________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *42 पदार्थाः प्रत्यक्षास्तस्यासत्यावरणेऽपि प्रत्यक्षा यथा घटसमानजातीयभूतलप्रत्यक्षत्वे घटः। प्रत्यक्षाश्च कस्यचिद्विवादापन्नस्य धर्मसजातीयाः परमाण्वादयो देशकालस्वभावविप्रकृष्टा इति न्यायस्य सुव्यवस्थितत्वात् / ततो नेदं सूक्तं मीमांसकस्य / “धर्मज्ञत्वनिषेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते / सर्वमन्यद्विजानंस्तु पुरुषः केन वार्यते" इति / नत्ववधीरणानादरः। तत्सर्वमन्यद्विजानस्तु पुरुष: केन वार्यत इति / तत्र नो नातितरामादरः। परमार्थतस्तु न कथमपि पुरुषस्यातीन्द्रियार्थदर्शनातिशयः सम्भाव्यते सातिशयानामपि प्रज्ञामेधादिभिः स्तोकस्तोकान्तरत्वेनैव दर्शनात् / तदुक्तं “येऽपि सातिशया दृष्टाः प्रज्ञामेधादिभिर्नराः / स्तोकस्तोकान्तरत्वेनातीन्द्रियज्ञानदर्शनात् // " इति कश्चित्तं प्रति विज्ञानस्य परमप्रकर्षगमनसाधनमाहसिद्ध हो जाता है। बहिरंग इन्द्रियों के विषय नहीं हो सकने की अपेक्षा से धर्म और अन्य अतीन्द्रिय पदार्थों में कोई भिन्न जातीयपना नहीं है। जिस ज्ञानी जीव को जिस जाति वाले पदार्थों का प्रत्यक्ष होता है, उस ज्ञानी को प्रतिबंध आवरणों के दूर हो जाने पर उस जातिवाले अन्य पदार्थ भी प्रत्यक्ष हो जाते हैं जैसे कि पौगलिक घट के समान जातिवाले भूतल के चक्षुइन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष हो जाने पर वहाँ विद्यमान घट भी चक्षुइन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष हो जाता है। इसी प्रकार विवाद में पड़े हुए किसी सर्वज्ञ के ज्ञान द्वारा धर्म के सजातीय परमाणु, सुमेरु, रावण आदि स्वभावविप्रकृष्ट, देशविप्रकृष्ट, कालविप्रकृष्ट पदार्थ प्रत्यक्ष हो जाते हैं। इन्द्रियजन्य ज्ञानग्राह्य अन्य पदार्थों का प्रत्यक्ष तो अभीष्ट ही है। इस प्रकार प्रतिज्ञा, हेतु, आदि पाँच अवयव वाले अनुमान स्वरूप न्याय की भले प्रकार व्यवस्था होती है। अत: मीमांसकों का यह कथन समीचीन नहीं है कि सर्वज्ञ का निषेध करते समय केवल धर्म के ज्ञातापन का निषेध करना ही उपयुक्त है। अन्य सभी पदार्थों को जानने वाले सर्वज्ञ का किस विद्वान् के द्वारा निवारण किया जा सकता है? अर्थात् मीमांसकों का कहना है कि अतीन्द्रिय धर्म का ज्ञान तो वेदवाक्यों द्वारा ही होता है। धर्म से अतिरिक्त अतींद्रिय पदार्थों को ही सर्वज्ञ जान सकता है। इसमें हमारी कोई क्षति नहीं है। इस प्रकार मीमांसकों ने सर्वज्ञ के निषेध के लिए वक्र उक्ति द्वारा निंद्य प्रयत्न किया है। मीमांसकों के उक्त कथन से यह भी प्रतीत होता है कि सर्वज्ञ को न मानने में वे निन्दा या तिरस्कार नहीं समझते हैं और सर्वज्ञ का अनादर भी नहीं करते हैं, क्योंकि वे स्वयं कहते हैं कि अन्य सभी पदार्थों को विशेषरूप से जानने वाले पुरुष विशेष सर्वज्ञ का कोई भी निषेध नहीं कर सकता है अत: जैन सिद्धान्तियों का उन मीमांसकों के प्रति अति-अधिक आदर नहीं है। “परमार्थ से अल्पज्ञ पुरुष के अतीन्द्रिय अर्थों के विशद प्रत्यक्ष कर लेने का अतिशय कैसे भी संभव नहीं है। जो भी पुरुष विचारशालिनी बुद्धि या धारणायुक्त बुद्धि अथवा नवनव उन्मेषशालिनी प्रतिभा बुद्धि के अतिशय सहित हैं, उनके भी छोटे या उससे भी छोटे पदार्थों का ज्ञान कर लेने से ही विशेष चमत्कार दीखता है। परन्तु वे भी इन्द्रियों के अविषय को नहीं जान सकते हैं।” सो ही कहा है - “मीमांसाश्लोकवार्त्तिक" में, जो भी कोई विद्वान् प्रज्ञा, मेधा, प्रेक्षा आदि विशेष ज्ञानों के द्वारा चमत्कार सहित देखे गये छोटे से छोटे आदि इन्द्रियगोचर पदार्थों को जानते हैं, किन्तु अतीन्द्रिय पदार्थों के दर्शन से वे चमत्कारयुक्त नहीं हैं। इसी प्रकार सर्वज्ञ भी इन्द्रियों के अगोचर पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं कर सकता है परन्तु अपौरुषेय आगम से अतीन्द्रिय पदार्थों को जान सकता है। इस प्रकार कोई मीमांसक कहता है। उसके प्रति श्री विद्यानन्द स्वामी विज्ञान के परम प्रकर्षपर्यन्तगमन के साधन को स्पष्ट करते हैं -