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________________ समय यहाँ पूजा हो रही है उनको जुलूसी पूजा को बन्द करने पर मजबूर नहीं कर सकते। इस सम्बन्ध में “पार्थसादी आयंगर बनाम चित्रकृष्ण आयंगार" की नजीर भी दृष्टव्य है। Indian Law Report, Madras, Vol. V.p.309) शूद्रम चेट्टी बनाम महाराणी के मुकदमे में यही उसूल साफ शब्दों में इससे पहले भी स्वीकार किया जा चुका है। (I.L.R. VI, p.203) इस मुकदमे के फैसले में पृष्ठ २०९ पर कहा गया है कि जुलूसों के सम्बन्ध में यह देखना चाहिये कि अगर वह धार्मिक हैं और धार्मिक अंशों का ख्याल किया जाना जरूरी है, तो एक सम्प्रदाय के जुलूस को दूसरे सम्प्रदाय के पूजा-स्थल के पास से न निकलने देना उसी तरह की सख्ती है जैसे की जुलूस के निकलने के वक्त उपासना-मन्दिर में पूजा बन्द कर देना। मुकदमा सदागोपाचार्य बनाम रामाराव 2.L.B.VI, P २७६) में यही राय जाहिर की गई है। इलाहाबाद ला जर्नल (भा. २३ पृ. १८०) पर प्रिवी कौन्सिल के जज महोदय ने लिखा है कि " भारतवर्ष में ऐसे जुलूसों के जिनमें मजहबी रसूम अदा की जाती है सारे राह निकालने के अधिक सम्म में एक "नजीर" कायम करने की जरूरत मालूम होती है, क्योंकि भारतवर्ष में आला अदालतों के फैसले इस विषय में एक-दूसरे के खिलाफ हैं। सवाल यह है कि किसी धार्मिक जुलूस को मुनासिब व जरूरी विनय के साथ शाह-राह-आम से निकलने का अधिकार है? मान्य जज महोदय इसका फैसला स्वीकृति में देते हैं अर्थात् लोगों को धार्मिक जुलूस आम-रास्तों से ले जाने का अधिकार है।" पुकदमा शंकरसिंह बनाम सरकार कैसरे हिन्द (AI, Law Journal Report., 1929, pp. 18004182) जेरदफा ३० पुलिस-ऐक्ट नं. ५ सन् १८६१ में यह तजवीज़ हुआ कि “तरतीब" - व्यवस्था देने का मतलब "मनाई नहीं है। मजिस्ट्रेट जिला की राय थी कि गाने-बजाने की पनाई सपरिन्टेन्डेन्ट पलिस ने उस अधिकार से की थी जो उसे दफा ३० पुलिस एक्ट की रूप से मिला था कि किसी त्यौहार या रस्म के मौके पर जो गाने-बजाने आप-रास्तों पर किये जाने उनको किसी हद तक सीमित कर दें। मैं (जज हाईकोटी मजिस्ट्रेट जिला को राय से सहपत नहीं हूँ कि शब्द “व्यवस्था का भाव हर प्रकार के बाजे की पनाई है। व्यवस्था देने का अधिकार उसी मामले में दिया जाता है जिसका कोई अस्तित्व हो। किसी ऐसे कार्य के लिये जिसका अस्तित्व ही नहीं है, व्यवस्था देने की सूचना बिल्कुल व्यर्थ है। उदाहरणतः आने-जाने की व्यवस्था के सम्बन्ध में सूचना से आने-जाने के अधिकार का अस्तित्व स्वतः अनुमान किया जायगा। उसका अर्थ यह नहीं है कि पुलिस - अफसरान किसी व्यक्ति को उसके घर में बन्द रखने या उसका आना-जाना रोक देने के अधिकारी हैं। दिगम्मरत्व और दिगम्बर पनि (163)
SR No.090155
Book TitleDigambaratva Aur Digambar Muni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Sarvoday Tirth
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size4 MB
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