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सम्मिलित हुये थे। इन ऋषि पुंगदो ने मिलकर जिनवाणी का उद्धार किया था तथा सम्राट खारवल के सहयोग से वे जैन धर्म के प्रचार करने में सफल मनोरथ हुये थे। यही कारण है कि उस समय प्रायः सारे भारत में जैन धर्प फैला हुआ था। यहाँ तक कि विदेशियों में भी उसका प्रचार हो गया था, जैसे कि पूर्व परिच्छेद में लिखा जा चुका है। अतएव यह स्पष्ट है कि ऐल. खारवेल के राजकाल में दिगम्बर मुनियों का महान् उत्कर्ष हुआ था।
ऐल. खारवेल के बाद उनके पुत्र कुदेपश्री खर पहामेघवाहन कलिंग के राजा हये थे। का भी जैन धपानुयायी थे। उनके बाद भी एक दीर्ध समय तक कलिंग में जैन धर्म राष्ट्र धर्म रहा था। बौद्धग्रंथ 'दाठवंसो से ज्ञात है कि कलिंग के राजाओं में महात्मा बुद्ध के समय से जैन धर्म का प्रचार था। गौतम बुद्ध के स्वर्गवासी होने के बाद बौद्धभिक्षु खेम ने कलिंग के राजा ब्रह्मदत्त को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया था। ब्रह्मदत्त का पुत्र काशीराज और पौत्र सुनन्द भी बौद्ध रहे थे। किन्तु तदोपरान्त फिर जैन धर्म का प्रचार कलिंग में हो गया। यह समय संभवतः खारवेल आदि का होगा। कालान्तर में कलिंग का गुहशिव नामक प्रतापी राजा निग्रंथ साधुओं का भक्त कहा गया है। उसके बाद बौद्ध मंत्री ने उसे जैन धर्म विमुख बना लिया था। निग्रंथ साधु उसकी राधानी छोड़कर पाटलिपुत्र चले गये थे। सम्राद पाण्ड् वहाँ पर शासनाधिकारी था। निग्रंथ साधुओं ने उससे गुहगिव को धृष्टता की बात कही थी। यह घटना लगभग ईसवी तीसरी या चौथी शताब्दि को कही जा सकती है और इससे प्रकट है कि उस सपय तक दिगम्बर मुनियों की प्रधानता कलिंग अंग-बंग और पगध में विद्यमान थी। दिगम्बर पनियों को राजाश्रय मिला हुआ था।
१. अनेकान्त, वर्ष १, पृ. २२८ । २. JIORS. III.p.505. ३. दन्त धातु ततो खेमो अतना गजितं अदा।
दन्तपूरे कलिंगस्स ब्रह्मदत्तस्स राजिनरे।।५७ ।। २।। देसयित्थान सो धम्म भेत्वा सब्ब कुदिदिटयो।। राजानं तं पसादेसि अगाम्हिरतनतगे।।५८।। अनुजातो ततो तस्स काशिराज रहयो सुतो। रज्ज लद्धा अमच्चाने सोकसल्लमपानुदि।।६६।। सुनन्दी नाम राजिन्दो आनन्दजननो मतं ।
तस्स जो ततो आसि बुद्धसासननामको ।।६९।। -दाठा., पृ. ११-१२ ४. गुहसीत्र व्हेयाराजा दुरतिक्कमसासनो।
तप्ती रज्जसिरि पत्वा अनुगहि महाजन् । ।७२।। २।। सपरस्थानभिज्जेमो लाभासक्करलोलपे।। मायाविनो अविज्जन्ये निगण्थे समुपहि।।७३ ।। तस्सा मच्चला सो राजा सुत्वा धम्मसुभासितं ।
दुल्लद्धिमलमुञ्झित्वा पसोदि रसनत्तये।।८६ ।। दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि