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________________ आचार्य का गहरा हाथ था। शिलालेखों से प्रकट है कि इक्ष्वाकु (सूर्यवंश) के राजा धनञ्जय की सन्तति में एक गंगदत्त नाम का राजा प्रसिद्ध हुआ और उसी के नाम से इस वंश का नाम 'गंग' वंश पड़ा था। इस गंग वंश में एक पद्मनाभ नामक राजा हुआ, जिसन्न हाड़ा उज्जैन के राजा होने के सह दक्षिण भारत की ओर चला गया था। उसके दो पुत्र ददिग और माधव भी उसके साथ गये थे। दक्षिण में पेखूर नामक स्थान पर उन दोनों भाइयों की भेंट कणूवगण के आचार्य सिंहनन्दि से हुई, जिन्होंने उन्हें निम्न प्रकार उपदेश दिया था “यदि तुम अपनी प्रतिज्ञा भंग करोगे, यदि तुम जिन शासन से हटोगे, यदि तुम पर - स्त्री का ग्रहण करोगे, यदि तुम मद्य व माँस खाओगे, यदि तुम अधर्मो का संसर्ग करोगे, यदि तुम आवश्यकता रखने वालों को दान न दोगे और यदि तुम युद्ध में भाग जाओगे तो तुम्हारा वंश नष्ट हो जायेगा । ' दिगम्बराचार्य के इस साहस बढ़ाने वाले उपदेश को ददिग और माधव ने शिरोधार्य किया और उन आचार्य के सहयोग से वह दक्षिण भारत में अपना राज्य स्थापित करने में सफल हुये थे। तदोपरान्त इस वंश के सभी राजाओं ने जैन धर्म का प्रभाव बढ़ाने का उद्योग किया था । दिगम्बर जैनाचार्य की कृपा से राज्य पा लेने की याददाश्त में इन्होंने अपनी ध्वजा में “मोरपिच्छिका" का चिन्ह रखा था, जो दिगम्बर मुनियों के उपकरणों में से एक है। कादम्ब राजागण दिगम्बर मुनियों के रक्षक थे गंगवंशी अविनीत कोगुणी (सन् ४२५-४७८) ने पुत्राट १०००० में जैन मुनियों को भूमिदान दिया था। गंगवंशी दुर्वनीति के गुरु 'शब्दावतार' के कर्ता दिगम्बराचार्य श्री पूज्यपाद थे। महाराष्ट्र और कोंकण देशों की ओर उस समयकादम्ब वंश के राजा लोग उन्नत हो रहे थे। वह वंश (१) गोआ और (२) बनवासी नामक दो शाखाओं में बंटा हुआ था और इसमें जैन धर्म को मान्यता विशेष थी। दिगम्बर गुरुओं की विनय कादम्ब राजा खूब करते थे। एक विद्वान् लिखते हैं कि "Kadamba kings of the middle period Mrigesa to Harivarma were unable to resist the onset of Jainism: as they bad to bow to the "Supreme Achats and endow lavishly the Jain ascetic groups. Numerous sect of Jaina priests, such as the Yapiniyas the, Nirgranthas and the Kurchakas १. पजैस्मा., २. मजेस्मा.. . पृ. १४९ । (106) पृ. १४६ - १४७ । दिगम्बसत्य और दिगम्बर मुनि
SR No.090155
Book TitleDigambaratva Aur Digambar Muni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Sarvoday Tirth
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size4 MB
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