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अर्थ - "हे राजन् ! परीक्षित वा यज्ञ में परम ऋषियों करके प्रसन्न हो नाभि के प्रिय करने की इच्छा से वाके अन्तःपुर में मरुदेवी में धर्म दिखायवे की कामना करके दिगम्बर रहिवेवारे तपस्वी ज्ञानी नैष्ठिक ब्रह्मचारी ऊर्ध्वरेता ऋषियों को उपदेश देन को शुक्लवर्ण की देह धार श्री ऋषभदेव नाम का (विष्णु ने) अवतार लिया। ** "लिंग पुराण" (अ. ४७, पृ. ६८) में भी नग्न साधु का उल्लेख है - "सर्वात्मनात्मनिस्थाप्य परमात्मानमीश्वरं । नग्नो जटो निराहारो चोरीध्वांतगतो हि सः ।। २५॥
"स्कंधपुराण- प्रभासखंड ( अ. १६, पृ. २२१) शिव को दिगम्बर लिखा है रे - “वामनोपि ततश्चक्रे तत्र तीर्थावगाहनम् । यादृग्रूपः शिवो दिष्टः सूर्यबिम्बे दिगम्बरः । ९४ ।। श्री भर्तृहरि जी 'वैराग्यशतकों कहते हैं
अर्थ - "हे शम्भो ! मैं अकेला, इच्छारहित, शांत, पाणिपात्र और दिगम्बर होकर कर्मों का नाश कन्त्र कर सकूंगा।" वह और भी कहते हैं" -
अशीमहि वयं भिक्षामाशावासो वसीमहि ।
शयीमहि महीपृष्ठे कुर्वीहि किमीश्वरैः ||१०||
अर्थ- अब हम भिक्षा ही करके भोजन करेंगे, दिशा के ही वस्त्र धारण करेंगे अर्थात् नग्न रहेंगे और भूमि पर ही शयन करेंगे। फिर भला धनवानों से हमें क्या
मतलब ?
'एकाकी निःस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः । कदा शम्भो भविष्यामि कर्मनिर्मलूनक्षपः ॥५८॥
सातवीं शताब्दी में जब चीनी यात्री ह्वेनसांग बनारस पहुंचा तो उसने वहाँ हिन्दूओं के बहुत से नंगे साधु देखे। वह लिखता है कि "महेश्वर भक्त साधु बालों को बांधकर जटा बनाते है तथा वस्त्र परित्याग करके दिगम्बर रहते हैं और शरीर में भस्म का लेप करते हैं। ये बड़े तपस्वी हैं। इन्हीं को परमहंस परिव्राजक कहना ठीक है। किन्तु ह्वेनसांग से बहुत पहिले ईस्वी पूर्व तीसरी शताब्दी में जब सिकन्दर महानू ने भारत पर आक्रमण किया था, तब भी नंगे हिन्दू साधु यहाँ मौजूद थे।
अरस्तु का भतीजा स्पिडो कल्लिस्थेनस (Pseudo Kallisthenes ) सिकन्दर महान् के साथ यहाँ आया था और वह बताता है कि “ब्राह्मणों का श्रमणों की
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१.
. त्रे. पू. ३ ।
२. वेजै. पृ. ९ ।
३.
. वे पृ. ३४ ।
४. बं. पृ. ४६ । वेर्ज. पृ. ४७ ।
५.
६. हुआ. पू. ३२० ।
दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि
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