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'कंथा कौपीनोत्तरा संगादीनाम् त्यागिनों यथा जातरूपधरा निर्ग्रथा निष्परिग्रहाः । " जैनेतर साहित्य और शिलालेखीय साक्षी भी उक्त व्याख्या की पुष्टि करती है। वैदिक साहित्य में 'निर्ग्रथ' शब्द का व्यवहार 'दिगम्बर साधु के रूप में ही हुआ मिलता है। टीकाकार उत्पल कहते हैं? -
" निर्ग्रथों नग्नः क्षपणकः ।”
इसी तरह सायणाचार्य भी निर्ग्रथ शब्द को दिगम्बर मुनि का द्योतक प्रकट करते हैं? -
त्यागिना,
निर्ग्रथा
"कथा निष्परिग्रहाः । इति संवर्तश्रुतिः ।
हिन्दूपद्यपराण' में दिगम्बर जैन मुनि के मुख से कहलाया गया है"अर्हतो देवता यत्र, निर्ग्रथो गुरुरुच्यते । "
कौपोनोत्तरा संगादिनाम्
यथाजातरूपधरा
अब यदि निग्रंथ के मात्र वस्त्रधारी साधु के होते तो दिगम्बर मुनि उसे अपने धर्म का गुरु न बताते। इससे स्पष्ट है कि यहाँ भी निर्ग्रथ शब्द दिगम्बर मुनि के रूप में व्यवहृत हुआ है।
“ब्रह्माण्डपुराण" के उपोद्धात ३, अ. १४, पृ. १०४ में है
“नग्नादयो न पश्येयुः श्राद्धकर्म - व्यवस्थितम् ||३४|| "
अर्थात- "जब श्राद्धकर्म में लगे तब नग्नादिकों को न देखे।" और आगे इससे पृष्ठ पर ३९ वें श्लोक में लिखा है कि नग्नादिक कौन हैं?
"वृद्ध श्रावक निर्ग्रथाः इत्यादि" । ३
वृद्ध श्रावक शब्द क्षुल्लक - ऐलक का द्योतक है तथा निर्ग्रथ शब्द दिगम्बर मुनि का द्योतक है अर्थात् जैन धर्म के किसी भी गृहत्यागी साधु को श्राद्धकर्म के समय
लावलद्ध वित्तीओ जात्र पण्णत्ताओ एवामेव महा परमेवि अरहा समणाणं णिग्गंथाणं नागभावे जाव सद्भावल वित्तीओ जाव पत्रदेहित्ति ।" अर्थात् भगवान महावीर कहते हैं कि श्रमण निर्ग्रथ को नग्नभाव, मुण्डभाव, अस्नान, छत्र नहीं करना, पगरखी नहीं पहनना, भूमिशैया, केशलोंच, ब्रह्मचर्य पालन, अन्य के ग्रह में भिक्षार्थ जाना, आहार की वृत्ति जैसे मैने कहीं वैसे महापद्य अरहंत भी कहेंगे। ठाणा, पृ. ८१३ ।
'नगिणापिडोलगाहमा | मुण्डकण्डु विणण ।। ७२ ।।
'अहाइ भगवं एवं से दंते दविए वोसकाएत्रिवच्चे-माहणोति व 'भित्तित्रा, मिरगंथेत्ति वा पडिभार भेते।'
१. LH.O.III, 245.
२. तत्वनिर्णयप्रसाद, प्र. ५२३ त्र दि. जै. १०-१-४८. ३. के जै. दिगम्बात्व और दिगम्बर मुनि
पृ. १४ ।
- सयांग समणेति वा,
- सूयडांग, २५८
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