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________________ नहीं देखना चाहिये, क्योंकि संभव है कि वह उपदेश देकर उसकी निस्सारता प्रकट कर दें। अतः वैदिक साहित्य के उल्लेखों से भी निर्ग्रथ शब्द नग्न साधु के लिये प्रयुक्त हुआ सिद्ध होता है। बौद्ध साहित्य भी इस ही बात का पोषण करता है। उसमें 'निर्ग्रथ' शब्द साधु रूप में सर्वत्र नग्न मुनि के भाव में प्रयुक्त हुआ मिलता है। भगवान् महावीर को बौद्ध साहित्य में उनके कुल अपेक्षा निर्ग्रथ नातपुत्त कहा है और श्वेताम्बर जैन साहित्य से भी यह प्रकट है कि निर्ग्रथ महावीर दिगम्बर रहे थे। बौद्ध शास्त्र भी उन्हें निग्रंथ और अचेलक प्रकट करते हैं। इससे स्पष्ट है कि बौद्धों ने 'निर्ग्रथ' और 'अचेलक' शब्दों को एक ही भाव (Sense) में प्रयुक्त किया है अर्थात् नग्न साधु के रूप में, तथापि बौद्ध साहित्य के निम्न उद्धरण भी इस ही बात के द्योतक हैं'दीघनिकाय ग्रंथ ( १ | ७८-७९ में लिखा है कि “Pasendi, King of Kosal saluted Niganthas." अर्थात्- कौशल का राजा पसनदी (प्रसेनजित) निर्ग्रथो (नग्न जैन मुनियों) को नमस्कार करता था। बौद्धों के 'महार' नामक ग्रंथ में लिखा है कि “एक बड़ी संख्या में निधगण वैशाली में सड़क - सड़क और चौराहे चौराहे पर शोर मचाते दौड़ रहे थे। इस उल्लेख से दिगम्बर मुनियों का उस समय निर्बाध रूप में राज मार्गो से चलने का समर्थन होता है। वे अष्टमी और चतुर्दशी को इकट्ठे होकर धर्मोपदेश भी दिया करते MA 'विशाखा' में भी निर्ग्रर्थ साधु को नग्न प्रकट किया गया है। " 'दीर्घनिकाय' के 'पासादिक सुत्तन्त' में है कि “जब निगन्द्र नातपुत्त का निर्वाण हो गया तो निर्ग्रथ मुनि आपस में झगड़ने लगे। उनके इस झगड़े को देखकर श्वेत वस्त्रधारी गृही श्रावक बड़े दुःखी हुये। अब यदि निर्ग्रथ साधु भी श्वेत वस्त्र पहनते होते तो श्रावकों के लिये एक विशेषण रूप में न लिखे जात। अतः इससे भी 'निर्ग्रथ साधु' का नग्न होना प्रकट है। (50) १. मज्झिमनिकाय १ ९२ अंगुत्तरनिकाय १ । २२० ॥ २. जातक भा. २, पृ. १८२ भएबु. २४५ ॥ ३. Indian Historical Quarterly Vol. 1. p. 153. ४. महावग्ग २ ।१ ।१ और भ महावीर और म बुद्ध ५२८० ॥ ५. म. पू. २५२ । ६. "तस्म कालकिरियाय भित्रा निगण्ठ हधिक जाना, भण्डन जाता कलह जाता वधो एवं खोमजेनिगण्ठे नाथ पुत्तियेसु वर्तति से पि निगन्स नाथपुत्तस्स साबका गिही ओदातवसना...दु रक्खाते इत्यादि । [[PTS. III. 117 118) भमतु २१४ । दिसम्बर और दिगम्बर सुनि
SR No.090155
Book TitleDigambaratva Aur Digambar Muni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Sarvoday Tirth
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size4 MB
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