखा है कि उज्जैनी में विशालकीर्ति नामक दिगम्बराचार्य के शिष्य मदनकोर्ति नाम के दिगम्बर साधु थे। उन्होंने वादियों को पराजित करके 'महाप्रामाणिकपदवी पाई थी और कर्णाटक देश में जाकर विजयपुर नरेश कुन्तिभोज के दरबार में आदर पाया था और अनेक विद्वानों को पराजित किया था, किन्तु अन्त में वह मनिपद से भ्रष्ट हो गए थे। गुजरात के शासक और दिगम्बर पनि मालवा के अनुरूप गुजरात भी दिगम्बर जैन मनियों का केन्द्र था। अंकलेश्वर में भतबलि और पुष्पदन्ताचार्य ने दिगम्बर आगम ग्रंथो की रचना की थी। गिरि नगर के निकट को गुफाओं में दिगम्बर मुनियों का संघ प्राचीन काल से रहता था। भृगुकच्छ भी दिगम्बर जैनों का केन्द्र था। गुजरात में चालुक्य, राष्ट्रकूद आदि राजाओं के समय में दिगम्बर जैन धर्म उन्नतशील था। सोलंकियो की राजधानी अहिलपुरपट्टन में अनेक दिगम्बर मुनि थे। श्रीचन्द्र मुनि ने वहीं ग्रंथ रचना की थी। योगचन्द्र मुनि' ओर मुनि कनकामर भी शायद गुजरात में हुए थे। ईडर के दिगम्बर साधु प्रसिद्ध थे। सोलंकी सिद्धराज ने एक वाद सभा कराई थी, जिसमें भाग लेने के लिये कर्णाटक देश से कुमुदचन्द्र नामक एक दिगम्बर जैनाचार्य आये थे। दिगम्बराचार्य नग्न ही पाटन पहुंचे थे। सिद्धराज ने उनका बड़ा आदर किया था। देवसरि नामक श्वेताम्बराचार्य से उनका वाद हुआ था। इस उल्लेख से स्पष्ट है कि उस समय भी दिगम्बर जैनों का गुजरात में इतना महत्त्व था कि शासक राजकुल का भी ध्यान उनकी ओर आकृष्ट हुआ था। दिगम्बराचार्य ज्ञानभूषण गुर्जर, सौराष्ट्र आदि देशों में जिन धर्म प्रचार श्री दिगम्बर भट्टारक ज्ञानभूषण जो द्वारा हुआ था। अहीर देश में उन्होंने ऐलक पद धारण किया था और वाग्वर देश में महाव्रतों को उन्होंने अंगीकार किया था। विहार करते हुये वह कर्णाटक, तौलव, तिलंग, द्रविड़, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, रायदेश, भेदपाट, पालक, मेवात, कुरुजांगल, १. भातारा., भाग १, पृ. १५७ व सागार. भूमिका, पृ. ९ । २. जैहि., भा. ११, पृ. ४८५ । ३. वीर, वर्ष १.प.६३७। ४. वीर, वर्ष १, पृ. ६३८ । ५. विको., था. ५, पृ. १०५ । दिगम्वरत्व और दिगम्बर मुनि (93) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुरुन, विराटदेश, नामियाडदेश, टग, राट, नाग, चोल आदि देशों में विचरे थे। तौलव देश के पहावादीश्वर विद्वज्जनों और चक्रवर्तियों के मध्य उन्होंने प्रतिष्ठा पाई थी। तुरुब देश में षट्दर्शन के ज्ञाताओं का गर्व उन्होंने नष्ट किया था। नमियाड़ देश में जिन धर्म प्रचार के लिए नौ हजार उपदेशकों को उन्होंने नियुक्त किया था। दिल्ली पट्ट के वह सिंहासनाधीश थे। 'श्री देवरायराज, पुदिपालराय, रामनाथराय, बोमरसराय, कलपराय. पाण्डुराय आदि राजाओं ने उनके चरणों की वंदना की थी।' दिगम्बर जैनाचार्य श्री शुभचन्द्र श्री शानभूषण जी के प्रशिष्य श्री शुभचन्द्राचार्य भी दिगम्बर मुनि थे। उनका पट्ट भी दिल्ली में रहा था। उन्होंने भी विहार करते हुये गजरात के वादियों का पद नष्ट किया था। वह एक अद्वितीय विद्वान और वादी थे। उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना को थी। पट्टावली में उनके लिये लिखा है कि वह "छन्द-अंलकारादिशास्त्र-समुद्र के पारगापी, शुद्धात्मा के स्वरुप चिन्तन करने हो से निन्द्रा को बिनष्ट करने वाले सब देशों में विहार करने से अनेक कल्याणों को पाने वाले, विवेक, विचार, चतुरता, गम्भीरता, धीरता, वीरता, और गणगण के समुद्र, उत्कृष्ट पात्र वाले, अनेक छात्रों का पालन करने वाले, सभी विद्वत्मण्डली में सुशोभित शरीर वाले, गौडवादियों के अन्धकार के लिये सूर्य के से, कलिंगवादिरूपी मेघ के लिये वायु के से, कर्णाटवादियों के प्रथम वचन खण्डन करने में परम समर्थ, पूर्ववादी रुपी मातंग के लिए सिंह के से, तौलवादियों को विडम्बना के लिए वीर, गुर्जरवादी रुपी समुद्र के लिए अगस्त्य के से, पालववादियों के लिये पस्तकशूल, अनेक अभिमानियों के गर्व का नाश करने वाले, स्वसमय तथा परस्समय के शास्त्रार्थ को जानने वाले और महाव्रत अंगीकार करने वाले थे।"र वारानगर का दिगम्बर संघ उज्जैन के उपरान्त दिगम्बर मुनियों का केन्द्र विन्धायचल पर्वत के निकट स्थित वारानगर नापक स्थान हो गया था। वारा प्राचीन काल से ही जैन धर्म का एक गढ़ था। आठवीं या नवीं शाताब्दि में वहाँ श्री मनन्दि मनि ने 'जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति' की १. जैसिमा,, भाग १, किरण ४, पृ. ४८-४९। २. जैसिभा., भा. १, कि.४, पृ. ४९-५० । "छन्दालंकारादि-शास्त्रसरित्पतिपारप्राप्तानां शुद्धचिद्रूपचिंतन विनाशिनिद्राणां, सर्वदेशविहारावाप्तानेकभद्रणां, विवेकविचार-चातुर्य्यगुणगणसमुद्राणां, उत्कृष्टपात्राणां, पालितानेक-श्च्छात्राणां, विहितानेकोत्तमपात्राणाम् सकलविद्वज्जनसभाशोभितगात्राणां, गौडवादितमः सूर्य, कलिंगवादिजलदरादागंति, कर्णाटवायिडम्बनवीर गुर्जर बादिसिन्धुकुम्भोदभव, मालववादिमस्तकशूल, जितानेकाखवंगर्वत्राटन बज्रधराणां, ज्ञानसकलस्वसमयपरसमय-शास्त्रार्थानां, अंगीकृतमहावतानाम्।" (94) दिगम्परत्व और दिगम्बर मुनि Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचना की थी। इस ग्रंथ की प्रशस्ति में लिखा है कि “वासनगर में शांति नामक राजा का राज्य था। वह नगर धनधान्य से परिपूर्ण था। सम्यग्दृष्टि जनों से, मुनियों के सपूह से और जैन पन्दिरों से विभूषित था। राजा शान्ति जिनशासनवत्सल, वीर और नरपति संपूजित था। श्री पानन्दि जी ने अपने गुरु व अन्य रूप इन दिगम्बर मुनियों का उल्लेख किया है। वीरनन्दि', बलनन्दि, ऋषिविजयगुरु, माघनन्दि, सकलचन्द्र और श्रीनन्दि। इन्हीं ऋषियों की शिष्य परम्परा में उपरान्त वारानगर में निम्नलिखित दिगम्बराचार्यों का अस्तित्त्व रहा था - माघचन्द्र सन् १०८३ ब्रह्मनन्दि सन् १०८७ शिवनन्दि सन् १०९१ विश्वचन्द्र सन् १०९८ हरिनन्दि सिंहनन्दि) सन् १ ०९९ भावन्दि सन् ११०३ देवनन्दि विद्याचन्द्र सन् १९९३ सूरचन्द्र सन् १११९ माघनन्दि सन् ११२७ ज्ञाननन्दि सन् ११३१ गंगकीत्ति सन् ११४२ १. JAXX.353-354, २. “सिरिनिओ गुणसहिओ रिसिविजय गुरुति विक्खाओ।" "तब संजमसंपण्णो बिक्खाओ माघनन्दिगुरु।" "णवणियमसीलकलिदो गुणवतो सयलचन्द गुरु।" "तस्सेव य वरसिम्सो णिम्मलवरणाणचरण संजुत्तो।" सम्माईसणसुद्धों सिरिणगुरुत्ति बिक्खाओ। १५६।" "पंचाचार समगगो छज्जीवदयाधरो विगदमोहो। हरिस-विसाय-विहूणा णामेणा य चौरणदिति ।।१५९।।" "सम्मत अभिगदमणौ णाणेण तह दंसणे चरित्ते य। परतंतिणियत्रमणों बलणंदि गुरुत्ति बिक्खाओ।।१६१ ।। तवणियमजोगजुत्तो उज्जुत्तो णाणदंसण चरित्ते।। आरम्भकरण रहियो णामणे य प३ मांदीति।।१६३ ।।" "सिरि गुरुविजय सयासे सोऊणं आगमं सुपरिसुद्ध। "लिणसासपात्रच्छलो वीरो-गरवह संपूजिओ-वाराणयरस्त पतु गरोतमोखनि भूपालो सम्मदिष्टिजणोये मुणिगणणिवहेहिं मंडियं रस्मे। इत्यादि. -जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, जैसा सं., भाग १, अंक ४, पृ. १५० ३. जैहि., पा. ६, अकंज-८, पृ.३१ व IA.XX.354. दिगम्बरराव और दिगम्बर पनि (95) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन दिगम्बराचार्यों द्वारा उस समय मध्यप्रदेश में जैन धर्म का खूब प्रचार हुआ था। वि. सं. १०२५ में अल्लू राजा नामक राजा की सभा में दिगम्बराचार्य का वाद एक श्वेताम्बर आचार्य से हुआ था। चन्देल राज्य में दिगम्बर मुनि चन्देल राजा मदनन्त्रर्म देव के समय (११३०-११६५ ई.) में दिगम्बर धर्म उन्नत रुप से रहा था। खजुराहो के घंटाई के मन्दिर वाले शिलालेख से उस समय दिगम्बराचार्य नेमिचन्द्र का पता चलता है।' दिगम्बर जैन धर्म का आदर था। बीजोलिया के श्री पार्श्वनाथ जी के मन्दिर को दिगम्बर मुनि पानन्दि और शुभचन्द्र के उपदेश से पृथ्वीराज ने मोराकुरी गाँव और सोमेश्वर राजा ने रेवाण नामक गाँव भेंट किये थे। चित्तौड़ का जैनकति स्तम्भ वहाँ पर दिगम्बर जैन धर्म की प्रधानता का द्योतक है। सम्राट कुमारपाल के समय वहाँ पहाड़ी पर बहुत से दिगम्बर जैन (मुनि) दिगम्बर जैनाचार्य श्री धर्मचन्द्र जी का सम्मान और विनय महाराणा हप्पीर किया करते थे। झांसी जिले का देवगढ़ नामक स्थान भी मध्यकाल में दिगम्बर मुनियों का केन्द्र था। वहाँ पाँचवों शताब्दि से तेरहवीं शताब्दि तक का शिल्प कार्य दिगम्बर धर्म की प्रधानता का द्योतक है। १. ADJB.p.45. २. विको,, पा. ७, पृ. ११२ । ३. विको., भा. ५, पृ. ६८० । ४. ADJB.p.86. ५. उपदेशेन ग्रंथोऽयं गुणकीर्ति महामनेः । ___ कायस्थ पानाभेन रचितः पूर्व सूत्रतः। -यशोधर चरित्र ६. राइ था. १, पृ. ३६३१ ७. It (जैन कीर्तिस्तम्भ) belongs to the Digamber Jains: many of whon sccm to have been upon the Hill in Kumarpal's time." -मप्पास्मा, पृ. १३५ ८. "श्री धर्मचन्द्रो जनितस्यपट्टे हमीर भूपाल समर्थनीयः।। (96) दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्वालियर में कच्छपघाट (कछवाहे) और पड़िहार राजाओं के समय में दिगम्बर जैन धर्म उन्नत रहा था। ग्वालियर किले को नग्न जैन मूर्तियाँ इस व्याख्या की साक्षी हैं। खारानगर के बाद दिगम्बर मुनियों का केन्द्र स्थान ग्वालियर हुआ था और वहाँ के दिगम्बर मुनियों में सं. १२९६ में आचार्य रत्नकोर्ति प्रसिद्ध थे। वह स्याद्वाद विद्या के समुद्र, बालब्रह्मचारी, तपसी और दयालु थे। उनके शिष्य नाना देशों में फैले हुये थे। मध्यप्रान्त के प्रसिद्ध हिन्दू शासक कलचूरी भी दिगम्बर जैन धर्म के आश्रयदात थे। बंगाल में भी दिगम्बर धर्म इस समय मौजूद था, यह बात जैन कथाओं से स्पष्ट है। 'भक्तपरकथा' में चम्पापुर का राजा कर्ण जैनी लिखा है। भगवान महावीर की जन्मनगरी विशाला का राजा लोकपाल जैनी था। पटना का राजाधात्रीवाहन श्री शिवभूषण नामक मुनि के उपदेश से जैनी हुआ था। गौड़ देश का राजा प्रजापति बौद्धधर्मी था, परन्तु 'जैन साधु मतिसागर की बाद शक्ति पर मुग्ध होकर प्रजा सहित जैनी हुआ था। इस समय का जो जैन शिल्प बंगाल आदि प्रान्तों में मिलता है, से उक्त कथाओं का समर्थन होता है। उस आज तक बंगाल में प्राचीन श्रावक 'सराक' लोगों का बड़ी संख्या में मिलना वहाँ पर एक समय दिगम्बर जैन धर्म की प्रधानता का द्योतक है। इस प्रकार मध्यकाल के हिन्दु राज्यों में प्रायः समग्र उत्तर भारत में दिगम्बर मुनियों का विहार और धर्मप्रचार होता था। आठवीं शताब्दि के उपरान्त जब दक्षिण भारत में दिगम्बर जैनों के साथ अत्याचार होने लगा, तो उन्होंने अपना केन्द्रस्थान उत्तर भारत की ओर बढ़ाना शुरु कर दिया था। उज्जैन, वारानगर, ग्वालियर आदि स्थानों का जैन केन्द्र होना, इस ही बात का द्योतक है। ईस्वीं ९-१० शताब्दि में जब अरब का सुलेमान नामक यात्री भारत में आया तो उसने भी यहाँ नंगे साधुओं को एक बड़ी संख्या में देखा था। सारांशतः मध्यकालीन हिन्दू काल में दिगम्बर मुनियों का भारत 'बाहुल्य था। ३ में १. जैहि. भा. ६, अंक ७-८, पृ. २६ । २. जैत्र, पृ. २४० - २४३ । ३. "In India there are persons who in accordance with their profession. wander in the woods and mountains and rearely communicate with the rest of mankind.....Some of them go about naked." -Sulaiman of Arab, Elliot, l.p.6. दिगम्बरात्ब और दिगम्बर मुनि (97) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०] भारतीय संस्कृत साहित्य में । दिगम्बर मुनि "पाणिः पात्रं पवित्रं भ्रमणपरिगतं भैक्षमक्षय्यपत्र। विस्तीर्ण वस्त्रमाशा सुदशकपपलं तल्पयस्वल्पमु:।। येषां निःसङ्गताकी करणपरिणतिः स्वात्मसन्तोषितास्ते। धन्याः सन्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकराः कर्मनि लयन्ति।।" वैराग्यशतक' भारतीय संस्कृत साहित्य में दिगम्बर मुनियों के उल्लेख मिलते हैं। इस साहित्य से हमारा मतलब उस सर्वसाधारणोपयोगी संस्कृत साहित्य से है जो किसी खास सम्प्रदाय का नहीं कहा जा सकता। उदाहरणतःकविवर भर्तृहरि के शतकत्रय को लीजिये। उनके 'वैराग्यशतक' में उपर्युक्त श्लोक द्वारा दिगम्बर मुनि की प्रशंसा इन शब्दों में की गई है कि "जिनका हाथ ही पवित्र बर्तन है, मांग कर लाई हई भीख ही जिनका भोजन है, दशों दिशायें ही जिनके वस्त्र है, सम्पूर्ण पृथ्वी हो जिनकी शय्या है, एकान्त में निःसंग रहना ही जो पसन्द करते हैं, दीनता को जिन्होंने छेड़ दिया है तथा कों को जिन्होंने निमूल कर दिया है और जो अपने में हो संतुष्ट रहते हैं, उन पुरुषों को धन्य है। आगे इसी शतक में कविवर दिगम्बर मुनिवत् चर्या करने की भावना करते है अशीमहि वयं शिक्षामाशवासोवसीमहि। शयोमहि महीपृष्ठे कुर्वीमहि किमीश्वरैः।।९।। अर्थात् “अब हम शिक्षा ही करके भोजन करेंगे, दिशा हो के वस्त्र धारण करेंगे अर्थात् नग्न रहेंगे और भूमि पर ही शयन करेंगे। फिर भला हमें धनवानों से क्या पतलब?" इस प्रकार के दिगम्बर मुनि को कवि क्षपादि गुणलीन अभय प्रकट करते हैं १. वेजे., पृ.४६। २. वेजे., पृ. ४७। (98) दिगम्वरत्व और दिगाना मुनि Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धैर्य यस्य पिता क्षमा व जननी शान्तिश्चिरं गेहिनी। सत्य-मित्रमिदं त्या च भगिनी भातापनः संयमः।। शय्या भूमितलं दिशोऽपि वसने ज्ञानामृतं भांजन। ह्येते यस्य-कुटंबिनो वद सख्खे कस्माद् भयं योगिनः।।१८।। अर्थात- "धैर्य जिसका पिता है, क्षमा जिसकी माता है, शान्ति जिसकी स्त्री है, सत्य जिसका मित्र है, दया जिसको बहिन है, संयम किया हुआ मन जिसका भाई है, भूमि जिसकी शय्या है, दशों दिशायें ही जिसके वस्त्र है और ज्ञानामृत हो जिसका भोजन है- यह सब जिसके कुटुम्ब हों, भला उस योगी पुरुष को किसका भय हो सकता है? 'वैराग्यशतक' के उपयुक्त श्लोक स्पष्टतया दिगम्बर मुनियों को लक्ष्य करके लिख्खे गये हैं। इनमें वर्णित सब ही लक्षण जैन मुनियों में मिलते हैं। 'मुद्राराक्षस' नाटक में क्षपणक जीवसिद्धि का पार्ट दिगम्बर मुनि का द्योतक है।' वहाँ जीवसिद्धि के मख से कहलाया गया है "सासणयलिहंताण पडिवजह मोहवाहि वेज्जाणं। __ जेमुत्तमात्तक पच्छापत्थप्पदिसन्ति ।।१८।।४।।" अर्थात- “मोह रूपी रोग के इलाज करने वाले अर्हतों के शासन को स्वीकार करो, जो मुहूर्त मात्र के लिये कडूवे है, किन्तु पीछे से पथ्य का उपदेश देते हैं।" इस नाटक के पाँचवे अंक में जीवसिद्धि कहता है कि “अलहताणं पणमामि जेदेगंभीलदाए बुद्धिए। लोउत लेहि लोए सिद्धि पामेहि गच्छन्दि।।२।।" भावार्थ- "संसार में जो बुद्धि को गंभीरता से लोकातीत (अलौकिक) मार्ग से । - मक्ति को प्राप्त होते हैं, उन अर्हतों को मैं प्रणाम करता हैं।" ___ "मुद्राराक्षस' के इस उल्लेख से नन्दकाल में क्षपणक-दिगम्बर मुनियों के निर्बाध विहार और धर्म प्रचार का समर्थन होता है, जैसा कि पहले लिखा जा चका है। ___ वराहमिहिर संहिता' में भी दिगम्बर मनियों का उल्लेख है। उन्हें वहाँ जिन भगवान का उपासक बताया गया है। राहमिहिर के इस उल्लेख से उनके समय में दिगम्बर मुनियों का अस्तित्त्व प्रपाणित होता है। अर्हत भगवान की पूर्ति को भी वह नग्न ही बताते हैं।"५ १. जै. पृ.४७। २. HDW.p.10. ३. वेजे.,पृ.४०-४१। ४. "शाक्यान् सर्वहितस्य शांति मनसो नग्नान जिनानां विद्." ।।१९।।६१।। ५. "आजानु लम्बबाहुः श्रीवत्साङ्क प्रशान्तमूर्तिश्च । दिग्वासास्तरुणो रुपवांश्च कार्योs हंता देवः।।४५ । ।५८ ।। वराहमिहिर संहिता दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि (93) Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि दण्डिन् (आठवीं श.) अपने "दशकुमारचरित" मे दिगम्बर मुनि का उल्लेख 'क्षपणक' नाम से करते है, जिससे उनके समय में नग्न मुनियों का होना प्रमाणित है।" ___ 'पंचतन्त्र' (तंत्र ४) का निम्न श्लोक उस काल में दिगम्बर मुनियों के अस्तित्त्व का द्योतक है। "स्त्रीमुद्रां मकरध्वजस्य जयिनी सर्वार्थ सम्पत् करी। ये मूढाः प्रविहाय यान्ति कुधियो मिथ्या फलांवेषिणः।। ते तेनैव निहत्य निर्दयतरं नग्नीकृता मुण्डिताः।। केचिद्रत्तपटीकताश्च जटिलाः कापालिकाश्चापरे।।" "पंचतन्त्र के अपरीक्षितकारक पंचमतंत्र की कथा दिगम्बर मुनियों से सम्बन्ध रखती है। उससे पाटलिपुत्र (पटना) में दिगम्बर धर्म के अस्तित्व का बोध होता है। कथा में एक नाई को क्षपणक विहार में जाकर जिनेन्द्र भगवान की वंदना और प्रदक्षिणा देते लिखा है। उसने दिगम्बर मनियों को अपने यहाँ निमन्त्रित किया, इस पर उन्होंने आपत्ति की कि श्रावक होकर यह क्या कहते हो? ब्राह्मणों की तरह याँ आमंत्रण कैसा? दिगम्बर मुनि तो आहार-वेला पर घूमते हुये भक्त श्रावक के यहाँ शुद्ध भोजन मिलने पर विधिपूर्वक ग्रहण कर लेते है। इस उल्लेख से दिगम्बर मुनियों के निमन्त्रण स्वीकार न करने और आहार के लिये भ्रमण करने के नियम का समर्थन होता है। इस तंत्र में भी दिगम्बर पुनि को एकाकी, गृहत्यागी, पाणिपात्र भोजी और दिगम्बर कहा गया है। "प्रबोधचंद्रोदय" नाटक के अंक ३ में निम्नलिखित वाक्य दिगम्बर जैन मुनि को तत्कालीन बाहुल्यता के बोधक है "सहि पेक्ख पेक्ख एसौ गलतमल पंक पिच्छिलवीहच्छदेहच्छत्रीउल्लञ्चि अचिउरो मुक्कवसणवेसदुद्दसणों सिहिसिहिदपिच्छआहत्थो इदोजैव पडिवहदि।" भवार्थ- "हे सरिख देख देख, वह इस ओर आ रहा है। उसका शरीर भयंकर और मलाच्छन है। शिर के बाल लुञ्चित किये हुये है और वह नंगा है। उसके हाथ में पोरपिच्छिका है और वह देखने में अमनोज्ञ है। १. बीर, वर्ष २,पृ.३१७। २. पंत. निर्णयसागर प्रेस सं. १९०२, पृ. १९४ व JG.XIV, 124 ३. 'क्षपणकविहारं गत्वा जिनेन्द्रस्य प्रदक्षिणत्रयं विधाय .... भोः श्रावक, घर्मनोऽपि किमेवं वदसि। किं वयं ब्रह्मणसमानाः यत्र आमन्त्रणं करोषि। वयं सदैव तत्काल परिचर्ययां प्रमन्तो भक्तिपाजं श्रावकमवलोक्य तस्य गृहे गच्छामः । -पंत,पू.-२-६ थ JG.XIV. 126-130 ४. 'एमाकीगृहसंत्यक्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः। (100) दिगम्बात्व और दिगम्बर मुनि Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पर उस सखी ने कहा कि"आं ज्ञातसया, महापोहप्रवर्तितोऽयंदिगम्बर सिद्धांतः।" (ततः प्रविशतियथा निर्दिदष्टः क्षपणकवेशो दिगम्बर सिद्धांतः) भावार्थ- मैं जान गई! यह पायामोह द्वारा प्रवर्तित दिगम्बर (जैन) सिद्धान्त है।" (क्षपणक वेष में दिगम्बर मुनि ने वहां प्रवेश किया।) नाटक के उक्त उल्लेख से इस बात का भी समर्थन होता है कि दिगम्बर मुनि स्त्रियों के सम्मुख घरों में भी धर्मोपदेश के लिये पहुँच जाते थे। "गोलाध्याय" नामक ज्योतिष ग्रन्थ में दिगम्बर मुनियों की दो सूर्य और दो चन्द्रादि विषयक मान्यता का उल्लेख करके उसका निरसन किया गया है। इस उल्लेख से 'गोलाध्याय के कर्ता के समय में दिगम्बर मुनियों का बाहुल्य प्रमाणित होता है। 'गोलाध्यायं के टीकाकार लक्ष्मीदास दिगम्बर सम्प्रदाय से भाव "जैनों” का प्रकट करते है और कहते है कि “जैनों में दिगम्बर प्रधान थे।" संस्कृत साहित्य के उपयुक्त उल्लेखों से दिगम्बर मनियों के अस्तित्व और उनके निर्बाध बिहार और धर्म प्रचार का सपर्थन होता है। १. प्रबोधचन्द्रोदय नारक, अंक-JG,XIV. PP.40-50 2. (Goladhyay 3. Verses B-10) The naked sectarians and the real affitto that two suns. two moons and two sets of slas appear alternalcly: against then allege this reasoning. I cw absurd is the nation which you have fornied or duplicate suns, moons and stars, when you see the revolution of the polar fish (Ursa Minor). 'Ihe commentator Lakshamidas agrce that the Jainas are here meant.... & remarks that they are described as naked soctrains' clc. because the class of Digambaras is a principal one among thesc pcople. -AR Vol.. IX. p.317 दिगम्वरत्व और दिगम्बर मुनि {101) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 [२१] दक्षिण भारत में दिगम्बर जैन मुनि "सरसा पयसा रिक्तेनाति तुच्छजलेन च। जिनजन्मादिकल्याण क्षेत्रे तीर्थत्वमाश्रिते ।।४०।। नाशमेष्यति सद्धर्मो मारवीर मदच्छिदः । स्थास्यतीह क्वचित्प्रान्ते विषये दक्षिणादिके ।। ४१ । । " - श्री भद्रबाहुचरित्र दिगम्बर जैन धर्म दक्षिण भारत में रहन निश्चित है भ दिगम्बर जैनाचार्य, राजा चन्द्रगुप्त ने जो स्वप्न देखा उसका फल बताते हुये कह गये है कि "जलरहित तथा कहीं थोड़े जल भरे हुये सरोवर के देखने से यह सच जानो कि जहाँ तीर्थंकर भगवान् के कल्याणादि हुये हैं ऐसे तीर्थ स्थानों में कामदेव के मद का छेदन करने वाला उत्तम जिन धर्म नाश को प्राप्त होगा तथा कहीं दक्षिणादि देश में कुछ रहेगा भी। और दिगम्बरचार्य की यह भविष्यवाणी करीब-करीब ठीक ही उतरी है, जबकि उत्तर भारत में कभी-कभी दिगम्बर मुनियों का अभाव भी हुआ, तत्र दक्षिण भारत में आज तक बराबर दिगम्बर मुनि होते आये हैं और दिगम्बर जैनों के श्री कुन्दकुन्दादि बड़े-बड़े आचार्य दक्षिण भारत में ही हुये हैं। अतः दक्षिण भारत को दिगम्बर मुनियों का गढ़ कहना बेजा नहीं है। ऋषभदेव और दक्षिण भारत अच्छा तो यह देखिये कि दक्षिण भारत में दिगम्बर मुनियों का सद्भाव किस जमाने से हुआ है ? जैन शास्त्र बतलाते हैं कि इस कल्पकाल में कर्मभूमि को आदि में श्री ऋषभदेव जी ने सर्वप्रथम धर्म का निरूपण किया था और उनके पुत्र बाहुबलि दक्षिण भारत के शासनाधिकारी थे। पोदनपुर उनकी राजधानी थी। भगवान् ऋषभदेव ही सर्वप्रथम वहाँ धर्मोपदेश देते हुये पहुंचे थे।' वह दिगम्बर मुनि थे, यह पहले ही लिखा जा चुका है। उनके समय में ही बाहुबलि भी राज-पाट छोड़कर दिगम्बर मुनि हो गये थे। इन दिगम्बर मुनि की विशालकाय नग्न मूर्तियाँ दक्षिण भारत में अनेक स्थानों पर आज भी मौजूद हैं। श्रवणबेलगोल में स्थित मूर्ति ५७ फीट ऊँची अति मनोज्ञ है; जिसके दर्शन करने देश-विदेश के यात्री आते है। कारकल - बेनूर आदि स्थानों में भी ऐसी ही मूर्तियां है। दक्षिण भारत में बाहुबलि मुनिराज की विशेष मान्यता है। १. भद्र, पृ. ३३ । २. आदिपुराण । (102) दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य तीर्थंकरों का दक्षिण भारत से सम्बन्ध ऋषभदेव के उपरान्त अन्य तीर्थंकरों के समय में भी दिगम्बर धर्म का प्रचार दक्षिण भारत में रहा था। तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ जी के तीर्थ में हुये राजा करकण्डु ने आकर दक्षिण भारत के जैन तीर्थों की वन्दना की थी। मलय पर्वत पर रावण के वंशजों द्वारा स्थापित तीर्थंकरों की विशाल मूर्तियों की भी उन्होंने वन्दना की थी। वहीं बाहुबलि की और श्री पार्श्वनाथ जी की मूर्तियाँ थीं जिनको रामचन्द्र जी ने लंका से लाकर यहाँ स्थापित किया था। अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने भी अपने पुनीत चरणों से दक्षिण भारत को पवित्र किया था। मलय पर्वतवर्ती हेमाँग देश में जब वीर प्रभु पहुँचे थे तो वहाँ का जीवन्धर नामक राजा उनके निकट दिगम्बर मुनि हो गया था। इस प्रकार अत्यन्त प्राचीनकाल से दिगम्बर मुनियों का सद्भाव दक्षिण भारत में है। Y दक्षिण भारत के इतिहास के काल किन्तु आधुनिक इतिहासवेत्ता दक्षिण भारत का इतिहास ईस्वी पूर्व छठी या चौथी शताब्दि से आरम्भ करते हैं और उसे निम्न प्रकार छह भागों में विभक्त करते हैं (१) प्रारम्भिक काल - ईस्वी ५ वीं शताब्दि तक (२) पल्लवकाल - ई. ५वीं से ९ वीं शताब्दि तक, (३) चोल अभ्युदाय काल - ई. ९वीं १४वीं शताब्दि तक, (४) विजयनगर साम्राज्य का उत्कर्ष - १४वीं से १६ वीं शताब्दि तक, (५) मुसलमान और मरहट्टा काल- १६वीं से १८वीं शताब्दि तक, (६) ब्रिटिश काल- १८वीं से १९ वीं शताब्दी ई. तक। दक्षिण भारत के उत्तर सीमावर्ती प्रदेश के इतिहास के छह भाग इस प्रकार हैं (१) आन्ध्र काल - ई. ५ वीं शताब्दि तक, (२) प्रारम्भिक चालुक्य काल -- ई. ५वीं से ७वीं शताब्दि और राष्ट्रकूट ७वीं से १० वीं शताब्दि तक, (३) अन्तिम चालुक्य काल - ई.१० वीं से १४वीं शताब्दि तक, १. जैशिसं, भूमिका, पृ. १७-३२ ॥ २. करकण्डु चरित् संधि ५ । ३. जैशिर्स, भूमिका, पृ. २६ । ४. भमवु., पृ. ९६ । ५. SAI. p.31 दिगम्बत्व और दिगम्बर मुनि (103) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) विजयनगर साम्राज्य (५) मुसलमान - मरहट्टा, (६) ब्रिटिश काल । प्रारम्भिक काल में दिगम्बर मुनि अच्छा तो उपर्युक्त ऐतिहासिक कालों में दिगम्बर जैन मुनियों के अस्तित्व को दक्षिण भारत में देख लेना चाहिये। दक्षिण भारत के "प्रारम्भिक काल" में चेर, चोल, पाण्ड्य - यह तीन राजवंश प्रधान थे। सम्राट अशोक के शिलालेख में भी दक्षिण भारत के इन राजवंशों का उल्लेख मिलता है। " चेर, चोल और पाण्ड्य यह तीनों ही राष्ट्र प्रारम्भ से जैनधर्मानुयायी थे। जिस समय करकण्डु राजा सिंहल द्वीप से लौटकर दक्षिण भारत - द्रविड़ देश में पहुंचे तो इन राजाओं से उनकी मुठभेड़ हुई थी। किन्तु रणक्षेत्र में जब उन्होंने इन राजाओं के मुकुटों में जिनेन्द्र भगवान की मूर्तियाँ देखी तो उनसे सन्धि कर ली। कलिंगचक्रवर्ती ऐल. खारवेल जैन थे। उनकी सेवा में इन राजाओं में से पाण्ड्यराज स्वराज-भेंट भेजी थी।' इससे भी इन राजाओं का जैन होना प्रमाणित है, क्योंकि एक श्रावक का श्रावक के प्रति अनुराग होना स्वाभाविक है और जब ये राजा जैन थे तब इनका दिगम्बर जैन मुनियों को आश्रय देना प्राकृत आवश्यक है। .५ पाण्ड्यराज उग्रपेरूवलूटी (१२८-१४० ई.) के राजदरबार में दिगम्बर जैनाचार्य श्री कुन्दकुन्द विरचित तमिलग्रंथ "कुल" प्रकट किया गया था । जैन कथाग्रंथ से उस समय दक्षिण भारत में अनेक दिगम्बर मुनियों का होना प्रकट है। 'करकण्डु चरित्' में कलिंग, तेर, द्रविड़ आदि दक्षिणावर्ती देशों में दिगम्बर मुनियों का वर्णन मिलता है। भगवान् महावीरने संघ सहित इन देशों में विहार किया था, यह ऊपर लिखा जा चुका है तथा मौर्य चन्द्रगुप्त के समय श्रुतकेवली भद्रबाहु का संघ सहित दक्षिण भारत को जाना इस बात का प्रमाण है कि दक्षिण भारत में उनसे १. S.A.l.p.33 २. त्रयोदश शिलालेखं । 3. "Pandya Kingdom can boast of respectable antiquity. The prevailing religion in early times in their Kingdom was jain creed. - मजेस्मा पृ. १०५ ४. “तहि अत्थि विकितिय दिणसराउ- संचल्लिउ ताकरकण्डु राउ । तादिविडदेसुमहि अलु भमन्तु-संपतऊ तर्हि मछरूवहन्तु ।। तहिं चोड़े चोर पंडिय निवाई केणा विखणद्वेते मिलीयाहि । "करकण्डएं धरियाते सिरसो सिरमउड मति वरणेहिं तहो । मउड महि देखिवि जिणपणिव करकण्डवोजाघठ बहुलु दुहु || १० || ५. JBORS, III. p. 446 ६. मर्जस्मा, पृ. १०५ ॥ (104) - करकण्डुचरित् सन्धि ८ दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहले दिगम्बर जैन धर्म विद्यमान था। जैनग्रंथ "राजावली कथा" में वहाँ दिगम्बर जैन मन्दिरों और दिगम्बर पुनियों के होने का वर्णन मिलता है। बौद्ध ग्रंथ 'पणिमेखले में भी दक्षिण भारत में ईस्वी की प्रारम्भिक शताब्दियों में दिगम्बर धर्म और मुनियों के होने का उल्लेख मिलता है। “श्रुतावतार कथा" से स्पष्ट है कि ईस्वी की पहली शताब्दि में पश्चिम और दक्षिण भारत जैनधर्म के केन्द्र थे। श्रीधरसेनाचार्य जी का संघ गिरनार पर्वत पर उस समय विद्यमान था । उनके पास आगम ग्रंथों को अवधारण करनेके लिये दो तीक्ष्ण बुद्धि शिष्य दक्षिण मथुरा से उनके पास आये थे और तदोपरान्त उन्होंने दक्षिण मथुरा में चतुर्मास व्यतीत किया था। इस उल्लेख से उस समय दक्षिण मदुरा का दिगम्बर मुनियों का केन्द्र होना सिद्ध है। - 'नालदियार' और दिगम्बर मुनि तमिल जैन काव्य “नालदियार", जो ईस्वी पांचवीं शताब्दि की रचना है, इस बातका प्रमाण है कि पाण्ड्यराज का देश प्राचीनकाल में दिगम्बर मुनियोंका आश्रय स्थान था। स्वयं पाण्ड्यराज दिगम्बर मुनियों के भक्त थे। "नालदियार" की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कहा जाता है कि एक बार उत्तर भारत में दुर्भिक्ष पड़ा। उससे बचने के लिये आठ हजार दिगम्बर मुनियों का संघ पाण्ड्य देश में जा रहा था, पाण्ड्यराज उनकी विद्वत्ता और तपस्या को देखकर उनका भक्त बन गया। जब अच्छे दिन आये तो इस संघ ने उत्तर भारत की ओर लौट जाना चाहा, किन्तु पाण्ड्यराज उनकी सत्संगति छोड़ने के लिये तैयार न थे। आखिर उस मुनि संघ का प्रत्येक साधु एक-एक श्लोक अपने-अपने आसन पर लिखा छोड़कर विहार कर गये। जब ये श्लोक एकत्र किये गये तो वह संग्रह एक अच्छा खासा काव्य ग्रंथ बन गया। यही 'नालदियार' था। इससे स्पष्ट है कि पाण्ड्य देश उस समय दिगम्बर जैन धर्म का केन्द्र था और पाण्ड्यराज कलभ्रवंश के सम्राट् थे। यह कलभ्रवंश उत्तर भारत से दक्षिण में पहुंचा था और इस वंश के राजा दिगम्बर मुनियों के भक्त और रक्षक थे। गंग वंश के राजा और दिगम्बर मुनिगण X ईस्वी दूसरी शताब्दी में मैसूर में गंगवंशी क्षत्रिय राजा माधव कोंगुणिवर्मा राज्य कर रहे थे। उनके गुरु दिगम्बर जैनाचार्य सिंहनन्दि थे। गंगवंश की स्थापना में उक्त १. SS. pp. 32-33 २. श्रुता, पृ. १६-२० । ३. SSUJ.p.91 ४. मजेस्मा भूमिका, पृ. ८-१1 ५. रक्षा परिचय पृ. १९५ दिसम्बर और दिसम्बर मुनि (105) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य का गहरा हाथ था। शिलालेखों से प्रकट है कि इक्ष्वाकु (सूर्यवंश) के राजा धनञ्जय की सन्तति में एक गंगदत्त नाम का राजा प्रसिद्ध हुआ और उसी के नाम से इस वंश का नाम 'गंग' वंश पड़ा था। इस गंग वंश में एक पद्मनाभ नामक राजा हुआ, जिसन्न हाड़ा उज्जैन के राजा होने के सह दक्षिण भारत की ओर चला गया था। उसके दो पुत्र ददिग और माधव भी उसके साथ गये थे। दक्षिण में पेखूर नामक स्थान पर उन दोनों भाइयों की भेंट कणूवगण के आचार्य सिंहनन्दि से हुई, जिन्होंने उन्हें निम्न प्रकार उपदेश दिया था “यदि तुम अपनी प्रतिज्ञा भंग करोगे, यदि तुम जिन शासन से हटोगे, यदि तुम पर - स्त्री का ग्रहण करोगे, यदि तुम मद्य व माँस खाओगे, यदि तुम अधर्मो का संसर्ग करोगे, यदि तुम आवश्यकता रखने वालों को दान न दोगे और यदि तुम युद्ध में भाग जाओगे तो तुम्हारा वंश नष्ट हो जायेगा । ' दिगम्बराचार्य के इस साहस बढ़ाने वाले उपदेश को ददिग और माधव ने शिरोधार्य किया और उन आचार्य के सहयोग से वह दक्षिण भारत में अपना राज्य स्थापित करने में सफल हुये थे। तदोपरान्त इस वंश के सभी राजाओं ने जैन धर्म का प्रभाव बढ़ाने का उद्योग किया था । दिगम्बर जैनाचार्य की कृपा से राज्य पा लेने की याददाश्त में इन्होंने अपनी ध्वजा में “मोरपिच्छिका" का चिन्ह रखा था, जो दिगम्बर मुनियों के उपकरणों में से एक है। कादम्ब राजागण दिगम्बर मुनियों के रक्षक थे गंगवंशी अविनीत कोगुणी (सन् ४२५-४७८) ने पुत्राट १०००० में जैन मुनियों को भूमिदान दिया था। गंगवंशी दुर्वनीति के गुरु 'शब्दावतार' के कर्ता दिगम्बराचार्य श्री पूज्यपाद थे। महाराष्ट्र और कोंकण देशों की ओर उस समयकादम्ब वंश के राजा लोग उन्नत हो रहे थे। वह वंश (१) गोआ और (२) बनवासी नामक दो शाखाओं में बंटा हुआ था और इसमें जैन धर्म को मान्यता विशेष थी। दिगम्बर गुरुओं की विनय कादम्ब राजा खूब करते थे। एक विद्वान् लिखते हैं कि "Kadamba kings of the middle period Mrigesa to Harivarma were unable to resist the onset of Jainism: as they bad to bow to the "Supreme Achats and endow lavishly the Jain ascetic groups. Numerous sect of Jaina priests, such as the Yapiniyas the, Nirgranthas and the Kurchakas १. पजैस्मा., २. मजेस्मा.. . पृ. १४९ । (106) पृ. १४६ - १४७ । दिगम्बसत्य और दिगम्बर मुनि Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ arc found living at Palasika. (IA, VII, 36–37) Again velpalas and Aharashti are also mentioned (bid.V1,31) Banavase and Palasika were thus crowded ccntrcs of powerful Jain monks. Four Jaina Miss named Jayadhavala, Vijaya Dhavala, Alidhavala and Mahadhavala writen byJains gutus. Virasena and Jinasena living at Banavase during the rule of the carly Kadambas were recently discovered." -QJMS, XXII,61-62 अर्थात- "मध्यकाल के मृगेश से हरिवर्मा एक कदम्ब वंशी राजागण जैन धर्म प्राव से अपने को बन्न न सके 'महान अईतदेव' को नमस्कार करते और जैन साध संघों को खूब दान देते थे। जैन साधुओं के अनेक संघ जैसे यापनीय' निग्रंथ और कूर्चक' कादम्बों की राजधानी पालाशिक में रह रहे थे। श्वेतपट और अहराष्टि संघों के वहाँ होने का उल्लेख भी मिलता है। इस तरह पालाशिक और बनवासी सबल जैन साधुओं से वेष्टित मुख्य जैन केन्द्रथे। दिगम्बरजैन गुरु वीरसेन और जिनसेन ने जिन जयधवल, विजयधवल, अतिधबल और महाधवल नामक ग्रन्थों की रचना बनवासी में रहकर प्रारंभिक कदम्ब राजाओं के समय में की थी, उन चारों ग्रंथों की प्रतियाँ हाल ही में उपलब्ध हुई है।" प्रो. शेषागिरि राउ इन प्रारंभिक कदम्बों को भी जैन धर्म का भक्त प्रकट करते हैं। उनके राज्य में दिगम्बर जैन मुनियों को धर्म प्रचार करने की सुविधायें प्राप्त थी इस प्रकार कदम्बवंशी राजाओं द्वारा दिगम्बर मुनियों का समुचित सम्मान किया गया था। पल्लव काल में दिगम्बर मुनि एक समय पल्लव वंश के राजा भी जैन धर्म के रक्षक थे। सातवीं शताब्दी में जब ह्वेनसांग इस देश में पहुंचा तो उसने देखा कि यहाँ दिगम्बर जैन साधुओं (निग्रंथों) की संख्या अधिक है। पल्लव वंश के शिवस्कंदवर्मा नामक राजा के गुरु दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द थे। तदोपरान्त इस वंश का प्रसिद्ध राजा महेन्द्रवर्मन् पहले जैन था और दिगम्बर साधुओं की विनय करता था। १. यापनीय संघ के मुनिगण दिगम्बर वेष में रहते थे, यद्यपि वे स्त्री-मुक्ति आदि मानते थे। देखो दर्शनसार। २. निग्रंथ दिगम्बर मुनि। ३. 'कूर्चक' किन जैन साधुओं का द्योतक है, यह प्रगट नहीं है। ४, श्वेतपट-श्वेताम्बर। ५. अहराष्टि संभवतः दिगम्बर मुनियों का द्योतक है। शायद अहनीक शब्द से इसका निकास हो। ६. SSJ. PL.II.p.69 & 72 19. PS. list. Intro. p.XV ८. EH] p.495 दिगम्बरस्व और दिगम्बर मुनि (107) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोल देश में दिगम्बर मुनि चोल देश में भी उस चीनी यात्री ने दिगम्बर धर्म को प्रचलित पाया था। मलकूट (पाण्ड्य देश) में भी उसने नंगे जैनियों को बहुसंख्या में पाया था । 2 सातवीं शताब्दि के मध्य भाग में पाण्ड्य देश का राजा कुण या सुन्दर पाण्ड्य दिगम्बर मुनियों का भक्त था। उसके गुरु दिगम्बराचार्य श्री अमलकीर्ति थे और उसका विवाह एक चोल राजकुमारी के साथ हुआ था, जो शैव थी। उसी के संसर्ग से सुन्दर पाण्ड्य भी शैव हो गया था।' * दसवीं शताब्दि तक प्रायः सब राजा दिगम्बर जैन धर्म के आश्रयदाता थे पच बात तो यह है कि दक्षिण भारत में दिगम्बर जैन धर्म की मान्यता ईस्वी दसवीं शताब्दि तक खूब रही थी। दिगम्बर मुनिगण सर्वत्र विहार करके धर्म का उद्योग करते थे। उसी का परिणाम है कि दक्षिण भारत में आज भी दिगम्बर मुनियों है। मि. राइस इस विषय में लिखते है कि का सद्भा "For more than a thousand years after the beginning of the Christian era, Jainism was the religion professed by most of the rulers of the Kanarese people. The Ganga King of Talkad the Rashtrakuta and Kalachurya Kings of Manyakhel and the early Hoysalas were all Jains. The Brahmanical Kadamba and early Chalukya Kings were tolerant of Jainism. The Pandya Kings of Madura were Jaina, and Jainism was dominant in Gujarat and Kathiawar"," भावार्थ - ईस्वी सन् के प्रारम्भ होने से एक हजार से ज्यादा वर्षों तक कनडु देश के अधिकांश राजाओं का मत जैन धर्म था। तलकांड के गंग राजागण, मान्यखेट के राष्ट्रकूट और कलाचूर्य शासक और प्रारंभिक होयसल नृप सब ही जैनी थे। ब्राह्मण मत को मानने वाल जो कदम्ब राजा थे उन्होंने और प्रारंभ के चालुक्यों ने जैन धर्म के प्रति उदारता का परिचय दिया था। मदुरा के पाण्ड्य राजा जैन ही थे और गुजरात तथा काठियावाड़ में भी जैन धर्म प्रधान था। ” ९. हुआ, पृ. ५७०.1 २. हुभा., पृ. ५७४ The nude Jainas were present in multitudes "EHI. p. 473 ३. AD.JB. p. 46 ४. EHl.p.475. ५. HKI.p.16. (108) दिगम्बरात्व और दिगम्बर मुनि Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आन्ध्र और चालुक्य काल में दिगम्बर मुनि आन्ध्रवंशी राजाओं ने जैन धर्म को आश्रय दिया था, यह पहले लिखा जा चुका है। चोल और चालुक्य अभ्युदय काल में दिगम्बर धर्म प्रचलित रहा था। चालुक्य राजाओं में पुलकेशी द्वितीय, बिनयादित्य, विक्रमादित्य आदि ने दिगम्बर विद्वानों का सम्मान किया था। विक्रमादित्य के समय में विजय पंडित नामक दिगम्बर जैन विद्वान एक प्रतिभाशाली वादी थे। इस राजा ने एक जैन मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था। चालुक्यराज गोविन्द तृतीय ने दिगम्बर मनि अर्ककीर्ति का सम्मान किया और दान दिया था। वह मनि ज्योतिष विद्या में निपुण थे। वेंगिराज चालुक्य विजयादित्य र के गुरु दिगम्बराचार्य अर्हन्नन्दि थे। इन आचार्य की शिष्या चामेकाम्बा के कहने पर राजा ने दान दिया था। सारांश यह कि चालुक्य राज्य में दिगम्बर मुनियों और विद्वानों ने निरापद हो धर्मोयोत किया था। राष्ट्रकूट काल में दिगम्बर मुनि राष्ट्रकूट अथवा राठौर राजवंश जैन धर्म का महान् आश्रयदाता था। इस वंश के कई राजाओं ने अणवतों और महाव्रतों को धारण किया था, जिसके कारण जैन धर्म की विशेष प्रभावना हुई थी। राष्ट्रकूट राज्य में अनेकानेक दिग्गज विद्वान दिगम्बर मुनि बिहार और धर्म प्रचार करते थे। उनके स्वहु अनूठे धन आज उपलब्ध हैं। श्री जिनसेनाचार्य का "हरिवंश पुराण", श्री गुणभद्राचार्य का "उत्तर पुराण", श्री महावीराचार्य का " पणितसार संग्रह" आदि ग्रंथ राष्ट्रकूट राजाओं के समय की रचनायें हैं। इन राजाओं में अमोघवर्ष प्रथम एक प्रसिद्ध राजा था। उसकी प्रशंसा अरब केलेखकों ने की है और उसे संसार के श्रेष्ठ राजाओं में गिना है। वह दिगम्बर जैनाचार्यों का परम भक्त था। सम्राट अमोघवर्ष दिगम्बर मुनि थे उसने स्वयं राज-पाट त्याग कर दिगम्बर मनि का व्रत स्वीकार किया था। उसका रचा हुआ 'रत्नमालिका' एक प्रसिद्ध सुभाषित ग्रंथ है। उसके गुरु दिगम्बराचार्य श्री जिनसेन थे; जैसे कि “उत्तर पुराण" के निम्न श्लोक में कहा गया है कि वे श्री जिनसेन के चरणों में नतमस्तक होते थे १.SSIJ.pl. I.p,111. २. ADIB.p.97 व विको., भा.५.पू.७६ । ३. ADJB.po8 ४.SSIJ.pl.I.pp.111-112 ५. ELLion,will pp.3-24- "The greatest king of India is the Balahara, wliose name imports King of Kings". Jisa Khurdabh, a 9 FT. भाग ३,पृ.१३-१५॥ ६.रत्नमलिका में अमोघवर्ष ने इस बात को इन शब्दों में स्वीकार किया है "विवेकात्यक्तराज्येन राज्ञेयं रत्नमालिका रचिता मोघवर्षण सुधियों सदलङ् कृतिः।।" दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि (119) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “यस्यप्रांशुनखांशुजाल-विसरद्धारान्तराविर्भव, त्पादाम्भोजरजः पिशंगमुकटप्रत्यारत्नदुनिः। संस्मर्ता स्वममोघवर्षनृपतिः पूतो हमद्येत्यलं, स श्रीमाझिसेनपूज्यभगवत्पादो जगन्मंगलम्।।* अर्थात्- "जिन श्री जिनसेन के देदीप्यमान नखों के किरण समूह से फैलती हुई धारा बहती थी और उनके भीतर जो उनके चरण कमल की शोभा को धारण करते थे उनकी रज से जब राजा अमोघवर्ष के मुकुट के ऊपर लगे हुए रत्नों की कांति पीली पड़ जाती थी तब वह राजा अमोघवर्ष आफ्को पवित्र मानता था और अपनी उसी अवस्था का सदा स्मरण किया करता था, ऐसे श्रीमान् पूज्यपाद भगवान् श्री जिनसेनाचार्य सदा संसार का मंगल करें। __ अमोघवर्ष के राज्य काल में एकान्त पक्ष का नाश होकर स्याद्वाद मत की विशेष उनति हुई थी। इसीलिये दिगम्बराचार्य श्री महावीर "गणितसारसंग्रह" में उनके राज्य को वृद्धि की भावना करते हैं।' किन्तु इन राजा के बाद राष्ट्रकूट राज्य को शक्ति छिन्न-भिन्न होने लगी थी। यह बात गंगवाड़ी के जैन धर्मानुयायी गंगराजा नरसिंह को सहन नहीं हुई। उन्होंने तत्कालीन राठौर राजा की सहायता की थी और राठौर राजा इन्द्र चतुर्थ को पुनः राज्य सिंहासन पर बैठाया था। राजा इन्द्र दिगम्बर जैन धर्म का अन्यायी था और उसने सल्लेखना व्रत धारण किया था।' गंगराजा और सेनापति चामुण्डराय इस समय गंगवाडी के गंगराजाओं ने जैनोत्कर्ष के लिये खास प्रयत्न किया था। रायपल्ल सत्यवाक्य और उनके पूर्वज मारसिंह के मन्त्री और सेनापति दिगम्बर जैन धर्मानुयायी वीरपार्तण्डराजा चामुण्डराय थे। इस राजवंश की राजकुमारी पनिवव्वेने आर्यिका के व्रत धारण किये थे। श्री अजितसेनाचार्य और नेमिचन्द्राचार्य इन राजाओं के गुरु थे। चापुण्डराय जी के कारण इन राजाओं द्वारा जैन धर्म की विशेष उन्नति हई थी। दिगम्बर मनियों का सर्वत्र आनन्दपई विहार होता था। कलचूरि वंश के राजा दिगम्बर मुनियों के बड़े संरक्षक थे किन्तु गंगों का साहाय्य पाकर भी राष्ट्रकूट वंश अधिक टिक न सका और पश्चिमीय चालुक्य प्रधानता पा गये। किन्तु यह भी अधिक समय तक राज्य न कर सके। उनको कलचूरियों ने हरा दिया। कलचूरी वंश के राजा जैन धर्म के परम भक्त थे। इनमें बिजलराजा प्रसिद्ध और जैन धर्मानुयायी था। इसी राजा के समय में १. "विध्वस्तैकान्तपक्षस्य स्याद्वाद्वन्यायवादिनः। देवस्य नृपतुङ्गस्य वर्द्धतां तस्य शासनं ।।६।।" २. SSI.I.Pt.L.p.112 ३. मजैस्मा , पृ. १५०। ४. वीर,वर्ष ७, अंक १-२ देखो। (110) दिगम्बाव और दिगम्बर मुनि Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बासवने “लिंगायत” मत स्थापित किया था। किन्तु बिज्जल राजा की दिगम्बर जैन धर्म के प्रति अटूट भक्ति के कारण वासव अपने मत का बहुप्रचार करने में सफल न हो सका था। आखिर जब बिज्जलाज कोल्हापुर के शिलाहार राजा के विरूद्ध युद्ध करने गये थे, तब इस वासव ने धोखे से उन्हें विष देकर मार डाला था और तब कहीं लिंगायत मत का प्रचार हो सका था। इस घटना से स्पष्ट है कि बिज्जल दिगम्बर मुनियों के लिये कैसा आश्रय था। होयसालवंशी राजा और दिगम्बर मुनि पैसोर के होयसालवंश के राजागण भी दिगम्बरमुनियों के आश्रयदाता थे। इस वंश की स्थापना के विषय में कहा जाता है कि साल नाम का एक व्यक्ति एक मंदिर में एक जैन यति के पास विद्याध्ययन कर रहा था, उस समय एक शेर ने उन साधु पर आक्रमण किया। साल ने शेर को मारकर उनकी रक्षा की और वह 'होयसाल' नाम से प्रसिद्ध हुआ था । तदोपरान्त उन्हीं जैन साधु का आशीर्वाद पाकर उसने अपने राज्य की नींव जपाई थी, जो खूबफला-फूला था। इस वंश के सब ही राजाओं ने दिगम्बर मुनियों का आदर किया से राजद के गुरु दिगम्बर साधु श्री शान्तिदेव पुनि थे। इन राजाओं में विट्टिदेव अथवा विष्णुवर्द्धन राजा प्रसिद्ध था। वह भी जैन धर्म का दृढ़ श्रद्धानी था। उसकी रानी शान्तलदेवी प्रसिद्ध दिगम्बराचार्य श्री प्रभाचन्द्र की शिष्यार्थी । किन्तु उसको एक दूसरी रानी वैष्णव धर्म की अनुयायी थी। एक रोज राजा इसी रानी के साथ राजमहल के झरोखे में बैठा हुआ था कि सड़क पर एक दिगम्बर मुनि दिखाई दिये। रानी ने राजा को बहकाने के लिये अवसर अच्छा समझा। उसने राजा से कहा कि "यदि दिगम्बर साधु तुम्हारे गुरु हैं तो भला उन्हें बुलाकर अपने हाथ से भोजन करा दो।' राजा दिगम्बर मुनियों के धार्मिक नियम को भूलकर कहने लगे कि "यह कौन बड़ी बात हैं"। अपने हीन अंग का उसे खयाल न रहा । दिगम्बर मुनि अंगहीन रोगी आदि के हाथ से भोजन ग्रहण न करेंगे, इसका उसने ध्यान भी न किया और मुनि महाराज को पड़गाह लिया । मुनिराज अंतराय हुआ जाकर वापस चले गये। राजा इस पर चिढ़ गया और वह वैष्णव धर्म में दीक्षित हो गया । किन्तु उसके वैष्णव हो जाने पर भी दिगम्बर मुनियों का बाहुल्य उस राज्य में बना रहा। उसकी अग्रमहषी शान्तलदेवी अब भी दिगम्बर मुनियों की भक्त थी और उसके सेनापति तथा प्रधानमंत्री गंगराज भी दिगम्बर मुनियों के परम सेवक थे। उनके संसर्ग से विष्णुवर्द्धन ने " १. मर्जेस्मा., पू. १५५ - १५६ ॥ २. SSI.J. Pu.l.p. 115 ३. जैस्मा, पृ. १५६ - १५७ । ४. SSLIPt 1p.115 ५. [hid.p.116 ६. AR.Vol.IX,p,266 दिगम्बात्य और दिगम्बर मुनि (111) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तिम समय में भी दिगम्बर मुनियों का सम्मान किया आर जैन मंदिरों को दान दिया था। उनके उत्तराधिकारी नरसिंह प्रथम द्वारा भी दिगम्बर पुनियों का सम्मान हुआ था। नरसिंह का प्रधानमंत्री हुल्ल दिगम्बर मुनियों का परम भक्त था। उस समय दक्षिण भारत में चामुण्डराय, गंगराज और हुल्ल दिगम्बर धर्म के महान् प्रभावक और स्तंभ समझे जाते थे।' बल्लालराय होयसाल के गुरु श्री वासपूज्य व्रती थे। राजा पनिस होयसाल के गरु अजित मनि थे। विजयनगर साम्राज्य में दिगम्बर मुनि विजयनगर साम्राज्य की स्थापना आर्य-सभ्यता और संस्कृति की रक्षा के लिये हुई थी। वह हिन्दू संगठन का एक आदर्श था। शैव, वैष्णव, जैन-सब ही कंधे से कंधा जुटाकर धर्म और देश रक्षा के कार्य में लगे हुए थे। स्वयं विजयनगर सम्राटों में हरिहर द्वितीय और राजकुमार उग दिगम्बर जैन धर्म में दीक्षित होकर दिगम्बर मुनियों के महान आश्रयदाता हुये थे " दिगम्बर मुनि श्री धर्मभूषण जी राजा देवराय के गुरु थे तथा आचार्य विद्यानन्दि ने देवराज और कृष्णराय नामक राजाओं के दरबार में वाद किया था तथा दिलंगी और कारल्ल में दिगम्बा भी की ग्या की थी। मुस्लिम काल में दिगम्बर मुनि ___मुस्लिम काल में देश असित और दुःखित हो रहा था। आर्य धर्मसंकटाकुल था। किन्तु उस पर भी हम देखते है कि प्रसिद्ध पुसलमान शासक हैदर अली ने श्रवणबेलगोल की नग्न देवमूर्ति श्री गोमट्टरुदेव के लिये कई गाँवों को जागीर भेंट की थी। उस समय श्रवणबेलगोल के जैन पठ में जैन साधु विद्याध्ययन कराते थे। दिगम्बराचार्य विशालकीर्ति ने सिकन्दर और वीरू पक्षराय के सापने वाद किया था।८ मैसोर के राजा और दिगम्बर मुनि मैसोर के ओड़यरवंशी राजाओं ने दिगम्बर जैन धर्म को विशेष आश्रय दिया था और वर्तमान शासक भी जैन धर्म पर सदय है। सत्रहवीं शताब्दि में भट्टाकलंक देव नामक दिगम्बराचार्य हवल्ली जैन मठ के गरु के शिष्य और महावादी थे। उन्होंने सर्वसाधारण में वाद करके जैन धर्म की रक्षा की थी। वह संस्कृत और कन्नड़ के १. मजैस्मा., प्रस्तावना, पृ.१३ । २. ]hid. ३. मजेस्मा..पू. १६२। ४. ADIB.P.31 ५. SSIJ.Pl.p118. ६. मजैस्मा.,पृ. १६३ ७. AR.VOL.IX.267& SI.S.P.I.p.117. ८, मजैस्मा ., पृ.१६३। (112) दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ विद्वान् तथा छह भाषाओं के ज्ञाता थे। जैन रानी भैरवदेवी ने मणिपुर का नाम १ बदलकर इनकी स्मृति में 'भट्टाकलंकपुर' रखा था वहीं आजकल का भटकल है। श्री कृष्णराय और अच्युतराय राजा के सम्मुख श्री दिगम्बर मुनि नेमिचन्द्र ने बाद किया था। पण्डाईवेडू राजा और दिगम्बर मुनि पुण्डी (उत्तर अर्काट) के तीसरे ऋषभदेव मंदिर के विषय में कहा जाता है कि पण्डाईवेडू राजा की लड़की को भूतबाधा सताती थी। उसी समय कुछ शिकारियों के पास एक दिगम्बर मुनि ने श्री ऋषभदेव की मूर्ति देखी। पुनि जी ने वह मूर्ति उनसे ले ली। इन्हीं शिकारियों ने राजा से मुनि जी की प्रशंसा की। उस पर राजा ने मुनि जी की वन्दना को और उनसे भूतबाधा दूर करने का अनुरोध किया। मुनि जी ने लड़की की भूतबाधा दूर कर दी। राजा बहुत प्रसन्न हुआ और उसने उक्त मंदिर बनवाया। दो सौ वर्ष पहले दिगम्बर मुनि दक्षिण भारत में दौसौ वर्ष पहले कई एक दिगम्बर मुनियों का सद्भाव था। उनमें मन्त्ररगुड़ी के पर्णकुटिवासी ऋषि प्रसिद्ध हैं। उन्होंने कई मूर्तियों और मंदिरों की प्रतिष्ठा कराई थी।" उनके अतिरिक्त संधि महामुनि और पण्डित महामुनि भी द्ध हैं। उन्होंने ग्राम में वहां के प्राह्मणों के साथ बाद किया था और जैन धर्म का डंका बजाया था। तब से वहाँ पर एक जैन धर्म विद्यापीठ स्थापित है। सचमुच दक्षिण भारत में अत्यन्त प्राचीनकाल से सिलसिलेवार दिगम्बर मुनियों का सद्भाव रहा है। प्रो. ए. एन. उपाध्याय इस विषय में लिखते हैं कि दक्षिण भारत में नियमित रूप में दिगम्बर मुनि होते आये हैं। पिछले सौ वर्षों में सिद्धय्य आदि अनेक दिगम्बर मुनि इस ओर ही गुजरे हैं, किन्तु खेद है, उनकी जीवन सम्बन्धी वार्ता उपलब्ध नहीं है। € महाराष्ट्र देश के दिगम्बर जैन मुनि - दक्षिण भारत की तरह ही महाराष्ट्र देश भी जैन धर्म का केन्द्र था।" वहाँ अब तक दिगम्बर जैनों को बाहुल्यता है। कोल्हापुर, बेलगाम आदि स्थान जैनों को मुख्य अस्तियाँ थी। कहते हैं कि एक बार कोल्हापुर में दिगम्बर मुनियों का एक वृहत् संघ आकर ठहरा था। राजा और रानी ने भक्तिपूर्वक उसकी बन्दना की थी। देवयोग से संघ जहाँ पर ठहरा था वहाँ आग लग गई। मुनिगण उसमें भस्म हो गये। राजा को बड़ा १. HKI. p. 83 २. बृजेश. भा. १. पृ. १० । ३. पजेस्मा, , पृ. १६३ ॥ ४. दिजैडा., पृ. ८५७1 ५. Ibid.p.864 दिजैडा, पृ. ८५९ ॥ ६. (113) ७. Jainism was specialty popular in the Southern Maratha country - IHI. p. 444 दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 परिताप हुआ। उसने उनके स्मारक में १०८ दिगम्बर मन्दिर बनवाये। संघ में १०८ ही दिगम्बर मुनि थे।' इस घटना से महाराष्ट्र में एक समय दिगम्बर मुनियों की बाहुल्यता का पता चलता है। सचमुच महाराष्ट्र के रट्ट, चालुक्य शिलाहार आदि वंश के राजा दिगम्बर जैन धर्म के पोषक थे और यही कारण है कि वहाँ दिगम्बर मुनियों का बड़ी संख्या में विहार हुआ था। अठारहवीं शताब्दि में हुये दो दिगम्बर मुनियों का पता चलता है। एक मराठी कवि जिनदास के गुरु विद्वान दिगम्बराचार्य श्री उज्जतकीर्ति थे। दूसरे महतिसागर जी थे। उन्होंने स्वतः क्षुल्लकवत् दीक्षा ली थी। तदोपरान्त देवेन्द्रकीर्ति भट्टारक से विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण की थी। बन्हाड देश में उन्होंने खूब धर्म प्रभावना की थी। गूजरों को उन्होंने जैनी बनाया था। दही गाँव उनका समाधि स्थान है, जहाँ सदा मेला लगता है। उनके रचे हुए ग्रंथ भी मिलते हैं। (मौइ. पृ. ६५ - ७२) शाके ११२७ में कोल्हापुर के अजरिका स्थान में त्रिभुवनतिलक चैत्यालय में श्री विशालकीर्ति आचार्य के शिष्य श्री सोमदेवाचार्य ने ग्रंथ रचना की थी। दक्षिण भारत के प्रसिद्ध दिगम्बर जैनाचार्य दिगम्बर जैनियों के प्रायः सब ही दिग्गज विद्वान् और आचार्य दक्षिण भारत में ही हुये हैं। उन सबका संक्षिप्त वर्णन उपस्थित करना यहाँ संभव नहीं है, किन्तु उनमें से प्रख्यात दिगम्बराचार्यों का वर्णन यहाँ पर दे देना इष्ट है। अंग ज्ञान के ज्ञाता दिगम्बराचार्यों के उपरान्त जैन संघ में श्री कुन्दकुन्दाचार्य का नाम प्रसिद्ध है। दिगम्बर जैनों में उनकी मान्यता विशेष है। वह महातपस्वी और बड़े ज्ञानी थे। दक्षिण भारत के अधिवासी होने पर भी उन्होंने गिरिनार पर्वत पर जाकर श्वेताम्बरों से वाद किया था । तामिल साहित्य का नीतिग्रंथ कुर्रल उन्हीं की रचना थी। उन और उन्हीं के समान अन्य दिगम्बराचार्यो के विषय में प्रो. रामास्वामी ऐयंगर लिखते हैं "First comes Yatindra Kunda, a great Jain/ Guru who in order to show that both within & without he could not be assisted by Rajas, moved about leaving a space of four inches between himself and the earth under his feet. Uma Swami, the compiler of Tautvartha Sutra, Griddhrapinchha, and his disciple. Balakapinchha folow. Then comes Samantabhadra, fever fortunate', 'whose discourse lights up the place of the three worlds filled with the all meaning Syadvada. This Samantabhadra was the first of a series of celebrated Digambara writers who acquired considerable १. बंप्राजैस्मा. पृ.७६ । पृ. ७६५ । २. दिजैडा ., ३.SS1Jpp. 40-44 & 89. (114) दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ predominance, in the early Rashtrakula period. Jain tradition assings him Saka 60 or 138 A.D... He was a grcal Jaina missionary who tried to spread far and wide Jaina doctrines and morals and that he met with no opposition from other sects wherever he weot. Samantabhadra's appcarance in south India marks an epoch not only in the annals of Digambara tradition, but also in the history of Sanskrit literature.... After Samantabhadra a large pumber of Jaio Munis took up the work of Prosclytisin. The more important of them have contributed much for the uplilt of the Jain world in literature and secular affairs. There was, for example. Simhanandi, the Jain sage, who according to tradition founded the state of Gangavadí. Other names ac those of Pujyapada the author of the incomparable grammar, Jinendra Vyakarana and of Akalanka, who, in 788 A.D., is believed to have confutcid the Buddhists at the court of Himasitala in Kanchi, and thereby procured the expulsion of the Buddhists from South India." SSIJ. Pt.I.pp.29-31 भावार्थ- “पहले ही पहान् जैन गुरु यतीन्द्र कुन्द का नाम मिलता है जो राजाओं के प्रति निस्पृहता दिखाते हुये अधर चलते थे। 'तत्वार्थ सूत्र के कर्ता उमास्वामी गृद्धपिच्छ और उनके शिष्य बलाकपिच्छ उनके बाद आते है। तब सपन्तभद्र का नाम दृष्टि में पड़ता है जो सदा भाग्यवान रहे और जिनकी स्याद्वादवाणी तीन लोक को प्रकाशमान करती थी। यह समन्तभद्र प्रारंभिक राष्ट्रकूट काल के अनेक प्रसिद्ध दिगम्बर मुनियों में सर्वप्रथम थे। उनका समय जैन मतानुसार सन् १३८ ई. है। यह महान् जैन प्रचारक थे, जिन्होंने चहुंओर जैन सिद्धान्त और शिक्षा का प्रचार किया और उन्हें कहीं भी किसी विधर्मी संप्रदाय के विरोध को सहन न करना पड़ा। उनका प्रादुर्भाव दक्षिण भारत के दिगम्बर जैन इतिहास के लिये ही युग प्रवर्तक नहीं है. बल्कि उससे संस्कृत साहित्य में एक महान परिवर्तन हुआ था। समन्तभद्र के बाद बहुसंख्यक जैन साधुओं ने अजैनों को जैनी बनाने का कार्य किया था। उनमें से प्रसिद्ध जैन साधुओं ने संसार को साहित्य और राष्ट्रीय अपेक्षा उत्रत बनाया था। उदाहरणतः जैनाचार्य सिंहन्दि ने गंगवाडी का राज्य स्थापित कराया था। अन्य आचार्यों में पूज्यपाद, जिनकी रचना अद्वितीय "जिनेन्द्र व्याकरण" है और अकलंक देव हैं जिन्होंने कांची के हिमशीतल राजा के दरवार में बौद्धों को वाद में परास्त करके उन्हें दक्षिण भारत से निकलवा दिया था।" दिगम्त्य और दिगम्बर मुनि (115) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उमास्वामी- श्री कुन्दकुन्दाचार्य के उपरान्त श्री उपास्वामी प्रसिद्ध आचार्य थे, प्रो.सा. का यह प्रकट करना निस्सन्देह ठीक है। उनका समय वि.सं.७६ है। गुजरात प्रान्त के गिरिनगर में जब यह मुनिराज विहार कर रहे थे और एक द्वैपायक नामक श्रावक के घर पर उसकी अनुपस्थिति में आहार लेने गये थे, तब वहाँ पर एक अशुद्ध सूत्र देखकर उसे शुद्ध कर आये थे। द्वैपायक ने जब घर आकर यह देखा तो उसने उमास्वामी से "तत्वार्थसूरने की प्रार्थना की थी। तनुसार यह प्रथ रवाना था। उपास्वापी दक्षिण भारत के निवासी और आचार्य कुन्दकुके शिष्य थे, ऐसा उनके "गृद्धपिच्छ' विशेषण से बोध होता है।' श्री समन्तभद्राचार्य- श्री समन्तभद्राचार्य दिगम्बर जैनों में बड़े प्रतिभाशाली नैयायिक और वादी थे। पुनिदशा में उनको भस्मक रोग हो गया, जिसके निवारण के लिये वह काञ्चीपुर के शिवालय में शैव-सन्यासी के वेष में जा रहे थे। वहीं 'स्वयंभू स्रोत' रचकर शिवकोटि राजा को आश्चर्यचकित कर दिया था। परिणामतः वह दिगम्बर मुनि हो गया था। समन्तभद्राचार्य ने सारे भारत में विहार करके दिगम्बर जैन धर्म का डंका बजाया था। उन्होंने प्रायश्चित्त लेकर पुनः मुनिवेष और फिर आचार्य पद धारण किया था। उनकी ग्रंथ रचनायें जैन धर्म के लिए बड़े पहल्व को श्री पूज्यपादाचार्य- कर्नाटक देश के कोलंगाल नामक गाँव में एक ब्राह्मण माधवभट्ट विक्रम की चौथी शताब्दि में रहता था। उन्हीं के भाग्यवान पुत्र श्री पूज्यपादाचार्य थे। उनका दीक्षा नाय श्री देवन्द था। नाना देशों में विहार करके उन्होंने धपोपदेश दिया था, जिसके प्रभाव से सैकड़ों प्रसिद्ध पुरुष उनके शिष्य हुये थे। गंगवंशी दुविनीत राजा उनका मुख्य शिष्य था। "जैनन्द्र व्याकरण", "शब्दावतार" आदि उनकी श्रेष्ठ रचनायें हैं। श्री वादीभसिंह- यतिवर श्री वादीभसिंह श्री पुष्पसेन मुनि के शिष्य थे। उनका गृहस्थ दशा का नाम 'ओढ्यदेव' था. जिससे उनका दक्षिण देशवासी होना स्पष्ट है। उन्होंने सातवीं शती में “क्षत्रचूड़ामणि", "गचिन्तामणि" आदि ग्रन्थों को रचना की थी। १. मजैइ. पृ.४४। • २. Ibid.p.45A. ३. Itbid.p.4th. ४. Tbid.p.47. (116) दिगम्बरत्य और दिगम्बर मुनि Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नेपियन्द्राचार्य- श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती नन्दिसंघ के स्वामी अभयनन्दि के शिष्य थे। वि.सं.७३५ पंपिंड दा के दुसनार में वह रहते थे। उन्होंने जैन धर्म का विशेष प्रचार किया था और उनके शिष्य गंगवंश के राजा श्री रायपल्ल और सेनापति चामुण्डराय आदि थे। उनकी रचनाओं में “गोपट्टसार" ग्रन्थ प्रधान है। श्री अकलंकाचार्य- श्री अकलंकाचार्य देव संघ के साधु थे। बौद्ध मठ में रहकर उन्होंने विद्याध्ययन किया था। तदोपरान्त बौद्धों से वाद करके उनका पराभव और जैन धर्म का उत्कर्ष प्रकट किया था। कांची का हिपशीतल राजा उनका मुख्य शिष्य था। उनके रचे हुये ग्रंथ में राजवार्तिक, अष्टशती, न्यायविनिश्चयालंकार आदि मुख्य हैं। श्री जिनसेनाचार्य- राजाओं से पूजित श्री वीरसेन स्वामी के शिष्य श्री जिनसेनाचार्य सम्राट् अमोघवर्ष के गुरु थे। उस समय उनके द्वारा जैन धर्म का उत्कर्ष विशेष हुआ था। वह अद्वितीय कवि थे। उनका "पाश्र्वाभ्युदयकाव्य" कालिदास के पेघदूत काव्य की समस्यापूर्ति रूप में रचा गया था। उनकी दूसरी रचना 'महापुराण' भी काव्य दृष्टि से एक श्रेष्ठ ग्रंथ है। उनके शिष्य गुणभद्राचार्य ने इस पुराण के शेषांश की पूर्ति की थी। श्री विद्यानन्दि आचार्य- 'श्री विद्यानन्दि आचार्य कर्णाटक देशवासी और गृहस्थ दशा में एक वेदानुयायो ब्राह्मण थे। 'देवागप' स्त्रोत को सुनकर वह जैन धर्म में दीक्षित हो गये थे। दिगम्बर मुनि होकर उन्होंने राज दरबारों में पहुंचकर ब्राह्मणों और बौद्धों से वाद किये थे जिनमें उन्हें विजयश्री प्राप्त हुई थी। अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षा आदि ग्रंथ उनको दिव्य रचनायें है। श्री वादिराज- श्रीवादिराजसूरि नन्दिसंघ के आचार्य थे। उनको 'षटतर्कषण्मुख', 'स्याद्वादविद्यापति' और 'जगदेकमल्लवादी उपाधियाँ उनके गौरव और प्रतिभा की सूचक हैं। उनको एक बार कुष्ट रोग हो गया था। किन्तु अपने योग बल से "एकीभाव स्तोत्र" रचते हुए उस रोग से वह मुक्त हुए थे। यशोधर चरित्र, पाश्र्वनाथ चरित्र आदि ग्रंथ भी उन्होंने रचे थे।" " आप चालक्यवंशीय नरेश जयसिंह की सभा के प्रख्यात वादी थे। वे स्वयं सिंहपुर के राजा थे। राज्य त्यागकर दिगम्बर मुनि हुए थे। उनके दादा गुरु श्रीपाल भी सिंहपराधीश थे। (जैमि.,वर्ष ३३, अंक ५.,पृ. ७२) । १. bid. p.47-48 २. Ibid. p.49 ३. [bid. p. 50-51 ४. Ibid.p.51-52 ५. lbid. p. 53, दिगम्वरत्व और दिगम्बर मुनि (117) Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार श्री पल्लिवेणाचार्य श्री सोमदेवसूरि आदि अनेक लब्धप्रतिष्ठित दिगम्बर जैनाचार्य दक्षिण भारत में हो गुजरे हैं, जिनका वर्णन अन्य ग्रंथों से देखना चाहिए इन दिगम्बराचायों के विषय में उक्त विद्वान आगे लिखते हैं कि “समग्र दक्षिण भारत विद्वान जैन साधुओं के छोटे-छोटे समूहों में अलंकृत था, जो धीरे-धीरे जैन धर्म का प्रचार जनता की विविध भाषाओं में ग्रंथ रचकर कर रहे थे किन्तु यह समझना गलत है कि यह साधुगण लौकिक कार्यों से विमुख थे। किसी हद तक यह सच है कि वे जनता से ज्यादा मिलते-जुलते नहीं थे। किन्तु ई. पू. चौथी शताब्दि में मेगस्थनीज के कथन से प्रकट है कि "जैन श्रमण, जो जंगलों में रहते थे, उनके पास अपने राजदूतों को भेजकर राजा लोग वस्तुओं के कारण के विषय में उनका अभिप्राय जानते थे। जैन गुरुओं ने ऐसे कई राज्यों की स्थापना की थी, जिन्होंने कई शताब्दियों से जैन धर्म को आश्रय दिया था। "१ प्रो. डॉ. बी. शेषगिरिशव ने दक्षिण भारत के दिगम्बर मुनियों के सम्बन्ध में लिखा है कि “जैन मुनिगण विद्या और विज्ञान के ज्ञाता थे, आयुर्वेद और मन्त्रशास्त्र के भी वे महान् विद्वान् थे, ज्योतिष ज्ञान उनका अच्छा खासा था, जैन मान्यता में ऐसे सफल एक प्राचीन आचार्य कुन्दकुन्द कहे गए हैं, जिन्होंने बेलारी जिले के कोनकुण्डल प्रदेश में ध्यान और तपस्या की थी" इस प्रकार दक्षिण भारत में दिगम्बर मुनियों के अस्तित्व का चमत्कारिक वर्णन है और यह इस बात का प्रमाण है कि दक्षिण भारत एक अत्यन्त प्राचीन काल से दिगम्बर मुनियों का आश्रय स्थान रहा है तथा वह आगे भी रहेगा, इसमें संशय नहीं। R. "The whole of south India strewn with small groups of learned Jain aceties, who were slowly but urely spreaing their morils through the medium of their sacred literature composed in the various vernaculars of the country. But it is a mistake to suppose that these ascetics were in different towards secular affairs in general, To a certain extent it is True that they did not mingle with the world. But we know from the account of Megathenes that, so late a the 4th cetury BC.. "The Sarmanes or the Jain Sarmanes who lived in the woods were frequetly consulte by the kings through their messengers regarding the cause of things Jaina Gurus have been founers of States that for centuries together were tolerant towards the Jain faith " २.SSI.Pt.11.pp. 9-10. (118) -SSU 1.10 दिगम्बरत्व और दिगम्बर पुनि Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२] तमिल साहित्य में दिगम्बर मुनि "Among the systems controverled in the Manimekbalai, the Jain system also ligures as one and the words Samanas and Amana are of frequent occurrance; as also refrences to their Vibaras, So that from the earliest times reachable with our present mcans, Jainism apparently flourished in the Tamil Country." तमिल साहित्य के मुख्य और प्राचीन लेखक दिगम्बर जैन विद्वान् रहे हैं और उसका सर्वप्राचीन व्याकरण-ग्रंथ "तोल्काप्पियम्" (Tolkappiyam) एक जैनाचार्य को ही रचना है। किन्तु हम यहाँ पर तमिल साहित्य के जैनों द्वारा रचे हुये अंग को नहीं छुयेंगे। हमें तो जैनेतर तमिल साहित्य में दिगम्बर मुनियों के वर्णन को प्रकट करना इन है। अच्छा तो, तमिल साहित्य का सर्वप्राचीन समय "संगम-काल" अर्थात् ईस्वी पूर्व दूसरी शाताब्दि से ईस्वी पाँचवीं शताब्दि तक का समय है। इस काल की रचनाओं में बौद्ध विद्वान् द्वारा रचित काव्य "पणिमेखलै" प्रसिद्ध है। “माणिमेखलै' में दिगम्बर मनियों और उनके सिद्धान्तों तथा मठों का अच्छा खासा वर्णन है। जैन दर्शन को इस काव्य में दो भागों में विभक्त किया गया है- (१) आजीविक और (२) निग्रंथा आजीविक भगवान महावीर के समय में एक स्वतंत्र संप्रदाय था; किन्तु उपरान्त काल में वह दिगम्बर जैन संप्रदाय में समाविष्ट हो गया था। निग्रंथ प्रदाय को 'अरुहन' (अर्हत) का अनुयायी लिखा है, जो जैनों का द्योतक है। इस के पात्रों में सेठ कोवलन की पत्नी कण्णकि के पिता मानाइकन के विषय में लिखा है कि “जब उसने अपने दामाद के मारे जाने के समाचार सुने तो उसे अत्यन्त दुःख और खेद हुआ और वह जैन संघ में नंगा मुनि हो गया। इस काव्य से यह भी प्रकट है कि चोल और पाण्ड्य राजाओं ने जैन धर्म को अपनाया था। ___“मणिमेखलै" के वर्णन से प्रकट है कि "निग्रंथगण ग्रामों के बाहर शीतल मठों में रहते थे। इन पठों की दीवारें बहुत उँची और लाल रंग से रंगी हुई होती थी। प्रत्येक मठ के साथ एक छोटा सा बगीचा भी होता था। उनके मंदिर तिराहों और चौराहों पर १. Se.. p. 32 भावार्थ-तमिल काव्य 'मणिमेखले में जैन संप्रदाय और शब्द -"अमण" तथा उनके विहारों का उल्लेख विशेष है। जिससे तमिल देश में अतीव प्राचीनकाल से जैन धर्म का अस्तित्व सिद्ध है।" २. SSIJ, pt.I..p. 89 ३. BS.p. 15. ४. llid.p.681. ५. SSD.pl.l.p.47 दिगम्बाय और दिगम्बर मुनि (119) Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवस्थित थे। जैनों ने अपने प्लेटफार्म भी बना रखे थे, जिन पर से निग्रंथाचार्य अपने सिद्धान्तों का प्रचार करते थे। जैन साधुओं के मठों के साथ-साथ जैन साध्वियों के आराम भी होते थे। जेन साध्वियों का प्रभाव तमिल महिला समाज पर विशेष था। कावेरीप्पूमपट्टिनम जो चोल राजाओं की राजधानी थी, वहाँ और कावेरी तट पर स्थित उदैपुर में जैनों के पठ थे। मदरा जैन धर्म का मुख्य केन्द्र था। सेठ कोवलन और उनकी पत्नि कण्णकि जब मथुरा को जा रहे थे तो रास्ते में एक जैन आर्यिका ने उन्हें किसी जीव को पीड़ा न पहुंचाने के लिये सावधान किया था, क्योंकि मदरा में निर्गों द्वारा यह एक महान् पाप करार दिया गया था। यह निग्रंथगण तीन छत्रयुक्त और अशोक वृक्ष के तले बैठाये गये। ये अर्हत भगवान की दैदीप्यमान मूर्ति की विनय करते थे। यह सब जन दिगम्बर थे, यह उक्त काव्य के वजन से स्पष्ट है। पुहर में जब इन्द्रोत्सव मनाया गया तब वहाँ के राजा ने सब धर्मों के आचार्यों को वाद और धर्मोपदेश करने के लिये बुलाया था। दिगम्बर मुनि इस अवसर पर बड़ी संख्या में पहुंचे थे और उनके धर्मपदेश से अनेकानेक तमिल स्त्री-पुरुष जैन धर्म में दीक्षित हुये थे। __ "मणिमेखले" काव्य में उसकी मुख्य पात्री मणिमेखला एक निग्रंथ साधु से जैन धर्म के सिद्धान्तों के विषय में जिज्ञासा करती भी बताई गई है। तथा इस काव्य के अन्य वर्णन से स्पष्ट है कि ईस्वी की प्रारम्भिक शताब्दियों में तमिल देश में दिगम्बर मुनियों की एक बड़ी संख्या मौजूद थी और तमिल लोग देश में विशेष मान्य तथा प्रभावशाली थे। शैव और वैष्णव सम्प्रदायों के तमिल साहित्य में भी दिगम्बर मुनियों का वर्णन मिलता है। शैवों के 'पेरियपुषणम्' नामक ग्रंथ में पूर्ति नायनार के वर्णन में लिखा है कि कलभ्रबंश के क्षत्री जैसे ही दक्षिण भारत में पहुंचे वैसे ही उन्होंने दिगम्बर जैन धर्म को अपना लिया। उस समय दिगम्बर जैनों की संख्या वहाँ अत्यधिक थी और उनके आचार्यों का प्रभाव कलों पर विशेष था। इस कारण शैव धर्म उन्नत नहीं हो पाया था। किन्त कलों के बाद शैव धर्म को उन्नति करने का अवसर मिला था। उस समय बौद्ध प्रायः निष्प्रभ हो गये थे, किन्तु जैन अब भी प्रधानता लिये हये थे। 3. Ibrid.pp 47–48 "That these lains were the Digambaras is clearly seen from their description ..... The Jains took cvery advantaye of the opportunity and large was the number of those that embrace this Taith." 3. Manimekalai asked the Nirgrantha lo state who was his God what he was laught in his sacred books etc. ३. Tbid.p55. "I would appear from a general study of the litrature of the period that Buddhism had dcsclined as an active religion bul Jainism had still its stroughold. The chier opponents of these saints were the Samans or the Jains. -BS.p.689 (120) दिवरत्व और दिगम्बर मुनि Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शैवाचार्यों का बादशाला में मुकाबला लेने के लिए दिगम्बराचार्य जैन श्रमण ही अवशेष थे। शैवों में सम्बन्दर और अप्पर नामक आचार्य जैन धर्म के कट्टर विरोधी थे। इनके प्रचार से साम्प्रदायिक विद्वेष की आग तमिल देश में भड़क उठी थी.' जिसके परिणामस्वरूप उपरान्त के शैव ग्रंथों में ऐसा उपदेश दिया हुआ मिलता है कि बौद्धों और समणों (दिगम्बर मनियों) के न तो दर्शन करो न उनके धर्मोपदेश सनो. बल्कि शिव से यह प्रार्थना की गई है कि वह शक्ति प्रदान करें जिससे बौद्धों और समणों (दिगम्बरा मुनियों) के सिर फोड़ डाले जायें; जिनके धपॉपदेश को सुनते-सुनते उन लोगों के कान भर गये हैं। इस विद्वेष का भी कोई ठिकाना है ! किन्तु इससे स्पष्ट है कि उस समय भी दिगम्बर मुनियों का प्रभाव दक्षिण भारत में काफी था। वैष्णव तमिल साहित्य में भी दिगम्बर मनियों का विवरण मिलता है। उनके 'तेवाराम Tevaram) नामक ग्रंथ से ईसवी सातवी-आठवीं शताब्दि के जैनों का हाल मालूम होता है। उक्त ग्रंथ से प्रकट है कि "इस समय भी जैनों का मुख्य केन्द्र मदुरा में था। मदरा के चहूँ ओर स्थित अनेमले, पसुमले आदि आठ पर्वतों पर दिगम्बर मुनिगण रहते थे और वे ही जैन संघ का संचालन करते थे। वे प्रायः जनता से अलग रहते थे - उससे अत्यधिक सम्पर्क नहीं रखते थे। स्त्रियों से तो वे बिल्कुल दूर-दूर रहते थे। नासिका स्वर से वे प्राकृत व अन्य मंत्र बोलते थे। ब्राह्मणों और उनके वेदों का वे हमेशा खुला विरोध करते थे। कड़ी धूप में वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर वेदों के विरुद्ध प्रचार करते हुए विचरते थे। उनके हाथ में पीछछ, चटाई और एक छत्री होती थी। इन दिगम्बर मनियों को सम्बन्दर द्वेषवश बन्दरों की उपमा देता है, किन्तु वे सैद्धान्तिक वाद करने के लिये बड़े लालायित थे और उन्हें विपक्षी को परास्त करने में आनन्द आता था। केशलोंच ये मुनिगण करते थे और स्त्रियों के सम्मुख नग्न उपस्थित होने में उन्हें लज्जा नहीं आती थी। भोजन लेने के पहले वे अपने शरीर को शुद्धि नहीं करते थे (अर्थात स्नान नहीं करते थे)1" मंत्रशास्त्र को वे खुब जानते थे और उसकी खूब तारीफ करते थे। विज्ञानसम्बन्दर और अप्पर ने जो उपयुक्त प्रमाण दिगम्बर पुनियों का वर्णन किया है, यद्यपि वह द्वेष को लिये हुये है, परंतु तो भी उससे उस काल में दिगम्बर मुनियों के बाहुल्य रूप में सर्वत्र विहार करने, बिकट तपस्वी और उत्कट वादी होने का समर्थन होता है। दक्षिण भारत की 'नन्दयाल कैफियत' (Nandyala kaiphiyat) में लिखा हैं कि “जैनमुनि अपने सिरों पर बाल नहीं रखते थे कि शायद कहीं जूं न पड़ जाय १. SSIJ.I.pp. 60-66. २. तिरुमले - Bs.p. 632. ३. SSIJ. Pt..L.pp, 6870 दिगम्बरत्य और दिगप्पर मुनि (121) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और वे हिंसा के भागी हों। जब वे चलते थे तो मोरपिच्छी से रास्ता साफ कर लेते थे कि कहीं सूक्ष्म जीवों को विराधना न हो जाय। वे दिगम्बर वेष धारण किये थे, क्योंकि उन्हें भय था कि कहीं उनके कपड़े और शरीर के संसर्ग से सूक्ष्म जीवों को पीड़ा न पहुंचे। ये सूर्यास्त के उपरान्त भोजन नहीं करते थे, क्योंकि पवन के साथ उड़ते हुए जीव-जन्तु कहीं उनके भोजन में गिर कर पर न जाये। इस वर्णन से भी दक्षिण भारत में दिगम्बर मुनियों का बाहुल्य और निर्बाध धर्म प्रचार करना प्रमाणित है। “सिद्धवत्तम् कैफियत” (Siddhavattam Kaiphiyat ) से प्रकट है' - कि वरंगल के जैन राजा उदार प्रकृति थे। वे दिगम्बरों के साथ-साथ अन्य धर्मो को भी आश्रय देते थे । “वरंगल कैफियत" से प्रकट है कि वहाँ वृषभाचार्य नामक दिगम्बर मुनि विशेष प्रभावशाली थे । दक्षिण भारत के ग्राम्य- कथा - साहित्य में एक कहानी है, उससे प्रकट है कि " वरंगल के काकतीयवंशी एक राजा के पास ऐसी खड़ाऊँ थीं, जिनको पहनकर वह उड़ सकता था और रोज बनारस में जाकर गंगा स्नान कर आता था। किसी को भी इसका पता न चलता था। एक रोज उसकी रानी ने देखा कि राजा नहीं है। वह जैनधर्मपरायण थी। उसने अपने गुरुओं से राजा के संबंध में पूछा। जैन गुरु ज्योतिष के विद्वान् विशेष थे; उन्होंने राजा का सब पता बता दिया। राजा जब लौटा तो रानी ने उसको बताया कि वह कहाँ गया और प्रार्थना की कि वह उसे भी बनारस ले जाया करे। राजा ने स्वीकार कर लिया। वह रानी भी बनारस जाने लगी। एक रोज मार्ग में वह मासिक धर्म से हो गई। फलतः खड़ऊ की वह विशेषता नष्ट हो गई। राजा को उस पर बड़ा दुःख हुआ और उसने जैनों को कष्ट देना प्रारम्भ कर दिया। कहानी से विधर्मी राजाओं के राज्य में भी दिगम्बर मुनियों का प्रतिभाशाली होना प्रकट है। इस अरुलनन्दि शैवाचार्य कृत "शिवज्ञानसिद्धियार" में परपक्ष संप्रदायों में दिगम्बर जैनों के “श्रमणरूप” का उल्लेख हैं तथा “हालास्यमाहात्म्य" में मदुरा के शैवों और दिगम्बर मुनियों के वाद का वर्णन मिलता है। " इस प्रकार तमिल साहित्य के उपर्युक्त वर्णन से भी दक्षिण भारत में दिगम्बर मुनियों का प्रतिभाशाली होना प्रमाणित है। वे वहाँ अत्यन्त प्राचीन काल से धर्म प्रचार कर रहे थे। १. lbid. p. 17. २. lbid, p.18 2. SSJJ. pt. II.pp. 27-28 ४. SC.p. 243 ५. IHQ Vol. IV.564 (122) दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 2084 [२३] भारतीय पुरातत्व और दिगम्बर मुनि 38 "Chalcolithic civilisation of the Indus Vallcy was something quito different from the Vedic civilisation." "On the eve of the Aryan immigration the Indus Valley was in possession of a civilized and warlike people." -R.R.Ramprasad Chand. _मोहन-जोदड़ो का पुरात्व और दिगम्बरत्व- भारतीय पुरातत्व में सिंधु देश के मोहन-जोदड़ो और पंजाब के हड़प्पा नामक ग्रामों से प्राप्त पुरातत्व अति प्राचीन हैं। वह ईस्वी सन से तीन-चार हजार वर्ष पहले का अनुमान किया गया है। जिन विद्वानों ने उसका अध्ययन किया है, वह इस परिणाम पर पहंचे हैं कि सिन्धु देश में उस समय एक अतीव सभ्य और क्षत्रिय प्रकृति के मनुष्य रहते थे, जिनका धर्म और सभ्यता वैदिक धर्म और सभ्यता से नितान्त भिन्न थी। एक विद्वान ने उन्हें "द्रात्य" सिद्ध किया है, और मनु के अनुसार “वात्य" वह वेद-विरोधी संप्रदाय था "जिसके लोग दिजों द्वारा उनको सजातीय पत्नियों से उत्पन्न हए थे, किन्तु जो (वैदिक) धार्मिक नियमों का पालन न कर सकने के कारण सावित्रि से पृथक कर दिये गये थे।" (मन् १०। १२) यह मुख्यतः क्षत्री थे। मनु एक व्रात्य क्षत्री से ही झल्ल, मल्ल, लिच्छवि, नात, करण, खस और द्राविड़ वंशों की उत्पत्ति बतलाते हैं। (मन १० ।२०) यह पहले भी लिखा जा चुका है। सिन्धु देश के उपयुक्त मनुष्य इसी प्रकार के क्षत्री थे और वे ध्यान तथा योग का स्वयं अभ्यास करते थे और योगियों को मूर्तियों की पूजा करते थे। मोहन-जोदड़ो से जो कतिपय मूर्तियाँ पिली है उनकी दृष्टि जैन मूर्तियों के सदृश 'नासाग्रदृष्टि' है। किंतु ऐसी जैन मूर्तियाँ प्रायः ईस्वी पहली शताब्दि तक को ही मिलती विद्वान प्रकट करते हैं, यद्यपि जैनों की पान्यता के अनुसार उनके मंदिरों में बहुप्राचीन काल की मूर्तियाँ मौजूद है। उस पर, हाथीगुफा के शिलालेख से कुमारी पर्वत पर नन्दकालं की मूर्तियाँ का होना प्रमाणित है तथा मथुरा के 'देवों द्वारा निर्मित जैनस्तूप से भगवान् पार्श्वनाथ के समय में भी ध्यानदृष्टिमय मूर्तियों का होना सिद्ध है। इसके अतिरिक्त प्राचीन जैन साहित्य १. SPCIV. p.I..25 २. Ibid.pp.25-34 ३. [bid.pp.25-26. ४. JBORS. ५. वीर, वर्ष ४. प. २९९ । दिगम्वरत्व और दिगम्बा मुनि (123) Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा बौद्धों के उल्लेख से भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर के पहले के जैनों में भो ध्यान और योगाभ्यास के नियमों का होना प्रमाणित है। 'संयुक्तनिकाय' में जैनों के अवितर्क और अविचार श्रेणी के ध्यान का उल्लेख है और “दीर्घनिकाय" के 'ब्रह्मजालसुत्त से प्रकट है कि गौतम बुद्ध से पहले ऐसे साधु थे जो ध्यान और विचार द्वारा मनुष्य के पूर्व भवों को बतलाया करते थे। जैन शास्त्रों में ऋषभादि प्रत्येक तीर्थकर के शिष्य समुदाय में ठीक ऐसे साधुओं का वर्णन मिलता है, तथापि उपनिषदों में जैनों के 'शुक्लध्यान' का उल्लेख मिलता है, यह पहले ही लिखा जा चुका है। अतः यह स्पष्ट है कि जैन साधु एक अतीव प्राचीन काल से ध्यान और योग का अभ्यास करते आये हैं तथा झल्ल, मल्ल, लिच्छवि, ज्ञात आदि प्रात्य क्षत्रिय प्रायः जैन थे। अन्यत्र यह सिद्ध किया जा चुका है कि "व्रात्य" क्षत्रिय बहुत करके जैन थे और उनमें के ज्येष्ठ व्रात्य सिवाय 'दिगम्बर मुनि के और कोई न थे। इस अवस्था में सिन्धु देश के उपयुक्त कारलवर्ती मनुष्यों का प्राचीन जैन ऋषियों का भक्त होना बहुत कुछ संभव है। किन्तु मोहन-जोदड़ो से जो मूर्तियाँ पिली हैं वह वस्त्रसंयुक्त हैं और उन्हें विद्वान लोग 'पुजारी (Priest) व्रात्यों की पूर्तियाँ अनुमान करते हैं। हमारे विचार से वे हीन-व्रात्य (अणुव्रती श्रावकों) की मूर्तियाँ हैं। ब्रात्य-साधु की मूर्ति वह हो नहीं सकती, क्योंकि उसे शास्त्रों में नग्न प्रगट किया गया है। वहाँ ज्येष्ठ व्रात्य' का एक विशेषण 'सपनिचमेद्र' अर्थात् 'पुरुषलिंग से रहित दिया हुआ है जो नग्नता का द्योतक है। हीन व्रात्यों की पोशाक के वर्णन में कहा गया है कि वे एक पगड़ी (नियंत्रद्ध) एक लाल कपड़ा और चांदी का आभूषण 'निश्क नापक पहनते थे। उक्त मूर्ति की पोशाक भी इसी ढंग की है। माथे पर एक पट्ट रूप पगड़ी, जिसके बीच में एक आभूषण जड़ा है, वह पहने हुये प्रकट है और बगल से निकला हुआ एक छींटदार कपड़ा वह ओढ़े हुये है। इस अवस्था में इन मूर्तियों को हीन व्रात्यों की मूर्तियाँ मानना ही ठीक है और इस तरह यह सिद्ध है कि व्रात्य क्षत्रिय एक अतीव प्राचीन काल में अवश्य ही एक वेद-विरोधी संप्रदाय था, जिसमें ज्येष्ठव्रात्य दिगम्बर मुनि के अनुरूप थे। अतः प्रकारान्तर से भारत का सिंधुदेशवर्ती सर्वप्राचीन पुरातत्व भी दिगम्बर मुनि और उनकी योगमुद्रा का पोषक है।" १.PIS, V. 287. २. ममबु.पू. २१९-२२० । ३. भपा., प्रस्तावना पृ. ४४-४५। X. SPCIV Plate LFig.b. . ५. 'SPCIVep. 25-33 में मोहन जोदड़ो की मूर्तियों को जिन मूर्तियों के समान और उनका पूर्ववर्ती प्रकट किया गया है। (124) दिगम्बरत्व और दिगम्बर पनि Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोक के शासन लेख में निर्ग्रथ सिंधु देश के पुरातत्व के उपरान्त सम्राट् अशोक द्वारा निर्मित पुरातत्व हो सर्वप्राचीन है। वह पुरातत्व भी दिगम्बर मुनियों के अस्तित्व का द्योतक है। सम्राट् अशोक ने अपने एक शासन लेख में आजीविक साधुओं के साथ निग्रंथ साधुओं का भी उल्लेख किया है। खंडगिरि - उदयगिरि के पुरातत्व में दिगम्बर मुनि- अशोक के पश्चात् खण्डगिरिं-उदयगिरि का पुरातत्त्व दिगम्बर धर्म का पोषक है। जैन सम्राट् खारवेल के हाथीगुफा वाले शिलालेख में दिगम्बर मुनियों के "तापस" (तपस्वी) रूप का उल्लेख है। उन्होंने सारे भारत के दिगम्बर मुनियों का सम्मेलन किया था, यह पहले लिखा जा चुका है। खारवेल की पटरानी ने भी दिगम्बर मुनियों-कलिंग श्रमणों के लिये गुफा निर्मित कराकर उनका उल्लेख अपने शिलालेख में निम्न प्रकार किया है “ अरहन्तपसादायन् काहामानम् समनानं लेन करितम् राज्ञो लालकहथौसा हसपपोतस् धुतुनाकलिंगचक्रवर्तिनों श्री खारवेलस अगमहिसिना कारितम् । ” भावार्थ - “अहंत के प्रासाद या मन्दिर रूप यह गुफा कलिंग देश के श्रमणों (दिगम्बर मुनियों) के लिये कलिंग चक्रवर्ती राजा खारवेल की मुख्य पटरानी ने निर्मित कराई, जो हथीसहस के पौत्र लालकस की पुत्री थी। खण्डगिरि की 'तत्व गुफा' पर जो लेख है वह बालमुनि का लिखा हुआ है 'अनन्त गुफा' में लेख है कि दोहद के दिगम्बर मुनियों- श्रमणों की गुफा ( दोहद समनानम् लेनम्)।' इस प्रकार खण्डगिरि- उदयगिरि के शिलालेखों से ईस्वी पूर्व दूसरी शताब्दि में दिगम्बर मुनियों के कल्याणकारी अस्तित्व का पता चलता है। खण्डगिरि - उदयगिरि पर जो मूर्तियाँ हैं, वे प्राचीन और नग्न हैं और उनसे दिगम्बरत्व तथा दिगम्बर मुनियों के अस्तित्व का पोषण होता है। वह अब भी दिगम्बर मुनियों का मान्य तीर्थ है। मथुरा का पुरातत्व और दिगम्बर मुनि- मथुरा का पुरातत्व ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दि तक का है और उससे भी दिगम्बर मुनियों का जनता में बहुमान्य और १. स्तम्भ लेख नं. 19 २. सवदिसाने तापसान, पंक्ति १५, JBORS ३. बॅबिओ जैस्मा, पृ. ९१ । Y. Ibid.p. 94 ५. lbid.p. 97. जैसिभा, वर्ष ६. दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि १, किरण ४, पृ. १२३ । (125) Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारी होना प्रकट है। वहाँ की प्रायः सब ही प्राचीन मूर्तियां नान-दिगम्बर हैं। एक स्तूप के चित्र में जैन मुनि नग्न, पिच्छी व कमण्डल लिये दिखाये गये हैं। उन पर के लेख दिगम्बर मुनियों के द्योतक हैं; यथा-- "नमो अर्हतो वर्धमानस आराये गणिकायं लोण शोभिकाये धितु समण साविकाये नादाये गणिकाये वसु (ये) आर्हतो देविकुल आयाग-सभा प्रयाशिल (T) पटो पतिस्ठापितो निगन्धानम् अर्हता यतनेसहापातरे भगिनिये धितरे पुत्रेण सर्वेन च परिजनेन अहंत पुजाय। अर्थात् - "अर्हत् वर्द्धमान् को नमस्कार। श्रमणों को श्राविका आरायगणिका लोणशोभिका की पुत्री नादाय गणिका वसु ने अपनी पाता, पुत्री, पुत्र और अपने सर्व कुटुम्ब सहित अर्हत् का एक पन्दिर एक आयाग-सभा, ताल और एक शिला निग्रेथ अर्हतों के पवित्र स्थान पर बनवाये।' __इसमें दानशीला श्राविकाओं-श्रमणों-दिगम्बर मुनियों का भक्त तथा निग्रंथ दिगम्बर मुनियों के लिए एक शिला बनाया जाना प्रकट किया गया है। एक आयागपट पर के लेख में भी 'श्रमण-दिगम्बर मुनियों का उल्लेख है। प्लेट नं. २८ के लेख में भी ऐसा ही उल्लेख है तथा एक दिगम्बर मूर्ति पर निम्न प्रकार लेख ....."सं. १५, ग्रि ३, दि १ अस्या पूर्वाय..... हिका तो आर्य जयभूतिस्य शिषीनिनं अर्य सनाभिक शिषीन आर्य वसुलये (निर्वत) नं. ......... लस्य धीतु.....३..... धुवेणि श्रेष्टिस्य धर्मपत्निये भट्टिसेनस्य..... (मातु) कुमरमितयो दनं. भगवतो (प्र) मा सब्ब तो भद्रिका।" ___ अर्थात् - "(सिद्ध !) सं. १५ ग्रोष्य के तीसरे महीने में पहले दिन को, भगवत् की एक चतुर्मुखी प्रतिमा कुमरमिता के दानरूप, जोल की पुत्री, की बहू, श्रेष्टि वेणि की प्रथम पत्नी, भट्टिसेन की माता थी, पहिक कल के आर्य जयभति की शिष्या अर्य संगमिका की प्रति शिष्या वसुला की इच्छानुसार (अर्पित हुई थी)। " इसमें दिगम्बर मुनि जयभूति का उल्लेख 'आर्य विशेषण से हुआ है। ऐसे ही अन्य उल्लेखों से वहाँ का पुरातत्व तत्कालीन दिगम्बर मुनियों के सम्माननीय व्यक्तित्व का परिचायक है। अहिच्छत्र (बरेली) के पुरातत्व में दिगम्बर मुनि - अहिच्छत्र (बरेली) पर एक समय नागवंशी राजाओं का राज्य था और वे दिगम्बर जैन धर्मानुयायी थे। १. होली दरवाजा से मिला आयागपट-वीर, वर्ष ४, पृ. ३०३ । २. आर्यवती आयाग पट्ट, वीर, वर्ष ४.१.३०४ ३. JOAM..plate No. 28 ४. वीर, वर्ष४.प. ३१०। (126) दिगाम्वरत्व और दिगम्बर मुनि Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहाँ के कटारी खेड़ा की खुदाई में डॉ. फुहरर सा, ने एक समूचा सभा पन्दिर खुदवा निकलवाया था। यह मन्दिर ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दि का अनुमान किया गया है और यह श्री पाश्र्वनाथ जी का मन्दिर था। इसमें से मिली हुई मूर्तियाँ सन् ९६ से १५२ तक की हैं; जो र । हैं। यहाँ एक ईटों का बना इसमाचीन स्तू मिला था, जिसके एक स्तम्भ पर निम्न प्रकार लेख था महाचार्य इन्द्रनन्दि शिष्य पार्श्वयतिस्स कोट्टारी।" आचार्य इन्द्रनन्दि उस समय के प्रख्यात दिगम्बर मुनि थे।' कौशाम्बी के पुरातत्व में दिगम्बर संघ- कौशाम्बी का पुरातत्व भी दिगम्बर मुनियों के अस्तित्व का पोषक है। वहाँ से कुषाण काल का पथुरा जैसा आयागपष्ट मिला है। जिसे राजा शिवमित्र के राज्य में आर्य शिवनन्दि की शिष्या बड़ी स्थविरा बलदासा के कहने से शिवपालित ने अर्हत की पूजा के लिये स्थापित किया था। इस उल्लेख से उस समय कौशम्बी में एक वृहत् दिगम्बर जैन संघ रहने का पता चलता है। कुहाऊं का गुप्तकालीन लेख दिगम्बर मुनियों का द्योतक है - कुहाऊं (गोरखपुर) से प्राप्त पुरातत्व गुप्त काल में दिगम्बर धर्म को प्रधानता का द्योतक है। वहाँ के पाषाण-स्तम्भ में, नीचे की ओर जैन तीर्थकर और साधुओं को नग्न मूर्तियां हैं और उस पर निम्नलिखित शिलालेख है। ___“यस्योपस्थानभूमि पत्ति-शत शिरः पात-वातावधूता। गुप्तानां बंशजस्य प्रविसृतयशसस्तस्य सर्वोत्तमद्धेः। राज्ये शक्रोषमस्य क्षितिप-शत-पतेः स्कन्दगुप्तस्य शान्तेः। वर्षे त्रिशंदशैकोत्तरक-शत-तमे ज्येष्ठ मासे प्रपन्ने ख्यातेऽस्मिन् ग्राम-रत्ने ककुभ इति जनैस्साधु-संसर्गपते पुत्रो यस्सोमिलस्य प्रचुर-गुण निधेट्टिसोमो पहार्थः तत्सूनू रुद्रसोमः पृथुलपतियशा व्याघ्ररत्यन्य संज्ञो मद्रस्तस्यात्मजो-भूद्विज-गुरुयतिषु प्रायशः प्रीतिमान्यः इत्यादि।" __भाव यही है कि संवत १४१ में प्रसिद्ध तथा साधुओं के संसर्ग से पवित्र ककुभ ग्राम में ब्राह्मण-गरु और यतियों को प्रिय मद्र नापक विप्र रहते थे, जिन्होंने पाँच अर्हत्-बिम्ब निर्मित कराये थे। इससे स्पष्ट है कि उस समय ककुभ ग्राम में दिगम्बर मनियों का एक वृहत् संघ रहता था। १. संप्रजैस्मा. पृ. ८१-८२ (General Cunningham) found a number of fragmentary naked Jain slalucs. Some inscribcd wilh dales ranging from 96 to 152 A.D. २. संप्राजेस्मा., पृ. २७ ३. पूर्व., पृ. ३-४। दिगम्मरत्व और दिगम्बर मुनि (127) Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजगृह (बिहार) के पुरातत्त्व में दिगम्बर मुनियों की साक्षी - राजगृह (बिहार) का पुरातत्व भी गुप्तकाल में वहाँ दिगम्बर मुनियों के बाहुल्य का परिचायक है। वहाँ पर गुप्त काल की निर्मित अनेक दिगम्बर जैन मूर्तियाँ मिलती हैं और निम्न शिलालेख वहाँ पर दिगम्बर जैन संघ का अस्तित्व प्रमाणित करता है"निर्वाणलाभाय तपस्वि योग्ये शुभेगुहेऽर्हत्प्रतिभा प्रतिष्ठे । - आचार्यरत्नम् मुनि वैरदेवः विमुक्तये कारय दीर्घतेजः । ” अर्थात्- "निर्वाण की प्राप्ति के लिये तपस्वियों के योग्य और श्री अहंत को प्रतिमा से प्रतिष्ठित शुभगुफा में मुनि वैरदेव को मुक्ति के लिये परम तेजस्वी आचार्य पद रूपी रत्न प्राप्त हुआ यानि मुनि वैरदेव को मुनि संघ ने आचार्य स्थापित किया । " इस शिलालेख के निकट ही एक नग्न जैन मूर्ति का निम्न भाग उकेरा हुआ है जिससे इसका सम्बन्ध दिगम्बर मुनियों से स्पष्ट है। ' बंगाल के पुरातत्व में दिगम्बर मुनि- गुप्तकाल और उसके बाद कई शताब्दियों तक बंगाल, आसाम और ओड़ीसा प्रान्तों में दिगम्बर जैन धर्म बहुप्रचलित था। नग्न जैन मूर्तियाँ वहाँ के कई जिलों में बिखरी हुई मिलती है। पहाड़पुर (राजशाही) गुप्तकाल में एक जैर केन्द्र था। वहाँ से प्राप्त एक ताम्रलेख दिगम्बर मुनियों के संघ का द्योतक है। उसमें अंकित है कि “गुप्त सं. १५९ (सन् ४७९ ई.) में एक ब्राह्मण दम्पति ने निर्ग्रध विहार की पूजा के लिये बटगोहली ग्राम भूमि दान दी। निर्बंध संघ आचार्य गुहनन्दि और उनके शिष्यों द्वारा शासित में था। कादम्ब राजाओं के ताम्रपत्रों में दिगम्बर मुनि- देवगिरि ( धारवाड़ ) से प्राप्त कादम्बवंशी राजाओं के ताम्रपत्र ईस्वी पाँचवीं शताब्दि में दिगम्बर मुनियों के वैभव को प्रकट करते हैं। एक लेख में हैं कि महाराजा कादम्ब श्री कृष्णवर्मा केराजकुमार पुत्र देववर्मा ने जैन मन्दिर के लिये यापनीय संघ के दिगम्बर मुनियों को एक खेत दान दिया था। दूसरे लेख से प्रकट है कि "काकुष्ठवंशी श्री शान्तिवर्मा के पुत्र कादम्ब महाराज मृगेश्वरवर्मा ने अपने राज्य के तीसरे वर्ष में परलूरा के आचार्यों को दान दिया था।" तीसरे लेख में कहा गया है कि “इसी मृगेश्वरवर्मा ने जैन मन्दिरों १. SPCIV. Plate 11 (b) २. बंबिओजैस्मा, पृ. १६ ३. IIQ. Vol. VII. p. 441. Y. Modern Review, August 1931, p. 150. ५. IA, VII 33-34. बंप्राजेस्पा., पृ. १२६ । (128) दिगम्बरस्य और दिगम्बर पुलि Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और निग्रंथ (दिगम्बर) तथा श्वतेपट (श्वेताम्बर) संघों के साधुओं के व्यवहार के लिये एक कालवंग नामक ग्राम अर्पण किया था। उदयगिरि (भेलसा/ विदिशा) में पांचवीं शताब्दि की बनी हुई गुफायें हैं, जिनमें जैन साधु ध्यान किया करते थे। उनमें लेख भी हैं।' अजन्ता की गुफाओं में दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व- अजन्ता (खानदेश) की प्रसिद्ध गुफाओं के पुरातत्व से ईस्वी सातवीं शताब्दि में दिगम्बर जैन मुनियों का अस्तित्व प्रमाणित है। वहाँ की गुफा न. १३ में दिगम्बर मुनियों का संघ चित्रित है। नं. ३३ की गुफा में भी दिगम्बर मूर्तियाँ हैं। बादामी की गुफा- बादामी (बाजीपुरा) में सन् ६५० ई. को जैन गुफा उस जमाने में दिगम्बर मुनियों के अस्तित्व की घोतक है। उसमें मुनियों के ध्यान करने योग्य स्थान हैं और नग्न मूर्तियाँ अंकित हैं। चालुक्य राजा विक्रमादित्य के लेख में दिगम्बर मुनि- लक्ष्मेश्वर (धारवाड) की संखवस्ती के शिलालेख से प्रगट है कि संखतीर्थ का उद्वार पश्चिपीय चालुक्यवंशी राजा विक्रमादित्य द्वितीय (शाका ६५६) ने कराया था और जिनपूजा के लिये 'श्री देवेन्द्र भट्टारक के शिष्य मुनि एकदेव के शिष्य जयदेव पंडित को भूमि दान दी थी। इससे विक्रमादित्य का दिगम्बर मुनियों का भक्त होना प्रकट है। वहीं के एक अन्य लेख से मूलसंघ के श्री रामचन्द्राचार्य और श्री विजय देव पंडिताचार्य का पता चलता है। सारांशतः वहाँ उस समय एक उन्नत दिगम्बर जैन संघ विद्यमान था। एलोरा की गुफाओं में दिगम्बर मुनि- ईस्वी आठवीं शताब्दि की निर्मित एलोरा की जैन गुफायें भी उस समय दिगम्बर मनियों के विहार और धर्म प्रचार को प्रकट करती हैं। वहां की इन्द्रसभा नामक गुफा में जैन मुनियों के ध्यान करने और उपदेश देने योग्य कई स्थान हैं और उनमें अनेक नग्न पूर्तियाँ अंकित हैं। श्री बाहुबलि गोमट्टस्वामी की भी खड्गासन मूर्ति है। "जगन्नाथ सभा", "छोटा कैलाश" आदि गुफायें भी इसी ढंग की हैं और उनसे तत्कालीन दिगम्बरत्व की प्रधानता का परिचय मिलता है।" १. मप्राजेस्मा., पृ. ७०। २. बंप्राजैस्मा.. १.५५-५६ ३. [bid.p. 103 ४. lbid.pp. 124-125 ५. fbid.pp. 163–171 दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि (129) Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राट्टराजा आदि के शिलालेखों में दिगम्बर मुनि- सौंदति (बेलगाम) के पुरातत्व में दिगम्बर मुनियों को मतियों और उनका वर्णन मिलता है। वहाँ एक आठवीं शताब्दि का शिलालेख है, जिससे प्रकट है कि “मैलेय तीर्थ की कारेय शाखा में आचार्य श्री मूल भट्टारक थे, जिनके शिष्य विद्वान् गुणकोर्ति थे और उनके शिष्य इच्छा को जीतने वाले श्रीमुनि इन्दी मामी और अगर विरार । का बड़ा पुत्र राजा पृथ्वीवर्मा था, जिसने एक जैन मंदिर बनवाया था और उसके लिये भूमि का दान दिया था।" एक दूसरे सन् १९८१ के लेख से विदित है कि कुन्दुर जैन शाखा के गुरु अति प्रसिद्ध थे, उनको चौथे राट्टराजा शांत ने १५० मत्तर भूमि उस जैन मन्दिर के लिये दी जो उन्होंने सौंदत्ति में बनवाया था और उतनी ही भूमि उस मन्दिर को उनकी स्त्री निजिकव्वे ने दी थी। उन दिगम्बराचार्य का नाम श्री बाहुबलि जी था और वे व्याकरणाचार्य थे। उस समय श्री रविचन्द्र स्वामी, अर्हनन्दि, शुभचन्द्र, भट्टारक देव, मौनीदेव, प्रभाचन्द्रदेव मुनिगण विद्यमान थे। राजा कतम् की स्त्री पद्यलादेवी जैन धर्म के ज्ञान व श्रद्वान में इन्द्राणी के समान थी। यह दिगम्बर मुनियों की भक्ति में दृढ़ थी चालुक्य राजा विक्रम के लेख में दिगम्बर मुनियों का उल्लेखएक अन्य लेख वहीं पर चालुक्य राजा विक्रम के १२ वें राज्य-वर्ष का लिखा हुआ है, जिसमें निम्नलिखित दिगम्बराचार्यों के नाम दिये हुए हैं "बलात्कारगण मुनि गुणचन्द, शिष्य नयनंदि, शिष्य श्रीधराचार्य, शिष्य चन्द्रकीर्ति, शिष्य श्रीधरदेव, शिष्य नैमियन्द्र और वासुपूज्य विधदेव, वासुपूज्य के लघु भ्राता मुनि विद्वान मलपाल थे। वासुपूज्य के शिष्य सर्वोत्तम साधु पद्मप्रभ थे। सेरिंगका वंश का अधिकारी गुरु वासुपूज्य का सेवक था।" इस प्रकार उपर्युक्त लेखों से सौंदत्ति और उसके आस-पास में दिगम्बर मुनियों का बाहुल्य और उनका प्रभावशाली तथा राजमान्य होना प्रकट है। राठौर राजाओं द्वारा मान्य दिगम्बर मनियों के शिलालेखगोविन्दराय तृतीय राठौर मान्यखेट के सन् ८१३ के ताम्रपत्र से प्रकट है कि गंगवंशी चाकिराज की प्रार्थना पर उन्होंने विजयकीर्ति कुलाचार्य के शिष्य मुनि अर्क कीर्ति को दान दिया था। अमोघवर्ष प्रथम ने सन् ८६० में मान्यखेट में देवेन्द्र मुनि को भूमिदान किया था। इनसे दिगम्बर मुनियों का राठौर राजाओं द्वारा मान्य होना प्रमाणित है। मूलगुंड के पुरातत्व में दिगम्बर संघ- मूलगुंड (धारवाड़) को ९ वी १० वीं शताब्दि का परातत्व भी वहां पर दिगम्बर पनियों के प्रभूत्व का घोतक है। वहाँ के एक शिलालेख में वर्णन है कि “चीकारि. जिसने जैन पन्दिर बनवाया था. उसके पुत्र नागार्य के छोटे भ्राता आसार्य ने दान दिया। यह आसार्य नीति और धर्म शास्त्र में -- - -- ---- - - - - - - १. बंप्राजैस्मा., पृ. ८३-८६ । २. भाप्रारा., ३८-४१। (130) दिगम्मरत्व और दिगम्बर मुनि Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा-विद्वान था। इसने नगर के व्यापारियों को सम्मति से १००० पान के वृक्षों के खेत को सेनवंश के आचार्य कनकसेन की सेवा में जैन मन्दिर के लिये अर्पण किया था। कनकमेनाचार्य के गुरु श्री वीर सेन स्वामी थे, जो पूज्यपाद कुमार सेनाचार्य के दिगम्बर मनियों के संघ के गुरु थे। चन्द्रनाथ मन्दिर के शिलालेख से मूलगुंड के राजा मदरसा की स्त्री भामती को मृत्यु का वर्णन प्रकट है। ' गर्ज यह है कि मूलगुंड से दिगम्बर मुनियों को एक समय प्रधान पद मिला हुआ था-वहाँ का शासक भी उनका भक्त था। सन्दी के शिलालेखों में गजाय दिगम्बर मुनि - सुन्दी (धारवाड़) के जैन मन्दिर विषयक शिलालेख (१० वीं श.) में पश्चिमीय गंगवंशीय राजकुमार बुटुग का वर्णन है, जिसने उस जैन मन्दिर के लिये दिगम्बर गुरु को दान दिया था जिसको उसकी स्त्री दिवलम्बा ने सुन्दी में स्थापित किया था। राजा बुटुग गंगपण्डल पर राज्य करता था और श्री नागदेव का शिष्य था। रानो दिवलम्बा दिगम्बर मुनियों और आर्यिकाओं को परम भक्त थी। उसने छह आर्यिकाओं को समाधिमरण कराया था। इससे सुन्दी में दिगम्बर मुनियों का राजपान्य होना प्रकट है। कुम्भोज बाहुबलि पहाड़ (कोल्हापुर) श्री दिगम्बर मुनि बाहुबुलि के कारण प्रसिद्ध है, जो वहाँ हो गये हैं और जिनकी चरण पादुका वहाँ मौजूद है। कोल्हापुर के पुरातत्त्व में दिगम्बर मुनि और शिलाहार राजा - कोल्हापुर का पुरातत्व दिगम्बर मुनियों के उत्कर्ष का द्योतक है। वहाँ के इरविन म्यूजियम में एक शिलालेख शाका दसवीं शताब्दी का है, जिससे प्रकट है कि दण्डनायक दासीमरस ने राजा जगदेकपल्ल के दूसरे वर्ष के राज्य में एक ग्राम धर्मार्थ दिया था। उस समय यापनीय संघ पुत्रागवृक्षमूलगण राद्धान्तादि के ज्ञाता परम विद्वान पुनि कुमार कीर्तिदेव विराजित थे। तदोपरान्त कोल्हापुर के शिलाहार वंशी राजा भी दिगम्बर मुनियों के परम भक्त थे। वहाँ के एक शिलालेख से प्रकट है कि "शिलाहारवंशीय महामण्डलेश्वर विजयादित्व ने माघ सुदी १५ शाका १०६५ को एक खेत और एक मकान श्री पार्श्वनाथ जी के मन्दिर में अष्टद्रव्य पूजा के लिये दिया। इस मन्दिर को पूलसंघ देशीयगण पुस्तक गच्छ के अधिपति श्री माघनन्दि सिद्धान्तदेव (दिगम्बराचार्य) के शिष्य सापन्त कामदेव के अधीनस्थ वासुदेव ने बनवाया था। दान के समय राजा ने श्री पाघनन्दि सिद्धान्तदेव के शिष्य माणिक्यनन्दि पं. के चरण धोये थे। “बमनी ग्राम से प्राप्त शाका १०७३ के लेख से प्रकट है कि "शिलाहार राजा विजयादित्य ने जैन मन्दिर के लिये श्री १.बंपास्मा , पृ. १२०-१२१ । २. बंधाजैस्मा,, पृ. १२७ । ३. बंप्राजैस्मा,पृ. १५३। ४. जैनमित्र, वर्ष ३३. पृ. ७१ । दिगम्बाव और दिगम्बर मुनि (131) Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्दान्वयी श्री कुलचन्द्र मुनि के शिष्य श्री माघनंदि सिद्धान्तदेव के शिष्य श्री अर्हन्दि सिद्धान्त देव के चरण धोकर भूमिदान किया उसे समय दिगम्बर मुनियों का प्रभुत्व स्पष्ट है। आरटाल शिलालेख में चालुक्यराज पूजित दिगम्बर मुनि आरटाल (धारवाड़) से एक शिलालेख शाका १०४५ का चालुक्यराज भुवनेकमल्ल के राज्य कालका मिलता है। उसमें एक जैन मंदिर बनने का उल्लेख है तथा दिगम्बर मुनि श्री कनकचन्द्र जी के विषय में निम्न प्रकार वर्णन हैं? - "स्वस्ति यम-नियम स्वाध्याय ध्यान मौनानुष्ठान समाधिशील गुण संपन्नरम्प कनकचन्द्र सिद्धान्त देवः । " इससे उस समय के दिगम्बर मुनियों की चरित्रनिष्ठा का पता चलता है। ग्वालियर और दूबकुंड के पुरातत्व में दिगम्बर पुनि - ग्वालियर का पुरातत्व ईस्वी ग्यारहवीं से सोलहवीं शताब्दि तक वहाँ पर दिगम्बर मुनियों के अभ्युदय को प्रकट करता है। ग्वालियर किले में इस काल की बनी हुई अनेक दिगम्बर मूर्तियाँ हैं। जो बाबर के विध्वंसक हाथ से बच गई हैं। उन पर कई लेख भी हैं, जिनमें दिगम्बर गुरुओं का वर्णन मिलता है। ग्वालियर के दूबकुंड नामक स्थान से मिला हुआ एक शिलालेख सन् १०८८ में दिगम्बर मुनियों के संघ का परिचायक है। यह लेख महाराज विक्रमसिंह कछवाहा का लिखाया हुआ है. जिसने श्रावक ऋषि को श्रेष्ठी पद प्रदान किया था और जो अपने भुजविक्रम के लिये प्रसिद्ध था। इस राजा ने दूबकुंड के जैन मंदिर के लिये दान दिया था और दिगम्बर मुनियों का सम्मान किया था। ये दिगम्बर मुनिगण श्री लाटवागटगण के थे और इनके नाम क्रमशः (१) देवसेन (२) कुलभूषण (३) श्री दुर्लभसेन (४) शांतिसेन और (५) विजयकीर्ति थे। इनमें श्री देवसेनाचार्य ग्रंथ रचना के लिये प्रसिद्ध थे और श्री शांतिसेन अपनी वादकला से विपक्षियों का पद चूर्ण करते थे। - खजुराहा के लेखों में दिगम्बर मुनि खजुराहा के जैन मंदिर में एक श्री लेख संवत् १०११ का है। उससे दिगम्बर मुनि श्री वासवचन्द्र ( महाराज गुरु वासवचन्द्र) का पता चलता है। वह धांगराजा द्वारा मान्य सरदार पाहिल के गुरु थे। १. प्रास्मा, पृ. १५३-१५४1 २. दिजैड़ा, पू. ७४९ । ३. मप्राजैस्मा., पृ. ६५-६६ । ४. मामा. ७३-८४ पू. - "श्री लाटबागटगणोन्नतरोहणाद्रि माणिक्यभूतचरितगुरु दैवसेन । सिद्धांतोद्विविधोप्यवाधितधिया येन प्रमाण ध्वनि । प्रथेषु प्रभवः श्रियामनगतो हस्तस्थ मुक्तोपमः । आस्थानाधिपती बुधादविगुणे श्री भोजदेवे नृपे सभ्येष्वंवरसेन पण्डित शिरोरत्नादिषुद्यन्मदान्। योनेकान्शतसो अजेष्ट पटुताभीष्टोद्यमो वादिनः शास्त्रांभोनधिपारगी भवदन्तः श्री शांतिसेनो गुरुः । " पू. ११७ । ५. . मत्र जैस्मा.. (132) दिगम्बरात्य और दिगम्बर मुनि Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झालरापाटन में दिगम्बर मुनियों की निषिधिकायें झालरापाटन शहर के निकट एक पहाड़ी पर दिगम्बर मुनियों के कई समाधि स्थान हैं। उन पर के लेखों से प्रकट है कि सं. १०६६ में श्री नेमिदेवाचार्य और श्री बलदेवाचार्य ने समाधिमरण किया था। १ अलवर राज्य के लेखों में दिगम्बर मुनि - अलवर राज्य के नौगमा ग्राम में स्थित दिगम्बर जैन मन्दिर में श्री अनन्तनाथ जो की एक कायोत्सर्ग मूर्ति है, जिसके आसन पर लिखा है कि सं. १९७५ में आचार्य विजयकीर्ति के शिष्य नरेन्द्रकीर्ति ने उसकी प्रतिष्ठा की थी। - देवगढ़ (झांसी) के पुरातत्व में दिगम्बर पुनि-देवगढ़ (झांसी) का पुरातत्व वहाँ तेरहवीं शताब्दि तक दिगम्बर मुनियों के उत्कर्ष का द्योतक है। नग्न मूर्तियों से सारा पहाड़ ओतप्रोत है। उन पर के लेखों से प्रकट है कि ११वीं शताब्दि में वहाँ एक शुभदेवनाथ नामक प्रसिद्ध मुनि थे। सं. १२०९ के लेख में दिगम्बर गुरुओं को भक्त आर्यिका धर्मश्री का उल्लेख है। सं. १२२४ का शिलालेख पण्डित मुनि का वर्णन करता है। सं. १२०७ में वहाँ आचार्य जयकीर्ति प्रसिद्ध थे। उनके शिष्यों में भावनन्दि मुनि तथा कई आर्यिकायें थीं। धर्मनन्दि, कमलदेवाचार्य, नागसेनाचार्य व्याख्याता माघनन्दि, लोकनन्दि और गुणनन्दि नामक दिगम्बर मुनियों का भी उल्लेख मिलता है। नं. २२२ की मूर्ति मुनि आर्यिका श्रावक श्राविका इस प्रकार चतुर्विधसंघ के लिये बनी थी। गर्ज यह कि देवगढ़ में लगातार कई शताब्दियों तक दिगम्बर मुनियों का दौरदौरा रहा था। बिजौलिया (मेवाड़) में दिगम्बर साधुओं की मूर्तियाँ- बिजोलिया (पार्श्वनाथ - मेवाड़) का पुरातत्व भी वहाँ पर दिगम्बर मुनियों के उत्कर्ष को प्रकट करता है। वहाँ पर कई एक दिगम्बर पुनियों की नग्न प्रतिमायें बनी हुई हैं। एक मानस्तम्भ पर तीर्थकरों की मूर्तियों के साथ दिगम्बर पुनिगण के प्रतिबिम्ब व चरणचिन्ह अंकित हैं। दो मुनिराज शास्त्रस्वाध्याय करते प्रकट किये गये हैं। उनके पास कमंडल, पिच्छी रखे हुए हैं। वे अजमेर के चौहान राजाओं द्वारा मान्य थे। शिलालेखों से प्रकट है कि वहाँ पर श्री मूलसंघ के दिगम्बराचार्य श्री बसन्तकीर्तिदेव, विशालकीर्तिदेव, मदनकीर्तिदेव, धर्मचन्द्रदेव, रत्नकीर्तिदेव, प्रभाचन्द्रदेव, पद्मनन्दिदेव और शुभचन्द्रदेव विद्यमान थे।" इनको चौहान राजा १.[bid. p. 191. २. [hid p. 195. ३. देजे., पृ. १३- २५ | ४. दिजैडा, पृ. ५०१ । ५. मप्र जैस्मा, पृ. ११३ | दिगम्बरत्व और दिगम्बर भुनि (133) Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथ्वीराज और सोमेश्वर ने जैन मन्दिर के लिये ग्राम भेंट किये थे।' सारांशतः बिजोलिया में एक समय दिगम्बर मुनि प्रभावशाली हो गये थे। अंतरी की गुमकाओं में विशाबर मुजि - अंजनेरी और अंकई (नासिक जिला) को जैन गुफायें वहाँ पर १२ वी १३ वीं शताब्दि में दिगम्बर मुनियों के अस्तित्व को प्रकट करती हैं। पांडु लेना गुफाओं का पुरातत्व भी इसी बात का समर्थक है। बेलगाम के पुरातत्व और राजपान्य दिगम्बर मुनि - बेलगाम का पुरातत्व वहाँ पर १२वी १३वीं शताब्दि में दिगम्बर मुनियों के महत्व को प्रकट करते हैं, जो राज मान्य थे। यहाँ के राट्ट राजाओं ने जैन पुनियों का सम्मान किया था, यह उनके लेखों से प्रकट है। सन् १२०५ के लेख में वर्णन है कि बेलगाम में जब राट्टराजा कीर्तिवर्मा और मल्लिकार्जुन राज्य कर रहे थे तब श्री शुभचन्द्र भट्टारक की सेवा में राजा बोचा के बनाये गये राष्ट्रों के जैन मंदिर के लिये भूमिदान किया गया था। एक दूसरा लेख भी इन्हीं राजाओं द्वारा शुभचन्द्र जी को अन्य भूमि अर्पण किये जाने का उल्लेख करता है। इसमें कार्तवीर्य की रानी का नाम पद्मावती लिखा है। सचमुच उस समय वहाँ पर दिगम्बर मुनियों का काफी प्रभुत्व था। बेलगामान्तर्गत कोनूर स्थान से भी सट्टराजा का एक शिलालेख शाका १००९ का मिला है, जिसका भाव है कि “चालुक्यराजा जयकर्ण के आधीन राट्टराज मण्डलेश्वर सेन कोनूर आदि प्रदेशों पर राज्य करता था, तब बलात्कारगण के वंशधरों को इन नगरों का अधिपति उसने बना दिया था। यहाँ के जैन मन्दिरों को चालुक्य राजा कोन व जयकर्ण द्वारा दान दिये जाने का उल्लेख मिलता है। * इनसे दिगम्बर मुनियों का महत्व स्पष्ट है। बेलगाम जिले के कलहोले ग्राम में एक प्राचीन जैन मन्दिर है, जिसमें एक शिलालेख राट्टराजा कार्तवीर्य चतुर्थ और पल्लिकार्जुन का लिखाया हुआ मौजूद है। उसमें श्री शांतिनाथ जी के मन्दिर को भूमिदान देने का उल्लेख है। मन्दिर के गरु श्री मूलसंघ कुन्दकुन्दाचार्य की शाखा हणसांगी वंश के थे। इस वंश के तीन गुरु मलधारी १. राइ., पृ. ३६३। २. यंप्राजैस्मा., पृ. ५७-५९ | ३, बंप्राजेस्मा.., पृ.७४-७५ | ४. Iljid, pp. 882-81. (134) दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे, जिनके एक शिष्य सैद्धान्तिक नेमिचन्द्र थे। श्री नेमिचन्द्र के शिष्य शुभचन्द्र थे, जिन्होंने दिगम्बर धर्म की उन्नति की थी। उनके शिष्य 'श्री ललितकीर्ति थे। बेलगाम जिले में स्थित रायबाग ग्राम में भी एक जैन शिलालेख राट्टराजा कार्तवीर्य का है। उससे विदित है कि कार्तवीर्य ने भगवान रामचन्द्र जी को शाका ११२४ में राष्ट्रों के उन जैन पन्दिरों के लिये दान दिया था। इससे चन्द्रिकादेवी का दिगम्बर मुनियों और तीर्थंकरों का भक्त होना प्रकट है। बीजापुर क्लेि की गर्मियों दिगम्बर मनियों की द्योतक - बोजापुर के किले की दिगम्बर मूर्तियां सं. १००१ में श्री विजयसूरी द्वारा प्रतिष्ठित हैं। उनसे प्रकट है कि बीजापुर में उस समय दिगम्बर मुनियों की प्रधानता थी। तेवरी की दिगम्बर मूर्ति - तेवरी (जबलपुर) के तालाब में स्थित दिगम्बर जैन मन्दिर की मूर्ति पर बारहवीं शताब्दि का लेख है कि "मानादित्य की स्त्री रोज नपन करती हैं। इससे वहाँ पर जैन मुनियों का राजमान्य होना प्रकट है। दिल्ली के लेखों में दिगम्बर मुनि - दिल्ली नया मन्दिर कटघर की मूर्तियों पर के लेख १५ वीं शताब्दि में वहाँ दिगम्बर पनियों का अस्तित्व प्रकट करते हैं। श्री आदिनाथ की मूर्ति पर लेख है कि “सं.१४२८ ज्येष्ठ सुदी १२ सोमवासरे काष्ठासंघे माथुरान्वये भ. श्रीदेवसेनदेवास्तस्पट्टे त्रयोदशविधचारित्रेनालंकृताः सकल विपल मुनिमंडली शिष्यः शिखापण्णयः प्रतिष्ठाचार्यवर्य श्री विमलसेन देवास्तेषामुपदेशेन जाइसवालान्वयें सा, पुइपति। इत्यादि।" इन्हीं मुनि विमलसेन की शिष्या आर्यिका पुणश्री विमल श्री थी, यह बात उसी मन्दिर की एक अन्य मूर्ति पर के लेख से प्रकट है। लखनऊ के मूर्ति-लेख में निग्रंथाचार्य - लखनऊ चौक के जैन मन्दिर में विराजमान श्री आदिनाथ की मूर्ति पर के लेख से विदित है कि सं. १५०३ में श्री भगवान सकलकीर्ति जी के शिष्य श्री निग्रंथाचार्य विमलकीर्ति थे, जिनका उपदेश और बिहार चहुं ओर होता था। ____चावलपट्टी (बंगाल) के जैन पन्दिर में विराजमान दशधर्म यंत्रलेख से प्रकट है कि सं. १५८६ में आचार्य श्री रत्नकीर्ति के शिष्य मुनि ललितकीर्ति विद्यमान थे जिनकी भक्ति भ्रमरीबाई करती थी। १. pp. 82-83. २. Ibid. p.87. ३. Ibid. p. 108. ४. दिजैडा, पृ. २८७। ५. जैप्रयलें सं., पृ. २५। दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि (135) : Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलकत्ता की पूर्तियों और दिगम्बर मुनि - यहीं के एक अन्य सम्यक ज्ञान यंत्र के लेख से विदित होता है कि सं. १६३४ में बिहार में भगवान धर्मचन्द्र जो के शिष्य मनि श्री बाहन्दि का बिहार और धर्मप्रचार होता था।' . एटा, इटावा और मैनपुरी के पुरातत्व में दिगम्बर मुनि- कुरावली (मैनपुरी) के जैन मन्दिर में विराजमान सम्यग्दर्शन यंत्र पर के लेख से प्रकट है कि सं. १५७८ में मुनि विशालकीर्ति विद्यमान थे। उनका विहार संयुक्त प्रान्त में होता था।' अलीगंज (एटा) के लेखों से मुनि माधनंदि और मनि धर्मचन्द्र जी का पता चलता है।' इटावा नशियाँजी पर कतिपय जैन स्तूप हैं और उन पर के लेख से यहाँ अठारहवीं शताब्दी में पनि विजयसागर जी का होना प्रमाणित होता है। उधर पटना के श्री हरकचंद वाले जैन मन्दिर में सं. १९६४ की बनी हुई दिगम्बर मुनि की काष्ठमूर्ति विद्यमान है।५।। सारांशतः उत्तर भारत और महाराष्ट्र में प्राचीनकाल से बरावर दिगम्बर मुनि होते आये हैं, यह बात उक्त पुरातत्व विषयक साक्षी से प्रमाणित है। अब यह आवश्यक नहीं है कि और भी अनगिनत शिलालेखादि का उल्लेख करके इस व्याख्या को पुष्ट किया जाय। यदि सब ही जैन शिलालेख यहाँ लिखे जायें तो इस ग्रंथ का आकार-प्रकार तिगुना-चौगुना बढ़ जायेगा, जो पाठकों के लिये अरुचिकर होगा। दक्षिण भारत का पुरातत्व और दिगम्बर मुनि- अच्छा तो अब दक्षिण भारत के शिलालेखादि पुरातत्व पर एक नजर डाल लीजिये। दक्षिण भारत की पाण्डवमलय आदि गफाओं का परातत्व एक अति प्राचीन काल में वहाँ पर दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व प्रमाणित करता है। अनुमनामलें (ट्रावनकोर) की गुफाओं में दिगम्बर मुनियों का प्राचीन आश्रम था। वहाँ पर दीर्घकाय दिगम्बर मुर्तियाँ अंकित हैं। दक्षिण देश के शिलालेखों में मदूरा और रामनंद जिलों से प्राप्त प्रसिद्ध ब्राह्मीलिपि के शिलालेख अति प्राचीन हैं। वह अशोक की लिपि में लिख हये हैं। इसलिये इनको ईस्वी पूर्व तीसरी शताब्दि का सपझना चाहिये। यह जैन मन्दिरों के पास बिखरे हये मिले हैं और इनके निकट ही तीर्थकरों की नग्न पर्तियाँ भी थीं। अतः इनका सम्बन्ध जैन धर्म से होना बहुत कुछ संभव हैं। इनसे स्पष्ट है कि ईस्वी पूर्व तीसरी शताब्दि से ही जैन मुनि दक्षिण भारत में प्रचार करने लगे थे। इन शिलालेखों के अतिरिक्त दक्षिण भारत में दिगम्बर मुनियों से सम्बन्ध रखने वाले सैंकड़ों शिलालेख हैं। उन सबको यहाँ उपस्थित करना असम्भव हैं। हाँ, उनमें कुछ १. जैयप्रयलें सं., पृ. २६। २. प्राजेलेसं, पृ. ४६। 3. Ibid. p. 6o ४. lhid. pp. 90&91. 4. Mr. Ajitaprasada. Advaxcale, lucknow reports. "Patna Jais temple renovaled in 1944 V.S. by daughter in law or llarahchand. On the entrancu duor is the lifc-tize image in wood of a mul with u Kumandal in the right hand & the brokca end of what must have hcen a Pichi in tlic kr. ६. SSIJ. PL.I. pp.35. दिगम्बरत्व और दिसम्बर मुनि (13) Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक का परिचय हम यहाँ पर अंकित करना उचित समझते हैं। अकेले श्रवणबेलगोल में ही इतने अधिक शिलालेख हैं कि उनका सम्पादन एक बड़ी पुस्तक में किया गया है। अस्तु श्रवणबेलगोल के शिलालेखों में प्रसिद्ध दिगम्बर साधुगण- पहले श्रवण बेलगोल के शिलालेखों से हो दिगम्बर मुनियों का महत्व प्रमाणित करना श्रेष्ठ हैं। शक सं. ५२२ के शिलालेखों से वहाँ पर श्रुतकेवली भद्रबाहु और मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त का परिचय मिलता है। इन दोनों महानुभावों ने दिगम्बर-वेष में श्रवण-बेलगोल को पवित्र किया था।' शक सं. ६२२ के लेख में पौनिगुरु की शिष्या नागमति को तीन मास का व्रत धारण करके समाधिमरण करते लिखा है। इसी समय के एक अन्य लेख में चरितश्री नामक मनि का उल्लेख है।'धर्मसेन, बलदेव, पट्टिनिगुरू, उग्रसेन गुरु, गुणसेन, पेरुभालु, उल्लिकल, तीर्थद, कुलापक आदि दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व भी इसी समय प्रमाणित हैं। शक सं. ८९६ के लेख से प्रकट है कि गंगराजा पारसिंह ने अनेक लड़ाइयाँ लड़कर अपना भुजविक्रम प्रकट किया था और अतं में अजितसेनाचार्य के निकट बंकापुर में समाधिमरण किया था। ___ तार्किकचक्रवर्ती श्री देवकीर्ति-शक संवत् १०८५ के लेख से तार्किकचक्रवर्ती श्री देवकीर्ति मुनि का तथा उनके शिष्य लक्खनन्दि, माधवेन्दु और त्रिभुवनमल्ल का पता चलता है। उनके विषय में कहा गया है “कुर्नेगाः कपिल-बादिलनोग-सन्हये। चावकि-वादि-मकराकर-वाडवाग्नये। बौद्धप्रवादितिमिरप्रविभेदभानवे. श्री देवकीर्तिमुनये कविवादिवाग्मिने।।" "चतुम्मुख चतुर्वक्त निर्गमागपदुस्सहा! देवकीर्तिमुखाम्भोजे नृत्यत्तीति सरस्वती।।" सचमुच मुनि देवकीर्ति जी अपने समय के अद्वितीय कवि, तार्किक और वक्ता थे। वे महामण्डलाचार्य और विद्वान थे और उनके समक्ष सांख्यिक, चार्वाक, नैयायिक, वेदान्ती, बौद्ध आदि सभी दार्शनिक हार मानते थे।"५ १. जैशिस. पृ.१-२॥ २. [bid p-3. ३. bid pr 1-18 ४. Ibid P.0. ५.जैशिसं., पृ.२३-२४।। दिगम्बात्व और दिगम्बर मुनि (137) Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मुनि श्री श्रुतकीर्ति - उक्त समय के एक अन्य शिलालेख में मुनि देवकीर्ति को गुरु परम्परा रही है, जिसमे प्रकट है कि पुनि कनकनन्दि और देवचंद्र की भ्राता श्रुतकीर्ति त्रैविध पुनि ने देवेन्द्र सदृश विपक्षवादियों को पराजित किया था और एक चमत्कारी काव्य राधव-पांडवोय की रचना की थी, जो आदि से अन्त को व अन्त से आदि को दोनों ओर पढ़ा जा सके। इससे प्रकट है कि उपयुक्त मुनि देवकीर्ति के शिष्य यादव- नरेश नारसिंह प्रथम के प्रसिद्ध सेनापति और मंत्री हुल्लप थे।' श्री शथचन्द्र और रानी जवक्कणव्वे- शक सं. १०९९ के लेख में मंत्री नागदेव के गुरु श्री नयकीर्ति योगीन्द्र व उनको गुरु परंपरा का उल्लेख है। शक सं. १०४५ लेख से प्रकट है कि होयसाल महाराज गंग नरेश विष्णवर्द्धन ने अपने गुरु शुभचंद्रदेव की निषद्या निर्माण कराई थी। इनकी भावज जवक्कणव्वे को जैन धर्म में दृढ़ श्रद्धा थी और वह दिगम्बर मुनियों को दानादि देकर सत्कार किया करती थी।' उनके विषय में निम्न प्रकार का उल्लेख किया है - "दोरेये जक्कणिकव्वेगी मुवनदोल् चारित्रदोल् शोलदोल् परमश्रीजिनपूजेयौल् सकलदानाश्चर्यदोल् सत्यदोल। गुरुपादाम्बुजभक्तियोल विनयदोल भव्यर्कलंकन्ददा दरिदं मुन्निसुतिर्प पेम्पिनेडेयोल् पत्तन्यकान्ताजनम् ।।" श्री गोल्लाचार्य प्रभृत अन्य दिगम्बराचार्य - शक सं. १०३७ के लेख में है कि मुनि त्रैकाल्य योगी के तप के प्रभाव से एक ब्रह्मराक्षस उनका शिष्य हो गया था। उनके स्मरण मात्र से बड़े-बड़े भूत भागते थे। उनके प्रताप से करंज का तेल धृत में परिवर्तित हो गया था। गोल्लाचार्य मुनि होने के पहले गोल्ल देश के नरेश थे। नूल चन्दिल नरेश के वंश के चूडामणि थे। सकलचन्द्रमुनि के शिष्य मेघचंद्र विद्य थे। जो सिद्धान्त में बोरसेन तक में अकलंक और व्याकरण में पूज्यपाद के समान विद्वान थे। शक सं. १०४४ के लेख में दण्डनायक गंगराज की धर्मपत्नी लक्ष्मीमति के गुण, शील और दान की प्रशंसा है। वह दिगम्बराचार्य श्री शुभचन्द्र जी की शिष्या थी। इन्ही आचार्य की एक अन्य धर्मात्मा शिष्या राजसम्मानित चापुण्ड को स्त्री देवमति थी। शक सं. १०६८ के लेख में अन्य दिगम्बर मुनियों के साथ श्री शुभकीर्ति आचार्य का उल्लेख है, जिनके सम्मुख बाद में बौद्ध मीमांसकादि कोई भी नहीं ठहर सकता था। इसी में प्रभाचन्द्र जी को शिष्या, विष्णुवर्द्धन नरेश की पटरानी शांतलदेवी की धर्मपरायणता का भी उल्लेख है। १. bid. pp.24-30 २. Ibid. pp. 33-42. ३. Ibid. pp.43-49. ४. Ibid. pp.5x6-66. ५. Ibid, pp.67-70 ६. Ibid. pp. 40-81. (138) दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक सं. १०५० के लेख में श्री महावीर स्वामी के बाद दिगम्बर मुनियों का मौर्य का शिष्य परम्परा का बखान है जिसमें श्रुतकेवली भद्रबाहु और सम्राट चन्द्रगुप्त भी उल्लेख है। कुन्दकुन्दाचार्य के चारित्र गुणादि का परिचय भी एक श्लोक द्वारा कराया गया है। - श्री कुन्दकुन्द और समन्तभद्र आचार्य इन आचार्यों को एक अन्य शिलालेख में मूलसंघ का अग्रणी लिखा है। उन्होंने चारित्र की श्रेष्ठता से चारणऋद्धि प्राप्त की थी, जिसके बल से वह पृथ्वी से चार अंगुल ऊपर चलते थे। श्री समन्तभद्राचार्य जी के विषय में कहा गया है। "पूर्व्वं पाटलिपुत्र-मध्य- नगरे भेरी पया ताड़िता पश्चान्मालव- सिन्धु-ठक्क - विषये कांचीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहंकरहाटकं बहु - भटं विद्योत्कटं संकटम् वदार्थी विचराम्यहन्नरपते शार्दूलविक्रीडितम् ॥७॥ अवटु तटमटतिझटिति स्फुट पटु वाचाट धूर्जटेरपि जिह्वा वादिनि समन्तभद्रे स्थितवतितवसदसि भूपकास्थान्येषां || ८ || ” भाव यही है कि समन्तभद्रस्वामी ने पहले पाटलिपुत्र नगर में वादभेरी बजाई थी । तदोपरान्त वह मालव, सिंधु पंजाब कांचीपुर विदिशा आदि में वाद करते हुये करहाटक नगर (कराड़) पहुंचे थे और वहाँ की राजसभा में वाद गर्जना की थी। कहते है कि वादी समन्तभद्र की उपस्थिति में चतुराई के साथ स्पष्ट शीघ्र और बहुत बोलने वाले धूर्जटि को जिल्ला ही जब शीघ्र अपने बिल में घुस जाती है, उसे कुछ बोल नहीं आता तो फिर दूसरे विद्वानों की कथा ही क्या है? उनका अस्तित्व तो समन्तभद्र के सामने कुछ भी महत्व नहीं रखता। सचमुच समन्तभद्राचार्य जैन धर्म के अनुपम रत्न थे। उनका वर्णन अनेक शिलालेखों में गौरवरूप से किया गया है। तिरुमकूडलु नरसीपुर ताल्लुके के शिलालेख नं. १०५ के निम्न पद्म में उनके विषय में ठीक ही कहा गया है कि समन्तभद्रस्संस्तुत्यः कस्य न स्यान्मुतिश्वरः । वाराणसीश्वरस्याग्रे निर्जिता येन विद्विषः । । अर्थात् वे समन्तभद्र मुनीश्वर जिन्होंने वाराणसी (बनारस) के राजा के सामने शत्रुओं को, मिथ्यैकान्तवादियों को परास्त किया है, किसके स्तुतिपात्र नहीं है? वे सभी के द्वारा स्तुति किये जाने के योग्य हैं। " . शिवकोटि नामक राजा ने श्री समन्तभद्र जी के उपदेश से ही जैनेन्द्रिय दीक्षा ग्रहण की थी। . Ibid. Intro. p. 140. दिगम्बराय और दिगम्बर मुनि (139) Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वक्रग्रीव आदि दिगम्बराचार्य - दिगम्बराचार्य श्री वक्रग्रीव के विषय में उपयुक्त श्रवणबेलगोलीय शिलालेख बताता है कि वे छः मास तक "अथ" शब्द का अर्थ करने वाले थे। श्री पात्रकेसरी के गरु विलक्षण सिद्धान्त के खण्डनकर्ता थे। श्री वद्धदेव चूडामणि काव्य के कर्ता कवि दण्डी द्वारा स्तुत्य थे। स्वामी महेश्वर ब्रह्मराक्षसों द्वारा पूजित थे। अकलंक स्वामी बौद्धों के विजेता थे। उन्होंने साहस तंग नरेश के सन्मुख हिमशीतल नरेश की सभा में उन्हें परास्त किया था। विमलचन्द्र पुनि ने शैव पाशुपतादिवादियों के लिये “शत्रभयंकर के भवनद्वार पर नोटिस लगा दिया था, पर वादिमल्ल ने कृष्णराज के समक्ष वाद किया था। मुनि वादिराज ने चालुक्यचक्रेश्वर जयसिंह के कटक में कीर्ति प्राप्त की थी। आचार्य शान्तिदेव होयसाल नरेश विनयादित्य द्वारा पूज्य थे। चतुर्मुखदेव मुनिराज ने पाण्डय नरेश से “स्वामी" की उपाधि प्राप्त की थी, और आहषमल्लनरेश ने उन्हें "चतुर्मुखदेव रूपी सम्मानित नाप दिया था। गर्ज यह कि यह शिलालेख दिगम्बर मुनियों के गौरव गाथा से समन्वित है।' दिगम्बराचार्य श्री गोपनन्दि - शक सं. १०२२ (नं. ५५) के शिलालेख से जाना जाता है कि मलसंघ देशीयगण आचार्य गोपनन्दि बहप्रसिद्ध हये थे। वह बड़े पारी कवि और तर्क प्रवीण थे। उन्होंने जैन धर्म की वैसी हो उन्नति की थी जैसी गंगनरेशों के समय हुई थी। उन्होंने धूर्जटिकी जिह्वा को भी स्थगित कर दिया था। देश देशान्तर में बिहार करके उन्होंने सांख्य, बौद्ध, चार्वाक, जैमिनि, लोकायत आदि विपक्षी मतों को हीनप्रभ बना दिया था। वह परमतप के निधान प्राणीमात्र के हितैषी और जैन शासन के सकल कलापूर्ण चन्द्रमा थे।' होयसल नरेश एऐयंग उनके शिष्य थे, जिन्होंने कई ग्राम उन्हें भेंट किये थे।' धारानरेश पूजित प्रभाचन्द्र - इसी शिलालेख में मुनि प्रभाचन्द्र जी के विषय में लिखा है कि वे एक सफल वादी थे और धारानरेश भोज ने अपना शीश उनके पवित्र चरणों में रखा था।" श्री दामनन्दि - श्री दामनन्दि पनि को भी इस शिलालेख में एक महावादी प्रकट किया गया है जिन्होंने बौद्ध, नैयायिक और वैष्णवों को शास्त्रार्थ में परास्त किया था। वादी, महावादी "विष्णु भट्ट" को परास्त करने के कारण वे "महावादि विष्णुभट्टघरट्ट" कहे गये हैं।" १. जैशिसं., पृ. १०१-११४। २. जैशिसं., पृ. ११७ “परमतपो निधाने, वसुधैककुटुम्बजैन शासनाम्बर परिपूर्णचन्द्र सकलागम तत्व पदार्थ शास्त्र विस्तर वचनाभिरामगुण रत्न विभूषण गोपणन्दिः ।" ३. जैशिसं., पृ. ३९५। ४, जैशिसं., पृ. ११८॥ ५. जैशिसं., पृ. ११८॥ दिगम्मरत्व और दिगम्बर मुम (140) Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनचन्द्र - श्री जिनचन्द्र मुनि को यह शिलालेख व्याकरण में पूज्यपाद, तर्क में भट्टाकलंक और साहित्य में भारवि बतलाता है।' चालुक्य नरेश पूजित श्री वासवचन्द्र - श्री वासवचन्द्र मुनि ने चालुक्य नरेश के कटक में "बाल सरस्वती की उपाधि प्राप्त की थी, यह भी इस शिलालेख से प्रकट है। स्याद्वाद और तर्कशास्त्र में यह प्रवीण थे।' सिंहल नरेश द्वारा सम्मानित यशः कीर्तिमुनि - श्री यशःकोर्तिमुनि को उक्त शिलालेख सार्थक नाम बताता है। वे विशाल कीर्ति को लिये हुये स्याद्वाद सूर्य ही थे। बौद्धावादियों को उन्होंने परास्त किया था तथा सिंहल नरेश ने उनके पूज्यपादों का पूजन किया था।' श्री कल्याणकीर्ति - श्री कल्याणकीर्ति पुनि को उक्त शिलालेख जीवों के लिये कल्याणकारक प्रकट करता है। वह शाकनी आदि बाधाओं को दूर करने में प्रवीण थे। श्री त्रिमष्टि मनीन्द्र बड़े सैद्धान्तिक बताये गये हैं। वे तीन मही अत्र का ही आहार करते थे। सारांश यह कि उक्त शिलालेख दिगम्बर मुनियों की गौरव गाथा को जानने के लिये एक अच्छा साधन है।' वादीन्द्र अभयदेव - शक सं. १३२० (नं. १०५) के शिलालेख में भी अनेक दिगम्बराचार्यों की कीर्तिगाथा का बखान है। वादीन्द्र अभयदेवसूरि ने बौद्धादि परवादियों को प्रतिभाही- ना दिन - गही बाजाचार्ग चारुकीर्ति के विषय में कही गई है। . होयसाल वंश के राजगुरु दिगम्बर मुनि- शक सं. १२०५ (नं. १२९) में होयसाल वंश के राजगुरु महामण्डलाचार्य माघनन्दि का उल्लेख है, जिनके शिष्य बेलगोल केजौहरी थे। १. जैनेन्द्र पूज्य (पादः) सकलसमयतक्के च मट्टाकलंकः । साहित्ये पारविस्स्यात्कवि गमक-महावाद-वाग्मित्व-रून्द्रः गौते पाये च नृत्ये दिशि विदिश च संवर्ति सत्कीर्ति मूर्तिः। स्थेयाश्कीयोगिवृन्दार्चितपद जिनचन्द्रो वितन्द्रोमुनीन्द्रः।। - thid. p. 253. २. जैशिसं., पृ.११९-"चालुक्य-कटक-मध्ये बाल सरस्वतिरिति प्रसिद्धि प्राप्तः।' ३. "श्रीमान्यशःकीर्ति-विशालकीर्ति स्याद्वाद ताज-विवोधनावकः | बौद्धादि-वादि-द्विप-कुम्भ भेदी श्री सिंहलाधीश कृतार_ पाद्य ।। २६।।" ४. कल्याणकीर्ति नामाभूतभव्य कल्याण कारकः। शाकिन्ययादि ग्रहाणांच निर्द्धाटनदुर्द्धरः। -जैशिसं., पृ. १२१ ५.“मुष्टि-त्रय-प्रपिताशन-तुष्टः शिष्ट प्रियस्त्रिमुष्टिमुनीन्द्रः।" ६. जैशिसं., पृ. १९८-२०७ ७.Ibid. p. 253/ दिगम्बरत्व और दिगम्म पुनि (141) Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगी दिवाकरनन्दि - नं. १३९ के शिलालेख में योगी दिवाकरनन्दि तथा उनके शिष्यों का वर्णन है। एक गन्ती नामक भद्र महिला ने उनसे दीक्षा लेकर समाधिमरण किया था।' एक सौ आठ वर्ष तप करने वाले दिगम्बर मुनि - नं. १५९ शिलालेख प्रकट करता है कि कालन्तर के एक मनिराज ने कटवा पर्वत पर एक सौ आठ वर्ष तक तप करके समाधिमरण किया था। गर्ज़ यह कि श्रवणबेलगोल के प्रायः सब ही शिलालेख दिगम्बर मुनियों को कीर्ति और यशः को प्रकट करते हैं। राजा और रंक सब हो का उन्होंने उपकार किया था। रणक्षेत्र में पहुंचकर उन्होंने वीरों को सन्मार्ग सुझाया था। राजा रानी, स्त्री-पुरुष सब ही उनके भक्त थे। दक्षिण भारत के अन्य शिलालेखों में दिगम्बर मुनि - श्रवणबेलगोल के अतिरिक्त दक्षिणभारत के अन्य स्थानों से भी अनेक शिलालेख मिले हैं, जिनसे दिगम्बर मुनियों का गौरव प्रकट होता है। उनमें से कुछ का संग्रह प्रो. शेषगिरिराव ने प्रकट किया है जिससे विदित होता है कि दिगम्बर मुनि इन शिलालेखों में यम-नियम-स्वाध्याय-ध्यान धारण-मौनानुष्ठान-जप-समाधि-शीलगुण-सम्पत्र लिखे गये हैं। उनका यह विशेषण उन्हें एक सिद्धको कन्ट करता है। प्रो. आ. उनके विषय में लिखते हैं कि - "From these epigraphs we learn some details about the great asectics and acharyas who spread the gospel of Jainism in the Andhra-Karoala desa. They were not only the Icader of lay and ascetic disciples but of royal dynasties of warrior clans that held the destinics of the peoples of these lands in their hands. *** भावार्थ - “ उक्त शिलालेख संग्रह से उन महान दिगम्बर मुनियों और आचार्यों का परिचय मिलता है जिन्होंने आन्ध्र कर्णाट देश में जैन धर्म का संदेश विस्तृत किया था। ये पात्र श्रावक और साधु शिष्यों के ही नेता नहीं थे बल्कि उन क्षत्रिय कलों के राजवंशों के भी नेता थे जिनके हाथों में उन देश की प्रजा के भाग्य को बागडोरथी।" १.bid. p. 289. २. bid. p. 308. . ३. SSU. PL]] p.6. ४. bid. p. 68. (142) दिगम्बात्त्व और दिगम्बर मुनि Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बराचार्यों का महत्वपूर्ण कार्य - सचमुच दिगम्बर मुनियों ने बड़े-बड़े राज्यो की स्थापना और उनके संचालन में गहरा भांग लिया था। पुलल (पास) के पुरातत्व में प्रकट है कि उनके एक दिगम्बराचार्य ने असभ्य कुटुम्बों को जैन धर्म में दीक्षित करके सभ्य शायक बना दिया था। वे जैन धर्म के महान रक्षक थे और उन्होंने धर्म लगन से प्रेरित होकर बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी थीं। उन्होंने ही क्या बल्कि दिगम्बगचार्यों के अनेक राजवंशी शिष्यों ने धर्म संग्राम में अपना भूज विक्रम प्रकट किया था। जैन शिलालेख उनकी रण-गाथाओं से ओतप्रोत है। उदाहरणतः गंगसेनापति क्षत्रचूड़ामणि श्री चामुण्डराय को ही लीजिये, वह जैन धर्म के द्रढ़ श्रद्धानी ही नहीं बल्कि उसके तल्व के ज्ञाता थे। उन्होनें जैन धर्म पर कई श्रेष्ठ ग्रंथ लिखे हैं और वह श्रावक के धर्माचार का भी पालन करते थे, किन्तु उस पर भी उन्होंने एक नहीं अनेक सफल संग्रामों में अपनी तलवार का जौहर जाहिर किया था। सचमुच जैन धर्म मनुष्य को पूर्ण स्वाधीनता का सन्देश सुनाता है। जैनाचार्य निःशंक और स्वाधीन होकर वही धर्मोपदेश जनता को देते हैं जो जनकल्याणकारी हो। इसलिये वह "वसुधैवकुटुम्बक कहे गये हैं। भीरुता और अन्याय तो जैन मुनियों के निकट फटक भी नहीं सकता है। प्रो.सा. के उक्त संग्रह में विशेष उल्लेखनीय दिगम्बराचार्य श्री भावसेन त्रैवेध चक्रवर्ती जो वादियों के लिये पहाभयानक ( TError do displant) थे वह और बवराज के गुरु (Preceptor of Bava King) श्री भावन्दि पुनि हैं। अन्य श्रोत से प्रकट है कि - बाद के शिलालेखों में दिगम्बर मुनि - सन् १४७८ ई. में जिजी प्रदेश में दिगम्बराचार्य श्री वीरसेन बहुत प्रसिद्ध हुए थे। उन्होंने लिंगायत-प्रचारकों के समक्ष बाद में विजय पाकर धोद्योत किया था और लोगों को पुनः जैन धर्म में दीक्षित किया था। कारकल में गजा कोरपाड्य ने दिगम्बराचार्यों को आश्रय दिया था और उनके द्वारा सन् १४३२ में श्री गोम्मट मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी जिस उन्होंने स्थापित कराया था। एक ऐसी ही दिगम्बर मूर्ति को स्थापना वेणूर में सन् १६०४ में श्री तिम्पराज द्वारा की गई थी। उस समय भी दिगम्बराचार्यों ने धोयोत १.OIL, P. 2.6. २. वीर, वर्ष ७, पृ. २-११ । ३.SSLI. Ft. VI. pp. 61-62. ४. वीर वर्ष ५ पृ. २४९ । दिशाबरत्व और दिगम्बर मुनि (143) Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया था। सन् १५३० के एक शिलालेख से प्रकट है कि श्रीरंग नगर का शासक विधर्मी हो गया था उसे जैन साधु विद्यानन्द ने पुनः जैन धर्म में दीक्षित किया था।' दिगम्बर मुनि श्री विद्यानन्द इसी शिलालेख से यह भी प्रकट है कि "इन मुनिराज ने नारायण पट्टन के राजा नंददेव को सभा में नंदनमल्ल भट्ट को जीता, सातवेन्द्र राज केशरीवर्मा की सभा में बाद में विजय पाकर "वादी” विरुद्ध पाया, सालुवदेव राजा की सभा में महान विजय पाई, ब्रिलिंगे के राजा नरसिंह की सभा में जैन धर्म का महात्म्य प्रकट किया कारकल नगर के शासक भैरव राजा की सभा में जैन धर्म का प्रभाव विस्तारा, राजा कृष्णराय की राजसभा में विजयी हए, कोपन व अन्य तीर्थों पर महान उत्सव कराये, श्रवणबेलगोल के श्री गोम्मटस्वामी के चरणों के निकट आपने अमृत की वर्षा के समान योगाभ्यास का सिद्धान्त मुनियों को प्रकट किया, गिरसप्पा में प्रसिद्ध हुये। उनकी आज्ञानुसार श्रीवरदेव राजा ने कल्याण पूजा कराई और वह संगी राजा और पद्मपुत्र कृष्णदेव सं पूज्न थे। ' वह एक प्रतिभाशाली साधु थे और उनके अनेक शिष्य दिगम्बर मुनिगण थे। रे सारांशतः दक्षिण भारत के पुरातत्व से वहाँ दिगम्बर मुनियों का प्रभावशाली अस्तित्व एक प्राचीन काल से बराबर सिद्ध होता है। इस प्रकार भारत भर का पुरातत्त्व दिगम्बर जैन मुनियों के महान उत्कर्ष का द्योतक हैं। १. जैध, पृ. ७० व DG २. मजैस्मा, पृ. ३२०-३३१ ॥ (144) दिगम्बस्व और दिगम्बर मुनि Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४] विदेशों में दिगम्बर मुनियों का विहार 'India had pre-eminently been the cradle of culture and it was from this country that other nations had understood even the rudiments of culture. For example, they were told, the Buddhistic missionaries and Jaina monks wentforth to Greece and Rome and to places as far as ,1 Norwary and had spread their culture." -Prol. M.S.Ramaswamy Iyengar २ जैन पुराणों के कथन से स्पष्ट है कि तीर्थकरों और श्रमणों का विहार समस्त आर्यखंड में हुआ था। वर्तमान की जानी हुई दुनिया का समावेश आर्यखंड में हो जाता है। इसलिये यह मानना ठीक है कि अमेरिका, यूरोप, एशिया आदि देशों में एक समय दिगम्बर धर्म प्रचलित था और वहां दिगम्बर मुनियों का बिहार होता था। आधुनिक विद्वान् भी इस बात को प्रकट करते हैं कि बौद्ध और जैन भिक्षुगण यूनान, रोम और नारवे तक धर्म प्रचार करते हुये पहुंचे थे। किन्तु जैनपुराणों के वर्णन पर विशेष ध्यान न देकर यदि ऐतिहासिक प्रमाणों पर ध्यान दिया जाय, तो भी यह प्रकट होता है कि दिगम्बर मुनि विदेशों में अपने धर्म का प्रचार करने को पहुंचे थे। भगवान् महावीर के बिहार के विषय में कहा गया है कि वे आकनीय, वृकार्थप, वाल्हीक, यवनश्रुति, गांधार क्वाथतोय, ताण और कार्ण देशों में भी धर्म प्रचार करते हुये पहुंचे थे। ये देश भारतवर्ष के बाहर ही प्रकट होते हैं। आकनीय संभवतः आकसीनिया ((xiania) है। यवनश्रुति यूनान अथवा पारस्य का द्योतक हैं। बाल्होक बल्ख (Balkh) है। गाँधार कंधार है। क्वाथतोय रेड- सी (Red Sea) के निकट के देश हो सकते है। तार्ण कार्ण तूरान आदि प्रतीत होते हैं। इस दशा में कंधार यूनान, मिश्र आदि देशों में भगवान् का बिहार हुआ मानना ठीक है । ५ Y सिकन्दर महान् के साथ दिगम्बर मुनि कल्याण यूनान के लिये यहाँ से प्रस्थानित हो गये थे और एक अन्य दिगम्बराचार्य यूनान धर्म प्रचारार्थ गये थे, यह पहले लिखा जा चुका है। यूनानी लेखकों के कथन से बैक्ट्रिया (Bactria) और १. The "Hindu" of 25th July 1919 & JG.XV.27 २. भा. १५६ - १५७ । ३. हरिवंशपुराण, सर्ग ३, श्लो. ३७ । ४. बीर, वर्ष ९ अंक ७ ५. संजैइ., भा २, पृ. १०२-१०३ । दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि (145) Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इथ्यूपिया (Ethiopia) नामक देशों में श्रमणों के विहार का पता चलता है। ये श्रमणगण दिगम्बर जैन ही 4, क्योंकि पौद्ध प्रमाण रो काम अलोक के सारान्त विदेशों में पहुंचे थे। __ अफ्रीका के मिश्र और अबीसिनिया देशों में भी एक सपय दिगम्बर मुनियों का विहार हुआ प्रकट होता है, क्योंकि वहाँ की प्राचीन मान्यता में दिगम्बरत्व को विशेष आदर मिला प्रमाणित है। मिश्र में नग्न मूर्तियाँ भी बनी थी और वहाँ की कुमारी सेंटमेरी (St. Mary) दिगम्बर साधु के वेष में रही थी। मालूम होता है कि रावण की लंका अफ्रीका के निकट ही थी और जैनपुराणों से यह प्रकट ही हैं कि वहाँ अनेक जेन मन्दिर और दिगम्बर मुनि थे। यूनान में दिगम्बर मनियों के प्रचार का प्रभाव काफी हआ प्रकट होता है। वहाँ के लोगों में जैन मान्यताओं का आदर हो गया था। यहाँ तक कि डायजिनेस (Diogenes) और संभवतः परहो (Pyrrho of Elis) नामक यूनानी तत्ववेत्ता दिगम्बर वेष में रहे थे। पैर्रहो ने दिगम्बर मुनियों के निकट शिक्षा ग्रहण की थी। यूनानियों ने नग्न मूर्तियाँ भी बनाई थी, जैसे कि लिखा जा चुका है। जब यूनान और नारवे जैसे दूर के देशों में दिगम्बर मुनिगण पहुंचे थे, तो भला मध्य-एशिया के अरब ईरान और अफगानिस्तान आदि देशों में वे क्यों न पहुँचते।? सचमुच दिगम्बर मनियों का बिहार इन देशों में एक समय में हुआ था। मौर्य सम्राट सम्प्रति ने इन देशों में जैन श्रमणों का विहार कराया था, यह पहले हो लिखा जा चुका है। मालूम होता है कि दिगम्बर मुनि अपने इस प्रयास में सफल हुये थे, क्योंकि यह पता चलता है कि इस्लाम मजहब की स्थापना के समय अधिकांश जैनी अरब छोड़कर दक्षिण भारत में आ बसे थे' तथा ह्वेनसांग के कथन से स्पष्ट है कि ईस्वी सातवीं तक दिगम्बर मुनिगण अफगानिस्तान में अपने धर्म का प्रचार करते रहेथे। दिगम्बर मुनियों के धर्मोपदेश का प्रभाव इस्लाम-मज़हब पर बहुत-कुछ पड़ा प्रतीत होता है। दिगम्बरत्व के सिद्धान्त का इस्लाम-पज़हब में मान्य होना इस बात का साबूत है। अरबी कवि और तत्ववेत्ता अबु-ल-अला (Abu-L-Ala; १. Al.p.104 ३. AR.111.p.6 व जैन होस्टल मैगजीन, भाग ११, पृ.६। ३. भपा.,पृ.१६०-२०२।। %. N.J.Intro., p.2 & "Diogenes Lacrlius (IX 61 & 63) refers to the Gymnosophists and asserts that Pyrcho of Elis. the found Sccpticism came under their insluence and on his rcturn to Elis imitated their habits of lifc.' E.B.X11,753 ५. AR,1X.284 ६.हुभा,,पृ.३७ (145) दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ई. ९७३ - १०५८ ) की रचनाओं में जैनत्व की काफी झलक मिलती है। अबु-लू - अला शाकभोजी तो थे ही, परन्तु वह महात्मा गांधी की तरह यह भी मानते थे कि एक अहिंसक को दूध नहीं पीना चाहिये । मधु का भी उन्होंने जैनों की तरह निषेध किया था । अहिंसा धर्म को पालने के लिये अबु-ल् अला ने चपड़े के जूतों का पहनना भी बुरा समझा था और नग्न रहना वह बहुत अच्छा समझते थे। भारतीय साधुओं को अन्त समय अग्निचिता पर बैठकर शरीर को भस्म करते देखकर वह बड़े आश्चर्य में पड़ गये थे। इन सब बातों से यह स्पष्ट है कि अबु-लू - अला पर दिगम्बर जैन धर्म का काफी प्रभाव पड़ा था और उन्होंने दिगम्बर मुनियों को सल्लेखना व्रत का पालन करते हुये देखा था। वह अवश्य ही दिगम्बर मुनियों के संसर्ग में आये प्रतीत होते हैं। उनका अधिक समय बगदाद में व्यतीत हुआ १ था। लंका (Ceylon) में जैन धर्म को गति प्राचीन काल से है। ईस्वी पूर्व चौथी शताब्दि में सिंहलनरेश पाण्डुकाभय ने वहाँ के राजनगर अनुरुद्धपुर में एक जैन मन्दिर और जैन मठ बनवाया था। निग्रंथ साधु वहाँ पर निर्बाध धर्म प्रचार करते थे। इक्कीस राजाओं के राज्य तक वह जैन विहार और मठ वहाँ मौजूद रहे थे, किन्तु ई. पू. ३८ में राजा वट्टगापिनी ने उनको नष्ट कराकर उनके स्थान पर बौद्ध बिहार बनवाया था। उस पर भी, दिगम्बर मुनियों ने जैन धर्म के प्राचीन केन्द्र लंका या सिंहलद्वीप को बिल्कुल ही नहीं छोड़ दिया था। मध्यकाल में मुनि यशः कीर्ति इतने प्रभावशाली हुये थे कि तत्कालीन सिंहल नरेश ने उनके पाद-यों की अर्चना की थी। २ सारांशतः यह प्रकट है कि दिगम्बर मुनियों का विहार विदेशो में भी हुआ था । भारतेतर जनता का भी उन्होंने कल्याण किया था। . जैव. पृ. ४६६ / २. महावंश, AISJP. ३७ १. दिगम्बात्य और दिगम्बर मुनि (147) Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क . 23:35. | [२५] मुसलमानी बादशाहत में दिगम्बर मुनि ।। "o son, the kingdom of India is full of different religions....It is incumbcot on to the wipe all rcligions prejudices off tbc tablet of the beart; adninister justice according to the ways of cvery religions. -Babar मुसलमान और हिन्दुओं का पारस्परिक सम्बन्ध- ई.८वीं-१०वीं शताब्दि से अरब के मुसलमानों ने भारतवर्ष पर आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया था, किन्तु कई शताब्दियों तक उनके पैर यहाँ पर नहीं जमे थे। वह लूटपार करके जो मिला उसे लेकर अपने देश को लौट जाते थे। इन प्रारंभिक आक्रमणों में भारत के स्त्री-पुरुषों की एक बड़ी संख्या में हत्या हुई थी और उनके धर्म मन्दिर ओर मूर्तियाँ भी खूब तोड़ी गई थीं। तैमूरलंग ने जिस रोज दिल्ली फतह को उस रोज उसने एक लाख भारतीय कैदियों को लोपदम करवा दिया।' सचमुच प्रारम्भ में मुसलमान आक्रमणकारियों ने हिन्दुस्तान को बेतरह तबाह किया, किन्तु जब उनके यहाँ पर पैर जप गये और वे यहाँ रहने लगे तो उन्होंने हिन्दुस्तान का होकर रहना ठीक समझा यहाँ को प्रजा को संतोषित रखना उन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य पाना। बाबर ने अपने पुत्र हमाय को यही शिक्षा दी कि "भारत में अनेक मत-मतान्तर है, इसलिये अपने हृदय को धार्मिक पक्षपात से साफ रख और प्रत्येक धर्म के रिवाजों के मुताबिक इन्साफ कर।" इसका परिणाम यह हुआ कि हिन्दुओं और मुसलमानों में परस्पर विश्वास और प्रेम का बीज पड़ गया। जैनों के विषय में डा.हेल्पुथ वॉन ग्लाजेनाप कहते हैं कि "मुसलमानों और जैनों के मध्य हमेशा र भरा सम्बन्ध नहीं था (बल्कि) पुसलमानों और जैनों के बीच मित्रता का भी सम्बन्ध रहा है। "इसी मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध का ही यह परिणाम था कि दिगम्बर मुनि पुसलपान बादशाहों के राज्य में भी अपने धर्म का पालन कर सके थे। ईसवी दसवीं शताब्दि में जब अरब का सौदागर सुलेमान यहाँ आया तो उसे दिगम्बर साधु बहुत संख्या में मिले थे, यह पहले लिखा जा चुका है। गर्ज यह है कि मुसलमानों ने आते ही यहाँ पर नंगे दरवेर्शो को देखा। महमूद गजनी (१००१) १.OIMS. Vol.xVIIl.p.116 3. Elliot. 111.p 430:"100000 in fidcis, impious idulators were on that day wain." -Mulluzal-i-Timuri ३.DJ.,p.66 & जैध., पृ.६८॥ -दिगम्परत्व और दिगम्मा पनि (148) Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और मुहम्मद गौरी (११७५)ने अनेक बार भारत पर आक्रमण किये किन्तु वह यहाँ उहरे नही। ठहरे तो यहाँ पर “लाम खानदान" के सल्तान और उन्हीं से भारत पर मुसलमानी बादशाहत की शुरूआत हुई समझना चाहिए। उन्होंने सन् १२०६ से १२९० ई. तक राज्य किया और उनके बाद खिलजी, तुगलक और लोदी वंशों के बादशाहों ने सन् १२९० से १.२६ ई. तक यहाँ शासन किया। मुहम्म्द गौरी और दिगम्बर मुनि - इन बादशाहों के जमाने में दिगम्बर मुनिगण निर्बाध धर्मप्रचार करते रहे थे, यह बात जैन एवं अन्य श्रोतों से स्पष्ट है। गुलाम बादशाहों के पहले ही दिगम्बर मुनि, सुल्तान महमूद का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर चुके थे। सुल्तान मुहम्पद गौरी के सम्बन्ध में तो यह कहा जाता है कि उसकी बेगम ने दिगम्बर आचार्य के दर्शन किये थे। इससे स्पष्ट है कि उस समय दिगम्बर मुनि इतने प्रभावशाली थे कि वे विदेशी आक्रमणकारियों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने में समर्थ थे। गुलाम बादशाहत में दिगम्बर मनि - गलाम बादशहत के जमाने में भी दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व मिलता है। पूल संघ सेनगण में उस समय श्री दुर्लभसेनाचार्य, श्री धरसेनाचार्य, श्रीषण, श्री लक्ष्मीसेन, श्री सोममेन, प्रभृत मुनिपुंगव शोभा को पा रहे थे। श्री दर्लभमनाचार्य ने अंग, कलिंग, कदमीर, नेपाल, द्रविड़, गौड़, केरल , तैलंग, उड़, आदि देशों में विहार करके विधर्मी आचार्यों को हतप्रभ किया था। इसी समय में श्रीकाष्ठासंघ में निश्रेष्ठ विजयचन्द्र तथा पनि यदाः कीर्ति, अभय कोति, महासेन कुन्दकीर्ति, त्रिभुवनचन्द्र, गपसेन आदि हुये प्रतीत होते हैं। "ग्वालियर में श्री अकलंकचंद्र जी दिगम्बस्वष में म. १२५७ तक रहे १.(Oxford pp. 129 1310. २. "अलकेश्वरपुरादभरवरच्छनगरे राजाधिराजपरमेश्वर यवन रायशिरोमणिमुहम्मद बादशाह सुरत्राण समस्यापूर्णादखिल दृष्टिपातेनाष्टादश वर्षप्रायप्राप्तदेवलोकश्रीश्रुतवीरस्वामिनाम।" । अर्थात -"अलकेश्वरपुर के भरोचनगर में राजेश्वर स्वामी यवन राजाओं में श्रेष्ठ मुहम्म्द बादशाह के बाण समस्या की पूर्ति से तथा दृष्ट होने से १८ वर्ष की अवस्था में स्वर्ग गये हुए श्री श्रुतवीर स्वामी हुए। __जैसिभा, १ कि २-३पृ. ३५ ३. IA.Vol. XXI.p.361...wife of Muhamrnad Ghri desired to see the chics of the Digambaras. ४. जैसिभा., भा. १, कि, २-३, पृ.३४। ५. bid.किरण ४, पृ. १०।। ६. वृजेश. पू. १०। दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खिलजी, तुगलक और लोदी बादशाहों के राज्य और दिगम्बर मुनि- खिलजी तुगलक और लोदी बादशाहों के राज्यकाल में भी अनेक दिगम्बर मुनि हुये थे। काष्ठासंघ में श्री कुमारसेन, प्रतापसेन, महातपस्वी महाबसेन आदि मुनिगण प्रसिद्ध थे। महातपस्वी श्री माहवसेन अथवा महासेन के विषय में कहा जाता है कि उन्होंने खिलजी बादशाहीन से एम्मान पाया था के प्रकार है कि अलाउद्दीन धर्म की परवाह कुछ नहीं करता था। उस पर राधों और चेतक नामक ब्रह्मणों ने उसको और भी बरगला रखा था। एक बार उन्हीं दोनों ने बादशाह को दिगम्बर मुनियों के विरूद्ध कहा -सुना और उनकी बात मानकर बादशाह ने जैनियों से अपने गुरु को राजदरबार में उपस्थित करने के लिये कहा। जैनियों ने नियत काल में आचार्य माहवसेन को दिल्ली में उपस्थित पाया। उनका विहार दक्षिण की ओर से वहाँ हुआ था। सुल्तान अलाउद्दीन और दिगम्बराचार्य - आचार्य महावसेन दिल्ली के बाहर श्मशान में ध्यानारूढ़ थे कि वहाँ एक सर्पदंश से अचेत सेठ पुत्र दाह कर्म के लिये लाया गया। आचार्य महाराज ने उपकार भाव से उसका विष-प्रभाव अपने योग-बल से दूर कर दिया। इस पर उनकी प्रसिद्धि सारे शहर में हो गयी। बादशाह अलाउद्दीन ने भी यह सुना और उसने उन दिगम्बराचार्य के दर्शन किये। बादशाह के राजदरबार में उनका शास्त्रार्थ भी षट्दर्शनवादियों से हुआ जिसमें उनकी विजय रही। उस दिन महासेन स्वामी ने पुनः एक बार स्याद्वाद की अखण्ड ध्वजा भारतवर्ष की राजधानी दिल्ली में आरोपित कर दी थी। इन्हीं दिगम्बराचार्य को शिष्य परम्परा में विजयसेन, नयसेन, श्रेयाँससेन, अनन्तकोर्ति, कमलकीर्ति, क्षेमकीर्ति, श्रीहेमकीर्ति कुमारसेन, हेमचंद्र, पद्मनन्दि, यशः कीर्ति, त्रिभुवनकोर्ति, सहस्रकीर्ति, महीचन्द्र आदि दिग्म्बर पुनि हुये थे। इनमें कपलकीर्ति जी विशेष प्रख्यात थे। सुल्तान अलाउद्दीन का अपरनाम मुहम्मदशाह था। सन् १५३० ई. के एक शिलालेख में सुनि विद्यानन्द के गुरूपरम्परीण श्री आचार्य सिंहनन्दि का उल्लेख है। वह बड़े नैयायिक थे और उन्होंने दिल्ली के बादशाह महमूद सूरित्राण की सभा " १. (the Jain) Acharyas by their character attainments and scholarship commanded the respect of even Muhammadan Sovereegns like Allauddin and Auranga Padusha (Aurangazeb) २. जैसि., भा. १. प्र. १०९ ३. Ibid. x. Oxford. p. 130 (150) दिगम्बर और दिगम्बर मुनि Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में बौद्ध व अन्यों को बाद में हराया था। यह बात उक्त शिलालेख में है। यह उल्लेख बादशाह अलाउद्दीन के सम्बन्ध में हुआ प्रतिभाषित होता है। ' सारांशतः यह कहा जा सकता है कि बादशाह अलाउद्दीन के निकट दिगम्बर पुनियों को विशेष सम्मान प्राप्त हुआ था। अलाउद्दीन दिल्ली के श्री पूर्णचन्द्र दिगम्बर जैन श्रावक की भी इज्जत करता था और उसने श्वेताम्बरचार्य श्री रामचन्द्रसूरि को कई भेटें अपर्ण की थीं। सच बात तो यह है कि अलाउद्दीन के निकट धर्म का महत्व न कुछ था। उसे अपने राज्य का ही एकमात्र ध्यान था उसके सामने वह "शरीअत" को भी कुछ न समझता था। एक बार उसने नव मुस्लिमों को भी तोपदम कर दिया । "हिन्दुओं के प्रति वह ज्यादा उदार नहीं था और जैन लेखकों ने उसे " खूनी" लिखा है। किन्तु अलाउद्दीन में "मनुष्यत्व" था। उसी के बल पर “वह अपनी प्रजा को प्रसन्न रख सका था और विद्वानों का सम्मान करने में सफल हुआ था। ५ तत्कालीन अन्य दिगम्बर मुनिगण सं. १४६२ में ग्वालियर में महामुनि श्री गुणकीर्ति जी प्रसिद्ध थे। 'पेदपाद देश में सं. १५३६ में मुनि श्री रामसेन जी के प्रशिष्य मुनि सोमकीर्ति जो विद्यमान थे और उन्होंने “यशोधर चरित" को रचना की थी। " श्री “भद्रबाहु चरित" के कर्ता मुनि रत्नन्दि भी इसी समय हुये थे । वस्तुतः उस समय अनेक मुनिजन अपने दिगम्बर वेष में इस देश में विचर रहे थे। - - - १. मजैस्मा, पृ. ३२२ " सुल्तान - शब्द को जैनाचार्यों ने सूरित्राण लिखकर बादशाहों को मुनिरक्षक प्रकट किया है। २. जैहि. भा. १५, पृ. १३२ । " ३. जैघ., पृ. ६८ । Y. Hc (Allauddin) was by nature cruel and implacable. and his only care, was the welfare of his kingdom. Na consideration for religion (Islam). .... ever troubled him. He disregarded the provisions of the Law He now gave commands that the race of "New-Muslims. Should be destroyed..... - Tarikh-i-Firozshahi - Elliot III. p. 25 5. सुल्तान अलाउद्दीन ने शराब की बिक्री रुकवा दी थी। नाज, कपड़ा आदि बेहद सस्ते थे। उसके राज में राजभक्ति की बाहुल्यता थी। विद्यान काफी हुए थे। (Without the partonange of the Sultan many learned and great men flourished). - Elliot, JJI, 206 ६. जैहि. भा. १५ पृ. २२५ ७. "नदीतटाख्यगच्छे वंशे श्रीरामसेनदेवस्य जातो गुणार्णवैंक श्रीमांश्च भीमसेवेति । निर्मितं तस्य शिष्येण श्रीयशोधर सज्ञिक श्री सोमकीर्ति मुनिनानिशोदयाधीपतांबुधावर्षे षट् विशंशख्येतिथिपरिगणनायुक्तं संवत्सरेति पंचम्यां पौषकृष्णदिनकर दिवसे चोत्तरास्पट्ट चंद्रे इत्यादि । " दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुर्ति (151) Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोदी सिकन्दर निजाम खाँ और दिगम्बराचार्य विशालकीर्ति - लोदी खानदान में सिकन्दर (निजाम खा) बादशाह सन् १४८९ में राजसिंहासन पर बैठा था।' हमसपठ के गुरु श्री विशालकीर्ति भी लगभग इसी समय हुये थे। उनके विषय में एक शिलालेख में पाया जाता है कि उन्होंन सिकन्दर बादशाह के समक्ष वाद किया था। वह बाद लोदी सिकन्दर के दरबार में हुआ प्रतीत होता है। अतः यह स्पष्ट है कि दिगम्बर मनि तब भी इतने प्रभावशाली थे कि वे बादशाहों के दरबार में भी पहुंच जाते थे। तत्कालीन विदेशी यात्रियों ने दिगम्बर साधओं को देखा था- जैन साहित्य के उपयुक्त उल्लेखों की पुष्टि अजैन श्रोत से भी होती है। विदेशी यात्रियों के कथन मे यह स्पष्ट है कि गुलाम से लोन्दी राज्यकाल तक दिगम्बर जैन मुनि इस देश में बिहार और धर्म प्रचार करते रहे थे। देखिय, तेरहवीं शताब्दी में यूरोपीय यात्री मार्को पोलो (Morco Pola) जब भारत में आया तो उसे ये दिगम्बर साधु मिले। उनके विषय में यह लिखता है कि - ____ "कतिपय योगी मादरजात नंगे घुमते थे, क्योंकि जैसे उन्होंने कहा, वे इस दुनिया में नंगे आये हैं और उन्हें इस दनिया की कोई चीज नहीं चाहिये। खासकर उन्होंने यह कहा कि हमें शरीर सम्बन्धी किसी भी पाप का पान नहीं है और इसलिये हमें अपनी नंगी दशा पर शर्म नहीं आती है, उसी तरह जिस तरह तुप अपना मुह और हाथ नंगे रखने में नहीं शाम को, जिन्हें पार का मानही यह अच्छा करते हो कि शर्म के मारे अपनी नग्नता ढक लेते हो।" इस प्रकार की मान्यता दिगम्बर पनियों की है। माकों पोलो का समागम उन्हों से हुआ प्रतीत होता है। वह उनके संसर्ग में आये हुये लोगों में अहिंसा धर्म की बाहुल्यता प्रकट करता है। यहाँ तक कि वह साग-सब्जी तक ग्रहण नहीं करते थे। सूखे पत्नों पर रखकर भोजन करते थे। वे इन सब मे जीव-तत्व का होना मानते थे। हैवेल सा. गजरात के जैनों में इन मान्यताओं का होना प्रकट करते हैं। किन्तु वस्तुतः गुजरात ही १.Oxford. p. 10 २. मजेस्मा., पृ. १६३ व ३२२। ३. Some Yogis went stark naked. because. as they sand. they hed come nakod into the world and desired nothing that was on this world. Morcovut hcy declarcd. "We have no sin of the Tash to be conscious of and hereforc. we are not ashamed of our nakedness any more than you You who are conscious of thc sins of the flesh do well to have shamc and to cover your nakedness. - Yulc's Morco Polo II. 360 & HAR1,2,364 X. Morco Polo also noticed the customs which the orthodox Jaina community of Gujarat maintains to the present day. They do not kill an animal on any account not even a lly or flea or a louse or anything in fact that has lifc: for they say. these have all souls and it would be sin la du sn. __ - Yule's Morer Poles. II 3606 & HARI. p. 365. दिगम्बात्व और दिगाबर मुनि (15) Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या प्रत्येक देश का जैनी इन मान्यताओं का अनुयायी मिलेगा। अतः इसमें सन्देह नहीं कि पार्को पोलो को जो नंगे-साधु मिले थे, वह जैन साधु ही थे। अलबेरुनी के आधार पर रशीददीन नामक मुसलमान लेखक ने लिखा है कि "मालाबार के निवासी सब ही श्रमण हैं और मूर्तियों की पूजा करते हैं। समुद्र किनारे के सिन्दबूर, फकनूर, मजरूर, हिली, सदर्स, जंगलि और कुलप नायक नगरों और देशों के निवासी भी "श्रमण" है।' यह लिखा ही जा चुका है कि दिगम्बर मनि श्रमण के नाम से भी विख्यात हैं। अतः कहना होगा कि रशीदुद्दीन के अनुसार मालाबार आदि देशों के निवासी दिगम्बर जैहो और गाजर का इन स्वाभाविक है। मुगल साम्राज्य में दिगम्बर मुनि - तदोपरान्त सन् १५२६ से १७६१ ई. तक भारत पर मुगल और सूरवंशों के राजाओं ने राज्य किया था। उनके समय में भी दिगम्बर मुनियों का बाहुल्य था। पाटोदी (जयपुर) के पन्दिर के वि.सं. १५७५ की ग्रंथ प्रशस्ति से प्रकट है कि उस समय श्रीचन्द्र नामक मुनि विद्यमान थे। लखनऊ चौक के जैन मन्दिर में विराजमान एक प्राचीन गुटका के पत्र १६३ पर दी हुई प्रशस्ति से निग्रंथाचार्य श्री माणिक्यचन्द्रदेव का अस्तित्व सं. १६११ में प्रमाणित है।" "भावत्रिभंगी" की प्रशस्ति से सं. १६०५ में मुनि क्षेमकीर्ति का होना सिद्ध है।" सचपुच बादशाह बाबर, हुमायू और शेरशाह के समय में दिगम्बर मुनियों का विहार सारे देश में होता था। मालूम होता है कि उन्हीं का प्रभाव मुसलमान दावेशों पर पड़ा था; जिसके फलम्वरूप वे नग्न रहने लगे थे। मुगल बादशाह शाहजहाँ के सपय में वे एक बड़ी संख्या में मौजूद थे। शेरशाह के समय में दिगम्बर मुनियों का निर्बाध विहार होता थाः यह बात शेरशाह के अफसर मलिक मुहम्मद जायसी के प्रसिद्ध हिन्दी काव्य "पद्मावत" (२।६०) के निम्नलिखित पद्य से स्पष्ट है - "कोई ब्रह्मचारज पन्थ लागे। कोई सुदिगंवर आछा लागे।" १. Rashiundin trom Al-Biruni wrilcs :"The whole country (of Malabar) produces the pan... The people are all sumanis and worship idols of the cities of the shorc thu Cirst is Sindalur the Fuknur then the country of Sudarsa then Jangli, then Kulam, The men of all these countries are Siminis - Etliot Votinine इलियट सा, ने इन श्रमणों को बौद्ध लिखा है, किन्तु उस समय दक्षिण भारत में बौद्धों का होना असम्भव है। श्रमप्य शब्द बौद्ध भिक्षु के अतिरिक्त दिगम्बर साधुओं के लिये भी व्यबहत होता है। २.Oxford... 151, ३. "श्री संघाचार्थसत्कवि शिष्येण श्रीचन्द्रमुनि।" - जैमि., वर्ष २२, अंक ४५, पृ. ६९८ ४. सं. १६११ चैत्र सु. २ मूलसंधै भ. विद्यानंदितत्पट्टे श्री कल्याणकीर्ति तत्पट्टे नेग्रंथाचार्य तपोबललब्धातिशय श्री माणिकचन्द्रदेवाः।" - जैमि., वर्ष २२, अंक ४८, १७४० ५. "सं. १६०५ वर्षे तत्शिष्य सर्वगुणविराजमान मंडलाचार्य मुनि श्री क्षेमकीर्तिदेवा।" ६. Bernier. pp. 315-318 दिगम्वरत्व और दिगम्बर पनि - - (153) Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर और दिगम्बर मुनि - बादशाह अकबर जलालुद्दीन स्वयं जैनों का परम भक्त था और यदि हम उस समय के ईसाई लेखकों के कथन को मान्यत दें तो कह सकते हैं कि वह जैन धर्म में दीक्षित हो गया था। निस्सन्देह श्वेताम्बराचार्य श्री हीरविजयसूरि आदि का प्रभाव उस पर विशेष पड़ा था।' इस दशा में अकबर दिगम्बर साधुओं का विरोधी नहीं हो सकता बल्कि अबुल फजल ने "आईन-ए-अकबरी" भाग ३, पृष्ठ ८७ में उनका उल्लेख स्पष्ट शब्दों में किया है और लिखा है कि वे नंगे रहते हैं। वैराट का दिगम्बर संघ- वैराट नगर में उस समय दिगम्बर मुनियों का संघ विद्यमान था। वहाँ पर साक्षात् मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति के लिये यथाजात जिनलिंग शोभा पा रहा था। यह नगर बड़ा समृद्धिशाली था और उस पर अकबर शासन करता था। कवि राजमल्ल ने “लाटीसंहिता" को रचना यहीं के जैन मन्दिर में की थी। २ उन्होंने अपने “जम्बूस्वामी चरित" में लिखा है कि भटानियाकोल के निवासी साहु टोडर जब तीर्थयात्रा करते हुये मथुरा पहुंचे तो उन्होंने वहाँ पर ५१४ दिगम्बर मुनियों के समाधि सूचक प्राचीन स्तूपों को जीर्ण-शीर्ण दशा में देखा। उन्होंने उनका जीर्णोद्धार करा दिया और उनकी प्रतिष्ठा शुभ तिथिवार को चतुर्विधसंघ - (१) मुनि, (२) आर्यिका (३) श्रावक, (५) श्राविका एकत्र करके कराई थी। इन उल्लेखों से कि पादाह अवतार के राज्य में ओक दिगम्बर मुनि विद्यमान थे और उनका निर्बाध विहार सारे देश में होता था । ३ - बादशाह औरंगजेब ने दिगम्बर मुनि का सम्मान किया था- अकबर के बाद मुगल खानदान में जितने भी शासक हुये उन सब के ही शासनकाल में दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व मिलता है। औरंगजेब सदृश कट्टर बादशाह को भी १. पादरी पिन्हेरो (Pinheiro) ने लिखा है कि अकबर जैन धर्मानुयायी है। [He (Akbar) follows the sect of the Jainas] - सूस. पू. १७१-३९८ २. वीर, वर्ष ३, पृ. बलाटी., पृ. ११ । • "श्रीमडि डडीरपिण्डोपमितमित्तनभः पाण्डुराखण्डकोत्तर्या, कुष्टं ब्रह्माण्डकाण्डं निजभुजयशसा मण्डपाडम्बरोऽस्मिन् । येनासौ पातिसाहिः प्रतपदकबर प्रख्यविख्यातकीर्ति - जयाद् भोक्तनाथ नाथः प्रभुरीति नगरस्यायस्य वैरारनाम्नः || ६ || जैनो धर्मोनवद्यो जगति विजयतेऽद्यापि सन्तानवर्ती साक्षाद्दैगम्बरास्ते यतथ इह यथा जातरूपकलक्षः । तस्मै तेभ्यो नमोस्तु त्रि समयनियतं प्रोल्लसत्प्रसादादगावर्द्धमानं प्रतिधविरहितो वर्तते मोक्षमार्गः ||६३ || ३. अनेकान्त पा. १, पृ. १३९ - १४१ “चतुर्विधमहासंघ समाहूयान धीमता । " (154) — दिगम्बरत्व और दिगम्बर पुलि Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर पुनियों ने प्रभावित कर लिया था, यहाँ तक कि औरंगजेब ने भी उनका सम्मान किया था। उस समय के किन्हीं मुनि पहाराजों का उल्लेख इस प्रकार है - तत्कालीन दिगम्बर मुनि - दिगम्बर मुनि श्री सकलचन्द्र जी सं. १६६७ में विद्यमान थे। उनके एक शिष्य ने "भक्तामर कथा" की रचना की थी।' सं. १६८० का लिखा हुआ एक गटका दिगम्बर जैन पंचायती बड़ा पन्दिर (मैनपुरी) के शास्त्र भण्डार में विराजमान है। उसमें श्री दिगम्बर मुनि महेन्द्रसागर का उल्लेख उस समय में मिलता है। संवत १७१९ में अकबराबाद में मुनि श्री वैराग्यसेन ने "आठकर्म की १४८ प्रकृतियों का विचार" चर्चा ग्रंथ लिखा था। सं. १७८३ में गुरु देवेन्द्रकीर्ति का अस्तित्व दूंढारिदेश में मिलता है। वहाँ पर दिगम्बर मुनियों का प्राचीन आवास था। सं. १७५७ में कुण्डलपुर में पुनि श्री गणसागर और यश-कीर्ति थे। उनके शिष्य. ने महाराजा छत्रसाल की विशेष सहायता की थी। कवि लालमणि ने औरंगजेन्न के राज्य में “अजितपुराण" को रचना की थी। उससे काष्ठासंघ में श्री धर्मसेन. भावसेन, सहस्रकीर्ति, गुणकाति, यश-कीति. जिनचन्द्र, श्रुतकीर्ति आदि दिगम्बर मुनियों का पता चलता है। सं. १७९९ में कवि खुशालदास जी ने एक मुनि पहेन्द्रकीर्ति जी का उल्लेख किया है। मुनि धर्मचन्द्र, मुनि विश्वसेन, मुनि १. SSU. Ft. LL.p. 132 जैन कवियों ने औरंगजेब की प्रशंसा ही की है - "औरंगसाह वलीको राज, पायो कविजन परम समाज | चक्रवर्तिसम जगमें भयो, फेरत आदि उदधि लों गयीं।। जा के राज परम सुख पाय, करी कथा हम जिन गुन गाय।" - कवि विनोदीलाल २. जैप्र.,पृ. १४३। ३. “गुरु मुनि माहिदसेनि नमिजी, भनत भगवतीदासु।" - वीर जिनेन्द्र गौत. "मुनि माहेरन्द्रसेनि गुरु तिह जुग चरन पसाइ।" - ढमालु राजमती -नेमिसुर "सुणि माहेन्द्रसेन इह निरिस प्रणामा तासो। धानि कपस्थलि नी कर भनत भगौती दासो।।" - स्ज्ञानी दाल ४. “सवत् १७१९ वर्षे फाल्गुण सुदि १३ सोमे लिखित मुनि श्री वैरागयसागरेण।" ५. देसढूढाहड़जाणूसार मूलसडू भविजान सुर्ग सिवकार वषान्यूम्। आगे भये रिषीस गुणाकर तिनि इह ठान्यूम्।। कुन्दकुन्द मुनिराइ जिहा धर्म जामाहि; कतकिलकाल वितीत भए मुनिवत अभिकाडी। देवेन्द्रकीर्ति आब। चितधारि साहो विर्ष। लक्ष्मीगुदास पण्डित तहाँ विनुसगुरु अति सैरः ।। सतरासै तियासिये पोस सुकुल तिथिजानि।" - पापुराण भाषा ६. "तस्यान्वये संजातो ज्ञानवाल गुणसागरः । भवस्वी संघ सपूज्यों यशः कीर्तिमहानुनिः।।" -दिबैडा., पृ. २५९ ७, जैहिं, , १२-१९४ "श्रीमच्छीकाप्ठासंघे मुणिगणगणनात् दिगवस्त्रयुष्टे।।" ८, “भट्टारक पद सौंफ जास मुनि महेन्द्रकीर्ति पट तास।" - उत्तरपुराण भाषा. दिगम्बात्य और दिगम्बर मुनि (155) Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भूषण का भी इसी सपय पता चलता है।' सारांशतः यदि जैन साहित्य और पूर्ति लेखों का और भी परिशीलन और अध्ययन किया जाय तो अन्य अनेक मुनिगण का परिचय उस समय में मिलेगा। आगरा में सब दिगम्बर मुनि - कविवर बनारसीदास जी बादशाह शाहजहाँ के कृपापात्रों में से.थे। उनके सम्बन्ध में कहा जाता है कि एक बार जब कविवर आगरा में थे, तब वहाँ पर दो नग्न मुनियों का आगमन हुआ। पब हो लोग उनके दर्शन-वन्दन के लिये आते-जाते थे। कविवर परीक्षा प्रधानी थे। उन्होंने उन मनियों की परीक्षा की थी।' इस उल्लेख से उम सपय आगरा में दिगम्बर मुनियो का निर्वाध विहार हुआ प्रकट है। फ्रेंच यात्री, डा. बर्नियर और दिगम्बर साधु - विदेशी विद्वानों की साक्षी भी उक्त वक्तव्य की पायक है। बादशाह शाहजहाँ और औरंगजेब के शासनकाल में फ्रांस से एक यात्री डा. बर्निया (Dr. Bernier) नामक आया था। वह सारे भारत में घूमा था और उमका समागम दिगम्बर मुनियों से भी हुआ था। उनके विषय में वह लिखता है कि - "पझे अक्सर साधारणतः किसी राजा के राज्य में इन नंगे फकीरों के समूह मिले थे, जो देखने पे भयानक थे। उसी दशा में मैंने उन्हें मादरज़ात नंगा बड़े-बड़े शहरों में चलते-फिरते देखा था। पर्द, औग्न और लड़कियाँ उनकी ओर वैसे ही देखते थे जैसे कि कोई साध जब हमारे देदा की गलियों में होकर निकलता है, तब हम लोग देखते हैं। औरतें अक्सर उनके लिये बड़ी विनय से भिक्षा लाती थीं। उनका विश्वास था कि वे पवित्र पुरुष हैं और साधारण मनुष्यों से अधिक शीलवान और धर्मात्मा है।" टावरनियर आदि अन्य विदेशियों ने भी उन दिगम्बर पनियों को इसी रूप में देखा था। इस प्रकार इन उदाहरणों से यह म्पष्ट है कि मुसलमान बादशाहों ने भारत की इस प्राचीन प्रथा, कि साधु नगे रहें और नंगे ही सर्वत्र वियर कर, को सम्माननीय दुष्टि से देखा था। यहाँ तक कि कतिपय दिगम्बर जैनाचार्यों का उन्होंने खुब १. श्रीमूलसंधेय भारतीये गक्षे बत्नात्कारगणेतिरम्ये । आसीन्सुदेवेन्द्रयशोमुनीन्द्रः सधर्मधारी मुनि धर्मचन्द्र।" - श्री जिनसहस्रनाम. श्री काष्ठासंघे जिनराजसेनस्तदन्वये श्री मुनि विश्विसेना विद्याविभूषः मुनिराद् बभूव श्री भूषणो वादिगजेन्द्र सिंहः।। - पचकल्याणकपठ. २. बबि., चरित्र, पृ. ९७-१०२। 3. "I huve often naci generally in the territory of sumu Raja lands of these naked fakirs hideous to buhald. In this trim I have seen tocm shunckessly walk stark naked, through a large lown men women and girls Juoking at them without any more emotion than may be created when a hermil passes through our strects. Funtatcs wusuld often hring them alms will much develion, doubtless helieving that they were holy persunuges, more chastc and discreci than other mon. Bernicr-p.317 (15) दिगम्वरत्व और दिगम्बर मुनि Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर-मत्कार किया था। वकालीन हिन्दू कवि मन्दरदास जी भी अपने " ग" गध में इनका खमिना गाते है ' - ___ “केचित् कर्मग्थापहि जैना, केश ल चाइ कहिं अति फै।" कैशलुंचन क्रिया दिगम्बर पुनियों का एक खास मूलगुण है, यह लिया ही जा चुका है। इससे तथा सं. १८७० में हुये कवि लालजीत जो के निम्न उल्लग्न म तत्कालीन दिगम्बर मुनियों का अपने मूलगुणों को पालन करने में पूर्णतः द वन रहना प्रकट है - "धारे दिगम्बर रूप भूप सब पद को परसें; हिये परप वैशाय मोक्षमारग को दरसें। जे भवि सेवें चरन तिन्हें सम्यक दरसाईः करै आप कल्याण सुवारहभावन भाव।। पच महाव्रत धरें बरें शिवसुन्दर नारी; निज अन भौ रसलीन परम-पद के सुविचारी। दशलक्षण निजधर्म गहै रत्नत्रयधार्ग।। ऐसे श्री पनिगज चान पर जग-बलिहारी।।" १. फाह्यान भूमिका । दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि (157) Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रिटिश शासनकाल में दिगम्बर मुनि FL "All shall alike enjoy the equal and impartial protection of the Law, and we do strictly charge and enjoin all those who may be in authority under us that they abstain from all interferance with the religious belief or worship of any of our subjects un pain of our highest displeasure." - Queen Vatorial [२६] महारानी विक्टोरिया ने अपनी १ नवम्बर सन् १८५८ की घोषणा में यह बात स्पष्ट कर दी है कि ब्रिटिश शासन की छत्रछाया में प्रत्येक जाति और धर्म के अनुयायी को अपनी परम्परागत धार्मिक और सामाजिक मान्यताओं को पालन करने में पूर्ण स्वाधीनता होगी और कोई भी सरकारी कर्मचारी किसी के धर्म में हस्तक्षेप न करेगा। इस अवस्था में ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत दिगम्बर मुनियों को अपना धर्मपालन करना सुगम - साध्य होना चाहिये और वह प्रायः सुगम रहा है। २ गत ब्रिटिश शासनकाल में हमें कई एक दिगम्बर मुनियों के होने का पता चलता है। सं. १८७० में ढाका शहर में श्री नरसिंह नामक मुनि के अस्तित्व का पता चलता है। इटावा के आस-पास इसी समय मुनि विनयसागर व उनके शिष्यगण धर्म प्रचार कर रहे थे। लगभग पचास वर्ष पहले लेखक के पूर्वजों ने एक दिगम्बर मुनि महाराज के दर्शन जयपुर रियासत के फागी नामक स्थान पर किये थे। वह मुनिराज वहाँ पर दक्षिण की ओर से विहार करते हुये आये थे । दक्षिण भारत की गिरि-गुफाओं में अनेक दिगम्बर मुनि इस समय में ज्ञान-ध्यानरत रहे हैं। उन सबका ठीक-ठीक पता पा लेना कठिन है। उनमें से कतिपय जो प्रसिद्धि में आ गये उन्हीं के नाम आदि प्रकट हैं। उनमें श्री चन्द्रकीर्ति जी महाराज का नाम उल्लेखनीय है। वह संभवतः गुरमंड्या के निवासी थे और जैनवद्री में तपस्या करते थे। वह एक महान तपस्वी कहे गये हैं। उनके विषय में विशेष परिचय ज्ञात नहीं है। किन्तु उत्तर भारत के लोगों में साम्प्रत दिगम्बर मुनि श्री चन्द्रसागर जी का ही नाम पहले पहल मिलता है। वह फलटन (सतारा ) निवासी हूमड़जातीय पद्मसी नामक श्रावक थे। सं. १९६९ में उन्होंने कुरुन्दवाड़ग्राम (शोलापुर) में दिगम्बर मुनि (158) १. Royal Proclamation of Ist Nov. 1858. २. "संवत् अष्टादश शतक व सतर बरस प्रमाण ढाका सहर सुहामणा, देश बग के माँहि । जैन धर्मधारक जिहाँ श्रावक अधिक सुहाहिं । तासु शिष्य विनय विबुध हर्पचंद गुणवंत | मुनि नरसिंह विनेय विधि पुस्तक एह लिखंत ।। " ३. दिजै. वर्ष ९, अंक १. पृ. २३० - मैनपुरी दि. जैन बड़ा मंदिर का एक गुटका । दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनप्पास्वापी के सपीप क्षुल्लक के व्रत धारण किये थे। सं. १९६९ में झालरापाटन के महोत्सव के समय उन्होंने दिगम्बर मुनि के महानतों को धारण करके नग्न मुद्रा में सर्वत्र विहार करना प्रारम्भ कर दिया। उनका विहार उत्तर भारत में आगरा तक हुआ प्रतीत होता है।' सन् १९२१ मे एक अन्य दिगम्बर मुनि श्री आनन्द सागर जी का अस्तित्व उदयपुर (राजपुताना) में मिलता है। श्री ऋषभदेव केशरियाजी के दर्शन करने के लिये वह गये थे; किन्त कर्मचारियों ने उन्हें जाने नहीं दिया था। उस पर उपसर्ग आया जानकर वह ध्यान माढ़कर वहीं बैठ गये थे। इस सत्याग्रह के परिणामस्वरूप राज्य की ओर से उनको दर्शन करने देने की व्यवस्था हुई थी। किन्तु इनके पहले दक्षिण भारत की ओर से श्री अनन्तकीर्ति जी महाराज का विहार उत्तर भारत को हुआ था। वह आगरा, बनारस आदि शहरों में होते हुए शिखरजी की वंदना को गये थे। आखिर ग्वालियर राज्यान्तर्गत मोरेना स्थान में उनका असामयिक स्वर्गवास पाच शुक्ला पंचमी सं. १९७४ को हुआ था। जब वह ध्यानलीन थे तब किसी भक्त ने उनके पास आग की अंगीठी रख दी थी। उस आग से वह स्थान ही आगमयी हो गया और उसमें उन ध्यानारूढ़ पुनि जी का शरीर दग्ध हो गया। इस उपसर्ग को उन धीर-वीर पुनि जी ने समभावों से सहन किया था। उनका जन्म सं.१९४० के लगभग निल्लीकार (कारकल) में हुआ था। वह मोरेना में संस्कृत और सिद्धान्त का अध्ययन करने की नियत से ठहरे थे; किन्तु अभाग्यवश वह अकाल काल-कवलित हो गये। 'श्री अनन्तकीर्ति जी के अतिरिक्त उस सपय दक्षिण भारत में श्री चन्द्रसागर जी मुनि पणिहली, श्री सनत्कुमार जी मुनि और श्री सिद्धसागर जी मुनि तेरवाल के होने का भी पता चलता है। किन्तु पिछले पाँच-छ: वर्ष में दिगम्बर मुनिमार्ग को विशेष वृद्धि हुई है और इस समय निम्नलिखित संघ विद्यमान है, जिनके मुनिगण का परिचय इस प्रकार है - (१) श्री शान्तिसागर जी का संघ - यह संघ इस समय उत्तर भारत में बहुत प्रसिद्ध है। इसका कारण यह है कि उत्तर भारत के कतिपय पण्डितगण इस संघ के साथ होकर सारे भारतवर्ष में घुसे हैं। इस संघ ने गत चातुर्मास भारत की राजधानी दिल्ली में व्यतीत किया था। उस समय इस संघ में दिगम्बर मुद्रा को धारण किये हये सात मुनिगण और कई क्षुल्लक-ब्रह्मचारी थे। दिगम्बर साधुओं में श्री शान्तिसागर हो मुख्य हैं। सं. १९२८ में उनका जन्म बेलगाम जिले के ऐनापुर-भोज १. bid, p. 18-240 २. दिजै., वर्ष १४, अंक ५-६, पृ.७। ३. दिजै., विशेषांक वीर, नि.सं, २४४३। दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि (159) Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामक ग्राम में हुआ था। शान्तिसागर जी को तब लोग सात गोंड़ा पाटील कहते थे। उनकी नौ वर्ष की आयु में एक पाँच वर्ष को कन्या के साथ उनका ब्याह हुआ था और इस घटना के ७ महीने बाद हो वहबाल पत्नी मरण कर गई थी। तब से वह बरावर ब्रह्मचर्य का अभ्यास करते रहे। उनका मन वैराग्य भाव में मग्न रहने लगा। जब वह अठारह वर्ष के थे, तब एक मुनिराज के निकट से ब्रह्मचारी पद को उन्होंने ग्रहण किया था। सं. १९६९ में उत्तरग्राम में विगजमान दिगम्बर मुनि श्री देवेन्द्रकीर्ति जी के निकट उन्होंने क्षुल्लक का व्रत ग्रहण किया था। इस घटना के चार वर्ष बाद संवत् १९७३ में कुभोज के निकट बाहुबलि नामक पहाड़ी पर स्थित श्री दिगम्दा पनि अकलीक स्वामी के निकट उन्होंने ऐलक पद धारण किया था। सं. १९७६ में येनाल में पंचकल्याणक महोत्सव हुआ था। उसमें वह भी गये थे। जिस समय दीक्षा कल्याणक महोत्सव सम्पन्न हो रहा था, उस मपय उन्होंने भोसगी के निग्रंथ पनि महाराज के निकट मानि दीक्षा ग्रहण की थी। तब से वह बराबर एकान्त में ध्यान और नप का अभ्यास करते रहे थे। उस सपय वह एक खासे तपस्वी थे। उनकी शान्त मीन और योगनिष्ठा ने उत्तर भारत के विद्धानों का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट किया। कई पंडित उनको संगति में रहने लगे। आरिचर उनके शिष्य कई उदासीन श्रावक हो गये जिनमें से कपिय तिर पुन औः तसल्लको का पालन करने लगे। इस प्रकार शिष्य- समूह से वेष्टित होने पर उन्हें "आचार्य" पद से सशोभित किया गया और फिर बम्बई के प्रसिद्ध संठ घासीराम पूर्णचन्द्र जौहरी ने एक यात्रा संघ सारे भारत के तीर्थों की वन्दना के लिये निकालने का विचार किया। तदनुसार आचार्य शान्तिसागर की अध्यक्षता में वह संघ तीर्थयात्रा के लिये निकल पड़ा। पहाराष्ट्र के सांगली - मिरज आदि रियासतों में जब यह संघ पहुंचा था तब वहां के राजाओं ने उसका अच्छा स्वागत किया था। निजाप सरकार ने भी एक खास हुक्म निकालकर इस संघ को अपने राज्य में कुशलपूर्वक विहार कर जाने दिया था। भोपाल राज्य से होकर वह संघ मध्य प्रान्त होता हुआ श्री शिखरजी फरवरी, सन् ११२७ में पहुंचा था। वहाँ पर बड़ा भारी जैन सम्मेलन हुआ था। शिखाजी से वह मंध कटनी, जबलपुर, लखनऊ, कानपुर, झांसी, आगरा, धौलपुर, पथुरा, फिरोजाबाद, एटा, हाथरस, अलीगढ़, हस्तनापुर. पुजफ्फरनगर आदि शहरों से होना हआ दिल्लो पहुँचा था। दिल्ली में ब-योग पुग़ करके अब यह संघ अलवर की और बिहार कर रहा है और उसमें ये साधुगण्य मौजूद हैं - १. दिजै.. वर्ष १६, अंक १-२, पृ. ९। २ हुकुम नं. ९२८ (शीरो इंतज़ामी) १३३७ फसली । [ltulj दिगम्बात्य और दिगम्बर पुति Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) श्री शान्तिसागर जी आचार्य, (२) मुनि चंद्रसागर, (३) पुनि सागर, (४) मुनि बीरसागर, (५) मुनि नमिसागर (६) मुनि ज्ञानसागर । ला (२) श्री सूर्य सागर जी का संघ दूसरा संघ श्री सूर्यमागर जी महाराज का है. जो अपनी सादगी और धार्मिकता के लिये प्रसिद्ध है। खुरई में इस सम का चातुर्मास व्यतीत हुआ था। उस समय इस संघ में मुनि सूर्यसागर जी के अतिरिक्त मुनि अजित सागर जी मुनि धर्मसागर जी और ब्रह्मचारी भगवानदास जी थे। खुरई से अब इस संघ का बिहार उसी ओर हो रहा है। मुनि सूर्यसागर जो गृहस्थ दशा में श्री हजारीलाल के नाम से प्रसिद्ध थे। वह पोरवाड़ जाति के झालरापाटन निवासी श्रावक थे। मुनि शान्तिसागर जी छागी के उपदेश से निग्रंथ साधु हुये थे। - (३) श्री शान्तिसागर जी का संघ तीसरा संघ मुनि शान्तिसागा जी छाणी का है, जिसका गत चातुर्मास ईडर में हुआ था। तब इस संघ में पुनि मल्लिसागर जी. ब्र. फतहसागर जी और ब्र. लक्ष्मीचंद जी थे। मुनि शान्तिसागर जी एकान्त में ध्यान करने के कारण प्रसिद्ध हैं। वह छाणी (उदैपुर) निवासी दशा - हुमड़ जाति के रत्न हैं। भादव शुक्ल १४ सं. १९७९ को उन्होंने दिगम्बर वेष धारण किया था। उन्होंने भुखिया (बाँसवाड़ा) के ठाकुर क्रूरसिंह जी साहब को जैन धर्म में दीक्षित करके एक आदर्श कार्य किया है। - (४) श्री आदि सागर जी का संघ मुनि आदिमागर जी के चौथे संघ ने उदगाँव में पिछली वर्षा पूर्ण की थी। उस समय इनके साथ मुनि मल्लिसागर जी क्षुल्लक सूरोसिंह जी थे। - (५) श्री मुनीन्द्र सागर जी का संघ गत चातुर्माम में श्री मुनीन्द्रसागर जी का पाँचवाँ संघ मांडवी (सूरत) में मौजूद रहा था। उनके साथ श्री देवेन्द्रसागर जी तथा विजयसागर जी थे। मुनीन्द्रसागर जी ललितपुर निवासी और परवार जाति के हैं। उनकी आयु अधिक नहीं है। वह श्री शिखरजी आदि सीर्थों की वन्दना कर चुके हैं। - (६) श्री मुनि पायसागर जी का संघ छटा संघ श्री पुनि पायसागर जी का है, जो दक्षिण भारत की ओर ही रहा है। - - इनके अतिरिक्त मुनि ज्ञानसगार जो ( खैराबाद), मुनि आनन्दसागर जी आदि दिगम्बर साधुगण एकान्त में ज्ञान ध्यान का अभ्यास करते हैं। दक्षिण भारत में उनकी संख्या अधिक है। ये सब ही दिगम्बर मुनि अपने प्राकृत वेश में सारे देश में विहार करके धर्म प्रचार करते हैं। ब्रिटिश भारत और रियासतों में ये बेरोक-टोक धूमे हैं; किन्तु गतवर्ष काठियावाड़ के कमिश्नर ने अज्ञानता से मुनीन्द्रसागर जी के संघ पर कुछ आदमियों के घेरे में चलने की पाबन्दी लगा दी थी जिसका विरोध अखिल भारतीय जैन समाज ने किया था और जिसको रद्द कराने के लिये एक कमेटी भी बनी थी। दिगम्बरात्व और दिगम्बर मुनि - (161) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच बात तो यह है कि ब्रिटिश राज की नीति के अनुसार किसी भी सरकारी कर्मचारी को किसी के धार्मिक मामले में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है और भारतीय कानून की ओर से भी प्रत्येक सम्प्रदाय के मनुष्यों को यह अधिकार है कि वह किसी अन्य सम्प्रदाय या राज्य के हस्तक्षेप बिना अपने धार्मिक रीति-रिवाजों का पालन-निर्विघ्न रूप से करें। दिगम्बर जैन मुनियों का नग्न वैध कोई नई बात नहीं है। प्राचीन काल से जैन धर्म में उसको मान्यता चली आई है और भारत के मुख्य धर्मो तथा राज्यों ने उसका सम्मान किया है, यह बात पूर्व पृष्ठों के अवलोकन से स्पष्ट है। इस अवस्था में दुनिया की कोई भी सरकार या व्यवस्था इस प्राचीन धार्मिक रिवाज को रोक नहीं सकती। जैन साधुओं का यह अधिकार है कि बह सारे वस्त्रों का त्याग करे और गृहस्थों का यह हक है कि वे इस नियम को अपने साधुओं द्वारा निर्विघ्न पाले जाने के लिये व्यवस्था करें; जिसके बिना मोक्ष सुख मिलना दुर्लभ है। इस विषय में यदि कानूनी नजीरों पर विचार किया जाय तो प्रकट होता है कि प्रिवी-कौन्सिल (Privy-council) ने सब ही सम्प्रदायों के मनुष्यों के लिये अपने धर्म सम्बन्धी जुलूसों को आम सड़कों पर निकालना जायज करार दिया है। निम्न उदाहरण इस बात के प्रपाण है। प्रिवी कौन्सिल ने मंजूर हसन बनाम मुहम्मद जमन के मुकदमें में तय किया है कि - "Persons of all sects are entitled to conduct rcligious processicas through public streets, so that they do not interfere with the ordinary use of such streets by the public and subjecl to such directions the Magistrate may lawfully give to prevent obstructions of the thorough fare or breaches of the public peace, and the worshippers io a mosque o temple which abulted on a highroad could not compel processionists lo intermit their worship while passing the mosque or lemple on the ground that There was a continuous worship there." (Munzur Hasan Vs Mohammad Zaman. 23 All Law Journal, 179). भावार्थ - प्रत्येक सम्प्रदाय के मनुष्य अपने धार्मिक जुलूसों को आम रास्तों से ले जाने के अधिकारी है, बशर्ते कि उससे साधारण जनता को रास्ते के उपयोग करने में दिक्कत न हो और मजिस्ट्रेट की उन सूचनाओं को पाबन्दी भी हो गई हो जो उसने रास्ते की रुकावट और अशान्ति न होने के लिये उपस्थित की हों और किसी पस्जिद या मन्दिर, मन्दिर या मस्जिद के पास से निकले, मात्र इस कारण कि उस दिगम्परत्व और दिगम्बर मुनि (162) Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय यहाँ पूजा हो रही है उनको जुलूसी पूजा को बन्द करने पर मजबूर नहीं कर सकते। इस सम्बन्ध में “पार्थसादी आयंगर बनाम चित्रकृष्ण आयंगार" की नजीर भी दृष्टव्य है। Indian Law Report, Madras, Vol. V.p.309) शूद्रम चेट्टी बनाम महाराणी के मुकदमे में यही उसूल साफ शब्दों में इससे पहले भी स्वीकार किया जा चुका है। (I.L.R. VI, p.203) इस मुकदमे के फैसले में पृष्ठ २०९ पर कहा गया है कि जुलूसों के सम्बन्ध में यह देखना चाहिये कि अगर वह धार्मिक हैं और धार्मिक अंशों का ख्याल किया जाना जरूरी है, तो एक सम्प्रदाय के जुलूस को दूसरे सम्प्रदाय के पूजा-स्थल के पास से न निकलने देना उसी तरह की सख्ती है जैसे की जुलूस के निकलने के वक्त उपासना-मन्दिर में पूजा बन्द कर देना। मुकदमा सदागोपाचार्य बनाम रामाराव 2.L.B.VI, P २७६) में यही राय जाहिर की गई है। इलाहाबाद ला जर्नल (भा. २३ पृ. १८०) पर प्रिवी कौन्सिल के जज महोदय ने लिखा है कि " भारतवर्ष में ऐसे जुलूसों के जिनमें मजहबी रसूम अदा की जाती है सारे राह निकालने के अधिक सम्म में एक "नजीर" कायम करने की जरूरत मालूम होती है, क्योंकि भारतवर्ष में आला अदालतों के फैसले इस विषय में एक-दूसरे के खिलाफ हैं। सवाल यह है कि किसी धार्मिक जुलूस को मुनासिब व जरूरी विनय के साथ शाह-राह-आम से निकलने का अधिकार है? मान्य जज महोदय इसका फैसला स्वीकृति में देते हैं अर्थात् लोगों को धार्मिक जुलूस आम-रास्तों से ले जाने का अधिकार है।" पुकदमा शंकरसिंह बनाम सरकार कैसरे हिन्द (AI, Law Journal Report., 1929, pp. 18004182) जेरदफा ३० पुलिस-ऐक्ट नं. ५ सन् १८६१ में यह तजवीज़ हुआ कि “तरतीब" - व्यवस्था देने का मतलब "मनाई नहीं है। मजिस्ट्रेट जिला की राय थी कि गाने-बजाने की पनाई सपरिन्टेन्डेन्ट पलिस ने उस अधिकार से की थी जो उसे दफा ३० पुलिस एक्ट की रूप से मिला था कि किसी त्यौहार या रस्म के मौके पर जो गाने-बजाने आप-रास्तों पर किये जाने उनको किसी हद तक सीमित कर दें। मैं (जज हाईकोटी मजिस्ट्रेट जिला को राय से सहपत नहीं हूँ कि शब्द “व्यवस्था का भाव हर प्रकार के बाजे की पनाई है। व्यवस्था देने का अधिकार उसी मामले में दिया जाता है जिसका कोई अस्तित्व हो। किसी ऐसे कार्य के लिये जिसका अस्तित्व ही नहीं है, व्यवस्था देने की सूचना बिल्कुल व्यर्थ है। उदाहरणतः आने-जाने की व्यवस्था के सम्बन्ध में सूचना से आने-जाने के अधिकार का अस्तित्व स्वतः अनुमान किया जायगा। उसका अर्थ यह नहीं है कि पुलिस - अफसरान किसी व्यक्ति को उसके घर में बन्द रखने या उसका आना-जाना रोक देने के अधिकारी हैं। दिगम्मरत्व और दिगम्बर पनि (163) Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दफा ३१ पुलिस एक कील में पुलिस का आम गस्ती, सड़कों, गलियों, पर आन ज्ञान के सब ही स्थानों में शान्ति स्थिर रखने का अधिकार है। बनारस में इस अधिकार के अनुसार एक हुक्म को किया गया था कि खाम सम्पदाय के लोग यात्रा वाली (पंडों) को, जो इस नगर की यात्रा के लिये लोगों का पथ-प्रदर्शन करते हैं, रेलवे स्टेशन पर जाने की मनाई है। इस मुकदमे में हाईकोर्ट इलाहाबाद के योग्य जज महोदय ने तजवीज किया कि किसी स्थान पर शान्ति स्थिर रखने के अधिकारों के बल पर किसी खास सम्प्रदाय के लोगों को किसी खास जगह पर जाने की आम मुमानियत करने का सुपरिन्टेन्डेन्ट पुलिस को अधिकार न था। इस तजवीज़ के कारण वहीं थे जो बमुकदमा सरकार बनाम किशनलाल में दिये गये हैं। LL.R. Allahabad Vol. 39, P. 131 ) शान्ति स्थिर रखने का भाव आदमियों को घरों में बन्द करने का नहीं हैं। यही विज्ञप्तियाँ दिगम्बर जैन साधुओं से भी सम्बन्ध रखती हैं। वह चाहे अकेले निकलें और चाहे जुलूस की शक्ल में, सरकारी अफसरों का कर्तव्य है कि उनके इस हक को न रोकें। दिगम्बर जैन साधुगण सारे ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों में स्वतन्त्रता से बराबर घूमते रहे हैं, कहीं कोई रोक-टोक नहीं हुई और न इस सम्बन्ध में किसी को कोई शिकायत हुई। अतएव सरकारी अफसरों का तो यह मुख्य कर्तव्य है कि वे दिगम्बर मुनियों को अपना धर्म पालन करने में सहायता पहुंचाये। गतकाल में जितने भी शासक यहाँ हुये उन्होंने यही किया इसलिये अब इसके विरुद्ध ब्रिटिश शासक कोई भी बर्ताव करने के अधिकारी नहीं हैं। उनको तो जैनों को अपना धर्म निर्बाध पालने देना ही उचित है। १. NJ, pp. 19-23. (164) दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७] दिगम्बरत्व और आधुनिक विद्वान् * मनुष्य मात्र की आदर्श स्थिति दिगम्बर ही है। मुझे स्वयं नग्नावस्था प्रिय - महात्मा गाँधी संसार के सर्वश्रेष्ठ पुरुष दिगम्बरत्व को मनुष्य के लिये प्राकृत, सुसंगत और आवश्यक समझते हैं। भारत में दिगम्बरत्व का महत्व प्राचीन काल से माना जाता रहा है। किन्तु अब आधुनिक सभ्यता की लीलास्थली यूरोप में भी उसको महत्व दिया जा रहा है। प्राचीन यूनानवासियों की तरह जर्मनी, फ्रांस और इंग्लैण्ड आदि देशों के मनुष्य नंगे रहने में स्वास्थ्य और सदाचार की वृद्धि हुई मानते हैं। वस्तुतः बात भी यही है । दिगम्बरत्व आदि स्वास्थ्य और सदाचार का पोषक न हो तो सर्वज्ञ जैसे धर्म प्रवर्तक मोक्ष- मार्ग के साधनरूप उसका उपदेश हो क्यों देते ? मोक्ष को पाने के लिये अन्य आवश्यकताओं के साथ नंगा तन और नंगा मन होना भी एक मुख्य आवश्यकता हैं। श्रेष्ठ शरीर ही धर्म साधन का मूल है और सदाचार धर्म की जान है तथा यह स्पष्ट है कि दिगम्बरत्व श्रेष्ठ स्वस्थ शरीर और उत्कृष्ट मदाचार का उत्पादक है। अब भला कहिये वह परमधर्म की आराधना के लिये क्यों न आवश्यक माना जाय ? आधुनिक सभ्य संसार आज इस सत्य को जान गया है और वह उसका मनसा वाचा कर्मणा कायल है। यूरोप में आज सैकड़ों सभायें दिगम्बरत्व के प्रचार के लिये खुली हुई हैं। जिनके हजारों सदस्य दिगम्बर वेश में रहने का अभ्यास करते हैं। बेडल्स स्कूल, पीटर्स फील्ड (हैम्पशायर ) में बैरिस्टर, डाक्टर, इंजीनियर, शिक्षक आदि उच्च शिक्षा प्राप्त महानुभाव दिगम्बर वेष में रहना अपने लिये हितकर समझते हैं। इस स्कूल के मंत्री श्री बफड (Mr. N.F. Barford) कहते हैं कि Next year, as I say, we shall be even more advanced, and in time people will get quite used to the idea of wearing no clothes at all in the open and will realise its enormous value to health, (Amrita Bazar Patrika, 8-8-31) - भाव यही है कि एक साल के अन्दर नंगे रहने की प्रथा विशेष उन्नत हो जायेगी और समयानुसार लोगों को खुलेआम कपड़े पहनने की आवश्यकता नहीं रहेगी। उन्हें नंगे रहने से स्वास्थ्य के लिये जो अमिट लाभ होगा वह तब ज्ञात होगा। इस प्रकार संसार में जो सभ्यता पुज रही है उसकी यह स्पष्ट घोषणा है कि “ मनुष्य जाति को स्वस्थ रखने के लिये वस्त्रों को तिलांजलि देनी पड़ेगी। नग्नता रोगियों के लिये ही केवल एक महान् औषधि नहीं है, बल्कि स्वस्थ जीवों के लिए दिगम्यत्व और दिगम्बर मुनि (165) Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : भी अत्यन्त आवश्यक हैं। स्विटजरलैण्ड के नगर लेयसन (Leysen) निवासी डॉ. रोलियर (Dr. Rollier ) ने केवल नग्न चिकित्सा द्वारा ही अनेक रोगियों को आरोग्यता प्रदान कर जगत में हलचल मचा दी है। उनकी चिकित्सा प्रणाली का मुख्य अंग है स्वच्छ वायु अथवा धूप में नंगे रहना, नंगे टहलना और नंगे दौड़ना । जगतविख्यात् ग्रंथ “इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका" में नग्नता का बड़ा भारी महत्व वर्णित है। " वास्तव में डॉक्टरों का यह कहना कि जब से मनुष्य जाति वस्त्रों के लपेट में लिपटी है तब से ही सर्दी, जुकाम, क्षय आदि रोगों का प्रादुर्भाव हुआ है, कुछ सत्य - सा प्रतीत होता है। प्राचीनकाल में लोग नंगे रहने का महत्व जानते थे और दीर्घजीवी होते थे। किन्तु दिगम्बरत्व स्वास्थ्य के साथ-साथ सदाचार का भी पोषक है। इस बात को भी आधुनिक विद्वानों ने अपने अनुभव से स्पष्ट कर दिया है। इस विषय में श्री ओलिवर हर्स्ट सा. "The New Statesman and Nation" नामक पत्रिका में प्रकट करते हैं कि "अन्ततः अब समाज बाईबिल के प्रथम अध्याय के महत्व को (जिसमें आदमी और हव्वा के नंगे रहने का जिक्र है ) समझने लगी है और नग्नता का भय अथवा झूटी लज्जा मन से दूर होती जा रही है। जर्मनी भर में बीसों ऐसी सोसायटियाँ कायम हो गयीं हैं जिनमें मनुष्य पूर्ण नग्नावस्था में स्वच्छ वायु का उपयोग करते हुये नाना प्रकार के खेल खेलते हैं। वे लोग नग्न रहना प्राकृतिक पवित्र और सरल समझते हैं। शताब्दियों से जिसके लिये उद्यम हो रहा है वह यहीं पवित्रता का आन्दोलन है। यह पवित्रता कैसी है? इसके स्वयं उनके निवास स्थान गेलैन्ड (Gelande) के देखने से जाना जा सकता है जबकि वहाँ सैकड़ों स्त्री पुरुष बालक-बालिकायें आनन्दमय स्वाधीनता का उपभोग करते दृष्टि पड़े। ऐसे दृश्य देखने से मन पर क्या असर पड़ता है, वह बताया नहीं जा सकता। जिस प्रकार कोई मैला-कुचैला आदमी स्नान करके स्वच्छ दिखाई दे टीक उसी तरह यह दृश्य सर्व प्रकार के सूक्ष्म अंतरंग विषों से शून्य दिखाई पड़ेगा। ऐसे पवित्र मानवों के सामने जो वस्त्रधारी होगा वह लज्जा को प्राप्त हो जायेगा। ऐसे आनन्दमय वातावरण में ताजी हवा और धूप का जो प्रभाव शरीर पर पड़ता है उसको सर्वसाधारण अच्छी तरह जान सकते है, परन्तु जो मानसिक तथा आत्मिक लाभ होता है वह विचार के बाहर है। यह क्रान्ति दिनों दिन बढ़ रही है और कभी अवनत नहीं हो सकती। मानवों की उन्नति के लिये यह सर्वोत्कृष्ट भेंट जर्मनी संसार को देगा। जैसे उसने आपेक्षिक सिद्धान्त उसे अर्पण किया है। बर्लिन में जो अभी इन सोसायटियों की सभा हुई थी उसमें भित्र-भित्र नगरो के ३००० सदस्य शरीक हुये थे। उसे प्रतिष्ठित व्यक्तियों और राष्ट्रीय कौन्सिल के मेम्बरों ने अपनी-अपनी स्त्रियों के साथ देखा था। उन स्त्रियों के भाव उसे देखकर बिलकुल बदल गये। नग्नता का विरोध करने के लिये कोई हेतु १. दिमुनि भूमिका, पृ. "ख" 1 (166) दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है जिस पर यह टिक सके। जो इसका विरोध करता है वह स्वयं अपने भावों को गन्दगी प्रकट करता है। किन्तु यदि वह इन लोगों के निवासस्थान को गौर से देखे तो उसे अपना विरोध छोड़ देना होगा। वह देखेगा कि सैकड़ों स्त्री-पुरुषों माता-पिता और बच्चों ने कैसी पवित्रता प्राप्त कर ली है।" अतएव पाश्चात्य विद्वानों की अनुभवपूर्ण गवेषणा से दिगम्बरत्व का महत्व स्पष्ट है। दिगम्बरत्व पनुष्य की आदर्श स्थिति है और वह धर्म-पार्ग से उपादेय है, यह पहले भी लिखा जा चुका है। स्वास्थ्य और सदाचार के पोषक नियम का वैज्ञानिक धर्म में आदर होना स्वाभाविक है। जैन धर्म एक विज्ञान है और वह दिगम्बरत्व के सिद्धान्त का प्रचारक अनादि काल से रहा है। उसके साधु इस प्राकृत वेष में शीलधर्म के उत्कट पालक और प्रचारक तथा इन्द्रियजयी योगी रहे हैं, जिनके सम्मुख सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य और सिकन्दर महान जैसे शासक नतमस्तक हुये थे और जिन्होंने सदा ही लोक का कल्याण किया ऐसे ही दिगम्बर मुनियों के संसर्ग में आये हुये अथवा मुनिधर्म से परिचित आधुनिक विद्वान भी आज इन तपोधन दिगम्बर मुनियों के चारित्र से अत्यन्त प्रभावित हुये हैं। वे उन्हें राष्ट्र को बहुमूल्य वस्तु समझते हैं। देखिये साहित्याचार्य श्री कपिल जी एम.५. जज उनके विषय में लिखते हैं कि "मैं जैन नहीं हूँ पर मुझे जैन साधुओं और गृहस्थों से मिलने का बहुत अवसर मिला है। जैन साधुओं के विषय में मैं, बिना किसी संकोच के कह सकता हूँ कि उनमें शायद ही कोई ऐसा साधु हो जो अपने प्राचीन पवित्र आदर्श से गिरा हो। मैने तो जितने साधु देखे हैं उनसे मिलने पर चित्त में यही प्रभाव पड़ा कि वे धर्म, त्याग, अहिंसा तथा सदुपदेश की मूर्ति हैं। उनसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता होती है।" बंगाली विद्वान श्री बरदाकान्त पुखोपाध्याय एम.ए. इस विषय में कहते हैं - ____ “चौदह आभ्यान्तरिक और दस बाहय परिग्रह परित्याग करने से निग्रंथ होते हैं। जब वे अपनी नग्नावस्था को विस्मृत हो जाते हैं तब ही भवसिन्धु से पार हो सकते हैं। (उनको) नग्नावस्था और नग्नमूर्तिपूजा उनका प्राचीनत्व सप्रमाण सिद्ध करती है, क्योंकि मनुष्य आदि अवस्था में नग्न थे।" महाराष्ट्रीयन विद्वान श्री वासुदेव गोविन्द आपटे बी.ए. ने एक व्याख्यान में कहा था कि “ जैन शास्त्रों में जो यतिधर्म कहा गया है वह अत्यन्त उत्कृष्ट है, इसमें कुछ मी शंका नहीं है। प्रो. डा. शेषगिरि राव, एम.ए. पी-एच.डी. बताते हैं कि - १. जैमि, वर्ष ३२, पृष्ट ७१२। ४. जै.म. पृ.५६ २. दिमु..पृ. २३। ५. SSU. PT. II P.आ ३. जैम.. पृ. १५१। दिगम्बरत्य और दिगम्बर मुग्ने (167) Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (The Jaina) faith helped towards the formation of good and grcal character helpful to the progress of Culture and Humanity. The leading exponents of that laith continued to live such lives of hardy discipline and spiritual culturc etc." भावार्थ - "जैन धर्म संस्कृति और मानव समाज की उन्नति के लिये उत्कृष्ट और महान चरित्र को निर्माण कराने में सहायक रहा है। इस धर्म के आचार्य सदा की भांति तपश्चरण और आत्मविकास का उन्नत जीवन व्यतीत करते रहे।* "ईसाई मिशनरी ए. डुबोई स्प. ने दिगम्बन मुनियों के सम्बन्ध में कहा था कि - "सबसे उच्च पद जो कि मनुष्य धारण कर सकता है वह दिगम्बर मुनि का पद है। इस अवस्था में मनुष्य साधारण मनुष्य न रहकर अपने ध्यान के बल से परमात्मा का मानो अंश हो जाता है। जब मुनष्य निर्वाणी (दिगम्बर) साधु हो जाता है तब उसको इस संसार से कुछ प्रयोजन नहीं रहता। और यह पुण्य-पाप, नेकी-बदी को एक ही दृष्टि से देखता है। उसको संसार की इच्छायें तथा तृष्णायें नहीं उत्पन्न होती हैं। न वह किसी से राग और न द्वेष करता है। वह बिना दुःख पालुम किये उपसगों को सहन करता है। अपने आत्मिक भावों में जो भौजा हो उसको क्यों इस संसार की और उसकी निस्सार क्रियाओं को चिन्ता होगी।" एक अन्य महिला मिशनरी श्री स्टीवेन्सन ने अपने ग्रंथ "हार्ट आफ जैनिज्म" में लिखा कि - "Bcing rid of clothes one is also rid a lot of other worries no waler I needed in which to wash them. Our knowledge of good and evil, our knowledge of nakcuncss keeps us away form salvat on. To obtain it wc must forget nakedness. The Jain Niragranthas have forget all knowlcdgc ol good and evil. Why should they require clothes lo hide their nakedness?" (Heart of Jainism, p. 35) भावार्थ - "वस्त्रों की झंझट से छूटना, हजारों अन्य झंझटों से छूटना है। कपड़े धोने के लिये एक दिगम्बर वेषी को पानी की जरूरत नहीं पड़ती। वस्तुतः पाप-पुण्य का भान नग्नता का ध्यान ही मनुष्य को मुक्त नहीं होने देता। मुक्ति पाने के लिये मनुष्य को नग्नता का ध्यान भुला देना चाहिये। जैन निग्रंथों ने पाप-पुण्य के भान को भुला दिया है। भला उन्हें अपनी नग्नता छिपाने के लिये वस्त्रों की क्या जरूरत? १. जैम., पृ. १०५। (168) दिगम्बास्थ और दिगम्स मुनि Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन् १९२७ में जब लखनऊ में दिगम्बर मुनि संघ पहुंचा तो श्री अलफ्रेड जेकबशाँ (Alfread Jackob Shaw) नामक ईसाई विद्वान ने उनके दर्शन किये थे। वह लिखते हैं कि प्राचीन पुस्तकों में सम्मेद शिखर पर दिगम्बर मुनियों के ध्यान करने की बाबत पढ़ा जरूर था लेकिन ऐसे साधुओं को देखने का अवसर अजिताश्रम में ही मिला। वहाँ चार दिगम्बर मुनि ध्यान और तपस्या में लीन थे। आग सी जलती हुई छत पर बिना किसी क्लेश के वह ध्यान कर रहे थे। उनसे पूछा तो उन्होंने कहा कि "हम परमात्मस्वरूप आत्मा के ध्यान में लीन रहते हैं। हमें बाहरी दुनिया की बातों और सुख दुख से क्या मतलब ་ यद्यपि मैं पक्का ईसाई हूँ पर तो भी मैं कहूंगा कि इन साधुओं का सम्मान हर सम्प्रदाय के मनुष्यों को करना चाहिये। उन्होने संसार के सभी सम्बन्धों को त्याग दिया है और एकमात्र मोक्ष की साधना में लोन हैं। "" सचमुच इन विद्वानों का उक्त कथन दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनियों की महिमा का स्वतः द्योतक है। यदि विचारशील पाठक तनिक इस विषय पर गम्भीर विचार करेंगे तो वह भी नग्नता के महत्व और नग्न साधुओं के स्वरूप को मोक्ष प्राप्ति के लिये आवश्यक जान जायेंगे। कविवर वृन्दावन के शब्द स्वतः उनके हृदय से निकल पड़ेंगे “चतुर नगन मुनि दरसत, नुति श्रुति करि मन हरसत, १. JG., XXIII. p. 139. भगत उमग उर सरसता दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि तरल नयन जल बरसत ।। " (169) Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार बाह्य ग्रंथो गमक्षाणानांतरी विपयेषिता निर्मोहस्तत्र निथः पांथः शिवपुरेऽर्थतः । । - कवि आशाधर "यह शरीर बाह्यपरिग्रह है और स्पर्शनादि इन्द्रियों के विषयों में अभिलाषा रखना अन्तरंग परिग्रह है। जो साधु इन दोनों परिग्रहों में ममत्व परिणाम नहीं रखता है, परमार्थ से यही परिग्रह रहित गिना जाता है तथा वहीं निर्वाण नगर व मोक्ष में पहुंचने के लिये पांथ अर्थात् नित्य गमन करने वाला माना जाता है।” इसका कारण यह है कि मोक्ष मार्ग में निरंतर गमन करने की सामर्थ्य एक मात्र यथाजातरूपधारी निर्बंध हो के हैं। जो मनुष्य शरीर रक्षा और विषय कषायों की चिंताओं में फंसकर पराधीन बना हुआ है, भला वह साधु पद को कैसे धारण कर सकता है ? और दिगम्बर वेष को धारण करके वह साधु नहीं हो सकता तो फिर उसका निरंतर मोक्षामार्ग पर गमन अथवा मोक्ष-पद को पा लेना कैसे संभव है? इसीलिये दिगम्बरत्व को महत्व देकर मुमुक्षु शरीर से नाता थोड़ लेते हैं, और नंगे तन तथा नंगे पन होकर आत्मस्वातंत्र्य को पा लेते हैं। शाश्वत सुख को दिलाने वाला यही एक राजमार्ग है और इसका उपदेश प्रायः संसार के सब ही मुख्य-मुख्य मत प्रर्वतकों ने किया था। मनोविज्ञान की दृष्टि से जरा इस प्रश्न पर विचार किजिये और फिर देखिये दिगम्बरत्व की महिमा। जिसका मन शरीर में अटका हुआ है, जो लज्जा के बन्धन में पड़ा हुआ है और जो साधु वेष को धारण करके भी साधुता को नहीं पा पाया है, वह दिगम्बरत्व के महत्व को क्या जाने ? मन की शुद्ध भावों की विशुद्धता ही मुमुक्षु के लिये आत्मोन्नति का कारण है और वस्तुतः वही साक्षात् मोक्ष को दिलाने वाली है। किन्तु मन की यह विशुद्धता क्या बनावट और सजावट में नसीब हो सकती है ? नस्त्रादि परिग्रह के मोह में अटका हुआ प्राणी भला कैसे निग्रंथ पद को पा सकता है। इसलिये संसार के तत्त्ववेत्ताओं ने हमेशा दिगम्बरत्व का प्रतिपादन किया है। भगवान ऋषभदेव के निकट से प्रचार में आकर यह महत सिद्धान्त आज तक बराबर मुमुक्षुओं का आत्मकल्याण करता आ रहा है, और जब तक मुमुक्षुओं का अस्तित्व रहेगा बराबर वह कल्यण करता रहेगा। जाता है। दिगम्बरत्व मुनष्य को रंक से राव बना देता है। उसको पाकर मनुष्य देवता हो है। लेकिन दिगम्बरत्व खाली नंगा तन नहीं हैं। वह नंगे होने से कुछ अधिक है। नंगे तो पशु भी हैं पर उन्हें कोई नहीं पूजता ? इसका कारण यह है कि मानव जगत १. सागार, पृ. ५१३ । (170) दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानता है कि पशुओं को अपने शरीर को ढंकने और विवेक से काम लेने की तपोज नहीं है। पशुओं ने विषय विकार पर भी विजय नहीं पाई है। इसके विपरीत दिगम्बर मुनि के सम्बन्ध में उसकी धारणा है और ठीक धारणा है जैसे कि हम निर्दिष्ट कर चुके हैं कि वे साधु तन से ही नंगे नहीं होते बल्कि उनका मन भी विषय विकारों से नंगा है। दिगम्बरत्व का रहस्य उसके बाह्यन्तर रूप में गर्भित है। इस रहस्य को समझकर ही मुमुक्षु दिगम्बर वेष को धारण करके विकार विवर्जित होने का सबूत देते हैं। और आत्म कल्याण करते हुए जगत के लोगों का हित साधते हैं। श्री ऋषभदेव दिगम्बर मुनि हो थे जिन्होंने संसार को सभ्यता और धर्म का पाठ पढ़ाया। श्री सिंहनन्दि आचार्य दिगम्बर वेश में ही विचरे थे, जिन्होंने गंगवंश की स्थापना कराई और उन क्षत्रियों को देश तथा धर्म का रक्षक बनाया। कल्याणकीर्ति आदि मुनिगण नंगे साधु ही थे जिन्होंने सिकन्दर महान जैसे विदेशियों के मन को मोह लिया था, और उन्हें भारत भक्त बनाया था। वे दिगम्बर ऋषि ही थे जिन्होंने अपने तत्वज्ञान का सिक्का यूनानियों के दिलों में जमा लिया था और उन्हें बाद में निग्रहस्थान को पहुंचा दिया था। श्री वादिराज और वासवचन्द्र जैसे दिगम्बर मुनि धीर वीरता के आगार थे। उन्होंने रणांगण में जाकर योद्धाओं को धर्म का स्वरूप सपझाया था और श्री समन्तभद्राचार्य दिगम्बर साधु ही थे जिन्होंने सारे देश में विहार करके ज्ञान सूर्य को प्रकट किया था। सम्राट चन्द्रगुप्त, सम्राट अमोघवर्ष प्रभृति महिमाशाली नारत्न अपनी अतुल राजलक्ष्मी को लात मारकर दिगम्यर ऋषि हुये थे। ये सब उदाहरण दिगम्बरत्त्व और दिगम्बर मुनियों के महत्व और गौरव को प्रकट करते हैं। दिगम्बर मुनियों के पूलगुणों की संख्या परिपाण प्रस्तुत परिच्छेदों में ओत प्रोत दिगम्बर गौरव का बखान है। सचमुच श्री शिवव्रतलाल वर्मान् के शब्दों में - "दिगम्बर मुनि धर्म -कर्म की झलकती हुई प्रकाशमान मूर्तियां हैं। वे विशाल हृदय और अथाह समुद्र हैं जिसमें मानवीय हित कामना की लहरें जोर-शोर से उठती रहती हैं और सिर्फ मनुष्य ही क्यों ? उन्होंने संसार के प्राणी मात्र की भलाई के लिये सबका त्याग किया / प्राणी हिमा को रोकने के लिए अपनी हस्ती को मिटा दिया। ये दुनिया के जबरदस्त रिर्फापर, जबरदस्त उपकारी और बड़े ॐरे दर्जे के वक्ता तथा प्रचारक हुये हैं। ये हमारे राष्ट्रीय इतिहास के कीमती रत्न हैं। इनमें त्याग, वैराग्य, और धर्म का कमाल - सब कछ मिलता है। ये "जिन" हैं, जिन्होंने मोह-माया को तथा पन और १. जैम., पृ. ३-५। दिगम्बराय और दिगम्बरा पुरि (171) Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काया को जीत लिया। साधुओं को नग्नता देखकर भला क्यों नाक भौं सिकोड़ते हो? उनके भावों को क्यों नहीं देखते ? सिद्धान्त यह है कि आत्मा को शारीरिक बंधन से ताल्लुकात की पोशिश से आजाद करके बिलकुल नंगा कर दिया जाये, जिससे उसका निजरूप देखने में आवे।" यह वजह है इन साधुओं के जाहिरदारी के रस्मो रिवाज से परे रहने की। यह ऐब की बात क्या है? ईश्वर कुटी में रहने वालों को अपने जैसा आदमी समझा जाये तो यह गलती है या नहीं। इसलिये आओ सब मिलकर राष्ट्र और लोक कल्याण के लिये स्पष्ट घोषणा करो कविवर वृन्दावन की तान में तान मिलाकर कहो "सत्यपंथ निग्रंथ दिगम्बर" (172) - दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट तुर्किस्तान के मुसलमानों में नग्नत्व आदर की दृष्टि से देखा जाता है, यह बात पहले लिखी जा चुकी है। मिस लूसी गार्नेट की पुस्तक "Mysticism and Magic in Turky” के अध्ययन से प्रकट हैं कि “पैगम्बर साहब ने एक रोज मुरीदों के राज और मारफत की बातें अली साहब को बाता दीं और कह दिया कि वह किसी को बतायें नहीं। इस घटना के ४० दिन तक तो अली साहब उस गुप्त संदेश को छुपाये रहे किन्तु फिर उसके दिल में छुपाये रखना असंभव जानकर वह जंगल को भाग गये।” (पृ. ११०)। इस उल्लेख से स्पष्ट है कि पुहम्मद साहब ने राजे मारफत अर्थात योग की बाते बताईं थीं, जिनको बाद में सूफी दरवेशों ने उन्नत बनाया था। इन दरवेशों में अजालुलाब और अब्दाल श्रेणी के फकीर बिलकुल नंगे रहते हैं। मि. जे. पी. ब्राउन नामक साहब को एक दरवेश मित्र ने खालिफ अली की जियारतगाह में मिले हुए अजालुलौब दरवेश का हाल था। उसका रामकीय था। शरीर मझोले कद का था और वह बिलकुल नंगा (Perfecily naked) था। उसके बाल और दाढ़ी छोटे थे और शरीर कमजोर था। उसकी उम्र लगभग ४०-५० वर्ष की थी (पृ. ३६) । इन दरवेशों के संयम की ऐसी प्रसिद्धि है कि देश में चाहे कहीं बेरोक टोक घूमते हैं, कभी अर्द्धनग्न और कभी पूरे नंगे हो जाते हैं। जितने ही वह अद्भुत दिखते हैं उतने ही अधिक पवित्र और नेक गिने जाते हैं। (The result of this reputataion for sanctity enjoyed by Abdals is that they are allowed to wander at large over the country, sometimes half-cald, sometimes completely naked.) अपने ज्ञान का प्रयोग खूब करते हैं। घर और साथियों से उन्हें मोह नहीं होता। वे मैदानों और पहाड़ों में जा रमते हैं। वहीं वनफलों पर गुज़रान करते हैं। जंगल के खूंखार जानवरों पर वे अपने अध्यात्म-बल से अधिकार जमा लेते हैं। सारांशतः तुर्किस्तान में यह नंगे दरवेश प्रसिद्ध और पूज्य माने जाते हैं। यूरोप में नंगे रहने का रिवाज दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। जर्मनी में इसकी खूब वृद्धि हैं। अब लोग इस आन्दोलन को एक विशेष उन्नत जीवन के लिए आवश्यक समझने लगे है। देखिये, २ फरवरी सन् ३२ के "स्टेट्समैन" अखबार में यह ही बात कही गई है दिगम्बरस्व और दिसम्बर धुनि (173) Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "Germany is at present challenging the traditional view that clothes are requisite for health and virtue. The habit of wearing only the sun and air exercise is growing and the "Nudist" movement at first laughed at and blushed at else where, is now seriously studied as probably the way to a saner morality." -The Staleman, 2-2-32 भारतवर्ष में नग्न रहने का महत्व बहुत पहले ही समझा जा चुका है। विदेशों में अब वहीं बात दुहराई जा रही है। (174) दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकच्छ अकबर अकम्पन गणधर अकलंकचन्द्र १४९ अकलंकदेव ११५, ११६, ११७, १४० १६० १०९, १३० * अकलीक स्वामी अर्ककीर्ति अजन्ता अज़मेर अजरिका अजितसागर अजित सेनाचार्य अजित प्रसाद वकील अजितमुनि अजिताश्रम अनुक्रमणिका अकिञ्चन अग्निभूत गणधर अंकलेश्वर अंग अंगपूर्वधारी अच्युतराव राजा अचेलक १७, ४२, ४४, ४५, ४७,५०,६५ अजातशत्रु अर्जुन अज़ेस (Azcs [) अणहिलपुर अतिथि अथर्ववेद अथेन्स (Athens) अनन्तकीर्ति पृष्ठ ४८ १५४ ६६ ६५ ९३ ६२, ८२, १४९ ६५ ११३ १२९ ९६, १३३ ex १६१ ११०, १३७ १३६ ११२ १६९ ६२, ६५, ६९ ६७, ९३ ७८ ९३ २९, ४५ २३, २९, ५६ ७७ ५०. १५९ अनगार अनन्तजिन अनन्तनाथ अनन्तवीर्य अनुरुद्धपुर अनेकान्त अनैमलै - पशुमलै अन्शकृतस (Oneskrits) अंजनेरी अपरिग्रही अपोलो एवं दमस अनिस्तन अफ्रीका अबुल -अला अलकासिम मिलानी अबुल फ़ज़ल अब्दल अबीसिनिया अभयकीर्ति अभयकुमार अभयदेव वादीन्द्र अभयनन्दि अमरसिंह अमेरिका अमलकीर्ति अमितगति आचार्य अमोघवर्ष सम्राट् अम्बा अयोध्या (175) ६० ३३ ९६ १४७ २१ १२१ ७५ ex ४५ ७७ १४६ १४६ १४६ ३५ १५४ ३४ १४६ १४९ ६२, ६७ १४१ ११७ ८४ १४५ १०८ ९१ १०९, ११०, ११७. १३०, १७१ ८९ ८७ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i अरब अरमेनिया अरस्तू अरिष्टनेमि अरुलनन्दि शैव अर्हनन्दि अलफ्रेड जेकब शा अलबेरुनी अलब्रेट वेबर अलवर अलाउद्दीन अलीगंज अलीगढ़ अल्लूराजा अवतार अवधूत अवन्ती अविनीत-कांगुणीर्मा अशोक अश्वस्ट देश असुर असाई - खेड़ा ३१, ३३, ९७, १०९, १४६, १४७, १४८ મ ३० अहमदाबाद अहराष्टि- संघ अहिक्षेत्र अहीर देश अलीक आकनीय अकसीनिया आगरा आगस्टस ५७,५८ १२२ १०९, १३० १३१ १६९ १५३ ५६ १३३, १६० १५०.१५१ १३६ १६० ९६ २०, २३ २४, २५, २६ ६५, ६९ १०६ ७३ १२४. १४६ ६२ ५८ ८९ ३२ १०७ ८७, १२६ ९३ ४२, ४५, ५१.५७ १४५ १४५ १५६, १५९, १६० ७७ आचार्य आचारागंसूत्र आचेलक्य आजीवक आत्माराम आदम आदिनाथ आदिप्रचारक आदिसागर आर्द्रक आनन्दसागर आन्ध्र आर्य (176) आरटाल आरुणी आशावर, कवि आसाम आसार्य - नागाय आहवमल्ल नरेश इटाक इयूपिया इंग्लैण्ड इन्द्रकीर्ति इन्द्र चतुथ राठौर इन्द्रनन्दि इन्द्रभूति गौतम इरविन म्यूजियम इलाहाबाद इल्हामन्जूम इस्लाम इक्ष्वाकु वंश ईडर ४३, १६० ४४, ४५ ४२, ४४ ६०, ६४, ११९, १२४ ४९ १३, ११६ २९ २२१२५ २०, २३ १६१ s १५९, १६१ ७६, ८८, १०३, १०१ ४६ १२३ २५,२८ १३, १७० १२८ १३० १४४ १३६, १५८ १४६ १६५ १२१ ११० १२७ ६२, ६५ १३१ १६३, १६४ ३४ ३५, ३६, १४६ ८०, १०६ १६१ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ ११६ १६६ १२८ ईरान १७, ७४, १४६ | एरे यंग नरेश १३, ३५, ३७, ३८ एलोरा १२१ उग राजकुमार ऐनापुर भोज १६० उग्रपेरुवलूटी पापड्यराज ऐयंगर, प्रो. रामास्वामी ११४ उज्जतकीर्ति मुनि ११४ ऐलक ४०, ५०, १६० उज्जैन-उज्जैनी ७२, ७६, ८०,८३, ऐल-खारवेल ८०, ८१, १०४ ८४, ८५, ८७,८९, एशिया ९१,९४, १७, १०६ ओडयदेव उज्जैन के दिगम्बराचार्य ८७,९१ ओड़यरवंशी उतूर-गुण ४०, ४२ ओड़ीसा १२८ उत्तराध्ययन-सूत्र ओलिवर हर्ट उत्तरपुराण औरंगजेब ३१, ३५, १५४, १५६ उत्तर नाम १६१ ककुभ १२७ उदगाँव कछवाहे उदयगिरि कटनी उदयन कटवा ७२, १४२ उदयपुर(उदैपुर) १२०, १५१ कटारीखेड़ा उदयसेन मुनि कणूरगण १०६ उन्दान का पुत्र आमरकार करणकि उपक आजीविक ११९, १२० कत्तमराजा उपनिपद् १३० कदम्ब उपाध्याय प्रो.ए.एन. ५१. १०६.१०७, २०८.१२८ कनकामर मुनि उमास्वामी ४७, ४९ ११५, ११४, ११६ कनकचन्द्र ऋक्संहिता १३० ऋावेद कनकसेन कोज ऋभु कन्धार ऋषभदेव १६, २०, २२, २३, २४, २९, ३०, ४८, ५६, ५७, ५८, कन्डरमसुक ६०,७९, १०२, ११३, १२४, कनिष्क १५९, १७० , १७१ कपिथ ऋषि १६, ३०,४६, ७८ कमलकीर्ति ऋषि विजय गुरु कमलशील बौद्ध करकण्डु १०३, १०४ (177) १२६ ५६ ९५ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ १०८ करण १२३ कश्मीर ६९, १४९ कर्णाटक ९३, ११६, ११७ काष्ठा संघ १२५, १४९, १५०, १५५ कर्ण. राजा कीर्तिवर्मा १३४ कर्ण-सुवर्ण कुटिचक २२, २४, २६ कर्म-संन्यासी २७, २८ कुण-सुन्दर करहाटक १२९ कुणिक कलचूरी ९७, १०८, ११० कुण्डग्राम कल्पकाल कुण्डलपुर कलभ्रवंश १०५, १२० कुदेप श्रीखर कलमा कुन्ति भोज ९३ कल्याणकीर्ति कुन्दकीर्ति १४२ कल्याण मावि कुन्दकन्दाचार्य १५, ४६, ४७, १०४, कलहोले १३४ १०७, ११४, ११६, ११८, १३९ कलारमत्थुक कुन्दुरशाखा १३० कलिंग ६७,७९,९१,८२,८८, कुम्पोज-बाहुबलि १३१.१६० १०४, १२५, १४९ कुम्भ मेला काकतीय वंशी १२२ । कुमुदचन्द्राचार्य काञ्चीपुर ८०, १०७, ११७, १३९ कुमार कीर्तिदेव कानपुर कुमार पाल सम्राट काठियावाड़ १६१ कुमारभूपण कापालिक कुमार सेनाचार्य १३१, १५० कामदेव सामन्त १३१ कुमारी पर्वत ८०,८२, १२३ कारकल १०३, ११२, १४३ कुर्रल कापण कुरान कार्तवीर्य १३४, १३५ कुरावली कारेयशाखा १२९ कुर जांगल कालन्तुर १४१ कुरुम्ब १४२ कालवंग ग्राम १२८ कुलचन्द्र ८२, १३१ कालिदास कुशान १२७ कावेरीप्पूमपष्टिनम् कुसंध्य क्काथतोय १४५ ८५, १२७ काशी ६२ कूर्चक (178) १६० २५ १२० ६२ कुहाऊं . १०७ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० कृष्णचन्द्र विद्यालंकार ८६ । गाँधी महात्मा १३, १४, १४७ कृष्णवर्मा महाराजा कादम्ब १२८ ग्लाजेनाप्प, प्रो. १४८ केरल १४५ ग्वालियर ५१,९७, १३२, १४९, १५१ केशलोच ४२, ४४, ५७, ८७, गिरिनगर ८०,९३ गिरिनार ७२, १०५, ११४ केशरिया जी गुजरात ७८, ९३, ९४, १५२ केसरी ६५ गुणकीर्ति महामुनि ९६, १२९, कोनूर १३४ १५१,१५५ कोटिकपुर ७०.७२ गुणनन्दि कोटिशिला ८० गुणभद्राचार्य १०९,११७ कोल्लग ६१,६६ गुणवर्मा राजा कोलंगाल गुणसागर कोल्हापुर १११, ११२, ११३, गुणश्री विमलश्री १३५ ८३ कोवलन् सेठ १११९, १२० गुरमड्या १५८ कोशलापुरी कौशल ६२,६५,८०,८८ गुलाम १४९, १५२ कौशाम्बी ६२, १२७ गुहन्दि खजुराहा मुहशिवराजा खस १२३ गुजर जैनी ११४ खंडगिरि-उदयगिरि १२५ गेलैन्ड १६६ खारवेल ७६, ७९.८०,८१, १२५ गोआ खिलजी १४९, १५० गोपट्टदेव खुरई १६१ गोमसार ११७ खुशालदास कवि गोलाध्याय १०१ खेम बौद्ध भिक्षु गोल्लाचार्य १३८ गोबर्द्धन श्रुतकेबनी गणधर ६५, ६६ गोबिन्द तृतीय १०९ गणाचार्य गोविन्दराय राठौर गणी ४६ गौड़देश ९७, १४९ गान्धार १४५ । गौर-ग्राम १२८ गोपन्दि खुदा ३६ गंगा Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंगा गंगदेव गंगराज सेनापति गंगवंश घोषाल, प्रो. शरच्चन्द्र चक्रेश्वरी चतुर्मुखदेव चन्द्रकीर्ति चन्द्रगिरि चन्द्रगुप्त द्वितीय चन्द्रगुप्त मौर्य चन्द्रसागर मुनि चन्द्रिकादेवी रानी चन्देल चम्पापुर चाकिराज गंग ७२, ७३, १०२, १०५, १३७, १३८, १६७, १७१, १५९, १६१ १३५ ९६ ९७ चामुण्डराव चावलपट्टी चारुकीर्ति आचार्य चालुक्य चीन देश चेटक चेदिराज ३१ ७७ ११२, १३८ १०५ २२ ८१ १४० १५७ ७१, ७२ ८४ १३० ११०, ११७, १४२ १३५ १४१ चालुक्य जयसिंह चालुक्यराजा कोन चालुक्यराज जयकर्ण चालुक्यराज भुवनैकमल्ल चालुक्यराज विग्रमादित्य चिताम्बूर चित्तौर ९३, १०३, १०९, ११०, ११४, ११७ १४ १३४ १३४ १३२ १२९, १३० ११३ ९६. ८७ ६१, ६२ ८० चेर १०४ चोल १०३, १०४, १०९, ११९, १२०, चोलदेश ८८, १४, १०८ चौहान ८९, १६, १३३ छह-आवश्यक ४१ ७८ १५५ १६१ १३१ १६० ९५ ७०, ७१, १५४ १३३ १२१ १०७ ६६ ७७ (180) छत्रप छत्रसाल महाराज छाणी उदेपुर) जगदेकमल्लराजा वालपुए जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति जम्बूस्वामी जयकीर्ति आचार्य जयदेव पंडित जयधवल जयन्ती जयपाल जयभूति जयसिंह नरेश जलालुद्दीन कमी जवणवे जावालोपनिषद जितशत्रु जिन (जिनेन्द्र ) जिनचन्द्र जिनदास कवि जिनप्पास्वामी जिनलिंगी जिनसेन जिन शासन जिजीप्रदेश जीवंधर १२६ ११७ ૩૪ १३८ ५७, २३, २५ ८०, १० १७, ६०, ९९, १०० १४०, १५५ ११४ ४६ ૪૬ १०७, १०९, ११०, ११७ १९ १४३ ६२, १०३ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर ७९ १५८ तुगलक १३५ दत्त २८ १६९ १३१ ४४ जीवसिद्धि २९. ५७, ५८,५९, ६०, ६१,६२,७९,८५, १०३, जूनागढ़ १२४, १२७, १३६, १४५ जैकोबी प्रो. २३, ६४ दगिकाख्य ६६ जैनबद्री १४९, १५० जैनाचार्य १६, १९, १०, २२ तूरान १४५ जोगी तूरियातीत २५, २६, २९ जर्मनी २६५, १६६, १६७ तूरियातीतोपनिषद झल्ल ५६, १२३, १२४ तेवरी झांसी ९६, १६० तेवारम १२१ झालरापाटन १३२, १५९, १६१ तैलंग ट्रावरनियर १५६ तोल्काप्पियम् टोडरमल जी २२, ५७ टोडर साहु दत्तात्रयोपनिषद् ददिग माधव १०६ ठाकुर क्रूरसिंह मुखिया दण्डनायक दास्सीमरस ठाणांगसूत्र दण्डिन् कवि १००, १४० डायजिनेस (Diogenes) ७५, १४६ दमस डेली न्यूज दरवेश ३४, ३६, १४९ हुवोई ५७,८० ढाका दहीगाँव ढूंढारिदेश १५५ दउठावंश ४५, ५१,८१ ३०, ४६ दामनन्दि १४० तलकाड १०८ दाराशिकोह ३५ तक्षशिला ७४, ७८ द्राविड़ ५६,८८,९४, १०४.१ तार्ण ताम्रलिप्ति दिगम्बर दिगम्बरत्व १३, १४, १५. तमिल ११९, १२०, १२१, १२२ १६, १७, १९, २०, २१, तिस्थिय २३, २४, २६, २९, ३२, ३३, तिम्मराज ३५, ३६, ३७, ३८.३९,४८,५६, तिमूर लंग ६२, ५७.६३, १२९, १४६, १६५, तिरुमकूडलूनरसीपुर १३९ १६६,१६७,१७० (181) १४ १६८ दशरथ १५८ तपस्वी १४८ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिग्वास दिल्ली दिवलम्बा रानी दिवाकरनन्दि दीघनिकाय दुर्लभराज दुर्लभसेनाचार्य दुर्वनीत दुर्वांसा दूवकुन्ड देव देवकीर्ति तार्किक चक्रवर्ती देवगढ़ ६१ ९४, १५० १५० १० १३१ १४१ ६१, ६५, १२४ देवनन्दि देवमति देवराय राजा देवसूरि श्वेताम्बराचार्य देवसेन देवेन्द्रकीर्ति देवेन्द्र मुनि देवेन्द्रसागर देववर्मा कादम्ब देशीयगण देवगढ़ के मुनि धर्मनन्द आदि देवगिरि द्वैपायक श्रावक दोहद धनदेव धनजय कवि धनपाल कवि धनमित्र धन्यकुमार १३२ १४९ १०६, १९६ २९ १३२ ६६ १३७ ८९, ९६, १३३ १३३ १२८ ११६ १३८ ११२ ९३ २१९ ११४ १३० १६१ १२८ १४० ११६ १२५ ६६ ९० ९० ६६ દૂર धर्म्म (182) धर्मचन्द्र धर्म्मभूषण धर्म श्री धर्मसागर धर्मसेन घरसेनाचार्य धवल धारानगरी धात्रीवाहन राजा ध्रुवसेन धुर्जटि धौलपुर नग्न नग्नत्व नन्द नन्दवर्द्वन नन्दयाल कैफियत नन्दिपेण नन्दि संघ नहपान नक्षत्र नमिसागर नयकीर्ति नयनन्दि नयसेन नर्मदा नरसिंह गंगराज नरसिंह मुनि नरसिंह होयसाल नरेन्द्रकीर्ति १७, १९, २० २१, २६, ७, ८६, ८८ ९६,१३६, १५६ ११२ १३३ १६१ १५५ १०५, १४९ ६६ ९० १७ ७७ १३९, १४० १६० ४७, ५६, ५८ १३, १५, १७, १९ ६६, ७०, ७२, ७४, ७६, १२३ ६९ १२१ ११७ १६१ १३८ ११, १३० १५० ५८ ११० १५४ ११२ १३३ ७८ १७७ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुराण १५३ नागदेव १३१ । पञ्जाब ७६,७८,८७, ९२३, १३९ नागमती १३७ / पटना ९७, १३६ नागवंशी पडिहार ८९, ९७ नागा साधु पण्डाई वेडु राजा नाधि या नाभिराय २०, ३० पण्डित महामुनि नारद परिव्राजकोपनिषद् २१, २६, २७ पतंजलि २३ नारबे १४५, १४६ पानाभकायस्थ नारायण पानन्दि १६, १५० नालक २२.४९, ५८ नालछा पप्रभ १३० नालदियार पालादेवी नालन्द प्यसीश्रावक निगोद फ्यावत निजिकन्वे फ्यावती रानी निदाघ पनिवन्वेराजकुमारी आर्यिका १० निग्रंथ २३, २५, २९, ४७, पर्णकुटि ५१, ५७,५९,६०, ६१,६४,६७, परमहंस २०, २३, २४, २५, ६८,७३,७८,८१,८३,८५,८७, २६, ३१, ३९ ८०,१०७, ११९, १२, १२४, १२६, परमहंसोपनिषद् १२८, १३५, १४७, १६१, १६५ २२, २५ निग्रंथ नाथपुत परमार वंश ५०.६५ ९०,९२ निजाम परलूराक आचार्य निरागार परवादिमल्ल निश्चेल परवार १६१ निरुक्त पल्लव वंश to निल्लिकार (कारकल) १५९ पसेनदी नेपाल ६४,१४९ पहाड़पुर ८३, १२८ नेमिचन्द्र-नेमिचन्द्राचार्य ९१,९६, प्रत्याख्यान ४९, ४२ ११०, ११३, ११७, १३०, १३५ प्रतापसेन नेमिदेव प्रतिक्रमण नेमिनाथ प्रतिमा पञ्चतंत्र पृथ्वी . पञ्चपहाड़ी ७० । पृथ्वीवर्मा (183) १२८ ६५ १०० Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रीतकर २ पृथ्वीराज चौहान ९६ ६२ प्रभाचन्द्राचार्य पुण्ड्रबर्धन प्रभाचन्द्रदेव १३०, १३८, १४० पुण्डी(अर्काट) ११३ प्रभास पुत्राट प्रयाग ३२,८७ पुनिस राजा . प्रबोष चन्द्रोदय __ १०० पुलकेशी द्वितीय पाखण्ड १५,८४ पुलल पाटिकपुत्त ४५,६७ पुलिस एकर पाटलिपुत्र ६९, ८१, १००, १३९ पुलमायिहाल ७६ पाटोदी १५३ पुष्पदन्त पाण्ड्य १०४, ११९ पुष्पदन्ताचार्य पाण्ड्य नरेश १४० पुष्यमित्र पापड़ ७७, ८१ पुष्यसेन मुनि ११६ पाण्डुकाभय १४७ १२० पाण्डवमलय १३६ पूज्यपाददिगम्बराचार्य पाणिपात्र ११४,९१५. ५१६, ११८ पादरी पिन्हेरी १५४ पूर्णकाश्यप पायसागर मुनि पूर्णचन्द्र पारथसार्दी १६३ पेरियपुराणम् १२० पारस्य पेशावर ८७ पाश्र्वनाथ ६०,६३, ७०, पैहो १४६ १०३, १२३, १२७, १३१ पोदनपुर पाराशर पोरवाड़ पालाशिक १०७ प्रोपवधोपवास पाबा प्रोष्ठिल पाहिलसरदार फतहसागर ब्र, १६९ पात्रकेसरी १२९ फलटन १५९ पिटर डेवााल्ला फागी(जयपुर) १५८ प्रियकारिणी फाहयान पित्री कौन्सिल १६२, १६३ फ्रांस पिहिताश्रव फिरोज़ाबाद १६० पीटर बकग्रीव (184) १०२ ५८ ६१ ५ १३१ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बगदाद बंग या बंगाल बनराज बनवासी बनारस बनारसीदास कवि प्रसूरि बर्नियर बर्लिन बल्ख बलदेव बलनन्दि बलात्कारगण बल्लालराय बसन्तकीर्ति बहुदक ब्रम्हदत ब्रम्हपुर ब्रम्हाण्डपुराण ब्रम्हावर्त बाईबिल या कवि बादामी बाबर बालमुनि बासुपूज्य बासव बासवचन्द्र बाहुनंदि मुनि बाहुबलि (૪૭ ७२, ८२, ८३, २४ २६ १० १२० १०६, १०७ ६५, ८७, ९०, ११२, १३, १६९ १५६ ८९ ३१, ३५, १५६ १६७ १४५ १३३, ९५ १२९, १३४ ११२ १३३ २४ ८९ ८७ ४९ २० ३७, १६६ ८७ १२९ १४८, १५३, १३२ १२५ ११२ १११ १३२, १४० १३५ ६०, १०२, १२९, १३१ बाहुबलि व्याकरणाचार्य बिज्जल विपक्षिण विदिशा ब्रिटिश बीजापुर बुद्ध बुद्धघोष बुद्धिलिंग बेडल्स स्कूल बेलगाम बैक्ट्रिया भगवान दास ब्र. भटकल भट्टाकलंक १३० १११ ९६, ९३३ १३९ १५८, १६१ १३५ ६०, ६१, ६३, ६८, १२४, १८१ ४५ ८० १६५ १२४, १३५, ११३, १६० १४६ १६१ ११३ ११२, १४० १५४ १२६ ८४ ૮૪ ६६ ७२, १०५, १३७, १३८ ૬૬ ५७ ७७, १३ २९, ६० ३०, ९९ टानियाकोल भट्टिसेन भद्दलपुर भद्दलपुर के दिगम्बर भदिला भद्रबाहु भद्रा भृगुअंकरिस भृगुकच्छ भरत भर्तहरि भरोच (185) भागवत भामन्तीसनी भारतवर्ष भावनन्दि मुनि भावसेन २०, २९, ५६ १३१ ६०. ९६३ १३३, १४३ १५५ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावसेन नैबेद्य भिक्षुक भिक्षुकोपनिषद् भीमसेन भूतबलिह भैरवदेवी भोजपरिहार भोज या भोजराजा भोपाल भोसगी के निर्ग्रथ मुनि मक्खनलाल पं. मक्खलिगोशाल मगधदेश मच्छिकाखंड मज्झिमनिकाय मण्डिकगण मणिपुर मणिमेखले मतिसागर बादी मथुरा मदरसा राजा मद्रवित्र मदुरा मदनकीर्ति मुनि मदनवर्मनदेव मध्यदेश मनरगुडी मनु मनेन्द्र १३३ ५२ २७, २८ ९० २२ ६३, ६४ ६२, ६५, ६९, ७६, ८०, ८२ ६५ ७८, १३ ११३ ८९ ११, १०, १४० १६० १६० ६१ ६६ १३३ १०५, ११९, १२० १७ ७० ८७, ८०, ८३, , ८४, ८७, ८९, १०५, १२३ १२५, १२७, १५४, १६० ९२, १३ ९६ १३१ १२७ १०५, १०८, ११७, १२०, १२९, १३६ ८४, ९६ ११३ २० ७८ मरुदेवी मल्ल मलाबार मलिक मु. जायसी मल्लिका मल्लिकार्जुन मल्लिसागर मल्लिषेणाचार्य (186) ११८ ३४ १९४ महमूद गजनवी १४९ मुहम्द गौरी १४९ महादेव २२ महाभारत ५८ महाराष्ट्र ९४, १०६, ११३ ११४, १६० महावग्ग ६०, ६३, ६५ ४०, ९४ ५२ ६०, ६५ २९ मस्नदी महतिसागर महानत महाव्रती महावस्तु महाव्रात्य महावीर महावीराचार्य महासेन मीचन्द्र महेन्द्रकीर्ति महेन्द्रवर्मन महेन्द्रसागर महेश्वर मृगेशवर्मा मृगेश्वर वर्मा ५६, १२३, १२४ १५३ १५३ ६५ १३४ २९, ४८, ५०, ६०, ६६, ६८, ७८, ८०, १०, १०३, १०४, १२३, १३८, १४५ १०९, ११० ९०, १४९, १५० १५० १५५ १०७ १५५ ३० १२८ १२८ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I 1 ! I F 1 माघनन्दि माँडवी माणिक्यचन्द्र माणिक्यनन्दि माथुरसंघ माधवकगुणिवर्मा माधवभट्ट माधवसेन मानतु मान्यखेट मानाइकन् मानादित्य मायामोह मार्कोपोलो मारसिंह मालकूट मालव या मालवा माहण मिथिलापुरी मिरज मिश्र मुग़ल मुजफ्फरनगर मुज मुण्डकोपनिषद् मुद्राराक्षस नाटक मुनि मुनीन्द्रसागर मुहम्मद मुहम्मदशाह मुर्तिनायनार मूलपुंड ९५, १३१, १३६, १४१ १६१ १५३ १५३ १०५ ११६ ९१. १५० ९१ १०८, १३० ११९ १३५ ५९, १०१ १५२, १५३ ११० ८९, १०८ ७८, ९०, १३, १३९ ५२ ६६ १६० ३७, १४५, १४६ १५३, १५४ १६० ९०, ९१ ४०.५७ ६९, ९९ ५२ १६१ ३३, ३६ १५० १२० १३० मूलगुण मेगस्थनीज़ मेघचन्द्र मेदपाट मेहिककुल मैनपुरी मैलेयतीर्थ मैसेर मोरे ना मोहन जोदड़ो मौनीदेव मौर्य मौदक ब्राम्हण मौर्यपुत्र पौख्यदेश यजुर्वेद यति यवन यवनश्रुति यशः कीर्ति यशनन्दि ४०, १३३, १४०, १५७ ७२ ११८, १३८ १५१ १२६ १३६ १२९ १११, ११२ १५९ १२३, १२४ १३० ७१ ७२ ७३ ६६ ६६ ६६ २९, ५५, ५७ ५२ ૭૭, ૭૮ १४५ १४९, १५५ ८२ ५१ ८६ १०७ २४, २८, २९ ६० यशोदेवनिर्ग्रथाचार्य यशोधर्मन् राजा यापनीय याज्ञवल्कोपनिषद् युधिष्ठिर यूनान ७४ ७५ ७७, १४५, १४६, १६५ यूरोप १४५, १६५ येरवाल १६० योगी योगीन्द्रदेव राष्ट्र या राष्ट्र (187) २३, २६, ४३, ५२ ५३. १३८ ११४, १२९, १३४ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - 7... न १५३ १३२ १२५ १५७ १५५ रहराजसेन १३४ रणकेतु राजा रत्नकरण्डक श्रावकाचार रत्नकीर्ति विधान रसीदुद्दीन राइस मि. १०८ रायमल्ल सत्यवाक्य ११०, ११७ राजगृह ६०,६४, ६५, ६६, ७०,८३,८५, १२७ राजपूत राजमल्ल कवि १५४ राठौर १३० राधो-चेतन रामचन्द्र १०३,८०,६० रामचन्दाचार्य १२९ रामचन्द्र सूरि १५१ रामानन्द १३६ रामसेन १४९, १५१ रामायण ५७, ५८ लक्ष्मण लक्ष्मीचन्द लक्ष्मीदास लक्ष्मीमति लपदीसेर लक्ष्मेश्वर लाटावागटगण लालकस लालजीत कवि लालमणि कवि लिंगायत लिंग पुराण लिच्छवि लोकपाल राजा लोदी बट्टगामिनी राजा वत्सदेश व्यक्तगणघर बरगल वरदाकान्त वर्द्धमान् १११, १४३ ५६, १२३, १२४ १५० १४९, १५० , १५२ १२२ १६७ रायराजा ६१, १२६ रावण ४७.९९ राष्ट्रकूट राक्षस रुद्रसिंह छत्रप रेड सी रोम रोलियर डॉ. १४५ ९३, १०३, ११०, ११५ वराहमिहिर ६९ वसुभूति १४५ वसुविन वाग्वर ७७, १४५ वातवसन १६१ वादिदेवसूर वादिराज १०३, १४६, १४७ । वादीमसिंह १३५ वामदेव १६१ । वामन (188) सखनऊ १४०, ११७, १७१ लंका ललितकीर्ति ललितपुर Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ १४० ८५ १३५ ९३, ११२, १३६, १५२ २०, ३०, ५८ १४० ३२, ४७, ५८ वायुपुराण विपलकीर्ति वायुभूति विमलचन्द्र कारानगर ८९,९४,९७ विमलनाथ वारानगर के आचार्य विमलसेन वारिषेण ६२ विलगी वारुणी विल्किन्सन बाल्हीक १४५ विवसन वासुदेव विशाख वासुदेव आपटे विशालकीर्ति विक्टोरिया विश्वसेन विक्रमादित्य ७६,१०९ विष्णु विक्रमसिंह कछवाहा विष्णु भट्ट विजयकीर्ति विष्णु पुराण बिजयचन्द्र वीरनन्दि विजयदेव वीर पाण्ड्य विजयनगर १०४, ११२ बीरसागर विजयपुर वीरसेन विजयसूरि वीरुपक्षराय विजयसागर वुटुगगंग विजयसेन वृकार्थप विजयादित्य वृन्दावन कवि विजयादेवी वृषभाचार्य विष्टिदेव व विष्णुवर्द्धन १११, १३८ वृदय मौर्य विद्यानन्दि ११२, ११७, १४३, १५० वेगिराज विधुच्चर ६२,७१ वेद विदेह वेणुराजा विन्दुसार वेपुर विंध्य वर्मा विनय चन्द्र वैराग्यसेन विनयादित्य होयसाल १४० विनयसागर १३६, १५८ | वैशाली विपुलाचल ७०,८८ | शक १४३ १६१ १०७, ११७, १३१, १४३ ११२ १४५ १७२ १२२ १०९ २४, २९, ३२, ५५, ५८ वैरदेव १०२, १४३ ८५. १२८ १०१ वैराट १५४ ६१,६२, ६७,६८ ७८ (189) Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ६२ शकटाल श्रवणबेलगोल ६०, ७२, १०२, शतानीक ११२, १३६ शम्भू श्रावक ४०,८२, १६१ शान्तरट्टराज १३० श्रावस्ती ६७,८३,८५,८७, ९० शान्तलदेवी १११, १३८ श्रीचन्द्र शान्तिकीर्ति श्रीधराचार्य शान्ति देव श्रीपाल गुरु शान्तिनाथ १३४ श्रीभूषण शान्तिराजा श्रीमद्भागवत २०, २३ शान्ति वर्मा १२८ श्रीमूलभधारक १२९ शान्तिसागर १५९, १६०, १६१ श्री वरदेव आदि राजा शान्तिसेन ९१, १३२ श्री वर्द्धदेव १३९ शालिभद्र श्री विजयशिवमृगेश वर्मा शाहजहाँ ३५, १५६ श्री शिखर जी १६०, १६१ शिव ५९, १२०, १२१ श्रुतकीर्ति १५५ शिवकोटि ११६, १३९ श्रुतमुनि शिवनन्दि श्रुतसागर १६१ शिवपालित श्रेणिक विम्बसार ६०,६२ शिवमित्र राजा श्रेयाँससेन १५० शिवव्रतलाल वर्मन शेरशाह शिवस्कन्द वर्मा श्वेतकेतु २५, २८ शिशुनाग वंश श्वेताम्बर ४८, ५०, ५१, ९३ शुक्राचार्य शेषागिरि राव १०५, ११८, १४२ शुक्ल ध्यान २२,५७ १६८ शुभकीर्ति १३८ सकलकीर्ति शुभचन्द्र ९६, १२९. १३०, सकलचन्द्र १३४, १३५, १३८ स्कन्दगुप्त ८५ शुभदेव स्कंधपुराण ३०. ५९ शूद्रम्चेट्टी १६३ स्टीवेन्सन ६३, १६८ शंकरसिंह १६३ सत्य लोक श्रमण ४८,५३,५६, ५८.६४, ११९, | स्तूप ७०,७१,७८, १२१, १२५, १४५, १४६, १५३ । ८८,१२५, १२७,१३६, १५४ (190) १२७ १२७ १२७ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९, ८३ सदागोपाचार्य १६३ | साल स्थविर सावित्री १२३ स्थूलभद्र १०३ स्वामी महेश्वर १४० सनत्कुमार १५९ साहसतुग १४० सन्यस्त सिकन्दर निज़ाम लोदी सन्यासोपनिषद् १५२ २४, २५, २८ सिकन्दर महान् ३०,७१,७३, समतट ८८ १४५, १६७ समिति सिद्धवतम् कैफियत १२२ समन्तभद्र १७१ सिद्धराज सम्प्रति ७३, १४६ सिद्धसागर सम्वन्दर अप्पर सिद्धसेनदिवाकर सम्मेद शिखर १६९ सिद्धार्थ सरमद शहीद ३५, ३६ सिधुराज सल्लेखना ७४,७७,११०, १४७ | स्थिडो कल्लिस्थेनेस स्वर्ग लोक स्विटजरलैण्ड १६६ सहस्त्रकीर्ति सिंहनन्दि संकाश्य सिंहल १०४ संघ १६१ सिंहल नरेश संयमी सिंहपुर सुंक्त निकाय ६५, १२४ सिंह सेनापति २५, २८ सुग्रीव संसार १५,१६, १७, १८, १९, २१ सुंग ७६.८० साकल सुणक्खत ६७ सांगली सुधर्म ६६, ७७ सांख्य सुनन्द सांची सुन्दरदास कवि १५६ सातगोड़ापाटील १६० सुन्दर सरि स्थानेश्वर ८७ साधु सुप्पत्तित्थिय सामायिक ४२ सुपार्श्व सामंतकीर्ति सुलेमान ३१, १७, १४८ सायणाचार्य ४९ | सुहृद्ध्वज ८५,९० (191) Pla ६८ संवर्तक ७८ २४ ८०, ८१ सुन्दी ६० Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 153 130 , 150 24, 25, 89,97, 112 . 115, 116, 117 सूरवंश सूरित्राण सूरीपुर सूरीसिंह क्षुल्लक हिन्दू हिमशीतल हिमालय हरिविजयसूरि हेनसांग 69 161 सूर्यवंश 106 161 160 154 30, 51,86,88,89, 108, 146 153 112 हुमायू 78 हुल्ल हुविष्क हुमड़ हमसगढ़ 37, 146 130 90 149 हूण 150 हेमचन्द्र हेमांगदेश हैदर अली होयसाल क्षपणक 112 108, 111, 140 53, 54, 69,83, 19, 101,45,44, 58 सूर्यसागर सेठ घासीराम सेनगण सेनवंश सेन्ट मेरी सेरिंग का वंश सोमदेव सूरि सोमसेन सोमेश्वर राजा सोलंकी सौंदत्ति सौराष्ट्र हजारीलाल हठयोगप्रदीपिका हथी सहस हदीस हदूवल्ली हम्मीर महाराणा हरिवंशपुराण हरिपेण हर्पवर्द्धन हरिहर द्वितीय हन्या हस्तिनापुर हाथरस हाथीगुफा हारीतिको हालास्य माहत्म्य 161 21, 22 125 क्षत्रिय 33 क्षुल्लक 40, 159, 160 150, 153 141 112 क्षेमकीर्ति 96 विदण्डी 62,101 त्रिपिटक त्रिभुवकीर्ति 86, 87,89 त्रिमुष्टि मुनीन्द्र 112 त्रिशला ज्ञात ज्ञातृपुत्र ज्ञान भूषण ज्ञान वैराग्य संयासी ज्ञान सन्यासी 122 / ज्ञान सागर 56,61. 124 29 (192)