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इस मन्त्रमें धूः शब्द धूधातुसे व्याख्यात है। यह निर्वचन परोक्षवृत्याश्रित है। धूर्वणक्रियाके कारण धूः शब्द बना इस तथ्यका स्पष्टीकरण उव्वट भी करते हैं।" ऋग्वेदमें धू धातु हिंसार्थक है। धूः गाड़ीके धूरेका वाचक है। धूर्व धातुसे इसका निर्वचन मानने पर अर्थ होगा कष्ट देने वाली वाहिका । निरुक्त मे भी इसी प्रकारका निर्वचन प्राप्त होता है। 3. “धान्यमसि धिनुहि देवान्प्राणायत्वोदानाय त्वा व्यानाय त्वा
दीर्घामनुप्रसितिमायुषेधां देवो वः सविता हिरण्यपाणिः प्रतिगृभ्णात्वच्छिद्रेण पाणिना चक्षुसे त्वा महीनां पयोसि ।
इस मंत्रमें धान्य शब्द द्रष्टव्य हैं। धिनुहि क्रिया पदके द्वारा धान्यकी निरुक्तिका संकेत प्राप्त होता है। धिन्व प्रीणने धातुसे धान्यका निर्वचन करना यहां अभीष्ट है । कृष्ण यजुर्वेदमें भी धान्य शब्दका निर्वचन इसी धातु से किया गया है। यद्यपि ऋग्वेदमें धारणार्थक धा धातुसे इसका निर्वचन माना गया है। यह निर्वचन परोक्ष वृत्याश्रित हैं यास्क इसके समानान्तर शब्द धाना को धा धातुसे ही निष्पन्न मानते हैं।" (4) "अदित्यै रास्नासि विष्णोर्वेष्योऽस्यूर्जे त्वाऽदब्धेन
त्वाचक्षुषावपश्यामि।
अग्नेर्जिह्वासि सुहूर्देवेभ्यो धाम्ने धाम्ने मे भव यजुषे यजुषे ।। इस मन्त्रमें विष्णु शब्दकी निरुक्ति प्राप्त होती है। विषलु व्याप्तौ धातुसे विष्णु शब्दकी व्युत्पत्ति यहांकी गयी है । विष्णोः वेष्योऽसि में वेष्यः स्पष्टही विष् धातुसे निष्पन्न है जो विष्णोः शब्दःसे सम्बन्धित है | यहां विष् धातुसे विष्णुः प्रत्यक्षवृत्याश्रित है। यास्कभी विष्णु शब्दको विष्ल व्याप्तौधातुसे निष्पन्न मानते है। यद्यपि यास्कने इसके दो और निर्वचन प्रस्तुत किए हैं जिसमें क्रमशः विश् प्रवेशने तथा वि+अश् व्याप्तौ धातुका योग है। (5) 'गन्धर्वस्त्वा विश्वाबसुः परिदधातु विश्वस्यारिष्टये यजमानस्य
परिधिरस्यग्निरिड ईडितः । इन्द्रस्य वाहुरसि दक्षिणो विश्वस्या रिष्टये यजमानस्य परिधिरस्यग्निरिडेईडितः मित्रावरुणौ त्वोत्तरतः परिधत्तां ध्रुवेणधर्मणा विश्वस्यारिष्टयै यजमानस्य
१७: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क