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________________ श्री नेपियन्द्राचार्य- श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती नन्दिसंघ के स्वामी अभयनन्दि के शिष्य थे। वि.सं.७३५ पंपिंड दा के दुसनार में वह रहते थे। उन्होंने जैन धर्म का विशेष प्रचार किया था और उनके शिष्य गंगवंश के राजा श्री रायपल्ल और सेनापति चामुण्डराय आदि थे। उनकी रचनाओं में “गोपट्टसार" ग्रन्थ प्रधान है। श्री अकलंकाचार्य- श्री अकलंकाचार्य देव संघ के साधु थे। बौद्ध मठ में रहकर उन्होंने विद्याध्ययन किया था। तदोपरान्त बौद्धों से वाद करके उनका पराभव और जैन धर्म का उत्कर्ष प्रकट किया था। कांची का हिपशीतल राजा उनका मुख्य शिष्य था। उनके रचे हुये ग्रंथ में राजवार्तिक, अष्टशती, न्यायविनिश्चयालंकार आदि मुख्य हैं। श्री जिनसेनाचार्य- राजाओं से पूजित श्री वीरसेन स्वामी के शिष्य श्री जिनसेनाचार्य सम्राट् अमोघवर्ष के गुरु थे। उस समय उनके द्वारा जैन धर्म का उत्कर्ष विशेष हुआ था। वह अद्वितीय कवि थे। उनका "पाश्र्वाभ्युदयकाव्य" कालिदास के पेघदूत काव्य की समस्यापूर्ति रूप में रचा गया था। उनकी दूसरी रचना 'महापुराण' भी काव्य दृष्टि से एक श्रेष्ठ ग्रंथ है। उनके शिष्य गुणभद्राचार्य ने इस पुराण के शेषांश की पूर्ति की थी। श्री विद्यानन्दि आचार्य- 'श्री विद्यानन्दि आचार्य कर्णाटक देशवासी और गृहस्थ दशा में एक वेदानुयायो ब्राह्मण थे। 'देवागप' स्त्रोत को सुनकर वह जैन धर्म में दीक्षित हो गये थे। दिगम्बर मुनि होकर उन्होंने राज दरबारों में पहुंचकर ब्राह्मणों और बौद्धों से वाद किये थे जिनमें उन्हें विजयश्री प्राप्त हुई थी। अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षा आदि ग्रंथ उनको दिव्य रचनायें है। श्री वादिराज- श्रीवादिराजसूरि नन्दिसंघ के आचार्य थे। उनको 'षटतर्कषण्मुख', 'स्याद्वादविद्यापति' और 'जगदेकमल्लवादी उपाधियाँ उनके गौरव और प्रतिभा की सूचक हैं। उनको एक बार कुष्ट रोग हो गया था। किन्तु अपने योग बल से "एकीभाव स्तोत्र" रचते हुए उस रोग से वह मुक्त हुए थे। यशोधर चरित्र, पाश्र्वनाथ चरित्र आदि ग्रंथ भी उन्होंने रचे थे।" " आप चालक्यवंशीय नरेश जयसिंह की सभा के प्रख्यात वादी थे। वे स्वयं सिंहपुर के राजा थे। राज्य त्यागकर दिगम्बर मुनि हुए थे। उनके दादा गुरु श्रीपाल भी सिंहपराधीश थे। (जैमि.,वर्ष ३३, अंक ५.,पृ. ७२) । १. bid. p.47-48 २. Ibid. p.49 ३. [bid. p. 50-51 ४. Ibid.p.51-52 ५. lbid. p. 53, दिगम्वरत्व और दिगम्बर मुनि (117)
SR No.090155
Book TitleDigambaratva Aur Digambar Muni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Sarvoday Tirth
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size4 MB
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