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________________ "अहो निग्रंथता शून्यं किपिदं नौतनं पतम्। न मेऽत्र युज्यते गन्तु पात्रदण्डादिपण्डितम्।। १४५।।" । अर्थ-"अहो। निग्रंथतारहित यह दण्ड पात्रादि सहित नवीन मत कौन है? इनके पास पेरा जाना योग्य नहीं है।" 'भगवन्मदाग्नहादग्न्या गृहणीतापर-पूजिताम्। निग्रंथपदवी पूतां हित्वा संग मुदाखिलम।।१४९।। अर्थ- भगवन! मेरे आग्रह से आप सब परिग्रह छोड़करपहले ग्रहण की हुई देवताओं से पूजनीय तथा पवित्र निग्रंथ अवस्था ग्रहण कीजिये।" 'संग' शब्द का अर्थ अगले श्लोक में जंगवर मावि म... विमा है। उ मल कपष्ट है कि निग्रंथ अवस्था वस्त्रादिरहित दिगम्बर है। किन्तु दुर्भाग्य से जैन-समाज में कुछ ऐसे लोग हो गए हैं जिन्होंने शिथिलाचार के पोषण के लिए वस्त्रादि परिग्रहयुक्त अवस्था को भी निग्रंथ मार्ग घोषित कर दिया है। आज उनका संप्रदाय 'श्वेताम्बस्जैन नाम से प्रसिद्ध है। यद्यपि उनके परातन ग्रंथ दिगम्बर वेष को प्राचीन और श्रेष्ठ मानते हैं, किन्तु अपने को प्राचीन संप्रदाय प्रकट करने के लिये यह वस्त्रादि युक्त भी निग्रंथ मार्ग प्रतिपादित करते हैं। यह मान्यता पुष्ट नहीं है। इसलिये संक्षेप में इस पर यहाँ विचार कर लेना समुचित है। श्वेताम्बर ग्रंथ इस बात को प्रकट करते हैं कि दिगम्बर (नग्न) धर्म को भगवान ऋषभदेव ने पालन किया था-वह स्वयं दिगम्बर रहे थे और दिगम्वर वेष इतर वेषों से श्रेष्ठ हैं, तथापि भगवान् महावीर ने निथ श्रमण और दिगम्बरत्व का प्रतिपादन किया था और आगमी तीर्थकर भी उसका प्रतिपादन करेंगे, यह भी श्वेताम्बर शास्त्र प्रकट करते है। अतः स्वयं उनके अनुसार भी वस्त्रादियुक्त वेष श्रेष्ठ और मूल निग्रंथ धर्म नहीं हो सकता। ___ "श्वेताम्बराचार्य श्री आत्माराम जी ने भी अपने “तत्वनिर्णयप्रासाद" में निग्रंथ' शब्द की व्याख्या दिगम्बर भावपोषक रूप में दो है, यथा १. कल्पसूत्र-1.S.PL.I.,P.2851 २. आचारांग सूत्र में कहा है Those are called naked, who in this world never returning to a worldy stale), (follow) my rcligion according to the commandment. This highest doctrine has here been declared for mun"-J.S.1,P.56. "आउरण बज्जियाणं विशुद्धजिणकप्पियाणन्तु ।” । अर्थ-"वस्त्रादि आवरणयुक्त साधु से रहित जिनकल्पि साधु विशुद्ध है। संवत् . ५.३४ में मुद्रित प्रवचनसारोद्धार, भाग ३, पृ. १३ ॥ ३. "सजहानामए अजोमए समणाण निग्गंधाणं नागभावे मुण्ड भावे अण्हाणए अदन्तवणे अच्छत्तए अणुवाहणए भूमिसेज्जा फलग-सज्जा कट्ठसेज्जा केसलोए बंधचेरबासे दिगम्बरव और दिगम्मर मुनि
SR No.090155
Book TitleDigambaratva Aur Digambar Muni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Sarvoday Tirth
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size4 MB
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