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[४७] गये। किन्तु बादमें विशेष सत्समागमके अभावमें वापस श्वेताम्बरके आग्रही हो गये। जैसे व्यक्ति नींदमें करवट बदलता है पर नींद नहीं छोड़ता, वैसे एक पक्षको छोड़कर दूसरे पक्षमें जानेपर भी आत्मजागृति करनी थी वह नहीं हुई।
श्री धारशीभाई कर्मग्रंथके अभ्यासी थे। वे भी धंधुकामें श्री लल्लजी स्वामीके दर्शन-समागमके लिए आये थे। उन्होंने श्री लल्लजीको एक दिन स्थानकके ऊपरी खण्डमें पधारनेकी विनती की। दोनों ऊपर गये और द्वार बन्द कर श्री धारशीभाईने विनयभक्तिपूर्वक साष्टांग दण्डवत् प्रणाम कर श्री लल्लुजी स्वामीसे विनती की कि, “सं.१९५७में श्रीमद्के देहविलयके पूर्व पाँच-छह दिन पहले मैं राजकोट दर्शन करने गया था। उस समय उन्होंने कहा था कि श्री अंबालाल, श्री सौभाग्यभाई और आपको उनकी विद्यमानतामें अपूर्व स्वरूपज्ञान प्राप्त हुआ है। उस समय मुझे वे शब्द सामान्य समाचार जैसे लगे, पर इन तीन वर्षों के विरहके बाद अब मुझे यह समझमें आया कि वे शब्द मेरे आत्महितके लिए ही थे। उन प्रभुके वियोगके बाद अब आप ही मेरे अवलम्बनरूप हैं। तो उनके द्वारा प्रदत्त आज्ञा आप कृपा कर मुझे दीजिए। अब मेरी अंतिम वय है और मैं खाली हाथ चला जाऊँ उसके जैसा अन्य क्या शोचनीय होगा? आज अवश्य कृपा करें ऐसी मेरी विनती है।" यों कहकर आँखमें आँसूसहित श्री लल्लुजीके चरणोंमें उन्होंने अपना मस्तक टेक दिया। श्री लल्लुजीने उन्हें उठाकर शांतिपूर्वक बताया कि 'पत्रोंमें कृपालुदेवने जो आराधना बतायी है, बोध बताया है, वह आपको ज्ञात ही है।' इसपरसे वे समझ गये कि योग्यता लानेका पुरुषार्थ करना है। परंतु धैर्य न रहनेसे विशेष आग्रहकर कुछ प्रसादी देनेकी बारंबार विनती की। तब श्री लल्लजीने, जो स्मरणमंत्र कृपालुदेवने मुमुक्षुओंको बतानेके लिये आज्ञा दी थी, वह उन्हें बताया। जिससे उनका आभार मानकर स्वयं उसका आराधन करने लगे।
श्री लल्लजी स्वामी चातुर्मास पूरा करके भावनगरकी ओर विहार कर खंभातकी ओर पधारे। श्री अंबालालभाईका समागम वहाँ हुआ, किन्तु खंभातमें प्लेग चल रहा था अतः दोनोंने विचार किया कि थोड़े दिन वटामणमें जमकर रहना और परमकृपालुदेवके समागममें हुए बोध पर वहाँ विचार करना।
श्री लल्लजी आदि वटामण गये। श्री अंबालालभाईकी ओरसे भी अमुक दिन वहाँ पहुँचनेके समाचार आ गये। परंतु श्री अंबालालको प्लेग हो गया और तीन मुमुक्षुओंका देहावसान हो गया। खंभातको छोड़े मुनियोंको पंद्रह दिन भी नहीं हुए थे कि इतनेमें श्री अंबालालभाईके देहावसानके समाचार मिले।
'श्रीमद् राजचंद्र' ग्रंथ छपकर लगभग तैयार हो गया था, किन्तु अभी तक लोगोंको प्राप्य नहीं हुआ था। थोड़े समय बाद उसी वर्ष सं.१९६१में परमश्रुत प्रभावक-मण्डलकी ओरसे यह ग्रंथ प्रकाशित हुआ तब श्री लल्लजीको भी मिला । फिर तो परमकृपालुके वचनामृतका वह संग्रह वे साथमें ही रखते। पहले श्री अंबालालभाई द्वारा उतारकर दिये गये हस्तलिखित वचनामृतका पठन-मनन करते थे, परंतु अब तो लगभग सभी पत्रोंका संग्रह प्रकाशित हो जानेसे उन्हें बहुत आनंद हुआ था।
ईडरकी ओर विहार करते करते श्री लल्लुजी स्वामीने सं.१९६१में वडालीमें चातुर्मास किया। स्थानकवासीका वेश होनेसे कई श्वेताम्बर श्रावक कटाक्षदृष्टिसे देखते, किन्तु वे प्रतिदिन मंदिरमें
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