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________________ (४) विजयनगर साम्राज्य (५) मुसलमान - मरहट्टा, (६) ब्रिटिश काल । प्रारम्भिक काल में दिगम्बर मुनि अच्छा तो उपर्युक्त ऐतिहासिक कालों में दिगम्बर जैन मुनियों के अस्तित्व को दक्षिण भारत में देख लेना चाहिये। दक्षिण भारत के "प्रारम्भिक काल" में चेर, चोल, पाण्ड्य - यह तीन राजवंश प्रधान थे। सम्राट अशोक के शिलालेख में भी दक्षिण भारत के इन राजवंशों का उल्लेख मिलता है। " चेर, चोल और पाण्ड्य यह तीनों ही राष्ट्र प्रारम्भ से जैनधर्मानुयायी थे। जिस समय करकण्डु राजा सिंहल द्वीप से लौटकर दक्षिण भारत - द्रविड़ देश में पहुंचे तो इन राजाओं से उनकी मुठभेड़ हुई थी। किन्तु रणक्षेत्र में जब उन्होंने इन राजाओं के मुकुटों में जिनेन्द्र भगवान की मूर्तियाँ देखी तो उनसे सन्धि कर ली। कलिंगचक्रवर्ती ऐल. खारवेल जैन थे। उनकी सेवा में इन राजाओं में से पाण्ड्यराज स्वराज-भेंट भेजी थी।' इससे भी इन राजाओं का जैन होना प्रमाणित है, क्योंकि एक श्रावक का श्रावक के प्रति अनुराग होना स्वाभाविक है और जब ये राजा जैन थे तब इनका दिगम्बर जैन मुनियों को आश्रय देना प्राकृत आवश्यक है। .५ पाण्ड्यराज उग्रपेरूवलूटी (१२८-१४० ई.) के राजदरबार में दिगम्बर जैनाचार्य श्री कुन्दकुन्द विरचित तमिलग्रंथ "कुल" प्रकट किया गया था । जैन कथाग्रंथ से उस समय दक्षिण भारत में अनेक दिगम्बर मुनियों का होना प्रकट है। 'करकण्डु चरित्' में कलिंग, तेर, द्रविड़ आदि दक्षिणावर्ती देशों में दिगम्बर मुनियों का वर्णन मिलता है। भगवान् महावीरने संघ सहित इन देशों में विहार किया था, यह ऊपर लिखा जा चुका है तथा मौर्य चन्द्रगुप्त के समय श्रुतकेवली भद्रबाहु का संघ सहित दक्षिण भारत को जाना इस बात का प्रमाण है कि दक्षिण भारत में उनसे १. S.A.l.p.33 २. त्रयोदश शिलालेखं । 3. "Pandya Kingdom can boast of respectable antiquity. The prevailing religion in early times in their Kingdom was jain creed. - मजेस्मा पृ. १०५ ४. “तहि अत्थि विकितिय दिणसराउ- संचल्लिउ ताकरकण्डु राउ । तादिविडदेसुमहि अलु भमन्तु-संपतऊ तर्हि मछरूवहन्तु ।। तहिं चोड़े चोर पंडिय निवाई केणा विखणद्वेते मिलीयाहि । "करकण्डएं धरियाते सिरसो सिरमउड मति वरणेहिं तहो । मउड महि देखिवि जिणपणिव करकण्डवोजाघठ बहुलु दुहु || १० || ५. JBORS, III. p. 446 ६. मर्जस्मा, पृ. १०५ ॥ (104) - करकण्डुचरित् सन्धि ८ दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि
SR No.090155
Book TitleDigambaratva Aur Digambar Muni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Sarvoday Tirth
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size4 MB
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