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भारतीय संस्कृत साहित्य में ।
दिगम्बर मुनि
"पाणिः पात्रं पवित्रं भ्रमणपरिगतं भैक्षमक्षय्यपत्र। विस्तीर्ण वस्त्रमाशा सुदशकपपलं तल्पयस्वल्पमु:।। येषां निःसङ्गताकी करणपरिणतिः स्वात्मसन्तोषितास्ते। धन्याः सन्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकराः कर्मनि लयन्ति।।"
वैराग्यशतक' भारतीय संस्कृत साहित्य में दिगम्बर मुनियों के उल्लेख मिलते हैं। इस साहित्य से हमारा मतलब उस सर्वसाधारणोपयोगी संस्कृत साहित्य से है जो किसी खास सम्प्रदाय का नहीं कहा जा सकता। उदाहरणतःकविवर भर्तृहरि के शतकत्रय को लीजिये। उनके 'वैराग्यशतक' में उपर्युक्त श्लोक द्वारा दिगम्बर मुनि की प्रशंसा इन शब्दों में की गई है कि "जिनका हाथ ही पवित्र बर्तन है, मांग कर लाई हई भीख ही जिनका भोजन है, दशों दिशायें ही जिनके वस्त्र है, सम्पूर्ण पृथ्वी हो जिनकी शय्या है, एकान्त में निःसंग रहना ही जो पसन्द करते हैं, दीनता को जिन्होंने छेड़ दिया है तथा कों को जिन्होंने निमूल कर दिया है और जो अपने में हो संतुष्ट रहते हैं, उन पुरुषों को धन्य है। आगे इसी शतक में कविवर दिगम्बर मुनिवत् चर्या करने की भावना करते है
अशीमहि वयं शिक्षामाशवासोवसीमहि।
शयोमहि महीपृष्ठे कुर्वीमहि किमीश्वरैः।।९।। अर्थात् “अब हम शिक्षा ही करके भोजन करेंगे, दिशा हो के वस्त्र धारण करेंगे अर्थात् नग्न रहेंगे और भूमि पर ही शयन करेंगे। फिर भला हमें धनवानों से क्या पतलब?"
इस प्रकार के दिगम्बर मुनि को कवि क्षपादि गुणलीन अभय प्रकट करते हैं
१. वेजे., पृ.४६। २. वेजे., पृ. ४७।
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दिगम्वरत्व और दिगाना मुनि