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यही है जिंदगी हूँ... अचिन्त्य और अकल्पित रत्न यहाँ संग्रहीत हैं। देखकर क्षणभर मुख पर मुस्कान खिल जाती है... आनंद का उन्मुक्त प्रवाह आँखों से बह जाता है। यह ज्ञानागार... यह अक्षय संपत्ति... सबके लिए लभ्य है। मन आह्लादित हो जाता है... परंतु विकल्प उठता है : इस अमूल्य ज्ञानसंपत्ति को पाने में कोई मर्यादा, कोई शर्त, कोई अंतराय, कोई व्यक्तिभेद, कोई विधि-निषेध...? अरे, ऐसे क्षुद्र विकल्पों से मेरा छुटकारा कब होगा? नहीं जानता हूँ।
निर्द्वन्द्व और निरूद्वेग बन जाऊँ... परंतु कैसे? यह प्रश्न बार-बार हृदय को बिंध रहा है... पागल मन का समाधान नहीं हो रहा है... आँखों में से आँसू बहने लगते हैं... साश्रु-नयन मैं परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ :
'हे शरण्य! हे कारुण्य! बोलो, तुम्हीं बताओ, मेरा इस संसार से कब छुटकारा होगा? मुझे कब मुक्ति मिलेगी? मैं नहीं जानता हूँ।'
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