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यही है जिंदगी
४. सबके साथ दोस्ती
कितना मार्मिक सूत्र दिया है महर्षि ने - ‘मित्ति मे सव्वभूएसु' | सर्व जीवों के प्रति मेरी मैत्री है। सब जीव मेरे मित्र हैं।
'यदि मैं इस सूत्र का आदर करता हूँ, स्वीकार करता हूँ, तो मुझे सब जीवों के प्रति स्नेह से देखना होगा। सब जीवों के साथ मित्रतापूर्ण व्यवहार करना होगा। सब जीवों के साथ मैत्री का संबंध स्थापित करना होगा।' जब मैं इस विचार की गहराई में गया, बड़ी अजीब सी लगी यह बात! सब जीवों के साथ मैत्री कैसे हो सकती है? अच्छे व्यक्ति के साथ तो मित्रता हो सकती है, बुरे व्यक्ति के साथ कैसे मित्रता हो सकती है? हमारे साथ सद्व्यवहार करने वालों के साथ तो मैत्री संबंध हो सकता है, परंतु दुर्व्यवहार करने वालों के साथ मैत्री कैसे? अच्छे धार्मिक आचारवालों के साथ मित्रता का नाता बाँधे तो उचित कहा जाये, परंतु पापाचारों में प्रवृत्त जीवों के साथ मित्रता का नाता कैसे बाँधा जाये? साधु के साथ मैत्री और डाकू के साथ भी मैत्री? हमें सुख देने वालों के साथ मैत्री और हमें बरबाद करने वालों के साथ भी मैत्री?
तो क्या 'मित्ति मे सव्वभूएसु' का सूत्र देनेवाले महर्षि ने असंभव बात कह दी? अशक्य बात कह दी? अशक्य और असंभव बातें करने का महर्षि को क्या प्रयोजन? लोभ-तृष्णाओं से मुक्त महर्षि अशक्य और असंभव बात क्यों करें?
दुविधा में फँस गया! कहते हैं कि सीताजी के पापोदय से रामचन्द्रजी का उनके प्रति स्नेह नहीं रहा । अंजनासुंदरी के पापोदय से पवनंजय के हृदय में अंजना के प्रति स्नेहभाव नहीं रहा और शत्रुतापूर्ण व्यवहार हुआ। इसका अर्थ क्या? जिस जीव का ऐसा पापोदय होगा उसके साथ हमारी मैत्री नहीं हो सकेगी। तो फिर सर्व जीवों के साथ मैत्री कैसे हो सकती है?
जब दूसरे जीवों के पापकर्म हमें उन जीवों से मैत्री करने से रोक सकते हों तब तो... सर्वजीवमैत्री असंभव ही हो गई। अब बुद्धि आगे नहीं बढ़ सकती। सोचना बंद हो गया... आँखें बंद हो गई, विचारों से मन मुक्त हो गया... भीतर प्रकाश ही प्रकाश दिखने लगा... और एक भव्य देहाकृति प्रकट होने लगी... करुणामयी नेत्र और प्रसन्न मुखाकृति... अद्भुत रूप... अपूर्व सौन्दर्य! कोई परम योगी थे वे। मैं नतमस्तक हो गया। उनके आशीर्वाद मिले... मेरा हृदय दिव्य आनंद से भर गया। उन्होंने कहा :
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