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बासवने “लिंगायत” मत स्थापित किया था। किन्तु बिज्जल राजा की दिगम्बर जैन धर्म के प्रति अटूट भक्ति के कारण वासव अपने मत का बहुप्रचार करने में सफल न हो सका था। आखिर जब बिज्जलाज कोल्हापुर के शिलाहार राजा के विरूद्ध युद्ध करने गये थे, तब इस वासव ने धोखे से उन्हें विष देकर मार डाला था और तब कहीं लिंगायत मत का प्रचार हो सका था। इस घटना से स्पष्ट है कि बिज्जल दिगम्बर मुनियों के लिये कैसा आश्रय था। होयसालवंशी राजा और दिगम्बर मुनि
पैसोर के होयसालवंश के राजागण भी दिगम्बरमुनियों के आश्रयदाता थे। इस वंश की स्थापना के विषय में कहा जाता है कि साल नाम का एक व्यक्ति एक मंदिर में एक जैन यति के पास विद्याध्ययन कर रहा था, उस समय एक शेर ने उन साधु पर आक्रमण किया। साल ने शेर को मारकर उनकी रक्षा की और वह 'होयसाल' नाम से प्रसिद्ध हुआ था । तदोपरान्त उन्हीं जैन साधु का आशीर्वाद पाकर उसने अपने राज्य की नींव जपाई थी, जो खूबफला-फूला था। इस वंश के सब ही राजाओं ने दिगम्बर मुनियों का आदर किया से राजद के गुरु दिगम्बर साधु श्री शान्तिदेव पुनि थे। इन राजाओं में विट्टिदेव अथवा विष्णुवर्द्धन राजा प्रसिद्ध था। वह भी जैन धर्म का दृढ़ श्रद्धानी था। उसकी रानी शान्तलदेवी प्रसिद्ध दिगम्बराचार्य श्री प्रभाचन्द्र की शिष्यार्थी । किन्तु उसको एक दूसरी रानी वैष्णव धर्म की अनुयायी थी। एक रोज राजा इसी रानी के साथ राजमहल के झरोखे में बैठा हुआ था कि सड़क पर एक दिगम्बर मुनि दिखाई दिये। रानी ने राजा को बहकाने के लिये अवसर अच्छा समझा। उसने राजा से कहा कि "यदि दिगम्बर साधु तुम्हारे गुरु हैं तो भला उन्हें बुलाकर अपने हाथ से भोजन करा दो।' राजा दिगम्बर मुनियों के धार्मिक नियम को भूलकर कहने लगे कि "यह कौन बड़ी बात हैं"। अपने हीन अंग का उसे खयाल न रहा । दिगम्बर मुनि अंगहीन रोगी आदि के हाथ से भोजन ग्रहण न करेंगे, इसका उसने ध्यान भी न किया और मुनि महाराज को पड़गाह लिया । मुनिराज अंतराय हुआ जाकर वापस चले गये। राजा इस पर चिढ़ गया और वह वैष्णव धर्म में दीक्षित हो गया । किन्तु उसके वैष्णव हो जाने पर भी दिगम्बर मुनियों का बाहुल्य उस राज्य में बना रहा। उसकी अग्रमहषी शान्तलदेवी अब भी दिगम्बर मुनियों की भक्त थी और उसके सेनापति तथा प्रधानमंत्री गंगराज भी दिगम्बर मुनियों के परम सेवक थे। उनके संसर्ग से विष्णुवर्द्धन ने
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१. मर्जेस्मा., पू. १५५ - १५६ ॥
२. SSI.J. Pu.l.p. 115 ३. जैस्मा, पृ. १५६ - १५७ ।
४. SSLIPt 1p.115 ५. [hid.p.116 ६. AR.Vol.IX,p,266
दिगम्बात्य और दिगम्बर मुनि
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