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किया था। सन् १५३० के एक शिलालेख से प्रकट है कि श्रीरंग नगर का शासक विधर्मी हो गया था उसे जैन साधु विद्यानन्द ने पुनः जैन धर्म में दीक्षित किया था।' दिगम्बर मुनि श्री विद्यानन्द इसी शिलालेख से यह भी प्रकट है कि "इन मुनिराज ने नारायण पट्टन के राजा नंददेव को सभा में नंदनमल्ल भट्ट को जीता, सातवेन्द्र राज केशरीवर्मा की सभा में बाद में विजय पाकर "वादी” विरुद्ध पाया, सालुवदेव राजा की सभा में महान विजय पाई, ब्रिलिंगे के राजा नरसिंह की सभा में जैन धर्म का महात्म्य प्रकट किया कारकल नगर के शासक भैरव राजा की सभा में जैन धर्म का प्रभाव विस्तारा, राजा कृष्णराय की राजसभा में विजयी हए, कोपन व अन्य तीर्थों पर महान उत्सव कराये, श्रवणबेलगोल के श्री गोम्मटस्वामी के चरणों के निकट आपने अमृत की वर्षा के समान योगाभ्यास का सिद्धान्त मुनियों को प्रकट किया, गिरसप्पा में प्रसिद्ध हुये। उनकी आज्ञानुसार श्रीवरदेव राजा ने कल्याण पूजा कराई और वह संगी राजा और पद्मपुत्र कृष्णदेव सं पूज्न थे। ' वह एक प्रतिभाशाली साधु थे और उनके अनेक शिष्य दिगम्बर मुनिगण थे।
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सारांशतः दक्षिण भारत के पुरातत्व से वहाँ दिगम्बर मुनियों का प्रभावशाली अस्तित्व एक प्राचीन काल से बराबर सिद्ध होता है। इस प्रकार भारत भर का पुरातत्त्व दिगम्बर जैन मुनियों के महान उत्कर्ष का द्योतक हैं।
१. जैध, पृ. ७० व DG २. मजैस्मा, पृ. ३२०-३३१ ॥
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दिगम्बस्व और दिगम्बर मुनि