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| हिन्दू धर्म और दिगम्बरत्व ।
“संयासः घधिो भवति कुटिचक-बहुदक-हस-परमहंस-जूरियातीत अवधूतश्चेति।"
-संन्यासोपनिषद् १३ भगवान ऋषभदेव जब दिगम्बर होकर वन में जा रमे, तो उनकी देखादेखी और भी बहुत से लोग नंगे होकर इधर-उधर घूमने लगे। दिगम्बरत्व के मूल तत्व को वे समझ न सके और अपने मनमाने ढंग से उदरपूर्ति करते हुये व साधु होने का दावा करने लगे। जैन शास्त्र कहते हैं कि इन्हीं संन्यासियों द्वारा सांख्य आदि जेनेतर सम्प्रदायों की सृष्टि हुई थी और तीसरे परिच्छेद में स्वयं हिन्दू शास्त्रों के आधार से यह प्रकट किया जा चुका है कि श्री ऋषभदेव द्वारा ही सर्वप्रथम दिगम्बरत्व रूप धर्म का प्रतिपादन हुआ था। इस अवस्था में हिन्दू ग्रंथों में भी दिगम्बरत्व का सम्माननीय वर्णन मिलना आवश्यक है।
यह बात जरूर है कि हिन्दू धर्म के वेद और प्राचीन तथा वृहत् उपनिषदों में साधु के दिगम्बरत्व का वर्णन प्रायः नहीं मिलता। किन्तु उनके छोटे-मोटे उपनिषदों एवं अन्य ग्रंथों में उसका खास ढंग से प्रतिपादन किया गया मिलता है। भिक्षक उपनिषा र सात्यानीट हपनिद सासारः अनिषद, परमहंस-परित्राजक उपनिषद् आदि में यद्यपि संन्यासियों के चार भेद-(१) कुटिचक, (२) बहुदक, (३) हंस, (४) परमहंस - बताये गये है, परन्तु संन्यासोपनिषद् में उनको छः प्रकार का बताया गया है अर्थात् उपयुक्त चार प्रकार के संन्यासियों के अतिरिक्त (१) तरियातीत और (२) अवधूत प्रकार के संन्यासी और गिनाये हैं। इन छहों में पहले तीन प्रकार के संन्यासी त्रिदण्ड धारण करने के कारण त्रिदण्डी कहलाते हैं और शिखा या जटा तथा वस्त्र कौपीन आदि धारण करते हैं। परमहंस परिव्राजक, शिक्षा और
१, आदिपुराण, पर्व १८, श्लो. ६२ (Rishabh.p.112) २. “अथ भिक्षुणां मोक्षार्थीनां कुटीचक-बहुदक-हंस-परमहंसाश्चेति चत्वारः।" ३. कुटिचको-बहुदकः-हंस-परमहंस-इत्येति परिव्राजकाः चतुर्विधा भवन्ति ।
४. स संन्यासः षड्विधो भवति-कुटीचक-बहुदक-हंस-परमहंस . तुरीयातीतावधूताश्चेति।
५. कुटीचकः शिखायज्ञोपवीती दण्डकमण्डलुधरः कौपीनशाटोकन्थाघरः पितृमात गुर्वाराधनपरः पिठरखनित्रशिक्यादिपात्रसाधनपरः एकनान्नादनपरः श्वेतोर्ध्वपुण्डू धारीत्रिदण्डः। बहूदकः शिखादिकन्याधरस्त्रिपुण्डूधारी कुटीचकवत्सर्वसमो मधुकरवृत्याष्टकवलाशी।हंसो जटाधारी त्रिपुण्ड्रोर्ध्वपुण्डधारी असंक्लुप्तमाधूकरानाशी कौपीनखण्डतुण्डधारी।
दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि
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