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नष्ट करने पर तुल पड़ेगा। ज्ञान और ध्यान रूपी शस्त्र लेकर वह कर्म-सम्बन्धों को बिल्कुल नष्ट कर देगा और तब वह अपने स्वरूप को पा लेगा। किन्तु यदि वह सत्य मार्ग से जरा भी विचलित हुआ और बाल बराबर परिग्रह के मोह में जा पड़ा तो उसका कहीं ठिकाना नहीं।
इसीलिये कहा गया है कि
बालग्गकोडिमत्तं परिग्गगणं पण होड़ साहूणं । भुजेइ पाणिपत्ते दिण्णणं इक्कठाणम्मि ॥ १७॥ भावार्थ - बाल के अग्रभाग (नोंक) के बराबर भी परिग्रह का ग्रहण साधु के नहीं होता है। वह आहार के लिये भी कोई बर्तन नहीं रखता हाथ ही उसके भोजनपात्र हैं। और भोजन भी वह दूसरे का दिया हुआ, एक स्थान पर और एक बार ही ऐसा ग्रहण करता है जो प्रासुक है - स्वयं उसके लिये न बनाया गया हो।
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अब भला कहिये, जब भोजन से भी कोई ममता न रखी गई दूसरे शब्दों में, जब शरीर से ही ममत्व हटा लिया गया तब अन्य परिग्रह दिगम्बर साधु कैसे रखेगा? उसे रखना भी नहीं चाहिये, क्योंकि उसे तो प्रकृतिरूप आत्म-स्वातंत्र्य प्राप्त करना हैं, जो संसार के पार्थिव पदार्थों से सर्वथा भिन्न है। इस अवस्था में वह वस्त्रों का परिधान भी कैसे रखेगा? वस्त्र तो उसके मुक्ति मार्ग में अर्गला बन जायेंगे। फिर वह कभी भी कर्म-बन्धन से मुक्त न हो पायेगा। इसीलिये तत्वत्ताओं ने साधुओं के लिये कहा है कि
जहजारूवरिसी तिला गिहदि हत्तेसु ।
जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं ।। १८ ।। २ अर्थात् मुनि यथाजातरूप है- जैसा जन्मता बालक नग्नरूप होता है वैसा नग्नरूप दिगम्बर मुद्रा का धारक है - वह अपने हाथ में तिल - तुष मात्र भी कुछ ग्रहण नहीं करता। यदि कुछ भी ग्रहण कर ले तो वह निगोद में जाता है।
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परिग्रहधारी के लिये आत्मोन्नति की पराकाष्ठा पा लेना असंभव है। एक लंगोटीवत् के परिग्रह के मोह से साधु किस प्रकार पतित हो सकता है, यह धर्मात्मा सज्जनों की जानी-सुनी बात है। प्रकृति तो कृत्रिमता की सर्वाहति चाहती है, तब ही वह प्रसन्न होकर अपने पूरे सौन्दर्य को विकसित करती है। चाहे पैगम्बर हो या तीर्थंकर ही क्यों न हो, यदि वह गृहस्थाश्रम में रह रहा है, समाज मर्यादा के आत्मत्रिमुख बन्धन में पड़ा हुआ है तो वह भी अपने आत्मा के प्रकृत रूप को नहीं पा सकता। इसका एक कारण है। वह यह कि धर्म एक विज्ञान है। उसके नियम प्रकृति के अनुरूप अटल और निश्चल हैं। उनसे कहीं किसी जमाने में भी किसी कारण से
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१. अष्ट, सूत्रपाहुड - १७ २. वही - १८
दिगम्बराय और दिगम्बर मुनि