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रंचपात्र अन्तर नहीं पड़ सकता है। धर्म विज्ञान कहता है कि आत्मा स्वाधीन और सुखो तब ही हो सकता है जब वह पर-सम्बन्ध पुद्गल के संसर्ग से मुक्त हो जावे। अब इस नियम के होते हुये भी पार्थिव वस्त्र-परिधान को रखकर कोई यह चाहे कि मुझे आत्म-स्वातंत्र्य मिल जाये तो उसकी यह चाह आकाश कुसुम को पाने की आशा से बढ़कर न कही जायगी ? इसी कारण जैनाचार्य पहले ही सावधान करते हैं कि
कवि सिज्झइ वत्थधारो जिणसासणे जई वि होई तित्थयरो।
जग्गो विमोखमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे।। २३॥ भावार्थ- जिन-शासन में कहा गया है कि वस्त्रधारी मनुष्य मुक्ति नहीं पा सकता है, जो तीर्थकर होते तो वह भी गृहस्थ दशा में मुक्ति को नहीं पाते हैं-मुनि दीक्षा लेकर जब दिगम्बर वेष धारण करते हैं तब ही मोक्ष पाते हैं। अतः नानतत्व ही मोक्षमार्ग है-बाकी सब लिंग उन्मार्ग हैं।
धर्म के इस वैज्ञानिक नियम के कायल संसार के प्रायः सब ही प्रमुख प्रवर्तक रहे हैं. जैसा कि आगे के पृष्ठों में व्यक्त किया गया है और उनका इस नियम-दिगम्बरत्व-को मान्यता देना ठीक भी है, क्योंकि दिगम्बरत्व के बिना धर्म का मूल्य कुछ भी शेष नहीं रहता-वह धर्म स्वभाव रह ही नहीं पाता है। इस प्रकार धर्म और दिगम्बरत्व का सम्बन्ध स्पष्ट है।
१. अष्ट,, सूत्रपाहुद्ध-२३
दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि