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________________ कृति के नेपथ्य से" अजित जैन भारतीय संस्कृति की अति प्राचीन दो धारायें हैं । वैदिक संस्कृति एवम् श्रमण संस्कृति । दोनों ही संस्कृतियों प्राचीनतम् व पौराणिक हैं। श्रमण संस्कृति दिगम्बरत्न एवं वीतराग मार्ग की परिचायक है। वीतरागी मुनिराजों का वर्णन वैदिक साहित्य में भी मिलता है । ऋग्वेद, मनुस्मृति आदि वैदिक ग्रंथों में दिगम्बर मुनिराजों का वर्णन वातरसना मुनि की संज्ञा से प्राप्त होता है । पौराणिक साहित्यविद् तो शिव को दिगम्बरत्व के ही प्रतीक निरूपित करते हैं । श्रमण संस्कृति जिसे दिगम्बर संस्कृति ही कहा जाता है, अहिंसा, अपरिग्रह, तप, त्याग व संयम की शिखर यात्रा की द्योतक है। भगवान ऋषभदेव ने असि मसि कृषि के मूल्यवान सिद्धांतों का प्रतिपादन कर व्यक्ति के अंतरग एवं बहिरंग दोनों ही तलों पर उन्नयन की शिक्षा प्रदान की थी । भारतीय संस्कृति का प्राचीन इतिहास उन विविध घटनाओं को प्रदर्शित करता है, जो विध्वंस, विनाश, युद्ध एक आक्रमण की घटनाओं से भरा है। इस विसंगति के बीच दिगम्बरत्व की अवधारणा ने अहिंसा, शांति, और समता जैसे शाश्वत् सिद्धांतों का प्रतिपादन किया तथा भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर तक चौबीस तीर्थकरों ने अपने जीवन को निर्ग्रन्थ निष्पहिता, निर्वस्त्रता से अभिभूत कर तपस्या के मार्ग में लगाया था एवं दिगम्बरत्व की अवधारणा, भारतीय सांस्कृतिक चेतना की धरोहर बन गई थी । विगत पच्चीस सौ वर्षो के लगभग पूर्व भगवान महावीर दिगम्बर परम्परा के अंतिम चौबीसवें तीर्थकर हुए है। महावीर के लगभग ढाई सौ बर्ष पूर्व भगवान पार्श्वनाथ तेईसवें तीर्थकर थे। उनके पूर्व जो बाईस तीर्थकर हुये हैं, उनका समय एक दीर्घ अंतराल का है अस्तु सामान्य जन भगवान महावीर से जैन धर्म का उद्भव मानते हैं, जो उनकी भूल है | इसी प्रकार भगवान बुद्ध के बौध्द धर्म को जैन धर्म कालीन था समझने की भी भूलें सामान्य एवम् सतही अध्ययन करने वालों से होती है । इस प्रश्न को प्रसंग से परे न जाते हुये दिगम्वरत्व और दिगम्बर मुनि परम्परा का प्रतिपादन विश्व जमीन धर्मों में कहाँ हुआ है, किन ऐतिहासिक राज घरानों में दिगम्बर मुनि को सम्मानित किया जाकर उनकी देशना को स्वीकाग गया है, इस पर ही विचार करना है । विश्व सभ्यता में जैन संस्कृति एवं इसके उपासक - साधक कुछ कारणों से इतर सभ्यता, संस्कृति और दर्शन के जगत में भित्र माने जाते हैं। जैसे, इसके साधक
SR No.090155
Book TitleDigambaratva Aur Digambar Muni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Sarvoday Tirth
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size4 MB
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