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________________ नामक ग्राम में हुआ था। शान्तिसागर जी को तब लोग सात गोंड़ा पाटील कहते थे। उनकी नौ वर्ष की आयु में एक पाँच वर्ष को कन्या के साथ उनका ब्याह हुआ था और इस घटना के ७ महीने बाद हो वहबाल पत्नी मरण कर गई थी। तब से वह बरावर ब्रह्मचर्य का अभ्यास करते रहे। उनका मन वैराग्य भाव में मग्न रहने लगा। जब वह अठारह वर्ष के थे, तब एक मुनिराज के निकट से ब्रह्मचारी पद को उन्होंने ग्रहण किया था। सं. १९६९ में उत्तरग्राम में विगजमान दिगम्बर मुनि श्री देवेन्द्रकीर्ति जी के निकट उन्होंने क्षुल्लक का व्रत ग्रहण किया था। इस घटना के चार वर्ष बाद संवत् १९७३ में कुभोज के निकट बाहुबलि नामक पहाड़ी पर स्थित श्री दिगम्दा पनि अकलीक स्वामी के निकट उन्होंने ऐलक पद धारण किया था। सं. १९७६ में येनाल में पंचकल्याणक महोत्सव हुआ था। उसमें वह भी गये थे। जिस समय दीक्षा कल्याणक महोत्सव सम्पन्न हो रहा था, उस मपय उन्होंने भोसगी के निग्रंथ पनि महाराज के निकट मानि दीक्षा ग्रहण की थी। तब से वह बराबर एकान्त में ध्यान और नप का अभ्यास करते रहे थे। उस सपय वह एक खासे तपस्वी थे। उनकी शान्त मीन और योगनिष्ठा ने उत्तर भारत के विद्धानों का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट किया। कई पंडित उनको संगति में रहने लगे। आरिचर उनके शिष्य कई उदासीन श्रावक हो गये जिनमें से कपिय तिर पुन औः तसल्लको का पालन करने लगे। इस प्रकार शिष्य- समूह से वेष्टित होने पर उन्हें "आचार्य" पद से सशोभित किया गया और फिर बम्बई के प्रसिद्ध संठ घासीराम पूर्णचन्द्र जौहरी ने एक यात्रा संघ सारे भारत के तीर्थों की वन्दना के लिये निकालने का विचार किया। तदनुसार आचार्य शान्तिसागर की अध्यक्षता में वह संघ तीर्थयात्रा के लिये निकल पड़ा। पहाराष्ट्र के सांगली - मिरज आदि रियासतों में जब यह संघ पहुंचा था तब वहां के राजाओं ने उसका अच्छा स्वागत किया था। निजाप सरकार ने भी एक खास हुक्म निकालकर इस संघ को अपने राज्य में कुशलपूर्वक विहार कर जाने दिया था। भोपाल राज्य से होकर वह संघ मध्य प्रान्त होता हुआ श्री शिखरजी फरवरी, सन् ११२७ में पहुंचा था। वहाँ पर बड़ा भारी जैन सम्मेलन हुआ था। शिखाजी से वह मंध कटनी, जबलपुर, लखनऊ, कानपुर, झांसी, आगरा, धौलपुर, पथुरा, फिरोजाबाद, एटा, हाथरस, अलीगढ़, हस्तनापुर. पुजफ्फरनगर आदि शहरों से होना हआ दिल्लो पहुँचा था। दिल्ली में ब-योग पुग़ करके अब यह संघ अलवर की और बिहार कर रहा है और उसमें ये साधुगण्य मौजूद हैं - १. दिजै.. वर्ष १६, अंक १-२, पृ. ९। २ हुकुम नं. ९२८ (शीरो इंतज़ामी) १३३७ फसली । [ltulj दिगम्बात्य और दिगम्बर पुति
SR No.090155
Book TitleDigambaratva Aur Digambar Muni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Sarvoday Tirth
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size4 MB
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