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________________ हो रहे हैं। यदि यह वैज्ञानिक नियम प्रवाह जैन धर्म में न होता तो अन्य मतान्तरों के नग्न साधुओं के सदृश आज दिगम्बर जैन साधुओं के भी दर्शन होना दुर्लभ हो जाते। दिगम्बर साधु- नंगे जैन साधु के लिये 'दिगम्बर साधु' पद का प्रयोग करना ही हम उचित समझते हैं- ये उपयुक्त प्रारम्भिक गुणों को देखते हुये, जिनके बिना वह मुनि ही नहीं हो सकता, दिगम्बर पुनि के जीवन के कठिन श्रम, इन्द्रिय निग्रह, संयम, धर्म भाव, परोपकार वृत्ति, निशंक रूप इत्यादि का सहज ही पता लग जाता है। इस दशा में यदि वे नगदहा हो तो आर्य कन्या ! दिगम्बर मुनियों के सम्बन्ध में यह जान लेना भी जरूरी है कि उनके (१) आचार्य, (२) उपाध्याय और (३) साधु रूप तीन भेदों के अनुसार कर्तव्य में भी भेद है। आचार्य साधु के गुणों के अतिरिक्त सर्वकाल सम्बन्धी आधार को जानकर स्वयं तद्वत् आचरण करे तथा दूसरों से करावे, जैन धर्म का उपदेश देकर मुमुक्षुओं का संग्रह करें और उनको सार-संभार रखे। उपाध्याय का कार्य साधु कर्म के साथ-साथ जैन शास्त्रों का पठन-पाठन करना है। जो मात्र उपर्युक्त गुणों को पालता हुआ ज्ञान-ध्यान में लीन रहता है, वह साधु है। इस प्रकार दिगम्बर मुनियों को अपने कर्त्तव्य के अनुसार जीवनयापन करना पड़ता है। आचार्य महाराज जी का जीवन संघ के उद्योत में ही लगा रहता है, इस कारण कोई-कोई आचार्य विशेष ज्ञान-ध्यान करने की नियत से अपने स्थान पर किसी योग्य शिष्य को नियुक्त करके स्वयं साधु-पद में आ जाते हैं। मुनि-दशा हो साक्षात् मोक्ष का कारण है। दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि
SR No.090155
Book TitleDigambaratva Aur Digambar Muni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Sarvoday Tirth
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size4 MB
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