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पहले दिगम्बर जैन धर्म विद्यमान था। जैनग्रंथ "राजावली कथा" में वहाँ दिगम्बर जैन मन्दिरों और दिगम्बर पुनियों के होने का वर्णन मिलता है। बौद्ध ग्रंथ 'पणिमेखले में भी दक्षिण भारत में ईस्वी की प्रारम्भिक शताब्दियों में दिगम्बर धर्म और मुनियों के होने का उल्लेख मिलता है।
“श्रुतावतार कथा" से स्पष्ट है कि ईस्वी की पहली शताब्दि में पश्चिम और दक्षिण भारत जैनधर्म के केन्द्र थे। श्रीधरसेनाचार्य जी का संघ गिरनार पर्वत पर उस समय विद्यमान था । उनके पास आगम ग्रंथों को अवधारण करनेके लिये दो तीक्ष्ण बुद्धि शिष्य दक्षिण मथुरा से उनके पास आये थे और तदोपरान्त उन्होंने दक्षिण मथुरा में चतुर्मास व्यतीत किया था। इस उल्लेख से उस समय दक्षिण मदुरा का दिगम्बर मुनियों का केन्द्र होना सिद्ध है।
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'नालदियार' और दिगम्बर मुनि
तमिल जैन काव्य “नालदियार", जो ईस्वी पांचवीं शताब्दि की रचना है, इस बातका प्रमाण है कि पाण्ड्यराज का देश प्राचीनकाल में दिगम्बर मुनियोंका आश्रय स्थान था। स्वयं पाण्ड्यराज दिगम्बर मुनियों के भक्त थे। "नालदियार" की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कहा जाता है कि एक बार उत्तर भारत में दुर्भिक्ष पड़ा। उससे बचने के लिये आठ हजार दिगम्बर मुनियों का संघ पाण्ड्य देश में जा रहा था, पाण्ड्यराज उनकी विद्वत्ता और तपस्या को देखकर उनका भक्त बन गया। जब अच्छे दिन आये तो इस संघ ने उत्तर भारत की ओर लौट जाना चाहा, किन्तु पाण्ड्यराज उनकी सत्संगति छोड़ने के लिये तैयार न थे। आखिर उस मुनि संघ का प्रत्येक साधु एक-एक श्लोक अपने-अपने आसन पर लिखा छोड़कर विहार कर गये। जब ये श्लोक एकत्र किये गये तो वह संग्रह एक अच्छा खासा काव्य ग्रंथ बन गया। यही 'नालदियार' था। इससे स्पष्ट है कि पाण्ड्य देश उस समय दिगम्बर जैन धर्म का केन्द्र था और पाण्ड्यराज कलभ्रवंश के सम्राट् थे। यह कलभ्रवंश उत्तर भारत से दक्षिण में पहुंचा था और इस वंश के राजा दिगम्बर मुनियों के भक्त और रक्षक थे। गंग वंश के राजा और दिगम्बर मुनिगण
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ईस्वी दूसरी शताब्दी में मैसूर में गंगवंशी क्षत्रिय राजा माधव कोंगुणिवर्मा राज्य कर रहे थे। उनके गुरु दिगम्बर जैनाचार्य सिंहनन्दि थे। गंगवंश की स्थापना में उक्त
१. SS. pp. 32-33
२. श्रुता, पृ. १६-२० ।
३. SSUJ.p.91
४. मजेस्मा भूमिका, पृ. ८-१1 ५. रक्षा परिचय पृ. १९५
दिसम्बर और दिसम्बर मुनि
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