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धातुका संकेत है। अर्किणः अर्कसे निष्पन्न मत्वर्थीय प्रत्ययसे युक्त है । यहां अर्कमें स्तुत्यर्थक एवं पूजार्थक अर्च् धातुका योग माना जायेगा, जो देवविशेष या मन्त्रका वाचक होगा । यास्कने अन्नके अर्थमें अर्केको जीवनार्थक अच् धातुसे निष्पन्न माना है ।" अर्च् धातुसे अर्कका संकेत ऋग्वेदमें अन्यत्र भी प्राप्त होता है।” अर्क शब्दमें धातुके अनेकार्थक होने की कल्पना परोक्षवृत्ति को संकेत करती है।
2.
"पूर्वीरिन्द्रस्य रातयो न विदस्यन्त्यूतयः यदिवाजस्य गोमतः स्तोतृभ्यो मंहते मघम् । । "20
इस मन्त्रमें मघ शब्दके लिए मंह् धातु संकेतित है। मंहते क्रिया पदके द्वारा मंह् दाने धातुका स्पष्ट प्रत्यक्षीकरण होता है, लेकिन मघ शब्दके लिए मंह् धातु स्वाभाविक रूपमें उपस्थित न होकर परोक्षवृत्याश्रित है । अनुस्वार लोप एवं ह का घ वर्ण परिवर्तन प्रत्यक्षवृत्तिके द्वारा नहीं हो सकता । मघ शब्दके लिए मंह धातुका संकेत ऋग्वेदमें अन्यत्र भी प्राप्त होता है । 21 3. इन्द्रा विष्णू मदपती मदानामा सोमं यातं द्रविणो दधाना । सवामंजन्त्व क्तुभिर्मतीनां स स्तोमासः शस्यमानास उक्थैः । । "22
इस मन्त्रमें अक्तु शब्दकी व्याख्या अंज् धातुसे की जा सकती है। अंजन्तु क्रिया पदका प्रयोग उक्त मन्त्रमें स्पष्ट है। अंज् धातुसे निष्पन्न अक्तु शब्दमें प्रत्यक्ष वृत्तिका दर्शन नहीं होता, क्योंकि क् एवं त वर्ण का परिवर्तन प्रत्यक्ष वृत्तिसे संभव नहीं है।
4. ग्रावाणो न सूरयः सिन्धु मातर आदर्दिरासो अद्रयो न विश्वहा । । *23
इस मन्त्रमें अद्रि शब्दके लिए आदर्दिरासः आख्यातका प्रयोग किया गया है । आ+दृ धातु से अद्रि शब्द निष्पन्न होता है। ऋग्वेदमें अन्यत्र भी अद्रि शब्द दृ धातु से संकेतित है। 24 अतः अद्रि शब्द प्रत्यक्ष वृत्याश्रित न होकर परोक्ष वृत्याश्रित है । यास्क भी अद्रि शब्दको आ+दृ धातु से निष्पन्न मानते हैं। 25 5. एष स्य वां पूर्वगत्वेव सख्ये निधिर्हितो माध्वी रातो अस्मे । "26 यहां निधि शब्दका स्पष्टीकरण हितः शब्दसे हो जाता है। हितः शब्द
१५ व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क