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शैल पर नहीं पहुंच सकता। उसको वहाँ तक पहुंचने के लिए कदम-ब-कदम आगे बढ़ना होगा। इसी क्रम के अनुरूप जैन शास्त्रों में एक गृहस्थ के लिए ग्यारह दर्जे नियत किये गये हैं। पहले दर्जे में पहुँचने पर कहीं गृहस्थ एक श्रावक कहलाने के योग्य होता है। यह दर्जे गृहस्थ की आत्मोन्नति के सूचक हैं और इनमें पहले दर्जे से दूसरे में आत्मोन्नत्ति की विशेषता रहती है। इनका विशद वर्णन जैन ग्रंथों में जैसे 'रत्नकरण्डश्रावकाचार में खूब मिलता है। यहाँ इतना बता देना ही काफी है कि इन दों से गुजर जाने पर ही एक श्रावक दिगम्बर पनि होने के योग्य होता है। दिगम्बर मुनि होने के लिये यह उनकी 'ट्रेनिंग' है और सचमुच प्रोषधोपवासव्रत प्रतिमा से उसे नंगे रहने का अभ्यास करना प्रारंभ कर देना होता है। मात्र पर्व-अष्टमी और चतुर्दशी के दिनों में वह अनारंभी हो, घर बाहर का काम-काज झेड़कर, व्रत-उपवास करता तथा दिगम्बर होकर ध्यान में लीन होता हैं।' प्यारहवीं प्रतिमा में पहुंचकर वह पात्र लंगोटी का परिग्रह अपने पास रहने देता है और गृहत्यागी वह इसके पहले हो जाता है।' ग्यारहवीं प्रतिमा का धारी वह 'ऐलक या क्षुल्लक आदरपूर्वक विधि सहित प्रासुक भोजन, यदि गृहस्थ के यहाँ मिलता है ग्रहण कर लेता है। भोजनपात्र का रखना भी उसकी खुशी पर अवलिम्बित है। बस, यह श्रावक- पद की चरम सीमा है। 'मुण्डकोपनिषद्' के 'मुण्डक श्रावक इसके समतुल्य होते हैं किन्तु वहाँ वह साधु का श्रेष्ठ रूप है।' इसके विपरीत जैन धर्म में उसके आगे मनि पद और है। मुनि पद में पहुंचने के लिये ऐलक- श्रावक को लाजमी तौर पर दिगम्बर-वेष धारण करना होता है और मुनि धर्म का पालन करने के लिये मूल और उत्तर गणों का पालन करना होता है। पुनियों के मूल गुण जैन शास्त्रों में इस प्रकार बताए गए हैं
'पंचय महत्वमा समिदीओ पच जिणवरोद्दिट्ठा। पंचेविंदियरोहा छम्पि य आवासया लोचो ।।२।। अच्चेल कमण्हाणं खिदिसयणपदंतधस्सण चेका ठिदिभोयणेभत्तं मूल गुणा अट्ठबीसा दु ।।३।। पूलाचार।।
अर्थात्- "पाँच महाव्रत (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्माचर्य और अपरिग्रह), जिनबर कर उपदेशी हुई पाँच समितियाँ (ईर्या समिति, भाषासमिति. एषणा समिति, आदाननिक्षेपण समिति, मूत्रविष्ठादिक का शुद्ध भूमि में क्षेपण अर्थात् प्रतिष्ठापना समिति), पाँच इन्द्रियों का निरोध (चक्षु, कान, नाक, जीभ, स्पर्शन)-इन पाँच इन्द्रियों के विषयों का निरोध करना), छह आवश्यक (सापायिक, चतुर्विशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग), लोच, आचेलक्य,
१. भमवु., पृ. २०५ तथा बौद्धो के 'अंगुचर निकाय में भी इसका उल्लेख है। २. वीर, वर्ष ८. पृ. २५१-२५५)
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दिगम्परत्व और दिगम्बर मुनि