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“इदपन्तरं ज्ञात्वा स परमहंस आकाशाम्बरो न नमस्कारो न स्वाहाकारो न निन्दा न स्तुतियादृच्छिको भवेत्स भिक्षुः।'
सचमुच दिगम्बर (परमहंस) भिक्षु को अपनी प्रशंसा-निन्दा अथवा आदर-अनादर से सरोकार हो क्या? आगे “नारदपरिव्राजकोपनियत्” में भी देखिये
यथाविधिश्चेज्जातरूपधरो भूत्वा....जातरूपधरश्चरेदात्मानपन्विच्छेद्यथाजातरूपधरो निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहस्तत्वब्रह्ममार्गे सम्यक सम्पन्नः ८६-तृतीयोपदेशः।
"तुरीयः परमो हंसः साक्षान्नारायणो यतिः। एकरात्रं वसेत् ग्रामे नगरे पञ्चरात्रकम् ।।१४।। वर्माभ्योऽन्यत्र वर्षासु मासांश्च चतुरो वसेत् । ....मुनिः कौपीनवासाः स्यान्नग्नो वा ध्यानतत्परः ।३२। .....जातरूपधरो भूत्वा....दिगम्बरः चतुर्थोपदेशः।"
इन उल्लेखों में भी परिवाजक को नग्न होने का तथा वर्षा ऋतु में एक स्थान में रहने का विधान है। "पनि कोपीनवासा" आदि वाक्य में छहों प्रकार के सारे ही परिव्राजकों का पुनि 'शब्द' से ग्रहण कर लिया गया है इसलिये उनके सम्बन्ध में वर्णन कर दिया कि चाहे जिस प्रकार का मुनि अर्थात् प्रथम अवस्था का अथवा आगे की अवस्थाओं का। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि पुनि वस्त्र भी पहिन सकता है और नग्न भी रह सकता है, जिससे कि नग्नता पर आपत्ति की जा सके। यह पहले ही परिव्राजकों के षड्भेदों में दिखाया जा चुका है कि उत्कृष्ट प्रकार के परिव्राजक नग्न ही रहते हैं और वह श्रेष्ठत्तम फल को भी पाते हैं, जैसे कि कहा है
आतो जीवतिचेत्क्रपसंन्यासः कर्त्तव्यः।......आतुरकुटीचकयो लोकभुवोको। बहूदकस्य स्वर्गलोकः। ___ हंसस्य तपोलोकः। परमहंसस्य सत्यलोकः। तुरीयातीतावधूतयोः स्वस्मन्येव कैवल्यं स्वरूपानुसंधानेन भ्रपर-कीटन्यायवत् ।'
अर्थात- आतुर यानि संसारी मनुष्य का अन्तिम परिणाम (निष्ठा) भूलोक है, कुटीचक संन्यासी का भुवलोक, स्वर्गलोक हंस संन्यासी का अन्तिम परिणाम है. परमहंस के लिये वहीं सत्यलोक है और कैवल्य तूरीयातीत और अवधूत का परिणाम
अब यदि इन संन्यासियों में वस्त्र-परिधान और दिगम्बरत्व का तात्विक भेद न होता तो उनके परिणाम में इतना गहरा अन्तर नहीं हो सकता। दिगम्बर मुनि ही वास्तविक योगी है और वही कैवल्य-पद का अधिकारी है। इसीलिये उसे 'साक्षात्
१. ईशाध.,पू. १५० २. ईशाद्य., पृ. २६७-२६८ ३. ईशाद्य., पृ. २६८-२६९ ४. ईशाध., पृ. ४१५ । संन्यासोपनिषत् ५९ ।
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दिगम्वरत्व और दिगम्बर मुनि