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उपसंहार
बाह्य ग्रंथो गमक्षाणानांतरी विपयेषिता
निर्मोहस्तत्र निथः पांथः शिवपुरेऽर्थतः । । - कवि आशाधर
"यह शरीर बाह्यपरिग्रह है और स्पर्शनादि इन्द्रियों के विषयों में अभिलाषा रखना अन्तरंग परिग्रह है। जो साधु इन दोनों परिग्रहों में ममत्व परिणाम नहीं रखता है, परमार्थ से यही परिग्रह रहित गिना जाता है तथा वहीं निर्वाण नगर व मोक्ष में पहुंचने के लिये पांथ अर्थात् नित्य गमन करने वाला माना जाता है।” इसका कारण यह है कि मोक्ष मार्ग में निरंतर गमन करने की सामर्थ्य एक मात्र यथाजातरूपधारी निर्बंध हो के हैं। जो मनुष्य शरीर रक्षा और विषय कषायों की चिंताओं में फंसकर पराधीन बना हुआ है, भला वह साधु पद को कैसे धारण कर सकता है ? और दिगम्बर वेष को धारण करके वह साधु नहीं हो सकता तो फिर उसका निरंतर मोक्षामार्ग पर गमन अथवा मोक्ष-पद को पा लेना कैसे संभव है? इसीलिये दिगम्बरत्व को महत्व देकर मुमुक्षु शरीर से नाता थोड़ लेते हैं, और नंगे तन तथा नंगे पन होकर आत्मस्वातंत्र्य को पा लेते हैं। शाश्वत सुख को दिलाने वाला यही एक राजमार्ग है और इसका उपदेश प्रायः संसार के सब ही मुख्य-मुख्य मत प्रर्वतकों ने किया था।
मनोविज्ञान की दृष्टि से जरा इस प्रश्न पर विचार किजिये और फिर देखिये दिगम्बरत्व की महिमा। जिसका मन शरीर में अटका हुआ है, जो लज्जा के बन्धन में पड़ा हुआ है और जो साधु वेष को धारण करके भी साधुता को नहीं पा पाया है, वह दिगम्बरत्व के महत्व को क्या जाने ? मन की शुद्ध भावों की विशुद्धता ही मुमुक्षु के लिये आत्मोन्नति का कारण है और वस्तुतः वही साक्षात् मोक्ष को दिलाने वाली है। किन्तु मन की यह विशुद्धता क्या बनावट और सजावट में नसीब हो सकती है ? नस्त्रादि परिग्रह के मोह में अटका हुआ प्राणी भला कैसे निग्रंथ पद को पा सकता है। इसलिये संसार के तत्त्ववेत्ताओं ने हमेशा दिगम्बरत्व का प्रतिपादन किया है। भगवान ऋषभदेव के निकट से प्रचार में आकर यह महत सिद्धान्त आज तक बराबर मुमुक्षुओं का आत्मकल्याण करता आ रहा है, और जब तक मुमुक्षुओं का अस्तित्व रहेगा बराबर वह कल्यण करता रहेगा।
जाता है।
दिगम्बरत्व मुनष्य को रंक से राव बना देता है। उसको पाकर मनुष्य देवता हो है। लेकिन दिगम्बरत्व खाली नंगा तन नहीं हैं। वह नंगे होने से कुछ अधिक है। नंगे तो पशु भी हैं पर उन्हें कोई नहीं पूजता ? इसका कारण यह है कि मानव जगत
१. सागार, पृ. ५१३ ।
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दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि