________________
शक सं. १०५० के लेख में श्री महावीर स्वामी के बाद दिगम्बर मुनियों का मौर्य का शिष्य परम्परा का बखान है जिसमें श्रुतकेवली भद्रबाहु और सम्राट चन्द्रगुप्त भी उल्लेख है। कुन्दकुन्दाचार्य के चारित्र गुणादि का परिचय भी एक श्लोक द्वारा कराया गया है।
-
श्री कुन्दकुन्द और समन्तभद्र आचार्य इन आचार्यों को एक अन्य शिलालेख में मूलसंघ का अग्रणी लिखा है। उन्होंने चारित्र की श्रेष्ठता से चारणऋद्धि प्राप्त की थी, जिसके बल से वह पृथ्वी से चार अंगुल ऊपर चलते थे। श्री समन्तभद्राचार्य जी के विषय में कहा गया है।
"पूर्व्वं पाटलिपुत्र-मध्य- नगरे भेरी पया ताड़िता पश्चान्मालव- सिन्धु-ठक्क - विषये कांचीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहंकरहाटकं बहु - भटं विद्योत्कटं संकटम् वदार्थी विचराम्यहन्नरपते शार्दूलविक्रीडितम् ॥७॥ अवटु तटमटतिझटिति स्फुट पटु वाचाट धूर्जटेरपि जिह्वा वादिनि समन्तभद्रे स्थितवतितवसदसि भूपकास्थान्येषां || ८ || ”
भाव यही है कि समन्तभद्रस्वामी ने पहले पाटलिपुत्र नगर में वादभेरी बजाई थी । तदोपरान्त वह मालव, सिंधु पंजाब कांचीपुर विदिशा आदि में वाद करते हुये करहाटक नगर (कराड़) पहुंचे थे और वहाँ की राजसभा में वाद गर्जना की थी। कहते है कि वादी समन्तभद्र की उपस्थिति में चतुराई के साथ स्पष्ट शीघ्र और बहुत बोलने वाले धूर्जटि को जिल्ला ही जब शीघ्र अपने बिल में घुस जाती है, उसे कुछ बोल नहीं आता तो फिर दूसरे विद्वानों की कथा ही क्या है? उनका अस्तित्व तो समन्तभद्र के सामने कुछ भी महत्व नहीं रखता। सचमुच समन्तभद्राचार्य जैन धर्म के अनुपम रत्न थे। उनका वर्णन अनेक शिलालेखों में गौरवरूप से किया गया है। तिरुमकूडलु नरसीपुर ताल्लुके के शिलालेख नं. १०५ के निम्न पद्म में उनके विषय में ठीक ही कहा गया है कि
समन्तभद्रस्संस्तुत्यः कस्य न स्यान्मुतिश्वरः । वाराणसीश्वरस्याग्रे निर्जिता येन विद्विषः । ।
अर्थात् वे समन्तभद्र मुनीश्वर जिन्होंने वाराणसी (बनारस) के राजा के सामने शत्रुओं को, मिथ्यैकान्तवादियों को परास्त किया है, किसके स्तुतिपात्र नहीं है? वे सभी के द्वारा स्तुति किये जाने के योग्य हैं। "
.
शिवकोटि नामक राजा ने श्री समन्तभद्र जी के उपदेश से ही जैनेन्द्रिय दीक्षा ग्रहण की थी।
. Ibid. Intro. p. 140.
दिगम्बराय और दिगम्बर मुनि
(139)