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________________ क . 23:35. | [२५] मुसलमानी बादशाहत में दिगम्बर मुनि ।। "o son, the kingdom of India is full of different religions....It is incumbcot on to the wipe all rcligions prejudices off tbc tablet of the beart; adninister justice according to the ways of cvery religions. -Babar मुसलमान और हिन्दुओं का पारस्परिक सम्बन्ध- ई.८वीं-१०वीं शताब्दि से अरब के मुसलमानों ने भारतवर्ष पर आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया था, किन्तु कई शताब्दियों तक उनके पैर यहाँ पर नहीं जमे थे। वह लूटपार करके जो मिला उसे लेकर अपने देश को लौट जाते थे। इन प्रारंभिक आक्रमणों में भारत के स्त्री-पुरुषों की एक बड़ी संख्या में हत्या हुई थी और उनके धर्म मन्दिर ओर मूर्तियाँ भी खूब तोड़ी गई थीं। तैमूरलंग ने जिस रोज दिल्ली फतह को उस रोज उसने एक लाख भारतीय कैदियों को लोपदम करवा दिया।' सचमुच प्रारम्भ में मुसलमान आक्रमणकारियों ने हिन्दुस्तान को बेतरह तबाह किया, किन्तु जब उनके यहाँ पर पैर जप गये और वे यहाँ रहने लगे तो उन्होंने हिन्दुस्तान का होकर रहना ठीक समझा यहाँ को प्रजा को संतोषित रखना उन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य पाना। बाबर ने अपने पुत्र हमाय को यही शिक्षा दी कि "भारत में अनेक मत-मतान्तर है, इसलिये अपने हृदय को धार्मिक पक्षपात से साफ रख और प्रत्येक धर्म के रिवाजों के मुताबिक इन्साफ कर।" इसका परिणाम यह हुआ कि हिन्दुओं और मुसलमानों में परस्पर विश्वास और प्रेम का बीज पड़ गया। जैनों के विषय में डा.हेल्पुथ वॉन ग्लाजेनाप कहते हैं कि "मुसलमानों और जैनों के मध्य हमेशा र भरा सम्बन्ध नहीं था (बल्कि) पुसलमानों और जैनों के बीच मित्रता का भी सम्बन्ध रहा है। "इसी मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध का ही यह परिणाम था कि दिगम्बर मुनि पुसलपान बादशाहों के राज्य में भी अपने धर्म का पालन कर सके थे। ईसवी दसवीं शताब्दि में जब अरब का सौदागर सुलेमान यहाँ आया तो उसे दिगम्बर साधु बहुत संख्या में मिले थे, यह पहले लिखा जा चुका है। गर्ज यह है कि मुसलमानों ने आते ही यहाँ पर नंगे दरवेर्शो को देखा। महमूद गजनी (१००१) १.OIMS. Vol.xVIIl.p.116 3. Elliot. 111.p 430:"100000 in fidcis, impious idulators were on that day wain." -Mulluzal-i-Timuri ३.DJ.,p.66 & जैध., पृ.६८॥ -दिगम्परत्व और दिगम्मा पनि (148)
SR No.090155
Book TitleDigambaratva Aur Digambar Muni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Sarvoday Tirth
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size4 MB
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