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________________ राट्टराजा आदि के शिलालेखों में दिगम्बर मुनि- सौंदति (बेलगाम) के पुरातत्व में दिगम्बर मुनियों को मतियों और उनका वर्णन मिलता है। वहाँ एक आठवीं शताब्दि का शिलालेख है, जिससे प्रकट है कि “मैलेय तीर्थ की कारेय शाखा में आचार्य श्री मूल भट्टारक थे, जिनके शिष्य विद्वान् गुणकोर्ति थे और उनके शिष्य इच्छा को जीतने वाले श्रीमुनि इन्दी मामी और अगर विरार । का बड़ा पुत्र राजा पृथ्वीवर्मा था, जिसने एक जैन मंदिर बनवाया था और उसके लिये भूमि का दान दिया था।" एक दूसरे सन् १९८१ के लेख से विदित है कि कुन्दुर जैन शाखा के गुरु अति प्रसिद्ध थे, उनको चौथे राट्टराजा शांत ने १५० मत्तर भूमि उस जैन मन्दिर के लिये दी जो उन्होंने सौंदत्ति में बनवाया था और उतनी ही भूमि उस मन्दिर को उनकी स्त्री निजिकव्वे ने दी थी। उन दिगम्बराचार्य का नाम श्री बाहुबलि जी था और वे व्याकरणाचार्य थे। उस समय श्री रविचन्द्र स्वामी, अर्हनन्दि, शुभचन्द्र, भट्टारक देव, मौनीदेव, प्रभाचन्द्रदेव मुनिगण विद्यमान थे। राजा कतम् की स्त्री पद्यलादेवी जैन धर्म के ज्ञान व श्रद्वान में इन्द्राणी के समान थी। यह दिगम्बर मुनियों की भक्ति में दृढ़ थी चालुक्य राजा विक्रम के लेख में दिगम्बर मुनियों का उल्लेखएक अन्य लेख वहीं पर चालुक्य राजा विक्रम के १२ वें राज्य-वर्ष का लिखा हुआ है, जिसमें निम्नलिखित दिगम्बराचार्यों के नाम दिये हुए हैं "बलात्कारगण मुनि गुणचन्द, शिष्य नयनंदि, शिष्य श्रीधराचार्य, शिष्य चन्द्रकीर्ति, शिष्य श्रीधरदेव, शिष्य नैमियन्द्र और वासुपूज्य विधदेव, वासुपूज्य के लघु भ्राता मुनि विद्वान मलपाल थे। वासुपूज्य के शिष्य सर्वोत्तम साधु पद्मप्रभ थे। सेरिंगका वंश का अधिकारी गुरु वासुपूज्य का सेवक था।" इस प्रकार उपर्युक्त लेखों से सौंदत्ति और उसके आस-पास में दिगम्बर मुनियों का बाहुल्य और उनका प्रभावशाली तथा राजमान्य होना प्रकट है। राठौर राजाओं द्वारा मान्य दिगम्बर मनियों के शिलालेखगोविन्दराय तृतीय राठौर मान्यखेट के सन् ८१३ के ताम्रपत्र से प्रकट है कि गंगवंशी चाकिराज की प्रार्थना पर उन्होंने विजयकीर्ति कुलाचार्य के शिष्य मुनि अर्क कीर्ति को दान दिया था। अमोघवर्ष प्रथम ने सन् ८६० में मान्यखेट में देवेन्द्र मुनि को भूमिदान किया था। इनसे दिगम्बर मुनियों का राठौर राजाओं द्वारा मान्य होना प्रमाणित है। मूलगुंड के पुरातत्व में दिगम्बर संघ- मूलगुंड (धारवाड़) को ९ वी १० वीं शताब्दि का परातत्व भी वहां पर दिगम्बर पनियों के प्रभूत्व का घोतक है। वहाँ के एक शिलालेख में वर्णन है कि “चीकारि. जिसने जैन पन्दिर बनवाया था. उसके पुत्र नागार्य के छोटे भ्राता आसार्य ने दान दिया। यह आसार्य नीति और धर्म शास्त्र में -- - -- ---- - - - - - - १. बंप्राजैस्मा., पृ. ८३-८६ । २. भाप्रारा., ३८-४१। (130) दिगम्मरत्व और दिगम्बर मुनि
SR No.090155
Book TitleDigambaratva Aur Digambar Muni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Sarvoday Tirth
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size4 MB
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