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________________ में मुंह देख प्रसन्न होते हैं कि 'वाह! मैं कैसा खुबसूरत हूँ! बहुत दिनों के ऐसे ही अभ्यास से अगर हमारी दृष्टि खराब न हो गई हो तो हम तुरन्त देख सकेंगे कि मनुष्य का उत्तम से उत्तम रूप उसकी नग्नावस्था में ही है और उसी में उसका भाग्य है।" इस प्रकार सौन्दर्य और स्वास्थ्य के लिए दिगम्बरत्व अथवा नग्नत्व एक मूल्यपयो वस्तु है, किन्तु उसका वास्तविक पूल्य तो मानव-समाज में सदाचार की सृष्टि करने में है। नग्नता और सदाचार का अविनाभावी सम्बन्ध है। सदाचार के बिना नग्नता कौड़ी पोल की नहीं है। नंगा मन और नंगा तन ही मनुष्य को आदर्श स्थिति है। इसके विपरीत गन्दा मन और नंगा तन तो निरी पशुता है। उसे कौन बुद्धिमान स्वीकार करेगा? लोगों का ख्याल है कि कपड़े-लत्ते पहनने से मनुष्य शिष्ट और सदाचारी रहता है। किन्त बात वास्तव में इसके बरअक्स (विपरीत) है। कपड़े-लत्ते के सहारे तो मनुष्य अपने पाप और विकार को छपा लेता है। दर्गणों और दराचार का आगार बना रहकर भी वह कपड़े की ओट में पाखण्ड रूप बना सकता है, किन्तु दिगम्बर वेष में यह असम्भव है। श्री शुक्राचार्य जी के कथानक से यह बिल्कुल स्पष्ट है-शुक्राचार्य युवा थे, पर दिगम्बर वेष में रहते थे। एक रोज वह वहाँ से जा निकले जहाँ तालाब में कई देव-कन्यायें नंगी होकर जल-क्रीड़ा कर रही थीं। उनके नंगे सन ने देव-रमणियों में कुछ भी क्षोध उत्पन्न न किया। वे जैसी की तैसी नहाती रहीं और शुक्राचार्य निकले अपनी धुन में चले गये। इस घटना के थोड़ी देर बाद शुक्राचार्य के पिता वहाँ आ निकले। उनको देखते ही देव-कन्यायें नहाना-धोना भूल गई। वे झटपट जल के बाहर निकली और उन्होंने अपने वस्त्र पहन लिये। एक नंगे युवा को देखकर तो उन्हें ग्लानि और लज्जा न आई किन्तु एक वृद्ध शिष्ट से दिखते 'सज्जन' को देखकर वे लजा गई।भला इसका क्या कारण? यही न कि नंगा युवा अपने मन में भी नंगा था। उसे विकार ने नहीं आ घेरा था। इसके विपरीत उसका वृद्ध और शिष्ट पिता विकार से रहित न था। वह अपने शिष्ट वेष (2) में इस विकार को छिपाये रखने में सफल था। किन्तु दिगम्बर युवा के लिए वैसा करना असंभव था। इसी कारण वह निर्विकारी और सदाचारी था। अतः कहना होगा कि सदाचार की मात्रा नंगे रहने में अधिक है। नंगापन दिगम्बरत्व का आभूषण है। विकार-भाव को जीते बिना ही कोई नंगा रहकर प्रशंसा नहीं पा सकता। विकारी होना दिगम्बरत्व के लिए कलंक है, न वह सखी हो सकता है और न उसे विवेक-नेत्र मिल सकता है। इसीलिये भगवत् कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं णग्गो पावह दुक्खं णग्गो संसारसागरे भपई। . णग्गो ण लाई बोहि. जिणभावणज्जिओ सदरं।। १. आरोग्य, पृ. ५७ २. भाव पाहुइ ६८ गाथा-अष्ट., पृ. २०९-२१०। दिगम्बरत्व और दिगम्बर पनि (17
SR No.090155
Book TitleDigambaratva Aur Digambar Muni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Sarvoday Tirth
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size4 MB
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