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यद्यपि गुप्त वंश के राज्यकाल में ब्राह्मण धर्म की उन्नति हुई थी, किन्तु जन-साधारण में अब भी जैन और बौद्ध धर्मों का ही प्रचार था। दिगम्बर जैन मुनिगण ग्राम-ग्राम विचर कर जनता का कल्याण कर रहे थे और दिगम्बर उपाध्याय जैन-विद्यापीठों के द्वारा ज्ञान-दान करते थे। गुप्त काल में मथुरा, उज्जैन, श्रावस्ती राजगृह आदि स्थान जैन धर्म के केन्द्र थे। इन स्थानों पर दिगम्बर जैन साधओं के संघ विद्यमान थे। गुप्त सम्राट अब्राह्मण साधूओं से द्वेष नहीं रखते थे', तथापि उनका वाद ब्राह्मण विद्वानों के साथ कराकर सुनना उन्हें पसंद था।
श्री सिद्धसेनादिवाकर के उद्गारों से पता चलता है कि "उस समय सरलवाद पद्धति और आकर्षक शान्ति वृत्ति का लोगों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता था। निग्रंथ अकेले-दुकेले ही ऐसे स्थलों पर जा पहुँचते थे और ब्रह्मणादि प्रतिवादी विस्तृत शिष्य-समूह और जन-समुदाय सहित राजसी ठाट-बाट के साथ पेश-आते थे, तो भी जो निर्गथो को मिलता था वह उन प्रतिवादियों को अप्राप्य था।
बंगाल में पहाड़पुर नामक स्थान दिगम्बर जैन संघ का केन्द्र था। वहां के दिगम्बर मुनि प्रसिद्ध थे।
गुप्त वंश में चन्द्रगुप्त द्वितीय प्रतापी राजा था। उसने 'विक्रमादित्य' की उपाधि धरण की थी। विद्वानों का कथन है कि उसी की राज-सभा में निम्नलिग्नित विद्वान थे
'धन्वन्तरिः क्षपणको मरसिंहशंकवतालभट्टघट खपरकालिदासाः। ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां।
रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्या।' इन विद्वानों में "क्षपणक' नाम का विद्वान एक दिगम्बर पनि था। आधुनिक विद्वान उन्हें सिद्धसेन नामक दिगम्बर जैनाचार्य प्रकट करते हैं। जैन शास्त्र भी उनका समर्थन करते हैं। उनसे प्रकट है कि श्री सिद्धसेन ने 'महाकाली के मन्दिर में चमत्कार दिखाकर चन्द्रगुप्त को जैन धर्म में दीक्षित कर लिया था।
१. भाइ., पृ.९१। २. जेहि,, भा. १४, पृ. १५६ । ३. IHO, VII.441. ४. रश्रा,,पृ. १३३ ५. रा. चरित्र, पृ. १३३-१४१। ६. वीर, वर्ष १, पृ. ४७१ ।।
दिगम्बात्व और दिगम्बर मुनि