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________________ छोड़ दिया और आत्मा में होमाग्नि का आरोप कर केश खोल उन्मत की भांति नान हो, केवल शरीर को संग ले, ब्रह्मावर्त से संन्यास धारण कर चल निकले।" । इस उद्धरण के मोटे टाइप के अक्षरों से ऋषभदेव का परमहंस दिगम्बर धर्म शिक्षक होना स्पष्ट है। तथा इसी ग्रंथ के स्कंध २, अध्याय ७, पृष्ठ ७६ में इन्हें दिगम्बर और जैन मत को चलाने वाला उसके टीकाकार ने लिखा है। पूल श्लोक में उनके दिगम्बरत्व को ऋषियों द्वारा वंदनीय बताया है - नाभेरसा वृषभ आससु देव सूनुयोवेव चारसमदग्जड़योगचर्याम् । यत् पारमहंस्यमृषयः पदमामनंति स्वस्थ: प्रशांतकरणः परिमक्तसंगः ।।१०।। उधर हिन्दुओं के प्रसिद्ध योगशास्त्र "हठयोगप्रदीपिका" में सबसे पहले मंगलाचरण के तौर पर आदिनाथ ऋषभदेव की स्तुति की गई और वह इस प्रकार श्री आदिनाथाय नमोऽस्तु तस्मै, येनोपदिष्टा हठयोगविद्या। मिसालो मोसमराजयोग मारोढुमिच्छोरधिरोहिणीव ॥१।। अर्थात-"श्री आदिनाथ को नमस्कार हो, जिन्होंने उस हठयोग विद्या का सर्वप्रथम उपदेश दिया जो कि बहुत ऊँचे राजयोग पर आरोहण करने के लिये नसैनी के समान है।" ___ हठयोग का श्रेष्ठतम रूप दिगम्बर है। परमहंस मार्ग हो तो उत्कृष्ट योगमार्ग है। इसी से 'नारद परिव्राजकोपनिषद में योगी परमहंसाख्यः साक्षान्मोक्षकसाधनम् इस वाक्य द्वारा परमहंस योग को साक्षात् मोक्ष का एकमात्र साधन बतलाया है। सचमुच “अजैन शस्त्रों में जहाँ कहीं श्री ऋषभदेव आदिनाथ का वर्णन आया है, उनको परमहंस मार्ग का प्रवतेक बतलाया गया है। किन्तु मध्यकाली। साम्प्रदायिक विद्वेप के कारण अजैन विद्वानों को जैन धर्म से ऐसी चिढ़ हो गई कि उन्होंने अपने धर्म शास्त्रों में जैनों के महत्त्वसूचक वाक्यों का या तो लोप कर दिया अथवा उनका अर्थ ही बदल दिया। उदाहरण के रूप में उपर्युक्त १. जितेन्द्रमत दर्पण, प्रथम माग, पृ. १० । २.अनेकान्त, वर्ष १, पृ. ५३८ । ३. अनेकान्त, वर्ष १, पृ. ५३९ । ४.श्री टोडरमलजी द्वारा उल्लिखित हिन्दू शास्त्रों के अवतरणों का पता आजकल के छपे हुये ग्रंथों में नहीं चलता, किन्तु उन्हीं ग्रंथों की प्राचीन प्रतियों में उनका पता चलता है, यह बात पं. मक्खनलाल जी जैन अपने 'वेदपुराणादि ग्रंथों में जैन धर्म का अस्तित्व' नामक ट्रैक्ट (पृ. ४१-५०) में प्रकट करते हैं। प्रो. शरच्चन्द्र घोषाल एम. ए. काव्यतीर्थ आदि ने भी हिन्दू 'पष्यपुराण के विषय में यही बात प्रकट की थी। देखोJ.G.XIV,90)। दिगम्बराय और दिगम्बर मुनि (21)
SR No.090155
Book TitleDigambaratva Aur Digambar Muni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Sarvoday Tirth
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size4 MB
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