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'हठयोग प्रदीपिका के श्लोक में वर्णित आदिनाथ को उसके टीकाकार शिव महादेव जी) बताते हैं, किन्तु वास्तव में इसका अर्थ ऋषभदेव हो होना चाहिये, क्योंकि . प्राचीन 'अमरकोषादि किसी भी कोष ग्रंथ में महादेव का नाम 'आदिनाथ' नहीं मिलता। इसके अतिरिक्त यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि श्री ऋषभदेव के हो सम्बन्ध में यह वर्णन जैन और अजैन शास्त्रों में मिलता है, किसी अन्य प्राचीन मत प्रर्वतक के सम्बन्ध में नहीं- कि वह स्वयं दिगम्बर रहे थे और उन्होंने दिगम्बर धर्म का उपदेश दिया था। उस पर 'परमहंसोपनिषद्' के निम्न वाक्य इस बात को स्पष्ट कर देते हैं कि परमहंस के स्थापक कोई जैनाचार्य थे
"तदेतद्विज्ञाय ब्राह्मणः पात्रं कमण्डलुं कटिसूत्रं कौपीनं च तत्सर्वमप्सु विसृज्याथ जातरूपधरश्चरेदात्मानमन्विच्छेत्। यथाजातरूपधरो निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहस्तत्वब्रह्ममार्गे सम्यक संपत्रः शुद्धमानसः प्राणसंधारणार्थ यथोक्तकाले पंचगृहेषु करपात्रेणायाचिताहारमाहरन् लाभालाभे सपो भूत्वा निर्ममः शुक्लध्यानपरायणोऽध्यात्मनिष्ठः शुभाशुभकर्मनिर्मूलनपरः परमहंसः पूर्णानन्दैकबोधस्तद्ब्रह्म हमस्मीति ब्रह्मप्रणवमनुस्परन-भ्रपरकोटकन्यायेन शरीरत्रयमुत्सृज्य देहत्यागं करोति स कृतकृत्यो भवतीत्युपनिषद्।
अर्थात-"ऐसा जानकर ब्राह्मण (ब्रह्मज्ञानी) पात्र, कमण्डलु, कटिसूत्र और लंगोटी इन सब चीजों को पानी में विसर्जन कर जन्म-समय के वेष को धारण कर अर्थात् बिल्कुल नग्न होकर विचरण करे और आत्मान्वेषण करे। जो यथाजातरूपधारी (नग्न-दिगम्बर), निर्द्वन्द्व, निष्परिग्रह, तत्वब्रह्ममार्ग में भली प्रकार सम्पन्न, शुद्ध हृदय, प्राणधारण के निमित्त यथोक्त समय पर अधिक से अधिक पाँच घरों में विहार कर करपात्र में अयाचित भोजन लेने वाला तथा लाभालाभ में सपचित्त होकर निर्मपत्व रहने वाला, शुक्लध्यान परायण, अध्यात्मनिष्ठ, शुभाशुभ कर्मों के निमूलन करने में तत्पर, परमहंस योगी, पूर्णानन्द का अद्वितीय अनुभव करने वाला यह ब्रह्म मैं हूं, ऐसे ब्रह्म प्रणव का स्मरण करता हुआ भ्रमरकोटक न्याय से (क्रीड़ा भ्रमरी का ध्यान करता हुआ स्वयं भ्रमर बन जाता है, इस नीति से) तीनों शरीरों को छोड़कर देहत्याग करता है, वह कृतकृत्य होता है, ऐसा उपनिषदों में कहा गया
१. अनेकान्त, वर्ष १ पृ. ५३९-५४० ।
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दिगम्बराय और दिगम्बर मुनि