________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
यही है जिंदगी
३. तुम्ही तुम्हारे निर्माता
कोई भी प्रसंग हो, कोई भी घटना हो, हम उस प्रसंग को या घटना को देखकर, सुनकर अथवा पढ़कर क्या सोचते हैं - उत्थान और पतन की... वह विचारधारा, वह चिंतन ही आधारशिला है।
प्रसंग कैसा भी हो - पापमय हो या धर्ममय, घटना कैसी भी हो - पापयुक्त या धर्मयुक्त, कोई महत्त्वपूर्ण बात नहीं है। महत्वपूर्ण है हमारा चिंतन, हमारी विचारधारा! कोई जरूरी नहीं कि प्रसंग हमारे साथ बना हो, घटना हमारे साथ घटी हो। हमने देखा, हमने सुना, हमने पढ़ा - बस, वह प्रसंग हमारा हो गया! क्योंकि हमारा मन तुरंत उस पर विचार करने लगता है। __ श्मशान था, राजर्षि प्रसन्नचंद्र सूर्य की तरफ अनिमेष दृष्टि सँजोए हुए एक पैर पर खड़े थे। चित्त में शुद्ध-बुद्ध-मुक्त आत्मा का ध्यान था... राजर्षि आन्तरबाह्य उग्र धर्मसाधना कर रहे थे। मगधेश्वर श्रेणिक उस रास्ते से गुजर रहे थे, उन्होंने राजर्षि प्रसन्नचंद्र के दर्शन किए, राजर्षि की अति भव्य आराधना देखकर गद्गद हो गए। वे पहुँचे परमात्मा महावीर स्वामी के चरणों में। ___ मगधेश्वर के गुजरने के बाद उसी रास्ते से दो घुड़सवार गुजरे । राजर्षि के दर्शन कर एक घुड़सवार ने खूब प्रशंसा की, दूसरे ने निन्दा की! राजर्षि के कानों ने निन्दा-प्रशंसा दोनों सुनी । आत्मध्यान भग्न हो गया, दूसरी विचारधारा प्रवाहित हुई। हाँ, दृष्टि सूर्य के सामने ही थी और एक पैर पर ही खड़े थे। उसमें कोई परिवर्तन नहीं आया था। बाह्य स्थिति वही थी जो पहले थी। आन्तर स्थिति - विचारधारा बदल गई, ध्यान का विषय - Subject बदल गया। निन्दा करने वाले घुड़सवार की बात सुनकर वे मन से ही युद्धमैदान में पहुँच गए... अपने पुत्र के साथ धोखा करनेवाले अपने भाई के साथ घोर संग्राम खेलने लगे।
उधर समवसरण में भगवान महावीर स्वामी ने, मगधेश्वर के प्रश्न के प्रत्युत्तर में बताया कि अभी यदि राजर्षि की मृत्यु हो जाय तो सातवीं नर्क में जाएँगे!
दूसरी बात इससे बिल्कुल विपरीत बनी थी विनीता नगरी में! आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती, स्नानविधि से निवृत्त होकर, सुंदर वस्त्र और मूल्यवान आभूषण शरीर पर परिधान कर - 'मैं कैसा सुंदर
For Private And Personal Use Only