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इसी प्रकार श्री पल्लिवेणाचार्य श्री सोमदेवसूरि आदि अनेक लब्धप्रतिष्ठित दिगम्बर जैनाचार्य दक्षिण भारत में हो गुजरे हैं, जिनका वर्णन अन्य ग्रंथों से देखना चाहिए
इन दिगम्बराचायों के विषय में उक्त विद्वान आगे लिखते हैं कि “समग्र दक्षिण भारत विद्वान जैन साधुओं के छोटे-छोटे समूहों में अलंकृत था, जो धीरे-धीरे जैन धर्म का प्रचार जनता की विविध भाषाओं में ग्रंथ रचकर कर रहे थे किन्तु यह समझना गलत है कि यह साधुगण लौकिक कार्यों से विमुख थे।
किसी हद तक यह सच है कि वे जनता से ज्यादा मिलते-जुलते नहीं थे। किन्तु ई. पू. चौथी शताब्दि में मेगस्थनीज के कथन से प्रकट है कि "जैन श्रमण, जो जंगलों में रहते थे, उनके पास अपने राजदूतों को भेजकर राजा लोग वस्तुओं के कारण के विषय में उनका अभिप्राय जानते थे। जैन गुरुओं ने ऐसे कई राज्यों की स्थापना की थी, जिन्होंने कई शताब्दियों से जैन धर्म को आश्रय दिया था। "१
प्रो. डॉ. बी. शेषगिरिशव ने दक्षिण भारत के दिगम्बर मुनियों के सम्बन्ध में लिखा है कि “जैन मुनिगण विद्या और विज्ञान के ज्ञाता थे, आयुर्वेद और मन्त्रशास्त्र के भी वे महान् विद्वान् थे, ज्योतिष ज्ञान उनका अच्छा खासा था, जैन मान्यता में ऐसे सफल एक प्राचीन आचार्य कुन्दकुन्द कहे गए हैं, जिन्होंने बेलारी जिले के कोनकुण्डल प्रदेश में ध्यान और तपस्या की थी"
इस प्रकार दक्षिण भारत में दिगम्बर मुनियों के अस्तित्व का चमत्कारिक वर्णन है और यह इस बात का प्रमाण है कि दक्षिण भारत एक अत्यन्त प्राचीन काल से दिगम्बर मुनियों का आश्रय स्थान रहा है तथा वह आगे भी रहेगा, इसमें संशय नहीं।
R. "The whole of south India strewn with small groups of learned Jain aceties, who were slowly but urely spreaing their morils through the medium of their sacred literature composed in the various vernaculars of the country. But it is a mistake to suppose that these ascetics were in different towards secular affairs in general, To a certain extent it is True that they did not mingle with the world. But we know from the account of Megathenes that, so late a the 4th cetury BC.. "The Sarmanes or the Jain Sarmanes who lived in the woods were frequetly consulte by the kings through their messengers regarding the cause of things Jaina Gurus have been founers of States that for centuries together were tolerant towards the Jain faith
"
२.SSI.Pt.11.pp. 9-10.
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-SSU 1.10
दिगम्बरत्व और दिगम्बर पुनि