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भावार्थ- बौद्ध और जैन शास्त्रों से ज्ञात होता है कि तत्कालीन धर्म गुरु देश में सर्वत्र विचारते थे। और जहाँ वे ठहरते थे वहां धर्म, सिद्धान्त, आचार, नीति और राष्ट्रवार्ता विषयक गम्भीर चर्चा करते थे। सचमुच उनके द्वारा जनता का महान हित हुआ था।
बौद्ध शास्त्रों में भी भगवान महावीर के संघ के किन्हीं दिगम्बर मुनियों का वर्णन मिलता है। यद्यपि जैन शास्त्रों में उनका पता लगा लेना सुगप नहीं है। जो हो, उनसे स्पष्ट है कि भगवान महावीर और उनके दिगम्बर शिष्य देश में निर्बाध विचरते और लोक कल्याण करते थे।
सम्राट श्रेणिक बिम्बसार के पुत्र राजकुमार अभय दिगम्बर मुनि हो गये थे, यह बात बौद्धशास्त्र भी प्रकट करते हैं।' उन राजकुमार ने ईरान देश के वासियों में भी धर्मप्रचार किया था। फलतः उस देश का राजकुमार आईक निग्रंथ साधु हो गया था।
बौद्ध शास्त्र वैशाली के दिगम्बर पनियों में सणखत्त, कलारपत्थुक और पार्टिकपुत्र का नामोल्लेख करते हैं। सुणवत्त एक लिच्छवि राजपुत्र था और वह बौद्ध धर्म को छोड़कर निर्गंध मत का अनुयायी हुआ था।
वैशाली के सान्त्रकट एक कन्डरमसुक नामक दिगम्बर मुनि के आवास का भी उल्लेख बौद्ध शास्त्रों में मिलता हैं। उन्होंने यावत् जीवन नग्न रहने और नियमित परिधि में विहार करने की प्रतिज्ञा ली थी।"
श्रावस्ती के कुल पुत्र (Councillor's son) अर्जुन भी दिगम्बर पुनि होकर सर्वत्र विचरे थे।
यह दिगम्बर मुनि और उनके साथ जैन साध्वियाँ भी सर्वत्र धर्मोपदेशश देकर मुमुक्षुओं को जैन धर्म में दीक्षित करते थे। इस उद्देश्य को लेकर वे नगरों के चौराहों पर जाकर धर्मोपदेश देते और वादभेरी बजाते थे। बौद्ध शास्त्र कहते हैं कि “उस समय तीर्थंक साधु प्रत्येक पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णमासी को एकत्र होते थे और धर्मोपदेश करते थे। लोग उसे सुनकर प्रसत्र होते और उनके अनुयायी बन जाते
१. E.B.,P.30 व भमबु., पृ. २६६ । २. ADIB,I, p.92. ३. धमन्बु., पृ. २५५।
४. "अचेलो कन्डरमसुको वेसालियम् पटिवसति लाभग्ग-प्पतोच एवं पसाग, प्पत्तोच वज्जिगा में। तस्स सत्तवत्त-पदानि समत्तानि समादिन्नानि होन्ति-'याक्जीवम् अचेलको अस्स्म, नटत्थम् परिदहेय्यम यावजीवम् ब्रह्मचारी अस्म न मेथनुम पटिसेवेय्यम्.., इत्यादि।" - दीघनिकाय (PTS.) भा, ३, पृ. ५-१० व भमन्त्रु., पृ. २१३
५. P.B.. P.83 व भमबु., पृ. २६७। ६. बौद्धों के थेर-थेरी गाथाओं से यह प्रकट है। भमवु.,पृ. २५६-२६८ ।
७. महाबग्ग २ । । । १ व भमवु., पृ. २४० । दिगम्बात्व और दिगम्बर मुनि