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प्रयत्न सफल हो जायेगा और उस दशा में, मैं अपने श्रम को सफल हुआ सपझंगा।
अन्त में, मैं अपने उन मित्रों का आभार स्वीकार करता हूँ जिन्होने मुझे इस पुस्तक को लिखने में किसी न किसी तरह उत्साहित किया है। संघ ने काफी साहित्य पेरे सामने उपस्थित कर दिया और पुस्तक को शीघ्र ही प्रकाशित होने दिया, इसके लिये मैं उपकृत हूँ। यह सब कुछ पाई राजेन्द्र कुमार जी के उत्साह का परिणाम है। इम्पीरियल लायब्रेरी, कलकत्ता आदि से मुझे जरूरी पुस्तकें पढ़ने को मिली है, इसलिये यहाँ उनको भी मैं भुला नहीं सकता हूँ। “चैतन्य" प्रेस के मैनजर भाई शान्तिचन्द्र ने आशा से अधिक शुद्ध
और सुन्दर रूप में पुस्तक को छापा है। अतः उनका भी उल्लेख कर देना मैं आवश्यक समझता हूँ। उन सबका मैं आभारी हूँ।
आशा है, पुस्तक अपने उद्देश्य को सिद्ध हुआ प्रकट करने में सफल होगी।
इति शम् ।
विनीत
अनीगंज (एटा) २५-२-१९३२
कामताप्रसाद जैन
दिगम्बात्व और दिगम्बर मुनि