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कुन्दकुन्दान्वयी श्री कुलचन्द्र मुनि के शिष्य श्री माघनंदि सिद्धान्तदेव के शिष्य श्री अर्हन्दि सिद्धान्त देव के चरण धोकर भूमिदान किया उसे समय दिगम्बर मुनियों का प्रभुत्व स्पष्ट है।
आरटाल शिलालेख में चालुक्यराज पूजित दिगम्बर मुनि आरटाल (धारवाड़) से एक शिलालेख शाका १०४५ का चालुक्यराज भुवनेकमल्ल के राज्य कालका मिलता है। उसमें एक जैन मंदिर बनने का उल्लेख है तथा दिगम्बर मुनि श्री कनकचन्द्र जी के विषय में निम्न प्रकार वर्णन हैं? -
"स्वस्ति यम-नियम स्वाध्याय ध्यान मौनानुष्ठान समाधिशील गुण संपन्नरम्प कनकचन्द्र सिद्धान्त देवः । "
इससे उस समय के दिगम्बर मुनियों की चरित्रनिष्ठा का पता चलता है।
ग्वालियर और दूबकुंड के पुरातत्व में दिगम्बर पुनि - ग्वालियर का पुरातत्व ईस्वी ग्यारहवीं से सोलहवीं शताब्दि तक वहाँ पर दिगम्बर मुनियों के अभ्युदय को प्रकट करता है। ग्वालियर किले में इस काल की बनी हुई अनेक दिगम्बर मूर्तियाँ हैं। जो बाबर के विध्वंसक हाथ से बच गई हैं। उन पर कई लेख भी हैं, जिनमें दिगम्बर गुरुओं का वर्णन मिलता है। ग्वालियर के दूबकुंड नामक स्थान से मिला हुआ एक शिलालेख सन् १०८८ में दिगम्बर मुनियों के संघ का परिचायक है। यह लेख महाराज विक्रमसिंह कछवाहा का लिखाया हुआ है. जिसने श्रावक ऋषि को श्रेष्ठी पद प्रदान किया था और जो अपने भुजविक्रम के लिये प्रसिद्ध था। इस राजा ने दूबकुंड के जैन मंदिर के लिये दान दिया था और दिगम्बर मुनियों का सम्मान किया था। ये दिगम्बर मुनिगण श्री लाटवागटगण के थे और इनके नाम क्रमशः (१) देवसेन (२) कुलभूषण (३) श्री दुर्लभसेन (४) शांतिसेन और (५) विजयकीर्ति थे। इनमें श्री देवसेनाचार्य ग्रंथ रचना के लिये प्रसिद्ध थे और श्री शांतिसेन अपनी वादकला से विपक्षियों का पद चूर्ण करते थे।
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खजुराहा के लेखों में दिगम्बर मुनि खजुराहा के जैन मंदिर में एक श्री लेख संवत् १०११ का है। उससे दिगम्बर मुनि श्री वासवचन्द्र ( महाराज गुरु वासवचन्द्र) का पता चलता है। वह धांगराजा द्वारा मान्य सरदार पाहिल के गुरु थे।
१. प्रास्मा, पृ. १५३-१५४1
२. दिजैड़ा, पू. ७४९ ।
३. मप्राजैस्मा., पृ. ६५-६६ ।
४. मामा.
७३-८४ पू.
- "श्री
लाटबागटगणोन्नतरोहणाद्रि
माणिक्यभूतचरितगुरु दैवसेन । सिद्धांतोद्विविधोप्यवाधितधिया येन प्रमाण ध्वनि । प्रथेषु प्रभवः श्रियामनगतो हस्तस्थ मुक्तोपमः । आस्थानाधिपती बुधादविगुणे श्री भोजदेवे नृपे सभ्येष्वंवरसेन पण्डित शिरोरत्नादिषुद्यन्मदान्। योनेकान्शतसो अजेष्ट पटुताभीष्टोद्यमो वादिनः शास्त्रांभोनधिपारगी भवदन्तः श्री शांतिसेनो गुरुः । "
पू. ११७ ।
५.
. मत्र जैस्मा..
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दिगम्बरात्य और दिगम्बर मुनि