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________________ [२] __ धर्म और दिगम्बरत्व | णिच्चेलपाणिपत्नं उवाइद्वं परमजिणवरिंदेहि। एक्को वि मोक्खमगो सेसा य अमग्गया सव्वे ।।१०।। अर्थात-अचलक-नग्नरूप और हाथों को भोजनपात्र बनाने का उपदेदा जिरन्ट ने दिया है। यही एक मोक्ष-धर्म मार्ग है। इसक आंतरिक शेष सब अमार्ग हैं। मी धत्थु संहावी - धर्म वस्तु का स्वभाव और दिगम्बरच पनुष्य का निरूप है, उसका प्राकृत स्वभाव है। इस दृष्टि से मनग्य के लिये दिगम्बरन्य परमापादय धर्म है। धर्म और दिगम्बग्त्व यहां कुछ भद ही नहीं रहता। सन्चनच सदाचार के आधार पर टिका हुआ दिगरम्यरत्त्य धर्म के मिया और कुछ ही क्या मकता है? जीवात्मा अपने धर्म को गाय हये है। लौकिक दृष्टि से देणिये या आध्यात्मिक में, जीवात्मा भवभ्रपाग के चक्कर में पड़कर अपने स्वभाव में हाथ धोये बैठा है। लोक में वह नंगा आया है फिर १] समाज-मर्यादा के कृत्रिम भय के कारण वह अपने रूप (नग्नाच) को खुशी-खुशो छोड़ बैटता है। इसी तरह काम स्वभाव में मच्चिदानन्द रूप होते ये भी समार की माया-ममना में पड़कर उस स्वान् भवानन्द मे वंचित है। इसका मुख्य कारण जीवात्मा की राग-द्वेष जनित गिति है। गग-द्वेषमयों भावों से प्रेरित होका वह अपने पन, वचन और काय को क्रिया तद्वत करता है। इसका परिणाम यह होता है कि उस जीवात्मा में लोक भर्ग हुई पालक कर्म-वर्गणार्य आकार चिपट जाना है और उनका आवरण जाचात्मा के ज्ञान-दर्शन आदि गणों को प्रकट नहीं होने देता। जितने अंश आवरण कम या ज्यादा होते हैं उतने ही अशो में आत्मा के स्वाभाचिक गणों का कप या ज्यादा मकान प्रकट होता है। यदि जीवात्मा अपने स्वभाव को पाना चाहता है तो उसे इन सब ही कर्म सम्बन्धी आचरणों का नाट कर देना होगा, जिनका नष्ट कर देना असभव है। इस प्रकार जीवात्मा के धर्म-स्वभाव के घातक उनके पौदगनिक सम्बन्ध हैं। जीवात्मा को आत्म-म्बानञ्च प्राप्त करने के लिए इस पर- मम्बन्ध को विल्कन छोड़ देना होगा। पार्थिव मगर्ग से उमे अछ्न हो जाना होगा। लोक और आत्मा दान ही क्षेत्रो में वह एकमात्र अपने उद्देश्य-प्राप्ति के लिय मात उद्योगी रहा। बाहरी और भीतरी मन ही प्रपची में उसका कोई संगकार न होगा। परिग्रह नाममात्र को वहन रख संकगा। यथाजातरूप में रहकर वह अपने विभावपयी गगादि कपाय साओं को १. आष्ट., सूत्रपातुङ -१० दिगम्बरत्य और दिगम्बा मनि 171
SR No.090155
Book TitleDigambaratva Aur Digambar Muni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Sarvoday Tirth
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size4 MB
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